कर्तृत्व व धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, सुख-दुःख और प्रकाश-अंधकार से भी परे हमारा वास्तविक अस्तित्व है ---
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एक अवस्था ऐसी भी आती है जब व्यक्ति, भगवान की परम कृपा से कर्तृत्व व धर्म और अधर्म से भी परे चले जाता है| भगवान से उसकी कोई पृथकता नहीं रहती| वह ही सबसे बड़ा और आदर्श ध्येय है|
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सृष्टि में यह माया -- आवरण व विक्षेप के रूप में, सदा से ही अपना काम करती आई है, और सदा करती ही रहेगी| यह बाहरी अंधकार भी बना ही रहेगा, क्योंकि अंधकार के बिना सृष्टि नहीं चल सकती| यह सृष्टि -- अंधकार और प्रकाश का ही मिला-जुला खेल, निर्माण है| बिना अंधकार के प्रकाश नहीं है, और प्रकाश के बिना अंधकार नहीं है| यह खेल ही पाप-पुण्य, अधर्म-धर्म और दुःख-सुख है| भगवान इन सब से परे भी है और इन सब में भी है|
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हमारा लक्ष्य परमात्मा के उस प्रकाश में स्थित होना है जहाँ कोई अंधकार नहीं है| श्रुति भगवती ही प्रमाण है, जो बताती है कि परमात्मा की ज्योति ही सारी सृष्टि को आलोकित कर रही है; परमात्मा को कोई प्रकाशित नहीं कर सकता| वहाँ कोई अंधकार नहीं है| कठ व मुंडक श्रुति कहती हैं --
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥"
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गीता में भगवान कहते हैं ...
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||"
अर्थात् उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि| जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है||
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"यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्| यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्||१५:१२||
अर्थात् जो तेज सूर्य में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और अग्नि में है, उस तेज को तुम मेरा ही जानो||
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"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च|
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्||१५:१५||"
अर्थात् मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ| मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है| समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ||
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उन भगवान में स्थिर होना ही हमारा परम लक्ष्य हो, उससे कम कुछ भी नहीं|
सारा ज्ञान उपनिषदों में है| सारे उपनिषदों का सार श्रीमद्भगवद्गीता में है| हम कूटस्थ में भगवान का ध्यान करते हुए, उनमें स्थित होकर ही अपना जीवन व्यतीत करने में प्रयासरत रहें| वे ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु, वे ही नारायण, वे ही वासुदेव, श्रीकृष्ण, और वे ही श्रीराम हैं| सारे ज्ञान का आदि और अंत वे ही हैं|
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"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२१