Thursday, 29 July 2021

भगवान की भक्ति हमारा धंधा हो ---

 भगवान की भक्ति हमारा धंधा हो ---

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भगवान की भक्ति - कोई नौकरी नहीं, बल्कि सम्पूर्ण समर्पण और पूर्णकालिक प्रतिदिन २४ घंटे का व्यापार/धंधा है, जिसका एकमात्र लक्ष्य भगवान की प्राप्ति है। नौकरी करने वाला कभी खरबपति धनवान नहीं बन सकता। खरबपति धनवान बनने के लिए उसे व्यापार/धंधा ही करना होगा।
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एक नौकरी करने वाला दिन में कम से कम आठ घंटे परिश्रम करता है, और महीने के अंत में छोटा मोटा वेतन पाकर प्रसन्न हो जाता है। कभी कभी वेतन बढ़वाने के लिए हड़ताल पर चला जाता है। पर व्यापारी न तो कभी हड़ताल पर जाने की सोच सकता है, और न सिर्फ कुछ घंटे ही काम करने की। वह तो चौबीस घंटे अपने व्यापार की ही सोचता है, सोते समय भी वह व्यापार के स्वप्न लेता है, जागते समय भी व्यापार का ही चिंतन करता है, और मिलना-जुलना भी उन्हीं से करता है जो उसके व्यापार में सहायक हैं। फालतू लोगों को वह अपने पास भी नहीं फटकने देता। यही स्थिति आध्यात्म में है। भगवान को पाने की नौकरी करने वालों से भगवान को पाने का धंधा यानि व्यापार करने वाले शीघ्र सफल होते हैं। अतः भगवान को पाना अपना धंधा यानि पूर्णकालिक व्यापार बना लेना चाहिए।
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अन्धकार कभी सूर्य तक नहीं पहुँच सकता, वैसे ही जिज्ञासामात्र या सिर्फ पुस्तकें पढने मात्र से कोई भगवान को नहीं पा सकता। उसे तो एक सफल व्यापारी की तरह बनाना होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
१ जुलाई २०२१

कुछ भी हो, भगवान का आश्रय तो लेना ही पड़ेगा ---

 कुछ भी हो, भगवान का आश्रय तो लेना ही पड़ेगा ---

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जहाँ स्वयं का बल नहीं चलता, वहाँ भगवान की शरण लेनी ही पड़ेगी। यह त्रिगुणात्मक प्रकृति बड़ी विकट है, लेकिन इसके नियामक तो भगवान स्वयं हैं, वे ही कृपा कर के हमें प्रकृति के बंधनों से मुक्त कर सकते हैं। भगवान कहते हैं --
(१) "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥१८:६१॥"
अर्थात् - हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी
माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है॥
(२) "उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥"
अर्थात् - (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! स्वामी श्री रामजी सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं।
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मेरे अपने निजी जीवन में भगवान ने मेरी रक्षा मेरे संस्कारों के कारण ही की है। माँ-बाप ने बचपन से ही भक्ति के संस्कार दिये थे, उन्होने ही मुझे सदा बचाया। मेरे सामने पतन के सारे मार्ग खुले हुए थे। कोई ऐसी बुराई नहीं है, जो मेरे समक्ष नहीं थी। मुझे अनेक म्लेच्छ लोगों के मध्य रहना, और अनेक म्लेच्छ देशों में जाना पड़ा है।
जहाँ मेरा जन्म हुआ, वह नगर और समाज भी बहुत अधिक महा तामसी था, और अब भी है। वर्तमान में अपने प्रारब्धानुसार वहीं रहना पड़ रहा है। जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ तमोगुण अधिक है, फिर कुछ-कुछ रजोगुण है; सतोगुण तो बहुत दुर्लभ है। मैं कोई शिकायत नहीं कर रहा, यह मेरा प्रारब्ध, और एक वास्तविकता है।
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मेरी बात कोई सुने या न सुने, लेकिन सत्य तो कहूँगा ही। यदि हम चाहते हैं कि हमारी संस्कृति और धर्म की रक्षा हो तो --
(१) संस्कृत भाषा हमें बचपन से ही अपने बालकों को सिखानी पड़ेगी। भविष्य में यही हमारी सदा रक्षा करेगी।
(२) आध्यात्मिक संस्कार अपने बालकों में देने पड़ेंगे।
(३) समाज में ब्राह्मणों में ब्राह्मणत्व के संस्कारों को पुनर्जागृत करना होगा। ब्राह्मणों को निःशुल्क गुरुकुल शिक्षा, और उनकी आजीविका की व्यवस्था करनी होगी। ब्राह्मण धर्म बचेगा तभी सनातन धर्म बचेगा; अन्यथा समाज और राष्ट्र नष्ट हो जाएँगे।
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आध्यात्म का पश्चिमीकरण हो रहा है, यह बहुत अधिक घातक है। हमें अपनी प्राचीन संस्कृति पर गर्व होना चाहिए। मुझे पता है कि मेरी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज़ है जिसे कोई नहीं सुनेगा। लेकिन फिर भी मुझे जो सत्य लगता वह तो कहूँगा ही।
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मैंने पूरे विश्व का भ्रमण किया है (दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप व पूर्वी अफ्रीका को छोड़कर)। रूस में दो वर्ष रहा हूँ, पूरे यूरोप, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान, चीन, दोनों कोरिया, सिंगापूर, मलयेशिया, इन्डोनेशिया, थाइलेंड, आदि और अनेक मध्यपूर्व व पश्चिमी एशिया के मुस्लिम देशों में भी खूब भ्रमण किया है।
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अतः अपने पूरे अनुभव के साथ कह रहा हूँ कि "सत्य सनातन धर्म", और "संस्कृत भाषा" में ही भारत का भविष्य है। ये ही भारत की अस्मिता हैं, और इन्हीं के कारण भारत, भारत है।
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सांसारिक दृष्टि से असहाय हूँ, लेकिन परमात्मा में मेरी पूर्ण श्रद्धा है। अब उन्हीं का आश्रय ले रहा हूँ। मेरी श्रद्धा, एक सत्यनिष्ठ धर्मसापेक्ष भारत का निर्माण करेगी, जिसकी राजनीति सत्य सनातन धर्म होगी। असत्य का अंधकार स्थायी नहीं हो सकता। आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, और कर्मफलों के सिद्धान्त सत्य हैं। सब कुछ भगवान को समर्पित है। मेरा अपना कुछ भी नहीं है। जो इस जन्म में नहीं कर पाया, वह अगले जन्मों में करूंगा।
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जीवन में सच्चिदानंद भगवान की प्राप्ति सभी को हो। सभी का कल्याण हो।
"तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव।
विद्याबलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेंऽघ्रियुगं स्मरामि॥"
ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
३० जून २०२१

मेरा यह शरीर तो अणु-परमाणुओं से बना एक ऊर्जाखंड है, जिसमें प्राण फूँक दिये गए हैं ---

मेरा यह शरीर तो अणु-परमाणुओं से बना एक ऊर्जाखंड है, जिसमें प्राण फूँक दिये गए हैं। संसार मुझे इस शरीर के रूप में ही जानता है। जब तक प्राण इसमें हैं, यह परमात्मा की चेतना में ही रहे।

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जिनका कभी जन्म ही नहीं हुआ, जो जीवन और मृत्यु से परे हैं, वे सच्चिदानंद भगवान परमशिव ही मेरे सर्वस्व हैं। सारे रूप उन्हीं के हैं। वे ही गुरु-रूप ब्रह्म हैं। वे ही सभी संबंधियों व मित्रों के रूप में आये और मेरा बहुत अधिक उपकार किया। हर कदम पर मेरी रक्षा की। शत्रुओं के रूप में भी आकर उन्होंने मेरे कर्म काटे। जीवन में अब और भटकाव न हो। सत्यनिष्ठा, अभीप्सा, परमप्रेम, और लगन बनी रहे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ जून २०२१

ध्यान :---

 ध्यान :--- कूटस्थ में परमात्मा की अनंतता का ध्यान करते हुए, अपनी चेतना का जितना अधिक विस्तार कर सकते हो, उतना अधिक विस्तार करो। पूरी सृष्टि तुम्हारी चेतना में है, और तुम समस्त सृष्टि में हो। सारे आकाशों की सीमाओं को तोड़ दो। कुछ भी तुम्हारे से परे नहीं है। लाखों किलोमीटर ऊपर उठ जाओ, और भी ऊपर उठ जाओ, ऊपर उठते रहो, जितना ऊपर उठ सकते हो, उतना ऊपर उठ जाओ। चेतना की जो उच्चतम सीमा है, वह परमशिव है, और वह परमशिव तुम स्वयं हो।

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सच्चिदानंद परमशिव परमात्मा के साथ एकत्व का भाव चेतना की उच्चतम अवस्था है। उसी चेतना में स्थिर रहने का अभ्यास करते रहो। यही उपासना और साधना है, यही कर्मयोग है, यही भक्ति है। अपने नित्य अभ्यास के अन्त में कुछ समय तक शान्त बैठे रहिये, आनंद से भर जाओगे। प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्त में इस तरह उठो जैसे जगन्माता की गोद से उठ रहे हो। प्रातःकालीन दिनचर्या से निवृत होकर परमात्मा में स्वयं को विलीन कर दो। पूरे दिन यही भाव रखो कि आपको निमित्त-मात्र बनाकर परमशिव स्वयं आपके माध्यम से सारे काम कर रहे हैं।
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उस चेतना में मैं स्वयं को गुरु-चरणों में अर्पित कर रहा हूँ, जो मुझ अकिंचन से ये शब्द लिखवा रहे हैं। सब कुछ उन्हीं का है और सब कुछ वे ही हैं। मैं और मेरा कुछ भी नहीं है। मुझ अकिंचन को आता-जाता कुछ भी नहीं है, कोई गुण मुझ में नहीं है। सब ओर से निराश होकर जब से भगवान के श्रीचरणों में नतमस्तक हुआ, तभी से उन्होनें मुझे अपना लिया। सारी महिमा उन्हीं की है।
ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जून २०२१

हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) परमेश्वरार्पित हो ---

 हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) परमेश्वरार्पित हो ---

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हमारी बुद्धि कहीं कुबुद्धि तो नहीं बन गई है, हमारा मन कहीं विकृत तो नहीं हो गया है, हमारा चित्त कहीं वासनाओं में तो नहीं डूब गया है, हमारा अहंकार कहीं राक्षसी तो नहीं हो गया है, इसका पता कैसे चले? पता नहीं कितनी बार इस अन्तःकरण ने हमें खड्डों में डाला है, अब किसी अंधे कुएँ में न डाल दे, इसका डर लगता है। इसे वश में करना अपने सामर्थ्य में नहीं है। जो चीज स्वयं के वश में नहीं है उसे भगवान को सौंप देना ही एकमात्र विकल्प है।
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हमारा सारा जीवन ही परमात्मा को समर्पित हो कर एक उपासना व अर्चना बन जाये। न तो कर्ताभाव हो, न कभी किसी कर्मफल की इच्छा हो, और न ही किसी कर्म में आसक्ति रहे। तभी हमारा अंतःकरण शुद्ध हो सकता है, और तभी हम पर परमात्मा की प्रसन्नता और कृपा हो सकती है। इनके अतिरिक्त और चाहिए भी क्या?
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अतःकरण का शुद्ध हो जाना -- परमेश्वर की प्रसन्नता है, अन्तःकरण की शुद्धता ही सबसे बड़ी सिद्धि है। गुरु महाराज और परमात्मा, हमारे माध्यम से, हमें निमित्तमात्र बनाकर, स्वयं अपनी साधना कर रहे हैं। सारा श्रेय और सारा फल उन्हीं को अर्पित हो। कूटस्थ में परमात्मा का निरंतर बोध रहे। सारी कठिनाइयाँ उन्ही को सौंप दो। कोई कामना न रहे। यदि साधना नहीं होती है तो अपने परिवेश को -- यानि परिस्थितियों और वातावरण को बदलो। कुसंग का त्याग करो और सत्संग करो। सबसे बड़ा सत्संग है -- चित्त में निरंतर परमात्मा का स्मरण।
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हे परमशिव, हमारे चैतन्य में सिर्फ आप का ही अस्तित्व रहे, आप से विमुखता और पृथकता कभी भी न हो। आप ही सर्वस्व हैं। "मैं" नहीं, आप ही आप रहें, यह "मैं" और "मेरापन" सदा के लिए नष्ट हो जाएँ। भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। यह अभीप्सा की अग्नि सदा प्रज्ज्वलित रहे।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ जून २०२१

इब्राहिमी मज़हबों (Abrahamic Religions) में जिसे शैतान कहा गया है, वह शैतान कौन है? ---

 (प्रश्न) इब्राहिमी मज़हबों (Abrahamic Religions) में जिसे शैतान कहा गया है, वह शैतान कौन है?

(उत्तर) वह शैतान हमारी काम-वासना और लोभ है। शैतान शब्द का अर्थ लोग लगाते हैं कि वह कोई राक्षस या बाहरी शक्ति है, पर यह सत्य नहीं है। शैतान कोई बाहरी शक्ति नहीं, अपितु मनुष्य के भीतर की कामवासना और लोभ हैं, जो कभी तृप्त नहीं होते। अतृप्त रहने पर वे क्रोध को जन्म देते हैं। क्रोध बुद्धि का विनाश कर देता है, और मनुष्य का पतन हो जाता है। ये ही मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं, जिन्हें Devil या Satan कहा गया है।
कहते हैं कि इंसान को God सही रास्ते पर ले जाता है पर Satan गलत रास्ते पर भटका देता है। वास्तव में यह काम वासना और लोभ ही हैं, जो शैतान है।
जिन लोगों का उद्देश्य ही अपनी कामवासना और लोभ को तृप्त करना है, वे शैतान के अनुयायी हैं। आज का अधिकांश विश्व इन्हीं से भरा हुआ है।
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इससे बचने का एक ही मार्ग है और वह है साधना द्वारा स्वयं को देह की चेतना से पृथक करना| यह अति गंभीर विषय है जिसे प्रभुकृपा से ही समझा जा सकता है| स्वयं के सही स्वरुप का अनुसंधान और दैवीय शक्तियों का विकास हमें करना ही पड़ेगा जिसमें कोई प्रमाद ना हो| यह प्रमाद ही मृत्यु है जो हमें इस शैतान के शिकंजे में फँसा देता है|
ॐ तत्सत् !
२६ जून २०२१

हम जन्मजात ऋणों से उऋण हों? ---

 हम जन्मजात ऋणों से उऋण हों? ---

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जब हम जन्म लेते हैं, उसी समय से हम पर पितृऋण, ऋषिऋण एवं देवऋण होता है, जिन से हमें उऋण होना ही पड़ता है। माता-पिता की सेवा कर के पितृऋण, ऋषियों द्वारा बताई गई साधना कर के ऋषिऋण, और देवताओं का तर्पण या साधना कर के देवऋण चुकाया जाता है।
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उपरोक्त के अतिरिक्त एक ऋण और भी हम पर है, वह है राष्ट्रऋण। जिस समाज व राष्ट्र में हमने जन्म लिया है, उस समाज व राष्ट्र के उत्थान का सेवाकार्य कर के ही हम इस ऋण से मुक्त हो सकते हैं। वर्तमान समय में भारत की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सब से बड़ी समाज व राष्ट्र की सेवा, जो मेरी दृष्टि में हो सकती है, वह है -- सामूहिक साधना द्वारा हम एक क्षात्रतेज और ब्रह्मतेज को प्रकट करें।
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क्षात्रतेज तो तब प्रकट होगा जब हम समाज को हीनभाव से मुक्त कर, निज-गौरव व स्वाभिमान को जागृत कर आत्म रक्षार्थ संगठित करें। ब्रह्मतेज तब जागृत होगा जब हम निज जीवन और समष्टि में आध्यात्मिक साधना द्वारा परमात्मा को व्यक्त करें।
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किसी भी बात को पूर्णता तक पहुंचाने हेतु ईश्वर के साथ में होने की आवश्यकता होती है। अतः साधना द्वारा ईश्वरप्राप्ति तो हमें करनी ही होगी। आत्मविश्वास, सब प्रकार का बल, सामर्थ्य, व वाणी में चैतन्य -- ईश्वर की कृपा से ही आता है।
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कोई मेरा साथ दे या न दे, यह शरीर रहे या न रहे, लेकिन मेरा ही नहीं, लाखों लोगों का पूर्णतः विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है कि हमारे राष्ट्र भारत की अस्मिता -- "सत्य-सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा व वैश्वीकरण हो", और "भारत -- अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ एक अखंड सत्यनिष्ठ/धर्मनिष्ठ हिन्दू राष्ट्र बने"।
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वर्तमान भारत की स्थिति बहुत खराब है। ऐसी स्थिति अनेक बार हुई है, लेकिन ईश्वर ने सदा भारत की रक्षा की है। हम एक ध्येय से संगठित हों, और सब तरह के जन्मजात ऋणों से मुक्त हों। यह करने से हमें कोई भी नहीं रोक सकता, यदि मन में दृढ़ संकल्प हो। यही सबसे बड़ी सेवा होगी जो हम कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२५ जून २०२१

हरेक पुरोहित सनातन धर्म का अभिभावक है ---

 हरेक पुरोहित सनातन धर्म का अभिभावक है ---

हरेक कर्मकांडी पुरोहित सनातन धर्म का अभिभावक है। पुरोहित शंकराचार्यों का प्रतिनिधि है। पुरोहित अपनी नहीं देवी देवताओं की पूजा करता और करवाता है। पुरोहित की आस्था सनातन धर्म ग्रन्थ प्रतिपादित देवी देवता हैं। पुरोहित नामाकरण से लेकर मृत्यु संस्कार पर्यंत आपके साथ जूडा है। आपके हर त्यौहार, खुसी और गम पर जो आपके साथ है,वह आपका पुरोहित है। आपके पास बड़े बड़े मठाधीश , पीठाधीश नहीं पहुँच सकते परंतु दिनरात आपके अभ्युदय के लिए आपके दीर्घायुष्य के लिए,आपकी उन्नति के लिए जो पूजा-पाठ करता है, वह आपका उपेक्षित पुरोहित है। पुरोहित पर दबाव है, पुरोहित समाज सुधार के लिए कृतसंकल्पित है लेकिन धनाढ्यों व तथाकथित उच्च जाति के दवाब के कारण परिवर्तन की आवाज बुलंद नहीं कर सकता, पुरोहित विवश है।
सनातन धर्म की शाश्वत धारा को प्रवाहित कर पूर्वीय दर्शन की सजीवता को हर मानव तक पहुंचाने के लिए पुरोहितों को संगठित होना होगा, प्रशिक्षित भी होना होगा। सनातन धर्म के वैज्ञानिक पक्षों का उजागर करने की क्षमता का विकास करना होगा । पुरोहित निरीह,दरिद्र, भिखारी नहीं, वह सनातन धर्म का उत्तराधिकारी है, वह सनातन धर्म का अभिभावक है। पुरोहितों को शंकराचार्यों व वैदिक सम्प्रदायों के गुरुओं को छोड किसी भी अवैदिक पंथो से गुरु दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं क्योंकि पुरोहित अवैदिक पाखण्डी गुरुओं से स्वतः पूज्य और आदरणीय है।
पुरोहित ऋषि मुनियों की संतान हैं, पुरोहित ऋषि, गोत्र, कुल ,प्रवर का परिचायक होता है । पुरोहित देवी देवताओं का पक्षधर होने से देवद्रोही तमाम ऐरे गैरे नत्थुखैरे गुरुओं से हजारों गुणा श्रेष्ठ है । समस्त तीर्थ यात्राओं का कारक पुरोहित है। बद्री, केदार,अयोध्या, काशी, मथुरा, वृन्दावन, हरिद्वार, रामेश्वरम् सहित समस्त देवी देवताओं की नगरी जाने के लिए पुरोहित ही समाज को प्रेरित करता है।
पुरोहित कौवा से लेकर कुत्ते तक को भोजन करवाने व जीवन देने के लिए समाज को अभिप्रेरित करता है । पुरोहितों के अनगिनत योगदान हैं समाज के लिए परंतु हमारा समाज पुरोहितों का तिरस्कार करता है, अपमानित करता है। तरह तरह के पाखंडी गुरु कम्पनी के दलालों को मंच में रखकर उनकी निंदा करवाता है । अधिकांश गुरुओं के कोपभाजन का प्रथम शिकार पुरोहित ही होता है क्यों ? क्या आप तरह तरह के गुरुओं को अपने पुरोहितों के विरुद्ध बोलने के लिए बुलवाते हैं? वह दुष्ट गुरु कर्मकाण्ड और ब्राह्मणों का क्यों खंडन करता है? वह अपराधी गुरु यह जानता है कि ब्राह्मणों की निन्दा किए विना, ब्राह्मणों को कमजोर किये विना देवद्रोही कृत्य को अंजाम दे नहीं सकता।
पुरोहितों को चाहिए कि वह स्वयं अपने सामाजिक उत्तरदायित्व और अभिभावकत्व को स्वीकार कर गाँव व सहर पर होने वाले सनातन विरोधी कृत्यों पर कार्यवाही करे, सनातन विरोधियों को दंडित करे तथा पथभ्रष्ट लोगों का प्रायश्चित कर पुनः मूलधारा में लाने के लिए प्रयत्न करे। शास्त्रों को प्रमाण मानकर सनातन धर्म की आस्था पर समाज को जोडे। सर्व प्रथम पुरोहित संस्कृत निष्ठ और देव निष्ठ हो। देवी देवता की भक्ति और शाकाहार भोजन ही पुरोहितों की शक्ति है । शक्ति का विस्तार करे। सनातन धर्म राक्षसों का इतिहास तो बताता है लेकिन उनका महिमा मंडन नहीं करता । राक्षसों से भी दुष्ट और क्रूर आतंकियों के आका की पुरोहित अपने मुखारविंद से कभी भी गुणगान न करे,। ऐसा करने पर ब्राह्मणत्व का पतन होगा। पुरोहित समाज का गुरु है, अग्रज है, अभिभावक है। समाज पुरोहितों का आदर करे। पुरोहित निरीह होकर नहीं अभिभावकत्व का अधिकार पूर्ण निर्वहन करे तो विश्व मेऺ सनातनी बिगुल फूंकने के लिए काफ़ी है ।
-विनीत कनकधारा स्वामी स्वदेशानन्द
साभार : माता कनकधारा, कामाख्या पीठ.
२४ जून २०२१

परमशिव ही मेरे जीवन है, एक क्षण के लिए भी उनसे वियोग मेरी मृत्यु है ---

 परमशिव ही मेरे जीवन है, एक क्षण के लिए भी उनसे वियोग मेरी मृत्यु है ---

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मैं, मेरे गुरु, व परमशिव -- तीनों एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है। अज्ञान से मुझे लगता था कि मैं उन से दूर हूँ। पर गुरु महाराज ने कृपा कर के बता दिया है कि मैं उनके साथ एक हूँ। गुरु वचनों में मुझे कोई शंका नहीं है। अज्ञान से मुझे लगता था कि मैं ब्रह्म नहीं हूँ, वैसे ही जैसे कर्ण को लगता था कि मैं क्षत्रिय नहीं हूँ। जब सूर्यदेव ने उसे उपदेश दिया कि "तूँ कुन्ती जी का पुत्र क्षत्रिय है", यह ज्ञान होते ही वह क्षत्रिय हो गया। इसी प्रकार जब शिष्य गुरुमुख से सुनता है कि "तू ब्रह्म है" तो उसके सारे संदेह दूर हो जाते हैं। गुरु के आदेश से मनन और निदिध्यासन की आवश्यकता तो फिर भी पड़ती ही है।
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मेरे अस्तित्व का कारण स्वयं परमात्मा हैं। वे ही सब कुछ है। देह में आस्था होने के कारण निराशाजनक रूप से आध्यात्मिक प्रगति रुक गयी थी। आस्था को प्रेमपात्र से जोड़ते ही आनंद आने लगा है। मैं यह शरीर नहीं हूँ। जिस दिन यह शरीर शांत होगा, मैं भी एक इसका एक साक्षी रहूँगा। उस समय चेतना में सिर्फ परमात्मा ही रहेंगे, अन्य कुछ भी नहीं। मैं नित्य-मुक्त हूँ, परमात्मा तो मिले हुए ही हैं। उनके अतिरिक्त मुझे अन्य किसी की भी आवश्यकता नहीं है। वे ही निरंतर मेरी चेतना में बने रहें, और कुछ भी मुझे नहीं चाहिए। यह शरीर उनका है, जब तक वे मेरी चेतना में हैं, तभी तक यह शरीर रहे, अन्यथा उसी क्षण यह शांत हो जाये, मुझे इस से कोई मतलब नहीं है, बहुत जीर्ण-शीर्ण हो गया है। मैं नित्यमुक्त हूँ, मेरे लिए किसी भी कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस देह से मुक्त होते ही उसी क्षण से मैं एक बार तो वहीं रहूँगा जहाँ परमात्मा स्वयं और मेरे पूर्वजन्मों के गुरु हैं।
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भगवान को पाने का एकमात्र मार्ग "भक्ति" है, अन्य सब भ्रमजाल है। गीता में भगवान कहते हैं --
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः|
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्||१८:५५||"
अर्थात् (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ| (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है||
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हमें जो कुछ भी जीवन में मिलता है, चाहे वह परमात्मा की कृपा ही क्यों न हो, -- स्वयं की "श्रद्धा और विश्वास" से ही मिलता है, न कि किसी अन्य माध्यम से| श्रद्धा और विश्वास हो तो तभी हमारे पर भगवान की कृपा होती है| बाकी अन्य सब बहाने मात्र हैं| उनसे कुछ नहीं मिलता| श्रद्धा, विश्वास और समर्पण ... हमारी पात्रता के मापदंड हैं| रामचरितमानस के मंगलाचरण में ही लिखा है --
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ|
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्||"
जिस श्रद्धा एवं विश्वास के बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर के दर्शन नही कर पाते उन श्रद्धा रूपी पार्वती जी तथा विश्वास रूपी शंकर जी को प्रणाम करता हूँ|
गीता में भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः|
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति||४:३९||"
अर्थात श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष,-- ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है||
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सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ। सभी पर भगवान की कृपा हो। परमात्मा की आरोग्यकारी उपस्थिती सब के शरीर, मन और आत्मा में रहे। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जून २०२१

जो हम दूसरों को देते हैं, वही हमें प्राप्त होता है --

 जो हम दूसरों को देते हैं, वही हमें प्राप्त होता है --

जैसी हमारी भावना दूसरों के प्रति होगी, हमारे प्रति भी दूसरों की वही भावना होगी। हम मन ही मन दूसरों से घृणा करेंगे तो दूसरे भी हमारे से घृणा करेंगे। हम सब के प्रति प्रेम रखेंगे तो हमारे प्रति भी सब प्रेम ही रखेंगे। इसलिए सब के प्रति आरोग्यकारी सद्भावना रखनी चाहिए।
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लेकिन कोई आततायी हमें मारना चाहे तो निश्चित रूप से उसे मृत्यु भी हम ही देंगे। कितना भी बड़ा शत्रु क्यों न हो, उसके प्रति घृणा हमारे मन में नहीं होनी चाहिए। आतताइयों का संहार बिना अहंकार व घृणा से करेंगे तो यह हमारा कर्मयोग होगा। भगवान कहते हैं कि -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है, और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं है, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो किसी को मारता है और न ही (पाप से) बँधता है।
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
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प्रेम मुदित मन से सब को राम राम राम कहो, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि राममय है| सब में राम के दर्शन करो, सब को प्रसन्नता से देखो और सब के सुख की कामना मन ही मन करो| किसी को भी कष्ट में देखो तो करुणावश मन ही मन 'राम' से उसके कल्याण की कामना करो| सब को देखकर प्रसन्न होओ और किसी की निंदा मत करो| हम आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, कोई पृथक नहीं है। हम स्वयं ही हैं जो दूसरों के रूप में व्यक्त हो रहे हैं| सारी सृष्टि हमारा ही प्रतिबिम्ब है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जून २०२१

"अहं ब्रह्मास्मि" यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है, अहंकार है स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना --

 "अहं ब्रह्मास्मि" यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है, अहंकार है स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना ---

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अहंकार व ब्रह्मभाव में बहुत अंतर है। सांसारिक बुद्धि के तमोगुण प्रधान लोग, ब्रह्मभाव को अहंकार मानते हैं। ब्राह्मी चेतना से युक्त जब कोई योग साधक "शिवोSहम् शिवोSहम् अहम् ब्रह्मास्मि" कहता है तब यह उसकी अहंकार की यात्रा यानि कोई ego trip नहीं है| यह उसका वास्तविक अंतर्भाव है| आत्मा का धर्म है -- परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम| यही हमारा सही धर्म है| और भी आगे बढ़ें तो परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक होकर हम कह सकते हैं -- "शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि|"
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शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि को निज स्वरुप समझना ही अहंकार है| वास्तव में 'अहं' केवल सर्वव्यापि आत्म-तत्व का नाम है जिसे हम नहीं समझते इसलिए अपने शरीर, मन और बुद्धि आदि को ही हम स्वयं मान लेते हैं| यही अहंकार है| हम परमात्मा के अंश हैं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, और सच्चिदानंद के साथ एक हैं| यह होते हुए भी स्वयं को शरीर समझते हैं, यह अहंकार है|
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शरीर के धर्म हैं -- भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि| प्राणों का धर्म है बल आदि| मन का धर्म है राग-द्वेष, मद यानि घमंड आदि| चित्त का धर्म है वासनाएँ आदि| इन सब को अपना समझना अहंकार है|
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आत्मा का धर्म है -- परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम| यही हमारा सही धर्म है| और भी आगे बढ़ें तो परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक होकर हम कह सकते हैं -- "शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि|"
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यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं, अतः इस विषय पर और अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है| आप सब निजात्माओं में व्यक्त परमात्मा को मेरा नमन|
गुरु ॐ | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | अयमात्मा ब्रह्म |
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ जून २०२१

हम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं? कमी हमारी समझ में है, भगवान तो यहीं हैं ---

 हम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं? कमी हमारी समझ में है, भगवान तो यहीं हैं ---

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भगवान कोई ऊपर से उतर कर आने वाले व्यक्ति या चीज नहीं हैं। हमें स्वयं के अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) को विसर्जित कर, स्वयं को ही भगवान बनना पड़ेगा। यही उनको पाने का एकमात्र उपाय है। तभी हम उनके साथ एक हो सकते हैं।
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प्राण-तत्व के रूप में वे निरंतर हमारे अस्तित्व में हैं। वे ही हमारे प्राण हैं। "प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम्।" उन्होने ही प्राण रूप से हमारे अंतःकरण में प्रवेश कर हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को जीवंत किया है। जब वे स्वयं हमारे समक्ष हैं, तो हमारे लिए अब कोई धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य, उपदेश, आदेश, सिद्धान्त, मत-पंथ, संप्रदाय, मांग, कामना, आकांक्षा, अपेक्षा, आदि नहीं रहे हैं; सब कुछ उनको ही बापस समर्पित है। सब कुछ उन्हीं का है, और सब कुछ वे ही हैं।
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प्राण-तत्व के रूप में सुषुम्ना नाड़ी में उनके प्रवाह की प्रतिक्रिया स्वरूप हमारी सांसें चल रही हैं। हमारे माध्यम से वे ही, स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं।
सहस्त्रार -- भगवान के चरणकमल हैं। सहस्त्रार पर ध्यान उनके चरणकमलों का ध्यान है। सहस्त्रार में स्थिति उनके चरणकमलों में आश्रय है। ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता -- भगवान का विराट स्वरूप है। उस अनंतता से भी परे का ज्योतिषांज्योतिर्मय आलोक -- वे स्वयं हैं। उन के चरणकमलों में हमारा समर्पण पूर्ण हो।
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"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥"
ॐ शांति, शांति, शांति॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जून २०२१

भगवान को पाने का प्रयास - क्या हमारा "अहंकार" है? ---

 भगवान को पाने का प्रयास - क्या हमारा "अहंकार" है? ---

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मेरा उत्तर है - नहीं। भगवान हमें - (१) निर्द्वन्द्व, (२) नित्यसत्त्वस्थ, (३) निर्योगक्षेम और (४)आत्मवान् बनने का आदेश देते हैं -- "निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।" ये तो अहंकार से मुक्ति के उपाय हैं, जिनसे हम उन्हें पा सकते हैं।
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अब इन के शब्दार्थों पर विचार कर लेते हैं --
(१) निर्द्वन्द्व - यानि सुखदुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी युग्म हैं, उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हों।
(२) नित्यसत्त्वस्थ - यानि सदा सत्त्वगुण में स्थित रहें।
(३) निर्योगक्षेम - यानि योगक्षेम को न चाहने वाले हों। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करने का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है।
(४) आत्मवान - यानि सावधान व जागरूक होकर आत्मा में स्थित रहें।
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उपरोक्त गुणों को कैसे प्राप्त करें? एक ही उपाय है, और वह है - "गुरु प्रदत्त साधना।" गुरु महाराज ने जो साधना हमें दी है, उसको हम अपने पूरे "प्राण", पूरी "सत्यनिष्ठा" और पूरी "भक्ति" (परमप्रेम) से करें। सत्यनिष्ठा और परमप्रेम जब हमारे में होंगे, तब भगवान की प्राप्ति में समय नहीं लगेगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ जून २०२१

भगवान से शिकायत ---

 भगवान से शिकायत ---

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आध्यात्म में भगवान से शिकायत होना -- इस बात का संकेत है कि मेरे समर्पण में कहीं न कहीं, कोई न कोई, कमी रह गई है। मैं अपनी पीड़ा अन्य किसी से व्यक्त नहीं कर सकता, और उन्हें भूल भी नहीं सकता, -- बस यही शिकायत है मुझे भगवान से।
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अन्य कोई है भी तो नहीं, जिस से अपनी बात कह सकें। शिकायत होने का अर्थ है कि यथासंभव पूर्ण प्रयासों के पश्चात भी कहीं न कहीं हमारे समर्पण में कमी है। लेकिन सारी कमियाँ भी उन्हीं की है।
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भगवान ने कह तो दिया कि --
"अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते"॥१८:५३॥
अर्थात् -- अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग कर ममत्वभाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है।
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जब उनके मार्ग पर चलते हैं तो बाधा बनकर भी तो वे ही समक्ष आ जाते हैं। अब कोई फर्क नहीं पड़ता, कितनी भी बाधाएँ आयें, कितनी भी शिकायतें हों, प्रेम और समर्पण तो उन्हीं को रहेगा। उन ब्रह्म से पृथक कोई भी अन्य नहीं है, मैं भी नहीं। सब कुछ तो वे ही हैं। उन की शिकायत अब उनको ही करेंगे। सबके हृदय में कुछ ऐसी घनीभूत पीड़ायें होती हैं, जिन्हें कोई मनुष्य नहीं समझ सकता। वे सब भगवान को समर्पित कर देनी चाहियें।
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कृपा शंकर
२२ जून २०२१

सभी प्राणियों को मैं नमन करता हूँ, क्योंकि प्राण रूप में स्वयं परम-पुरुष भगवान नारायण उन में उपस्थित हैं ---

 सभी प्राणियों को मैं नमन करता हूँ, क्योंकि प्राण रूप में स्वयं परम-पुरुष भगवान नारायण उन में उपस्थित हैं।

प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ---
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ध्रुव उवाच -
योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
संजीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना ।
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ॥ - श्रीमद् भागवतम् ४.९.६
अर्थात् -- हे प्रभो! आपने ही मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर मेरी सोई हुई वाणी को सजीव किया है, तथा आप ही हाथ,पैर कान और त्वचा आदि इंद्रियों को चेतना प्रदान करते हैं। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं।
Prostration to You, O Bhagavān, the supreme Consciousness, possessor of all powers, who, having entered my being, has activated my dormant speech, and likewise has empowered the other organs such as the hands, feet, ears, skin and all the vital forces, by virtue of His mere Presence.
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सत्य सनातन धर्म -- प्राण-तत्व है, जिसने इस सारी सृष्टि को धारण कर रखा है। प्राण-तत्व से ही ऊर्जा निर्मित हुई है, जिससे सृष्टि का निर्माण हुआ। प्राण-तत्व से ही सारे प्राणियों और देवी-देवताओं का अस्तित्व है। प्राण-तत्व को जानना ही परमधर्म है। प्राण-तत्व का ज्ञान श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध योगी सद्गुरु की कृपा से उनके द्वारा बताई हुई साधना, उनके सान्निध्य में, सफलतापूर्वक करने से होता है।
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स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नाद्धीर्य तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च। -प्रश्नोपनिषद् ६/४॥
अर्थात् - परमात्मा ने सर्वप्रथम प्राण की रचना की। तत्पश्चात् श्रद्धा उत्पन्न की। तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, और कर्मों का निर्माण हुआ। तदन्तर विभिन्न लोक बने।
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सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या विष्टव्धानी त्येवं विद्यात्। -एतरेय २/१/६
अर्थात्- प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।
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कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म नद्रित्याचक्षते। -बृहदारण्यक
अर्थात्- वह एक देव कौन सा है? वह प्राण है। ऐसा कौषितकी ऋषि ने व्यक्त किया है।
‘प्राणों ब्रह्म’ इति स्माहपैदृश्य। अर्थात्- पैज्य ऋषि ने कहा है कि प्राण ही ब्रह्म है।
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प्राण एव प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्यं उत्थापयति। यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। -शाखायन आरण्यक ५/३
अर्थात्- इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है, वह प्राण ही है। जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।
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भृगुतंत्र में कहा गया है -- "उत्पत्ति मायाति स्थानं विभुत्वं चैव पंचधा। अध्यात्म चैब प्राणस्य विज्ञाया मृत्यश्नुते॥" अर्थात् - प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक होता है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँच बातों को जान लेता है, वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है।
२० जून २०२१ 

इस शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता --

 इस शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता --

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एक ग्रन्थ के संदर्भ में कहीं लिखा है -- "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते|" अर्थात् इस शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। यह शाश्वत सत्य है। इसका उत्तर समझने में तो बड़ा सरल है, लेकिन व्यवहार में अपनाना बड़ा कठिन है। गीता में भगवान कहते हैं --
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"
अर्थात् -- हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब भुवन पुनरावर्ती हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता॥
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भगवान को भी वही प्राप्त करता है जो इस शरीर रूपी रथ में सर्वव्यापी सूक्ष्म आत्मा को अनुभूत करता है, यानि देखता है। यह बुद्धि का नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है। इसका अर्थ वही समझ सकता है जो अपना सम्पूर्ण ध्यान कूटस्थ पर केन्द्रित करके अनंत ब्रह्म में लीन हो जाता है।
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हम झूले में ठाकुर जी को झूला झुला कर उत्सव मनाते हैंं, यह तो प्रतीकात्मक है। लेकिन वास्तविक झूला तो कूटस्थ में है, जहाँ सचमुच आत्मा की अनुभूति --ज्योति, नाद व स्पंदन के रूप में होती है। तब सौ काम छोड़कर भी उस में लीन हो जाना चाहिए। यह स्वयं में एक उत्सव है। ज्योति, नाद व भगवत-स्पंदन की अनुभूति होने पर पूरा अस्तित्व आनंद से भर जाता है जैसे कोई उत्सव हो। यही ठाकुर जी को झूले में डोलाना है।
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जीवरूपी गजेन्द्र और मोहरूपी ग्राह (मगर मच्छ) का युद्ध शाश्वत है। यह सृष्टि के आदिकाल से ही हम सब के भीतर चल रहा है और सृष्टि के अंत यानि तब तक चलता रहेगा, जब तक हमारी करुण प्रार्थना सुनकर भगवान हमें इस मोह-रूपी ग्राह से मुक्त नहीं कर देते। ग्राह की मुक्ति पहले होगी, तब उसके बाद ही हम मुक्त और विजयी होंगे।
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तंत्र शास्त्रों में इसे दूसरे रूप में समझाया गया है --
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते॥" (तन्त्रराज तन्त्र).
अर्थात् पीये, और बार बार पीये जब तक भूमि पर न गिरे| उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
यह एक बहुत ही गहरा ज्ञान है जिसे एक रूपक के माध्यम से समझाया गया है|
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आचार्य शंकर ने "सौंदर्य लहरी" के आरम्भ में ही भूमि-तत्त्व के मूलाधारस्थ कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन किया है| विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है| बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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आज निर्जला एकादशी के दिन ये भाव आए और मैं उन्हें लिपिबद्ध कर पाया, मैं धन्य हुआ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमो नारायण !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
आप सब महापुरुषों को नमन !!
कृपा शंकर
२१ जून २०२१