Wednesday, 9 February 2022

'दु:ख' शब्द की सुंदरतम व्युत्पत्ति ---

किसी बस की सब से पीछे की सीट पर बैठ कर जब हम यात्रा करते हैं, तब सब से अधिक झटके लगते हैं, जब कि बस की गति भी वही है और चालक भी वही है। जितना हम चालक के समीप बैठते हैं, उतने ही कम झटके लगते हैं।

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वैसे ही हमारी इस जीवन-यात्रा में हम जितना परमात्मा के समीप रहते हैं, उतनी ही हमारी यह जीवन-यात्रा सुखद रहती है। बाकी हमारा विवेक है, अपने निर्णय लेने को हम स्वतंत्र हैं। श्रुति भगवती कहती हैं -- "ॐ खं ब्रह्म॥" 'ख' का अर्थ परमात्मा भी है, और आकाश-तत्व भी। 'ख' से समीपता 'सुख' है और दूरी 'दुःख' है। आकाश-तत्व हमें परमात्मा का बोध कराता है।
"ॐ अच्युताय नमः, ॐ गोविंदाय नमः, ॐ अनंताय नमः॥"
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सृष्टिकर्ता परमात्मा, और उनकी समस्त सृष्टि के साथ हम एक हैं; सारी सृष्टि और सृष्टिकर्ता परमात्मा - स्वयं ही स्वयं की उपासना कर रहे हैं ---

सृष्टिकर्ता परमात्मा, और उनकी समस्त सृष्टि के साथ हम एक हैं; सारी सृष्टि और सृष्टिकर्ता परमात्मा - स्वयं ही स्वयं की उपासना कर रहे हैं ---

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ॐ गं गणाधिपतये नमः !! पंचप्राण रूपी गणों के ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को नमन !! घनीभूत प्राणतत्व के रूप में - सूक्ष्मदेह की ब्रहमनाड़ी में; और कारणदेह में - अनंताकाश और दहराकाश से भी परे परमशिव तक विचरण कर रही भगवती कुल-कुण्डलिनी को नमन !! सारी शक्तियाँ उन्हीं की अभिव्यक्ति हैं।
विश्वरूप में सर्वत्र व्याप्त श्रीमन्नारायण पुरुषोत्तम भगवान विष्णु को नमन !! वे ही पालनकर्ता है, वे ही परमशिव हैं, जिनके समक्ष जब से सिर झुकाया था, तब से झुका हुआ ही है, कभी भी नहीं उठा है। अपनी ऊर्जा और संकल्प से स्वयं को ही उन्होनें इस सम्पूर्ण सृष्टि के रूप में निर्मित कर के व्यक्त किया है।
सारी सृष्टि को जीवंत करते हुए, जगन्माता स्वयं को प्राण-तत्व के रूप में व्यक्त कर रही हैं। वे ही सारी सृष्टि की प्राण हैं। पञ्च-प्राणों के पाँच सौम्य, और पाँच उग्र रूप -- दस महाविद्याएँ हैं। प्राण की जगन्माता के रूप में साधना -- दसों महाविद्याओं की साधना है। हर जीवात्मा में प्राण-तत्व के रूप में व्यक्त कुंडलिनी का परमशिव से मिलन ही 'योग-साधना' का उद्देश्य है।
यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं, जो किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध सद्गुरु के सान्निध्य में साधना करने से ही समझ में आ सकता है।
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कई दिनों के पश्चात आज मैं इस सामाजिक मंच पर लौटा हूँ। आप सब मेरी ही निजात्मा हैं, मुझसे पृथक नहीं हैं, इसलिए मैं आप सब में स्वयं को ही नमन करता हूँ। मनुष्य जीवन की एक बहुत ही दुर्लभ और अति उच्च उपलब्धि वर्षों पूर्व मुझे प्राप्त हुई थी, जिसे मैं बिल्कुल ही भूल गया था। गुरुकृपा से वह पुनश्च: स्मृति में आ रही है। जब भी एक साधक होने का, या उपदेश देने का भाव मन में आता है, तब हमारा पतन होने लगता है। उस समय परमात्मा में समर्पण ही हमारी रक्षा करता है।
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संसार के किसी भी व्यक्ति या घटक को मैं नहीं सुधार सकता। जब मैं स्वयं को ही कभी भी किसी भी तरह का मार्गदर्शन नहीं दे सका तो अन्य किसी को तो क्या दूँगा? परमात्मा की परम कृपा ही हमारा कल्याण कर सकती है। हम उन की कृपा के पात्र बनें, तभी हमारा कल्याण होगा।
मेरा एकमात्र कार्य और रुचि -- जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति है। मेरे लिए वे ही एकमात्र साध्य, साधन, साधक, संबंधी, और मित्र हैं।
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जिन के हृदय में परमात्मा, भारत और सनातन-धर्म के लिए प्रेम है, उन सब का मैं यहाँ स्वागत करता हूँ। अन्य सब से क्षमायाचना है कि मेरे पास उनके लिए समय नहीं है, वे मेरा समय नष्ट न करें। श्रीअरविंद के शब्दों में भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है। सनातन धर्म एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है, जो जीवन में भगवत्-प्राप्ति का मार्ग बताकर हमें भगवान के साथ एक करती है।
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सारी सृष्टि हमारे साथ एक है। जब हम साँस लेते और छोड़ते हैं, तो सारी सृष्टि हमारे साथ साँस लेती और छोड़ती है। सृष्टि की विराटता का अनुमान हम इस से ही लगा सकते हैं कि रात्री में एकमात्र स्थिर ध्रुव तारे को हम जब देखते हैं, तब याद रहे कि वह ध्रुव तारा वहाँ ३९० वर्ष पूर्व था। उसके प्रकाश को हमारे तक पहुँचने में ३९० वर्ष लगे हैं। हमारी आकाशगंगा इतनी विराट है कि उसके एक छोर से दूसरे छोर तक प्रकाश की गति से पहुँचने में एक लाख वर्ष लग जाएँगे। इस तरह की करोड़ों आकाश-गंगाएँ इस सृष्टि में हैं। हमारा सूर्य हमारी आकाशगंगा के करोड़ों सूर्यों में से एक सूर्य है, जिसका हमारी पृथ्वी एक छोटा सा ग्रह मात्र है। सृष्टि की अनंत विराटता को समझें और उसके साथ उपासना/साधना के द्वारा एक हों। यह ही आत्म-साक्षात्कार, और परमात्मा की प्राप्ति है। यही मोक्ष का हेतु है।
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"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः।
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च।"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
९ फरवरी २०२२

परमात्मा के प्रकाश में रहते हुए उसका विस्तार करें ---

 परमात्मा के समक्ष प्रकाश ही प्रकाश है| हम उस प्रकाश में ही रहते हुए उसका विस्तार करें| परमात्मा के पीछे की ओर अंधकार है, जो हमारे भीतर है| यह भीतर का ही अंधकार है जो बाहर व्यक्त हो रहा है| हम परमात्मा के प्रकाश के विस्तार के माध्यम बनें| परमात्मा के उस प्रकाश का ही विस्तार करना हमारा सर्वोपरी धर्म है|

हम ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान करें जिस के बारे श्रुति भगवती कहती हैं ---
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥"
भावार्थ :-- वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।
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गीता में भगवान कहते हैं ---
"न तद भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||"
अर्थात् उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है।।
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जो भगवान का धाम है, वही हमारा भी धाम है| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० फरवरी २०२१

हृदय से प्रार्थना करने पर देवता भी प्रार्थना स्वीकार कर कल्याण करते हैं---

 हृदय से प्रार्थना करने पर देवता भी प्रार्थना स्वीकार कर कल्याण करते हैं---

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इस जीवन में इस घटना से पूर्व पहले कभी किसी देवता का न तो आवाहन किया था, और न ही कभी किसी देवता की साधना की थी| पूजा-पाठ में जो करते हैं, वह दूसरी बात है| इस अनुभव से पता चला कि देवता भी मनुष्य का कल्याण करने को आतुर रहते हैं|
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जीवन में पहली और अंतिम बार किसी देवता का एक बार आवाहन और ध्यान किया था, जिसका फल भी तुरंत मिला| बात सितंबर २०२० की है| मैं अपने ब्रह्मलीन बड़े भाई के अस्थि-विसर्जन के लिए परिवार के कुछ अन्य सदस्यों के साथ हरिद्वार गया था| वहाँ ब्रहमकुंड पर तीर्थ-पुरोहित से अस्थि-विसर्जन के समय की पूजा तो परिवार के अन्य सदस्य करवा रहे थे, मैं थोड़ी दूर एकांत में गंगा जी में खड़े होकर पित्तरों के देवता भगवान अर्यमा का ध्यान करने लगा| जैसे-जैसे ध्यान की गहराई बढ़ी, मुझे इस शरीर की चेतना नहीं रही| मेरी ओर किसी ने भी नहीं देखा| अचानक ही मुझे लगा जैसे मेरे चारों ओर एक अति तीब्र प्रकाश है; इतना तीब्र कि नंगी आँखों से उसे कोई देख नहीं सकता| सामने उस तीब्र प्रकाश के मध्य मुझे अति श्वेत प्रकाशमय किसी देवता की अनुभूति हुई जिसकी दृष्टि मेरी ओर थी| आत्म-प्रेरणा से मेरे हृदय से यही प्रार्थना निकली कि "मेरे बड़े भाई की सद्गति हो, और मुझे कुछ भीे नहीं चाहिए|"
वे देव पुरुष यह स्पष्ट आश्वासन मुझे देकर कि मेरे बड़े भाई की सदगति हुई है, और मुझे निश्चिंत रहने को कहकर अनंत में विलीन हो गए|
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मैं जब सामान्य स्थिति में आया तब मुझे पता चला कि समाधि की उस स्थिति में मैं गिर कर पानी में बह भी सकता था, चोट भी लग सकती थी, पर किसी अज्ञात शक्ति ने मेरी रक्षा भी की थी| सबसे बड़ी प्रसन्नता तो इस बात की हुई कि मेरे हृदय से की गई प्रार्थना सुनी गई और फलीभूत भी हुई|
पित्तरों के देवता भगवान अर्यमा को नमन|
ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः|
--- ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय|| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ फरवरी २०२१