Wednesday, 28 July 2021

भगवान का भक्त कभी नष्ट नहीं होता --

जीवन में कभी भी विपरीत परिस्थितियाँ और संकट काल अचानक ही आ सकते हैं, जिन में जीवित रहने हेतु भगवान की कृपा होना आवश्यक है। भगवान भी श्रद्धालुओं की ही रक्षा करते हैं, जो उन को अपना मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार समर्पित कर देते हैं। भगवान का भक्त कभी नष्ट नहीं होता --

"क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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भगवान की कृपा प्राप्त करनी हो, तो किसी अधिकारी आचार्य से सीख कर साधना करनी आवश्यक है। आने वाले समय में बाढ़, चक्रवात, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदायें आ सकती हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है, तीसरा विश्वयुद्ध आरंभ हो सकता है। ईश्वर की उपासना तो करनी ही पड़ेगी, आज नहीं तो कल। लेकिन आग लगाने पर कुआँ खोदना कितना उपयोगी होगा, उसकी आप कल्पना कर सकते हैं।
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आप सब महान आत्माओं को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१० जून २०२१

साधु, सावधान !! सामने नर्क-कुंड की अग्नि है ---

 साधु, सावधान !! सामने नर्क-कुंड की अग्नि है ---

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हमारी वासनाएँ, लोभ, अहंकार, व राग-द्वेष हमें निश्चित रूप से इस नर्क-कुंड में बलात् डाल देंगे। भूल से भी उधर मत देखो। अभी भी समय है, ऊपर परमात्मा का हाथ थाम लो, और कभी मत छोड़ो। परमात्मा में ही स्वतन्त्रता है। परमात्मा से हमारा वही संबंध है जो जल की एक बूँद का महासागर से है। सारे संबंध परमात्मा से ही हैं, अन्य कोई है ही नहीं। जीवन का असत्य, अंधकार और अज्ञान उस प्रकाश से दूर होगा जो भक्ति द्वारा हमारे हृदय में जागृत हो सकता है। अन्य कोई उपाय नहीं है। परमात्मा से पृथकता ही हमारी एकमात्र समस्या और हमारे सभी दुःखों का कारण है। सुख सिर्फ परमात्मा में है, अन्यत्र कहीं भी नहीं।
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राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता है, जो देवताओं को भी दुर्लभ, बहुत बड़ा तप है। जो वीतराग है वही स्थितप्रज्ञ है। परमात्मा के ध्यान में जो आनंद मिलता है वही वास्तविक सुख है, अन्य सब भटकाव है। धर्म की रक्षा हम धर्म का पालन कर के ही कर सकते हैं, अन्य कोई उपाय नहीं है। धर्म की रक्षा करेंगे तभी धर्म हमारी रक्षा करेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जून २०२१

कोई बात समझ में नहीं आये तो उसे वहीं छोड़ दो ---

आध्यात्म में या धार्मिक क्षेत्र में, कोई बात समझ में नहीं आये, या जिसे समझना हमारी बौद्धिक क्षमता से परे हो, तो उसको वहीं छोड़ देना चाहिए। जितना और जो भी समझ में आ सके, वही ठीक, सर्वोचित और पर्याप्त है। हमें बोलना भी वही चाहिए जो सामने वाले के समझ में आ जाये। यह उपदेश मुझे देहरादून में स्वामी ज्ञानानन्द गिरि महाराज ने दिया था।

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देहरादून में कोलागढ़ रोड़ पर एक बहुत बड़े सिद्ध महात्मा स्वामी ज्ञानानन्द गिरि रहा करते थे, जिनका सत्संग लाभ मुझे तीन बार मिला है। अब तो वे ब्रह्मलीन हो गए हैं। मैंने उनसे एक बार निवेदन किया कि मुझे आध्यात्म की बहुत सारी बातें समझ में नहीं आती हैं, बौद्धिक क्षमता का अभाव है। उन्होने उत्तर दिया कि "भगवान है" बस इतना ही समझ लेना पर्याप्त है, बाकी जो आवश्यक होगा वह भगवान स्वयं समझा देंगे।
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वे स्वामी आत्मानंद गिरि के शिष्य थे। स्वामी आत्मानंद गिरी (पूर्वाश्रम का नाम डॉ. प्रकाशदास) -- योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इंडिया के स्थापना काल से बीस वर्ष तक जनरल सेक्रेटरी थे।
परमहंस योगानन्द जी ने अपने जीवन काल में दो ही मुमुक्षुओं -- राजर्षि जनकानन्द और स्वामी आत्मानंद गिरी को ही सन्यास की दीक्षा दी थी।
परमहंस योगानन्द जी के ब्रह्मलीन हो जाने के बाद में श्री श्री दयामाता, स्वामी श्यामानंद गिरी, और स्वामी विद्यानंद गिरी आदि ने पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ से सन्यास लिया था। ॐ तत्सत् !!
७ जून २०२१

आत्माराम ---

 

🌹आत्माराम ---
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सरल से सरल भाषा में "आत्माराम" से ऊँची या बड़ी कोई अवस्था नहीं है। जो आत्माराम हो गया, उसके लिए संसार में करने योग्य अब कुछ भी नहीं है। उसने सब कुछ पा लिया है, और वह ऊँची से ऊँची अवस्था में है। उसने भगवान को भी पा लिया है। ऐसे आत्माराम -- पृथ्वी के देवता हैं। उन्हीं से यह भूमि पवित्र है। "नारद भक्ति सूत्र" के प्रथम अध्याय का छठा मंत्र है --
"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।"
यहाँ देवर्षि नारद जी ने भक्त की तीन अवस्थाएँ बताई हैं। ईश्वर की अनुभूति पाकर भक्त पहिले तो "मत्त" हो जाता है, फिर "स्तब्ध" हो जाता है, और फिर "आत्माराम" हो जाता है, यानि अपनी आत्मा में रमण करने लगता है। आत्मा में रमण करते-करते वह स्वयं परमात्मा के साथ एक हो जाता है।
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"शाण्डिल्य सूत्र" के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है। भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है। जो भी अपनी आत्मा में रमण करता है उसके लिये "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता।
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जहाँ तक मुझ अल्पज्ञ की सीमित सोच है -- आत्म-तत्व का साक्षात्कार ही आत्माराम होना है। खेचरी या अर्ध-खेचरी मुद्रा में कूटस्थ पर ध्यान करने से प्राण-तत्व की चंचलता कम होती है, मन पर नियंत्रण होता है, और आत्मा की सर्वव्यापकता की अनुभूतियाँ होती हैं। उस सर्वव्यापक आत्मा से एकाकार होना ही आत्म-तत्व में रमण, यानि आत्माराम होना है।
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मेरी अत्यल्प व सीमित बुद्धि के अनुसार -- क्रिया-प्राणायाम व ध्यान के पश्चात योनिमुद्रा में जिस ज्योति के दर्शन होते हैं, वह ज्योति - ईश्वर का रूप है। उस ज्योति के स्वभाविक रूप से निरंतर दर्शन, और उसके साथ-साथ सुनाई देने वाले प्रणव-नाद का निरंतर स्वभाविक रूप से श्रवण, व उन्हीं की संयुक्त चेतना में रहना "कूटस्थ चैतन्य" व "ब्राह्मी-स्थिति" है। यह भी "आत्माराम" होना है।
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देवर्षि नारद के गुरु थे भगवान सनतकुमार, जिन्हें ब्रह्मविद्या का प्रथम आचार्य माना जाता है; क्योंकि ब्रह्मविद्या का ज्ञान उन्होने सर्वप्रथम अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। भगवान सनतकुमार ने प्रमाद को मृत्यु और अप्रमाद को अमृत कहा है (महाभारत उद्योगपर्व, सनत्सुजातपर्व अध्याय ४२)। प्रमादी व्यक्ति कभी परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें भक्ति का उदय नहीं होता। अतः भक्ति में प्रमाद (आलस्य और दीर्घसूत्रता) नहीं आना चाहिए।
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परमात्मा से प्रेम करो, और अधिक प्रेम करो, और, और भी अधिक प्रेम करो। इतना अधिक प्रेम करो कि स्वयं प्रेममय हो जाओ। यही परमात्मा की प्राप्ति है, यही आत्म-साक्षात्कार है, यही परमात्मा का साक्षात्कार है, और यही आत्माराम होने की स्थिति है। अपना सर्वश्रेष्ठ प्रेम परमात्मा को दो और परमात्मा के साथ एक हो जाओ। प्रेममय होकर हम स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। परमात्मा में और हमारे में कहीं कोई भेद नहीं है। यही वह स्थिति है जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
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चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, पूरा आसमान नीचे गिर जाये, पूरी धरती महाप्रलय के जल में डूब जाये, और यह शरीर जल कर भस्म हो जाये, लेकिन परमात्मा को हम कभी नहीं भूलेंगे और निरंतर सदा उनसे प्रेम करेंगे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ जून २०२१

मेरे उपास्य भगवान परमशिव को नमन ---

मेरे उपास्य भगवान परमशिव को नमन ---
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"पीठं यस्या धरित्री जलधरकलशं लिङ्गमाकाशमूर्तिम् ,
नक्षत्रं पुष्पमाल्यं ग्रहगणकुसुमं चन्द्रवह्न्यर्कनेत्रम्।
कुक्षिः सप्तसमुद्रं भुजगिरिशिखरं सप्तपाताळपादम्
वेदं वक्त्रं षडङ्गं दशदिश वसनं दिव्यलिङ्गं नमामि॥"
अर्थात् - पृथ्वी जिन का आसन है, जल से भरे हुए मेघ जिन के कलश हैं, सारे नक्षत्र जिन की पुष्प माला है, ग्रह गण जिनके कुसुम हैं, चन्द्र सूर्य एवं अग्नि जिन के नेत्र हैं , सातों समुद्र जिन के पेट हैं , पर्वतों के शिखर जिन के हाथ हैं , सातों पाताल जिन के पैर हैं, वेद और षड़ङ्ग जिन के मुख हैं, तथा दशों दिशायें जिन के वस्त्र हैं -- ऐसे आकाश की तरह मूर्तिमान दिव्य लिङ्ग को में नमस्कार करता हूँ।
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शिवलिंग का अर्थ है वह परम मंगल और कल्याणकारी परम चैतन्य जिसमें सब का विलय हो जाता है। सारा अस्तित्व, सारा ब्रह्मांड ही शिव लिंग है। स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे -- तुरीय चेतना -- में विलय हो जाता है। उस तुरीय चेतना का प्रतीक है -- शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ यानि ब्रह्मयोनी में निरंतर जागृत रहता है. उस पर ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है. लिंग का शाब्दिक शास्त्रीय अर्थ है विलीन होना। शिवत्व में विलीन होने का प्रतीक है शिवलिंग।
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शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व को प्राप्त करना है और यही शिव होना है। यही हमारा लक्ष्य है। शिव का अर्थ है -- कल्याणकारी।
शंभू का अर्थ है -- मंगलदायक।
शंकर का अर्थ है -- शमनकारी और आनंददायक।
ब्रहृमा-विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही है। इनमें कोई भेद नहीं है।
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पञ्चमुखी महादेव -- योगियों को गहन ध्यान में कूटस्थ में एक स्वर्णिम आभा के मध्य एक नीला प्रकाश दिखाई देता है जिसके मध्य में एक श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र दिखाई देता है। वह पञ्चकोणीय नक्षत्र पंचमुखी महादेव है। गहन ध्यान में योगीगण उसी का ध्यान करते हैं। ब्रह्मांड पाँच तत्वों से बना है -- जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश। भगवान शिव पंचानन अर्थात पाँच मुख वाले है। शिवपुराण के अनुसार ये पाँच मुख हैं -- ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात।
भगवान शिव के ऊर्ध्वमुख का नाम 'ईशान' है जो आकाश तत्व के अधिपति हैं। इसका अर्थ है सबके स्वामी|
पूर्वमुख का नाम 'तत्पुरुष' है, जो वायु तत्व के अधिपति हैं।
दक्षिणी मुख का नाम 'अघोर' है जो अग्नितत्व के अधिपति हैं।
उत्तरी मुख का नाम वामदेव है, जो जल तत्व के अधिपति हैं।
पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है, जो पृथ्वी तत्व के अधिपति हैं।
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भगवान शिव पंचभूतों (पंचतत्वों) के अधिपति हैं इसलिए ये 'भूतनाथ' कहलाते हैं। भगवान शिव काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक होने के कारण 'महाकाल' कहलाते है। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण -- ये पाँचों मिल कर काल कहलाते हैं। ये काल के पाँच अंग हैं।
शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर| -- ये पाँचों मिलकर शिव-परिवार कहलाते हैं। नन्दीश्वर साक्षात धर्म हैं।
शिवजी की उपासना पंचाक्षरी मंत्र -- 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है। साधना में प्रयुक्त रुद्राक्ष भी सामान्यत: पंचमुखी ही होता है।
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जो परम कल्याणकारक हैं वे परमशिव हैं। परमशिव एक अनुभूति है। ब्रह्मरंध्र से परे परमात्मा की विराट अनंतता का सचेतन बोध परमशिव की अनुभूति है। तब साधक स्वयं ही परमशिव हो जाता है। भगवान परमशिव दुःखतस्कर हैं। तस्कर का अर्थ होता है -- जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है। भगवान परमशिव अपने भक्तों के सारे दुःख और कष्ट हर लेते हैं। वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं। जीवों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं।
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परमात्मा के लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। ब्रह्म शब्द का अर्थ है -- जिनका निरंतर विस्तार हो रहा है, जो सर्वत्र व्याप्त हैं, वे ब्रह्म हैं।
सूक्ष्म देह के भीतर सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक शिवलिंग तो मूलाधार चक्र के बिलकुल ऊपर है। मूलाधार से सहस्त्रार तक एक ओंकारमय दीर्घ शिवलिंग है। मेरुदंड में सुषुम्ना के सारे चक्र उसी में हैं।
एक शिवलिंग आज्ञाचक्र से ऊपर उत्तरा-सुषुम्ना में है। मानसिक रूप से उसी में रहते हुए परमशिव अर्थात ईश्वर की कल्याणकारी ज्योतिर्मय सर्वव्यापकता का ध्यान किया जाता है। ध्यान भ्रूमध्य से आरम्भ करते हुए सहस्त्रार पर ले जाएँ और श्रीगुरुचरणों में आश्रय लेते हुए वहीं से करें।
सम्पूर्ण अनंतता से परे मेरे उपास्य देव भगवान परमशिव हैं, जिनकी चेतना ही मेरा अस्तित्व है। ॐ शिव ! ॐ तत्सत् !
ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ ॐ नमःशिवाय॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
१७ जून २०२१

"राम" नाम कब और कैसे सुनाई देता है? :---

 "राम" नाम कब और कैसे सुनाई देता है? :---

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जब भी ध्यान भ्रूमध्य पर जाता है, और प्राण वहाँ अटक जाते हैं, तब सिर्फ तारक मंत्र "राम" ही सुनाई देता है, और कुछ भी नहीं। "राम" और "ॐ" में कोई अंतर नहीं है, दोनों एक ही हैं। सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र पर तो और भी स्पष्ट और दीर्घ रूप से यह सुनाई देता है। "ॐ" सुनें या "राम" -- बात एक ही है।
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किसी ने मुझसे पूछा है कि फेसबुक पर राम नाम का क्या काम ? उस भले आदमी को बताना चाहता हूँ कि काम ही राम नाम का है, और कुछ है ही नहीं। राम नाम जिन्हें पसंद नहीं है, वे मुझे ब्लॉक कर दें, और मुझ से दूर चले जाएँ, अन्यथा अनायास ही उनका बहुत बड़ा अनर्थ हो सकता है। राम जी ही मुझसे लिखवाते हैं, और वे उसे पढ़ते भी हैं। कहीं लिखने में भूल रह जाये तो वे उसे शुद्ध भी करवा देते हैं। यह मेरी आस्था, श्रद्धा और विश्वास है।
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राम नाम की उत्पत्ति :-- जब मैं साँस लेता हूँ, तब प्राणतत्व की घनीभूत ऊर्जा मूलाधारचक्र से ऊपर उठकर सभी चक्रों को पार करती हुई सहस्त्रारचक्र तक स्वाभाविक रूप से जाती है, और जब साँस छोड़ता हूँ तब यही प्राणऊर्जा सहस्त्रारचक्र से बापस नीचे सभी चक्रों को ऊर्जा प्रदान करती हुई लौटती है| ऊपर जाते समय मणिपुरचक्र को जब यह आहत करती है तब वहाँ एक बड़ा शब्द - "रं" - जुड़ जाता है। आज्ञाचक्र में वहाँ से निरंतर निःसृत होती हुई प्रणव की ध्वनि "ॐ" जब उसमें जुड़ जाती है, तब "रं" और "ॐ" दोनों मिलकर "राम्" हो जाते हैं, और आज्ञाचक्र के ठीक सामने भ्रूमध्य में स्पष्ट सुनाई देते हैं। एक दिन में ये नहीं सुनाई देंगे। कम से कम छः महीने या अधिक, नित्य कम से कम दो घंटे से अधिक, भ्रूमध्य में पूर्ण श्रद्धा-विश्वास और सत्यनिष्ठा से "राम" नाम का मानसिक जप कीजिये। बाद में यह आपका स्वभाव हो जाएगा, और स्वाभाविक रूप से राम नाम सुनाई देने लगेगा। फिर जीवन भर नित्य कम से कम दो घंटे या अधिक समय तक इसका मानसिक जप करना चाहिए। मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। ध्यानस्थ होते ही यह नाद स्वाभाविक रूप से निरंतर सुनाई देने लगता है।
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भ्रूमध्य राम जी का द्वार है। मृत्यु के समय भगवान शिव अपने भक्तों को तारक मंत्र "राम्" की दीक्षा देते हैं। भ्रूमध्य में प्राण एवं मन को स्थापित करके जो उस परम पुरुष का दर्शन करते-करते देह त्याग देते हैं , उनका पुनर्जन्म नहीं होता। यह भगवान श्रीकृष्ण का वचन है --
(यदि आप संसार सागर को पार कर मोक्ष चाहते हैं तो गीता के निम्न १० श्लोकों का गहनतम स्वाध्याय व अनुसरण स्वयं करें)
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"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८१५॥"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥"
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यह एक अत्यन्त वास्तविक और सच्ची साधना है सिर्फ बात ही नहीं है। जो जीवनभर अभ्यास करते हैं, उनकी कुंडलिनी महाशक्ति पूरी तरह जागृत हो जाती है। जीवन में हरिःकृपा से गुरु लाभ भी प्राप्त होगा। आवश्यकता -- परमप्रेम, सत्यनिष्ठा, श्रद्धा, और विश्वास की है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०२१

मन में बहुत अधिक भावों का आना भी एक भटकाव है ---

 

🌹🙏🌹 मन में बहुत अधिक भावों का आना भी एक भटकाव है। उन्हें व्यक्त करने में आनंद नहीं है। स्वयं की पृथकता के बोध के साथ-साथ उन्हें भी बापस उनके मूल स्त्रोत -- परमात्मा को समर्पित करने में ही आनंद है। प्रेम -- प्रियतम परमात्मा से है, न कि उनकी बाह्य अभिव्यक्तियों से। सब कुछ बापस परमात्मा को समर्पित है। सब कुछ उन्हीं का है, और वे ही सब कुछ है।
🌹🙏🌹 तेलधारा की तरह वे निरंतर अंतर्चेतना में प्रवाहित हो रहे हैं। उन में ही जो लय हो जाये, वही सार्थक है, अन्य सब भटकाव है।
🌹🙏🌹 हे प्रभु, मुझे सब प्रकार के राग-द्वेष और आसक्तियों से मुक्त करो, कोई किन्तु-परन्तु न हो। अन्तःकरण मुझ पर हावी हो रहा है, मैं अंतःकरण पर विजयी बनूँ। अप्राप्त को प्राप्त करने की कोई स्पृहा न रहे। इस भौतिक देह और इस के भोग्य पदार्थों के प्रति कोई तृष्णा न रहे। कोई कर्ता भाव न रहे। आपका सच्चिदान्द स्वरूप ही मैं हूँ, इससे कम कुछ भी नहीं। अस्तित्व सिर्फ आपका ही है, मेरा नहीं। मेरा आत्मस्वरूप आप ही हैं। आप ही कर्ता और भोक्ता हैं, आप की जय हो। ॐ तत्सत् !! 🔥🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹🔥
१७ जून २०२१

वर्तमान में जो हठयोग प्रचलित है, वह मुख्यतः नाथ संप्रदाय की देन है ---

हठयोग की परंपरा कितनी प्राचीन है, इसका मुझे कोई ज्ञान नहीं है। किसी को पता है तो मुझे बताने की कृपा करें। वर्तमान में जो हठयोग प्रचलित है, वह मुख्यतः नाथ संप्रदाय की देन है, जिसका श्रेय नाथ संप्रदाय को ही मिलना चाहिए।
यदि पातंजलि के नाम से कोई इसका प्रचार करता है तो वह असत्य का प्रचार कर रहा है। पातंजलि ने अपने "योग दर्शन" में हठयोग को कहीं पर भी नहीं सिखाया है। आसन और प्राणायाम के बारे में उन्होने इतना ही लिखा है ---
"स्थिरसुखमासनम्॥४६॥"
"प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्॥४७॥"
"ततो द्वन्द्वानभिघातः॥४८॥"
"तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः॥४९॥"
"वाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसङ्ख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः॥५०॥"
"वाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः॥५१॥"
"ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्॥५२॥"
"धारणासु च योग्यता मनसः॥५३॥"
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वर्तमान हठयोग के तीन मुख्य ग्रंथ हैं -- (१) शिव संहिता, (२) हठयोग प्रदीपिका, (३) घेरण्ड संहिता।
शिव-संहिता और हठयोग-प्रदीपिका -- नाथ संप्रदाय के ग्रंथ हैं। शिव-संहिता के रचयिता गुरु मत्स्येंद्रनाथ को माना जाता है, जो गोरखनाथ के गुरु थे। हठयोगप्रदीपिका के रचयिता गुरु गोरखनाथ के शिष्य स्वात्मारामनाथ को माना जाता है।
घेरंड-संहिता के रचयिता घेरंड मुनि हैं| यह ज्ञान उन्होने अपने शिष्य चंड कपाली को दिया था|
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मुंगेर (बिहार) स्थित 'बिहार स्कूल ऑफ योग" के आचार्य परमहंस निरंजनानन्द सरस्वती जी ने हठयोग पर अनेक प्रामाणिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें "घेरण्ड संहिता" का भाष्य भी है। उनके सन्यासी व अन्य शिष्य हठयोग का प्रामाणिक ज्ञान पूरे विश्व में दे रहे हैं। घेरण्ड संहिता में सात अध्याय हैं जो निम्न विषयों पर प्रकाश डालते हैं -- षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान, और समाधि।
"शिव-संहिता" -- योग-साधना का एक अनुपम ग्रंथ है जिसका स्वाध्याय सभी योग साधकों को एक बार तो अवश्य करना चाहिए। शिव-संहिता में ही महामुद्रा की विधि दी हुई है जिसके नियमित अभ्यास के कभी भी कमर नहीं झुकती। महामुद्रा -- क्रियायोग साधना का एक अभिन्न भाग है।
ॐ तत्सत् ॥
१६ जून २०२१

आत्मज्ञान ही परम धर्म है ---

आत्मज्ञान ही परम धर्म है। यह जन्म हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए ही मिला है, इसे व्यर्थ करना परमात्मा के प्रति अपराध है। जब भगवान स्वयं समक्ष होते हैं, तब सारे धर्म-अधर्म, सिद्धान्त, उपदेश, कर्तव्य-अकर्तव्य, पाप-पुण्य -- सब तिरोहित हो जाते हैं। महत्व सिर्फ परमप्रेम और सत्यनिष्ठा का है, अन्य सब गौण है।

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आध्यात्म में "भटकाव" दारुण दुःखदायी है। माया की शक्ति बड़ी प्रबल है, उसे निज प्रयास से पार पाना असंभव है। बिना भगवान की कृपा के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। भगवान की भक्ति (परमप्रेम) ही पार लगा सकती है। रामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता, व भागवत आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय; और भक्त संत-महात्माओं का सत्संग -- भक्ति बढ़ाने में सहायक है।
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भगवान सर्वत्र सदैव निरंतर हमारे समक्ष हैं, और क्या चाहिये? सदा उनकी चेतना में रहें। भगवान हैं, इसी समय हैं, हर समय हैं, यहीं पर हैं, सर्वदा हैं, और हमारे साथ एक हैं। वे ही हमारे प्राण और हमारा अस्तित्व हैं। वे कभी भी हमसे पृथक नहीं हो सकते। कहीं कोई भेद नहीं है। हम उन्हें समर्पित हों। शरणागति और समर्पण में कोई मांग, कामना, अपेक्षा या आकांक्षा नहीं होती। निरंतर उनका स्मरण करो। उनकी कृपा से हमारे सब दुःख, कष्ट दूर होंगे। अपनी श्रद्धा पर दृढ़ रहो। "राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥"
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एक गहन अभीप्सा हो, प्रचंड इच्छा शक्ति हो, और ह्रदय में परम प्रेम हो, तो भगवान को पाने से कोई भी विक्षेप या आवरण की मायावी शक्ति नहीं रोक सकती। जो सबके हृदय में हैं, उनकी प्राप्ति दुर्लभ नहीं हो सकती पर अन्य कोई इच्छा नहीं रहनी चाहिए।
"विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥" (रामचरितमानस)
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आप सब महात्माओं को नमन ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
१६ जून २०२१

आप इसी जीवन में ईश्वर को प्राप्त करें, इसके अतिरिक्त मेरी रुचि अन्य किसी भी विषय में नहीं है ---

🌹 आप इसी जीवन में ईश्वर को प्राप्त करें, इसके अतिरिक्त मेरी रुचि अन्य किसी भी विषय में नहीं है। आप सब की आध्यात्मिक प्रगति हो, आपकी उपस्थिती, परमात्मा की उपस्थिती हो। आप जहाँ भी जायें, वह भूमि पवित्र हो जाये, जिस पर भी आपकी दृष्टि पड़े, वह धन्य हो जाये, जो भी आपके दर्शन करे वह निहाल हो जाये।
🌹 आप सांस लेते हो तो परमात्मा सांस लेता है। आपके माध्यम से परमात्मा ही यह जीवन जी रहे हैं। आप सबके साथ, यानि परमात्मा के साथ एक हैं, यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड आपका घर है, और यह सम्पूर्ण सृष्टि आपका परिवार।
🌹 वास्तविक प्रेम तो परमात्मा से ही होता है| परमात्मा का प्रेम प्राप्त हो जाए तो और पाने योग्य कुछ भी नहीं है| यह ऊँची से ऊँची और बड़ी से बड़ी उपलब्धि है| इससे बड़ा और कुछ भी नहीं है| प्रेम मिल गया तो सब कुछ मिल गया| प्रेम में सिर्फ देना ही देना होता है, लेना कुछ भी नहीं| लेने की भावना ही नष्ट हो जाती है| प्रेम उद्धार करता है क्योंकि प्रेम में कोई कामना या अपेक्षा नहीं होती| प्रेम में कोई भेद भी नहीं होता| भक्ति सूत्रों में परम प्रेम को ही भक्ति बताया गया है|
🌹 परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु या प्राणी से राग आसक्ति है, प्रेम नहीं| आसक्ति में सिर्फ लेना ही लेना यानि निरंतर माँग और अपेक्षा ही रहती है| आसक्ति पतन करने वाली होती है| आसक्ति अपने सुख के लिए होती है, जब कि परमात्मा से प्रेम में कोई शर्त नहीं होती|
🌹 अंशुमाली मार्तंड भगवान भुवन-भास्कर अपना प्रकाश बिना शर्त हम सब को देते हैं, वैसे ही हम अपना सम्पूर्ण प्रेम पूरी समष्टि को दें। फिर पूरी समष्टि ही हमसे प्रेम करेगी। हमारा परमप्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है।
ॐ स्वस्ति ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जून २०२१

(१) भारत की एकमात्र समस्या और उसका समाधान क्या है?. (२) हमें भगवान की प्राप्ति क्यों नहीं होती?

 प्रश्न (१): भारत की एकमात्र समस्या और उसका समाधान क्या है?

प्रश्न (२): हमें भगवान की प्राप्ति क्यों नहीं होती?

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उत्तर (१): मेरी दृष्टि में भारत की एकमात्र और वास्तविक समस्या -- "राष्ट्रीय चरित्र" का अभाव है। अन्य सारी समस्याएँ सतही हैं, उनमें गहराई नहीं है। "राष्ट्रीय चरित्र" तभी आयेगा जब हमारे में सत्य के प्रति निष्ठा और समर्पण होगा। तभी हम चरित्रवान होंगे। इस के लिये दोष किसको दें? -- इसके लिए "धर्म-निरपेक्षता" की आड़ में बनाई हुई हमारी गलत शिक्षा-पद्धति और संस्कारहीन परिवारों से मिले गलत संस्कार ही उत्तरदायी हैं। देश की असली संपत्ति और गौरव उसके चरित्रवान सत्यनिष्ठ नागरिक हैं, जिनका निर्माण नहीं हो पा रहा है। कठोर प्रयासपूर्वक हमें भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था पुनर्स्थापित करनी होगी। यही एकमात्र उपाय है। मेरी दृष्टि में अन्य कोई उपाय नहीं है।
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उत्तर (२). हमें भगवान की प्राप्ति नहीं होती, और आध्यात्मिक मार्ग पर हम सफल नहीं होते। इसका एकमात्र कारण --- "सत्यनिष्ठा का अभाव" (Lack of Integrity and Sincerity) है। अन्य कोई कारण नहीं है। बाकी सब झूठे बहाने हैं। हम झूठ बोल कर स्वयं को ही धोखा देते हैं। परमात्मा "सत्य" यानि सत्यनारायण हैं। असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है, और दग्ध वाणी से किये हुए मंत्रजाप व प्रार्थनाएँ निष्फल होती हैं। वास्तव में हमने भगवान को कभी चाहा ही नहीं। चाहते तो "मन्त्र वा साधयामि शरीरं वा पातयामि" यानि या तो मुझे भगवान ही मिलेंगे या प्राण ही जाएँगे; इस भाव से साधना करके अब तक भगवान को पा लिया होता। हमने कभी सत्यनिष्ठा से प्रयास ही नहीं किया। ज्ञान और अनन्य भक्ति की बातें वे ही समझ सकते हैं, जिनमें सतोगुण प्रधान है। जिनमें रजोगुण प्रधान है, उन्हें कर्मयोग ही समझ में आ सकता है, उस से अधिक कुछ नहीं। जिनमें तमोगुण प्रधान है, वे सकाम भक्ति से अधिक और कुछ नहीं समझ सकते। उनके लिये भगवान एक साधन, और संसार साध्य है। इन तीनों गुणों से परे तो दो लाख में कोई एक महान आत्मा होती है। हमें सदा निरंतर इस तरह के प्रयास करते रहने चाहियें कि हम तमोगुण से ऊपर उठ कर रजोगुण को प्राप्त हों, और रजोगुण से भी ऊपर उठकर सतोगुण को प्राप्त हों। दीर्घ साधना के पश्चात हम गुणातीत होने में भी सफल होंगे।
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अब और कुछ लिखने को रहा ही नहीं है। आप सब बुद्धिमान हैं। मेरे जैसे अनाड़ी की बातों को पढ़ा, इसके लिए मैं आप सब का आभारी हूँ।
आप सब को सादर नमन !! ॐ तत्सत् !! 🔥🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹🔥
कृपा शंकर
१४ जून २०२१

सज्जनों की रक्षा के लिए दुष्टों का नाश --- राजा का राजधर्म है ---

देश के शासक को समझौतावादी दृष्टिकोण छोड़ना ही होगा। देश के बहुसंख्यकों की हत्या पर मौन होकर देखते रहना केंद्र शासन का पाप है। मोदी सरकार दण्डनीति का प्रयोग करे। पता नहीं केंद्र सरकार भयभीत क्यों है।

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वेदान्त दर्शन -- साधु-सन्यासियों, विरक्तों व आध्यात्मिक-साधकों के लिए है, न कि देश के शासक के लिए। राजा जनक का युग दूसरा था। यदि देश का शासक, -- आततायियों व अधर्मियों में भी परमात्मा को देखना, उनके साथ प्यार-मोहब्बत करना, व उनके साथ और विश्वास को जीतने का प्रयास करते हैं, तो यह अधर्म की वृद्धि करने वाला आत्म-घातक कार्य है। ऐसे शासक को राजनीति छोड़कर सन्यासी बन जाना चाहिए। अधर्मियों व आततायियों से प्यार, धर्मद्रोह है जो धर्म से च्युत कर के धर्म का नाश करने वाला है।
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सनातन धर्म में शासक के लिए राजनीति क्या व कैसी हो, इसे विभिन्न ग्रन्थों में स्पष्ट बताया गया है। आततायियों व अधर्मियों को यथोचित दंड देना राज्य का कर्तव्य व दायीत्व है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण हमारे आदर्श हैं। महाभारत के युद्ध में अर्जुन तो सब कुछ छोड़कर सन्यासी बन जाना चाहता था, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उसे उसके धर्म-मार्ग यानि दुष्टों के संहार हेतु युद्ध में प्रवृत्त किया। जो शासक अधर्मियों का भी साथ और विश्वास जीतने का कार्य करेगा, वह कभी भी सत्यनिष्ठों व धर्मनिष्ठों का साथ व विश्वास जीतने की चिंता नहीं करेगा।
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अतः सज्जनों की रक्षा के लिए दुष्टों का नाश --- राजा का राजधर्म है, जिससे च्युत उसे नहीं होना चाहिए। ॐ स्वस्ति !!
१२ जून २०२१