Sunday 19 June 2016

परस्त्री और पर धन की कामना, दूसरो का अहित और अधर्म की बाते सोचना हमारे मन के पाप हैं, जिनका दंड भुगतना ही पड़ता है..

परस्त्री और पर धन की कामना, दूसरो का अहित और अधर्म की बाते सोचना हमारे मन के पाप हैं, जिनका दंड भुगतना ही पड़ता है|
ऐसे ही असत्य और अहंकार युक्त वचन, पर निंदा, हिंसा, अभक्ष्य भक्षण, और व्यभिचार हमारे शरीर के पाप हैं, जिनका भी दंड भुगतना ही पड़ता है|
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वर्तमान समय में अन्नदान, जलदान और वृक्षारोपण परम पुण्यदायी हैं|
ॐ ॐ ॐ ||

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....
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जब हम अपने प्रेम को व्यक्त करते हुए इस निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि हे प्रभु हम सदा सिर्फ तुम्हारे हैं, तब माँगने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह जाता|
कुछ माँगना ही क्यों? प्रेम में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है|
कुछ माँगना एक व्यापार होता है, देना ही सच्चा प्रेम है|
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'वयं तव' ..... एक सिद्ध वेदमन्त्र है|
इस स्वयंसिद्ध वाणी में साधना की चरम सच्चाई निहित है|
यह भाव ..... परम भाव है|
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मनुष्य के जीवन का केंद्र बिंदु परब्रह्म परमात्मा है जिसमें शरणागति और समर्पण अनिवार्य है| जिस क्षण जीवन के हर कर्म के कर्ता परब्रह्म परमात्मा बन जायेंगे, उसी क्षण से हमारा अस्तित्व मात्र ही इस सृष्टि के लिए वरदान बन जायेगा
यह उच्चतम भाव है|
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मनुष्य की देह का केंद्र नाभि है| जब नाभि अपने केंद्र से हट जाती है तब देह की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है| वैसे ही जब हम अपने जीवन के केंद्रबिंदु परमात्मा को अपने जीवन से हटा देते हैं तब हमारा जीवन भी गड़बड़ा जाता है|
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भगवान के पास सब कुछ है, पर एक चीज नहीं है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं|
हमारे पास जो कुछ भी है वह भगवान का ही दिया हुआ है| हमारे पास अपना कहने के लिए सिर्फ एक ही चीज है, जिसे हम भगवान को अर्पित कर सकते हैं, और वह है हमारा अहैतुकी पूर्ण परम प्रेम| भगवान सदा हमारे प्रेम के लिए तरसते हैं| अपना समस्त अहंभाव, अपनी पृथकता का बोध, अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को समर्पण कर दीजिये| यही जीवन की सार्थकता है|
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भक्त और भगवान..... एक दुसरे में डूबे हुए ..... दोनों कितने प्यारे हैं ..... बिना एक दूसरे के दोनों अधूरे हैं ..... जीवन कैसा भी हो, सौंदर्य यही है ..... सचमुच... जीवन यही है|
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हम तुम्हारे हैं, मैं तुम्हारा हूँ | यह कभी ना भूलें |
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ||

सुना है तुम पतित-पावन, परम दयालू और भक्तवत्सल हो .....

सुना है तुम पतित-पावन, परम दयालू और भक्तवत्सल हो .....
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बस यही सुनकर मैं निराश नहीं हुआ हूँ, अन्यथा अन्यत्र कोई आशा की किरण जीवन में नहीं है| तुम नाथों के नाथ हो, इसलिए तुम्हारी शरणागति में आया कोई कभी अनाथ नहीं हो सकता| समस्त महिमा तुम्हारी ही है, मेरा तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है और कुछ भी नहीं है|
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मेरी अति घोर पतित निम्न-प्रकृति से अधिक पतित अन्य कुछ भी नहीं है, पर उससे मुक्ति भी तुम ही निश्चित रूप से दिलाओगे, क्योंकि तुम पतित-पावन और परम दयालू हो| मेरी निम्न-प्रकृति ही मेरी एकमात्र बाधा है, उससे मुक्ति दिलाओ| मैं तुम्हारी शरणागत हूँ| त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् |
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तुम वांछा कल्पतरु हो| तुम्हारी चरण सन्निधि में शरणागति और सम्पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई कामना कभी ह्रदय में उत्पन्न ही ना हो| सब कुछ तुम्हारा है, मेरा कुछ भी नहीं| मैं भी तुम्हारा ही हूँ और सदा तुम्हारा ही रहूँगा| मेरा सम्पूर्ण प्रेम तुम्हें अर्पित है, स्वीकार करो|
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त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मनुष्य की निम्न प्रकृति है .......

परमात्मा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मनुष्य की निम्न-प्रकृति है जो अवचेतन मन में राग-द्वेष और अहंकार के रूप में व्यक्त होती है| इससे निपटना मनुष्य के वश की बात नहीं है, चाहे कितनी भी दृढ़ इच्छा शक्ति और संकल्प हो|
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जहाँ राग-द्वेष व अहंकार होगा वहीं काम, क्रोध और लोभ भी स्वतः ही बिना बुलाये आ जाते हैं| ये मनुष्य को ऐसे चारों खाने चित्त पटकते हैं कि वह असहाय हो जाता है|
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बिना वीतराग हुए आध्यात्मिक प्रगति असम्भव है जिस के लिए परमात्मा की कृपा अत्यंत आवश्यक है| बिना प्रभुकृपा के एक कदम भी आगे बढना असम्भव है| यहीं भगवान की भक्ति, शरणागति और समर्पण काम आते हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||

योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना .....

योग साधना है सूक्ष्म देह में मूलाधारस्थ कुण्डलिनी महाशक्ति को जागृत कर उसका सहस्त्रार में परमशिव से एकाकार करना यानि जोड़ना | यह कुण्डलिनी जागृत होकर साधक को ही जागृत करती है | योग साधना का उद्देश्य है .... परम शिवभाव को प्राप्त करना |
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चित्तवृत्ति निरोध एक साधन है साध्य नहीं| चित्त स्वयं को दो रूपों --- वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में गुरु-प्रदत्त बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसके नियंत्रण से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| आगे का मार्ग बहुत लम्बा है जिस पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता रहता है|
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योगी वही हो सकता जो स्वभाव से ही योगी हो ......
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भगवन श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है .....
"तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योsपि मतोsधिक:|
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्मात् योगी भवार्जुन:||"
तपस्वी, ज्ञानी और कर्मशील से भी अधिक योगी का महत्व बताकर भगवन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगी बनने का उपदेश दिया है| अब प्रश्न यह उठता है की योगी कैसे बना जाए|
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योगी गुरु की कृपा के बिना कभी कोई योगी नहीं बन सकता है| वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हरेक साधक को हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है|
जब एक बार स्वभाव में योग साधना बस जाये तो गुरुशक्ति ही साधक को साधना के चरम उत्कर्ष पर पहुँच देती है| इसके लिए आवश्यक है गुरु पर अटल विश्वाश और पूर्ण आत्मसमर्पण| स्वभाव है स्व का भाव |
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सुषुम्ना पथ के न खुलने तक अर्थात सुषुम्ना पथ पर प्राण वायु के गमनागमन न होने तक कोई भी व्यक्ति योगी नहीं बन सकता है|
श्वास-प्रश्वाश भौतिक रूप से तो नाक से ही चलता है पर उसकी अनुभूति मेरुदंड में होती है| श्वाश-प्रश्वाश तो एक प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं| प्राण तत्व जो मेरुदंड में संचारित होता है, उसी की प्रतिक्रया है सांस|

इति | शिवमस्तु | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !

भगवान ही हमारे एकमात्र आश्रय है .........

सुख की खोज हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है| हमारा एकमात्र लक्ष्य है .... परब्रह्म परमेश्वर को खोजना व उन्हें व्यक्त करना| यही भगवान की सेवा है|
हानि-लाभ, सुख-दुःख और जन्म-मरण .... इन सब का कारण हमारे स्वयं के विचारों व भावों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है|
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हमारे विचार, सोच और भाव ही हमारे कर्म हैं| ये सब मायावी दलदल है| जितना निकलने का प्रयास करते हैं, उतना ही फँसते जाते हैं| दूसरा कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता| अपने शत्रु और मित्र हम स्वयं हैं|
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हर संकल्प, हर इच्छा या कामना पूर्ण अवश्य होती है पर साथ में दुःखदायी कर्मों की सृष्टि भी कर देती है| ये ही पाप-पुण्य हैं| सृष्टि की रचना ही ऐसी है|
हमारे मनीषियों ने काम (कामना), क्रोध, लोभ, मोह, मद (अहंकार) और मत्सर्य (ईर्ष्या) को नर्क के द्वार बतलाये हैं, जो सत्य है|
अतः हमारा हर संकल्प .... शिव संकल्प हो| समष्टि के प्रति कल्याण की शुभ कामना ही हमारा कल्याण करेगी|
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इस मायावी दलदल से निकलने का एक ही मार्ग है और वह है ---- परमात्मा को समपर्ण, पूर्ण समर्पण| वहीँ यह भाव काम आता है कि मैं तुम्हारा हूँ|
अपने अच्छे-बुरे सब कर्म भगवान को बापस सौंप दो| उन्हें ही जीवन का कर्ता बनाओ| किसी के प्रति द्वेष, घृणा और क्रोध मत रखो| सबके कल्याण की कामना करो, उनकी शरण लो और उन्हें ही समर्पित होने की साधना करो| कल्याण होगा| हमारा आश्रय भगवान ही हैं| उन्हें किसी भी नाम से पुकारो| वे सदा हमारे ह्रदय में हैं और हम सदा उनके ह्रदय में हैं| यह सारा ब्रह्मांड हमारा घर है और सारी सृष्टि हमारा परिवार| यह उन्हीं की अभिव्यक्ति है और हम उन्हीं के हैं|
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सीमित व अशांत मन से ही सारे प्रश्नों का जन्म होता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से|
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अहंकार एक अज्ञान है| यह अज्ञान भी ध्यान साधना द्वारा ही दूर होता है| कोई भी साधना हो वह तभी सफल होती है जब ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और अभीप्सा हो| इनके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा के बारे में क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?

हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है| न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है| अब तुम और छिप नहीं सकते| तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा|
मेरा समर्पण पूर्ण हो| आपकी जय हो|

हमारा उच्चतम दायीत्व .....

हमारा उच्चतम दायीत्व परमात्मा के प्रति समर्पण है|
सृष्टि कि प्रत्येक शक्ति का स्त्रोत परमात्मा है| इस जन्म से पूर्व भी हमारा उन्हीं का साथ था और इस जन्म के पश्चात भी उन्हीं का साथ रहेगा| उनका साथ शाश्वत है|
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भौतिक मृत्यु के साथ सांसारिक दायीत्व समाप्त हो जाते हैं पर परमात्मा को उपलब्ध होने तक उनके प्रति दायीत्व बना ही रहता है| जब तक हम उन्हें उपलब्ध नहीं होते, हमारे ह्रदय की तड़फ बनी ही रहेगी| वे ही हमारे सम्बन्धी, शत्रु और मित्र हैं|
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सबसे बड़ी सेवा जो हम समाज, राष्ट्र और दूसरों के लिए कर सकते हैं, वह है परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण| हम स्वयं परमात्मा को उपलब्ध हो कर के, उस उपलब्धि के द्वारा बाहर के विश्व को एक नए साँचे में ढाल सकते हैं| सर्वप्रथम हमें स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित होना होगा|
फिर हमारा किया हुआ हर संकल्प पूरा होगा| तब प्रकृति की हरेक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य होगी| जिस प्रकार एक इंजन अपने ड्राइवर के हाथों में सब कुछ सौंप देता है, एक विमान अपने पायलट के हाथों में सब कुछ सौंप देता है वैसे ही हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता परमात्मा के हाथों में सौंप देनी चाहिए|
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जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, भगवान उन्हें वो ही चीज देते हैं जिसे वे माँगते हैं| परन्तु जो लोग अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते, उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं, उस व्यक्ति का हर संकल्प पूरा होता है|
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अपने लिए हमें कोई कामना नहीं रखनी चाहिये, जिससे परमात्मा हमारे माध्यम से कार्य कर सकें| परमात्मा एक प्रवाह हैं| उन्हें अपने भीतर प्रवाहित होने दें| सारे अवरोध नष्ट कर दें| हमारी एकमात्र कामना होनी चाहिए परमात्मा को उपलब्ध होना, अर्थात परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

गायत्री मन्त्र पर परिचयात्मक एक लघु लेख .

प्राचीन भारत ने ही विश्व को सब कुछ दिया| दुर्भाग्य से भारत के सेकुलरवादी लोग भारत के प्राचीन गौरव को छिपा रहे हैं| शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाजविज्ञान, कृषि और पशुपालन सब प्राचीन भारत की ही देन है| प्राचीन काल से ही समस्त भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान भारत ने ही विश्व को दिया था अतः भारत जगद्गुरु था| भारत के लोग देवता कहलाते थे|
इन सब के मूल में थी भारत की संस्कृति| भारतीय संस्कृति को भी शक्ति कहाँ से मिलती थी इसको यदि एक ही शब्द में समझना चाहें तो वह है ..... "गायत्री मन्त्र" ....| भारतीय संस्कृति को समझने के लिए गायत्री मन्त्र को समझना आवश्यक है| गायत्री मन्त्र ही तत्व-ज्ञान और ब्रह्म-विद्या का स्त्रोत है|
गायत्री और सावित्री एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं| इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही है| जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है| गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री-मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है| इस मन्त्र के देवता 'सविता' हैं| गायत्री-मन्त्र सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है| गायत्री मन्त्र के दर्शन अनेक ऋषियों को हुए| गायत्री मन्त्र अनादि काल से है| इस पर बहुत अधिक शोध की आवश्यकता है|
वेद अपौरुषेय हैं, उन्हें बिना परमात्मा की कृपा के नहीं समझा जा सकता|
प्राचीन ऋषि लोग गायत्री मन्त्र को जपने से पूर्व ... भू र्भुवः स्वः , इन तीन व्याहृतियों को उच्चारित कर लेते थे| इन्हें महाव्याहृति भी कहा जाता है| ऋषिगण ॐ कार का उच्चारण कर उसी में समाहित (ध्यानमग्न) हो जाते थे|
इसलिए भगवान मनु ने 'स प्रणव व्याहृति' के संग गायत्री पाठ का परामर्श दिया है जिसका अन्य भी शास्त्रकारों ने समर्थन किया है|