Monday, 25 March 2019

फांसी से नहीं मरे थे भगत सिंह

फांसी से नहीं मरे थे भगत सिंह
इतिहास और इतिहासकार कुछ भी कहते हों लेकिन 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर 1947 में मिली आजादी तक के कई ऐसे अनछुए पहलू हैं जिस पर या तो इतिहासकारों की नजर नहीं पडी या फिर उसे उन्होंने नजरअंदाज किया। आजादी के लगभग 60 बरस बाद भी लोगों के सामने सच्चाई क्यों नहीं आ सकी। किसने इतिहास लिखा और किसके इशारे पर इतिहास लिखा गया। आदि ऐसे कई सवाल हैं जो आज भी जवाब मांग रहे हैं। मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूं इतिहासकार नहीं लेकिन स्वतं़त्रता आंदोलन की कई घटनाओं पर मन में सवाल कौंधते हैं जिनका उत्तर इतिहासकारों के पास नहीं है।
आपको जानकर हैरत होगी कि जिन सवालों का जवाब हम आज ढूंढ रहे हैं वो सभी अंग्रेजों के पास मौजूद हैं। लेकिन ब्रिटेन जाकर किसी ने भी उसे जानने की कोशिश नहीं की। कुछ लोगों ने कोशिश जरूर की लेकिन उनकी बातों को कोई मानने वाला नहीं है। 1857 की हम 150 वीं वर्षगांठ भी मना चुके लेकिन शहीदों के बारे में हम आज भी वही जानते हैं जो तत्कालीन सत्ताधारियों ने लिखवाया। हमने अपने स्तर पर कुछ भी जानने का प्रयास नहीं किया। यही वजह है कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव के बारे में भी हम वही जानते हैं जो टेस्ट बुक में पढा है, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है।
तीनों क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या की थी। यह बात तो हम सभी जानते हैं। मर जाने के बाद भी सांडर्स पर भगत सिंह ने तीन गोलियां दागी थी, सांडर्स नौजवान था, उसकी इंगेजमेंट हो चुकी थी लेकिन शादी नहीं, किससे इंगेजमेंट हुई थी, क्रांतिकारियों की फांसी से सांडर्स का संबंध आदि कई सवाल हैं? 1857 की 150 वें शताब्दी वर्ष में बहुत सी ऐसी बातें सामने आयीं जिनको भारत सरकार को संज्ञान में लेना चाहिए था। उन्हीं में से एक है शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी के साथ जो बर्बर कांड किया गया उस क्रूरता की मिसाल दुनिया में नहीं मिलती। सबसे बडा रहस्योदघाटन तो यह हुआ कि जिस सांडर्स को इन्होंने मारा था वह वायसराय के पीए का दामाद बनने जा रहा था। सांडर्स के परिजन प्रतिशोध ले सकें इसके लिए इन देश भक्तों को फांसी पर लटकाने का नाटक किया गया।
अधमरे हालत में तीनों को उतारा गया और फिर उन्हें गोलियों से भूना गया। इसके बाद उनके अंग अंग काटे गए फिर किसी अज्ञात स्थान पर उनकी अस्थियों को दफन कर दिया गया। इतना ही नहीं इन क्रांतिकारियों के समाधि स्थल पर भी प्रश्नचिन्ह उठाया गया है। दरअसल 23 मार्च 1931 को क्रूर गोरों ने अपने ट्रोजन हार्स नामक प्लान को क्रियान्वित किया। तीनों को फांसी पर लटकाने का नाटक किया गया। जिन अंग्रेज अफसरों को यह जिम्मा सौंपा गया था उस टीम का नाम डेथ स्क्वायड रखा गया था। फांसी के फंदे से उतारने के बाद तीनों को लाहौर कैंटोमेंट बोर्ड के एक गुप्त स्थान पर लाया गया। जहां जेपी सांडर्स के रश्तेदारों ने भगत सिंह और उनके साथियों को गोलियों से छलनी किया। लोगों को बरगलाने के लिए अंग्रेजों ने बताया कि तीनों का अंतिम संस्कार हुसैनीवाला में किया गया है।
जबकि इनका अंतिम संस्कार व्यास और सतलज नदी जहां मिलती है वहां किसी स्थान पर किया गया था। उन्हें यह डर था कि अगर तीनों की लाश उनके परिजनों को सौंपी गई तो पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन शुरू हो जाएगा। इस बात का खुलासा ब्रिटिश-इंडिया इंटैलीजेंस ब्यूरो के एजेंट ने माटरडम आफ शहीद भगत सिंह नामक पुस्तक में किया है। जिस स्थल को आज क्रांतिकारियों के समाधि स्थल के रूप में पूजा जाता है उस पर भी पुस्तक में प्रश्नचिन्ह उठाया गया है। कहा गया है कि जैसा भगत सिंह सोचते थे कि उनके मरने के बाद देश में अंग्रेजों के खिलाफ एक बडा आंदोलन होगा वैसा कुछ भी नहीं हुआ। जबकि उनके अस्थि कलश को भारत में घुमाया गया।
लोगों ने और उस समय नेताओं उनके बलिदान की प्रशंसा की लेकिन साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ कोई गुस्सा नहीं फूटा। मौत के बाद 8 अप्रैल 1931 को अखिल भारतीय भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव मेमोरियल कमेटी बनाई गयी। आनंद किशोर मेहता उसके अध्यक्ष बनाए गए। कमेटी ने खुली अपील जारी की कि लाहौर में इन क्रांतिकारियों का स्मारक बनाने के लिए कुछ दान करें। इसी संदर्भ में मेहता ने एक पत्र गांधी जी को लिखा। 13 अप्रैल 1931 को महात्मा गांधी ने जवाब दिया जो आज भी ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन के गृह विभाग में फाइल नंबर 33-11-1931 रखा है। गांधी जी ने पत्र में सीधे किसी भी तरह की सहायता से इनकार कर दिया। उन्होंने लिखा कि ऐसा करने से लोग और भडकेंगे और ऐसे ही रास्तों को अख्तियार करेंगे। इसलिए ऐसे स्मारक से मैं कम ही इच्छुक हूं कि संबंध रखा जाए। पुस्तक में कहा गया है कि यहां पर गांधी जी अंग्रेजों से बिल्कुल भी अलग नहीं दिख रहे थे। अंग्रेजों का कहना था कि पुलिस के हत्यारों का स्मारक नहीं बनने दिया जाएगा। स्वतंत्र भारत में बहुत स्मारक बनाए गए लेकिन इन क्रांतिकारियों का सच्चा स्मारक आज भी नहीं है।
सवाल जो आज भी मांगते हैं जवाब
भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को सुबह के बजाय रात में ही क्यों दी गई फांसी।
परिजनों को शव न देकर इनका अंतिम संस्कार लाहौर से 80 किलोमीटर दूर हुसैनीवाला में क्यों किया गया।
तीनों क्रांतिकारियों का पोस्टमार्टम क्यों नहीं कराया गया।
24 मार्च को क्यों नहीं दी गई फांसी
जिम्मेदार कौन?
लाहौर जेल प्रशासन, जिला प्रशासन, पंजाब पुलिस के अधिकारी और सीआईडी या फिर तत्कालीन गवर्नर पंजाब।
भारतीय राष्टीय कांग्रेस और पं जवाहर लाल नेहरू
महात्मा गांधी और लार्ड इर्विन
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पुस्तक के लेखक का परिचय
के एस कूनर
ज्ञानी त्रिलोक सिंह के पुत्र कूनर को दिलीप सिंह इलाहाबादी ने गोद लिया हुआ था, जो कि 1925 से 1936 तक ब्रिटिश सीक्रेट सर्विस में सिपाही थे।
गुरूप्रीत सिंह सिंधरा
महज बारह वर्ष के थे जब शहीद भगत सिंह की समाधि स्थल हुसैनीवाला गए। उसके बाद से भगत सिंह और क्रांतिकारियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियों भारत और लंदन लाइब्रेरी से इकट्ठा कीं और उसे पुस्तक का रूप दि

कुण्डलिनी महाशक्ति क्या होती है ? .....

कुण्डलिनी महाशक्ति क्या होती है ? .....
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यह विद्या एक वैदिक उपासना है जिसका वर्णन कृष्ण यजुर्वेद में है| पर किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु के आशीर्वाद व मार्गदर्शन के बिना इसे समझना असंभव है| यदि हो सके तो किन्हीं सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद व आज्ञा प्राप्त कर उन के सान्निध्य में श्वेताश्वतरोपनिषद् का एक बार स्वाध्याय करें| साथ साथ गुरु की आज्ञा से उनके मार्गदर्शन में ध्यान साधना भी करें| बृहदारण्यकोपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य व राजा जनक के मध्य के संवाद का भी स्वाध्याय करें, गीता का तो नित्य करना ही है|
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"कुण्डलिनी" शब्द एक तांत्रिक नाम है, वैदिक नहीं| सूक्ष्म देह में कुण्डलिनी जागरण की अनुभूतियाँ सिद्धगुरु के रूप में परमात्मा की कृपा व आशीर्वाद से ही होती हैं| श्रीहनुमान जी के ध्यान साधकों में श्रीहनुमान जी की कृपा से भी कुण्डलिनी जागृत हो जाती है| श्रीहनुमान जी वायु व प्राण-तत्व भी हैं| हनुमान चालीसा का आरम्भ "श्रीगुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधार" शब्दों से होता है| इन शब्दों का एक गहनआध्यात्मिक अर्थ भी है| इसका लौकिक अर्थ तो होता है .... "श्रीगुरु चरणकमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को उज्जवल करते हुए"| यहाँ विचार का विषय है कि श्रीगुरुचरण क्या हैं? उनकी धूल क्या है? और उनसे मन रूपी दर्पण कैसे सुधरेगा? इस पर विचार करें|
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हमारा आज्ञाचक्र अवधान का भूखा है| आज्ञाचक्र के ठीक सामने भ्रूमध्य है, जहाँ हम गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं, पर चेतना आज्ञाचक्र में ही रहती है| शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़ कर तालू से सटाते हुए) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करते रहने से, परमात्मा के परम अनुग्रह से कुछ महिनों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान सूर्यमंडल के तरह की ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होने लगती है और प्रणव की ध्वनि भी सुनाई देने लगती है| भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के ब्रह्मरूप दर्शन में इस ज्योति का वर्णन किया है ....
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता| यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः||११:१२||"
यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| इसे ही कूटस्थ कहते हैं, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं ....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||
कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति ही ब्राह्मी स्थिति है जिसका वर्णन भगवान श्रीकृष्ण गीता में करते हैं.....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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आज्ञाचक्र ही योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं, क्योंकि यहीं आज्ञाचक्र में जीवात्मा का निवास है| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होता है, वह स्थान कूटस्थ बिंदु (शिखा स्थान) है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे से थोड़ा नीचे की ओर का भाग है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ आकर मस्तिष्क से मिलती हैं|
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कूटस्थ में चेतना को सदा रखने की साधना करने से शरीर की प्राण-ऊर्जा जो बाह्यमुखी है, अंतर्मुखी होकर मूलाधार चक में एकत्र होने लगती है| इस घनीभूत प्राणऊर्जा को ही कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं| यह अनुभवज्ञेय विषय है, बौद्धिक नहीं| इसे समझाने के लिए तंत्रागमों में प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग किया गया है, जिसे सिर्फ बुद्धि से ही समझना बड़ा भ्रामक है|
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ध्यान साधना करते करते एक समय ऐसा आता है जब लगता है कि कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| बस समझ लीजिये कि कुण्डलिनी का जागरण आरम्भ होने ही वाला है| गुरुकृपा से यह घनीभूत प्राणऊर्जा जो मूलाधार में एकत्र है, एक दिन अचानक ही मूलाधार का भेदन कर सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती है जिसका पता साधक को चल जाता है| यही कुण्डलिनी जागरण है|
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धीरे धीरे धीरे कूटस्थ-ब्रह्मज्योति सहस्त्रार में दिखाई देने लगती है तब सहस्त्रार में ही ध्यान करना चाहिए| सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण-कमल हैं| सहस्त्रार पर ध्यान ही श्रीगुरुचरणों का ध्यान है| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| वहाँ से निकलने वाला प्रकाश-पुंज श्रीगुरुचरणों की रज है| मन को वहीं लगाकर रखना चाहिए|
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श्रीगुरुचरणों के ध्यान से वहाँ का प्रबल आकर्षण उस घनीभूत प्राण को अपनी ओर ऊपर खींचता है| उस घनीभूत प्राण का प्रवाह ऊपर-नीचे चलता रहता है| मूलाधार से आज्ञाचक्र के मध्य का स्थान "अज्ञान-क्षेत्र" है| वह घनीभूत प्राणऊर्जा यानि कुण्डलिनी महाशक्ति एक दिन गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भी भेदन कर लेती है जहाँ से "ज्ञान-क्षेत्र" आरम्भ होता है| इसे उत्तरा-सुषुम्ना भी कहते हैं| सारा ज्ञान और सारी सिद्धियाँ यहीं है| यहीं से ज्येष्ठा, वामा व रोद्री ग्रंथियों का आभास होता है जिनसे सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण निःसृत होते हैं| सहस्त्रार से व ब्रह्मरंध्र से आगे का भाग "पराक्षेत्र" है जहाँ जीवात्मा परमात्मा के एक हो जाती है| उस स्थान के बारे में भगवान कहते हैं .....
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः| यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम||१५:६||
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पर यह इतना सरल नहीं है| इसके लिए चाहिए गीता में बताई हुई अव्यभिचारिणी अनन्य भक्ति, और पूर्ण समर्पण | गुरुकृपा भी तभी होती है जब निष्ठापूर्वक पूर्ण समर्पण हो, अन्यथा नहीं|
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"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत| तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्||१८:६२||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
"न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः| भविता न च मे तस्मा-दन्यःप्रियतरो भुवि||१८:६९||"
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||"
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१९

मैं और मेरे परम मित्र जीसस क्राइस्ट ..... (भाग 1)

मैं और मेरे परम मित्र जीसस क्राइस्ट .....
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यह किसी की निंदा या आलोचना नहीं हृदय की एक भावना व अनुभूति मात्र है| मेरी इन पंक्तियों से किसी की भावनाएँ आहत नहीं होनी चाहियें| मैं एक निष्ठावान हिन्दू हूँ पर किशोरावस्था से अब तक मैं जीसस क्राइस्ट का प्रशंसक भी रहा हूँ| जीसस की महिमा में मैंने फेसबुक पर तीन-चार लेख भी लिखे हैं| किशोरावस्था में ही न्यू टेस्टामेंट के सारे उपलब्ध चारों गोस्पेल पढ़ लिए थे, ओल्ड टेस्टामेंट तो बहुत बाद में पढ़ा| पर मैं कभी भी ईसाई पंथ से प्रभावित नहीं हुआ| जिस तरह से ईसाई धर्म-प्रचारकों ने भारत में व समस्त विश्व में छल-कपट वअत्याचार किये उससे मुझे इस पंथ में कोई खूबी दृष्टिगत नहीं हुई| इसे मैं क्रिस्चियनिटी नहीं बल्कि चर्चियनिटी मानता हूँ| पर जीसस से मित्रता बनी रही क्योंकि मेरी दृष्टी में उन्होंने भारत में अध्ययन कर के मूल रूप से सनातन धर्म की शिक्षाओं का ही प्रचार किया था|
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आरम्भ में भारत से जितने भी सन्यासी हिन्दू धर्मप्रचार के लिए अमेरिका गए उन्हें अपनी बात कहने के लिए जीसस क्राइस्ट का सहारा लेना ही पड़ा, अन्यथा वहाँ उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक तरह की मार्केटिंग थी| ओशो उर्फ़ आचार्य रजनीश ने अमेरिका में पहली बार खुलकर जीसस की आलोचना की तो उन्हें बहुत बुरी तरह अपमानित व प्रताड़ित कर के अमेरिका से भगा दिया गया|
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सन १९८२ ई.में मैं नीदरलैंड से एक धातु की मूर्ति भी जीसस क्राइस्ट की लाया था जिसमें वे क्रॉस पर लटके हुए हैं| मेरे पूजा के कमरे में भी एक चित्र जीसस क्राइस्ट का लगा हुआ है| भारत के कई हिन्दू आश्रमों में भगवान श्री कृष्ण के साथ साथ जीसस क्राइस्ट का चित्र आपको पूजा की वेदी पर मिल जाएगा| रामकृष्ण मिशन के आश्रमों में तो माँ काली की मूर्ति के साथ मदर टेरेसा का चित्र लगा देखकर मैं आहत भी हुआ हूँ|
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पर आजकल मुझे अनुभूत हो रहा है कि जीसस क्राइस्ट एक काल्पनिक चरित्र हैं, जिनको सेंट पॉल नाम के एक पादरी ने परियोजित किया| इनकी कल्पना सेंट पॉल के दिमाग की उपज थी जो बाद में एक राजनीतिक व्यवस्था बन गयी| यूरोप के शासकों ने अपने उपनिवेशों व साम्राज्य का विस्तार करने के लिए ईसाईयत का प्रयोग किया| उनकी सेना का अग्रिम अंग चर्च होता था| रोम के सम्राट कांस्टेंटाइन द ग्रेट ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए ईसाईयत का सबसे आक्रामक प्रयोग किया| कांस्टेंटिनोपल यानि कुस्तुन्तुनिया उसी ने बसाया था जो आजकल इस्तांबूल के नाम से जाना जाता है| यूरोप का सब से बड़ा धर्मयुद्ध (ईसाइयों व मुसलमानों के मध्य) वहीं लड़ा गया था| कांस्टेंटाइन द ग्रेट एक सूर्योपासक था इसलिए उसी ने रविवार को छुट्टी की व्यवस्था की| उसी ने यह तय किया कि जीसस क्राइस्ट का जन्म २५ दिसंबर को हुआ, क्योंकी उन दिनों उत्तरी गोलार्ध में सबसे छोटा दिन २४ दिसंबर को होता था, और २५ दिसंबर को सबसे पहिला बड़ा दिन होता था| आश्चर्य की बात यह है कि ईसाई पंथ का यह सबसे बड़ा प्रचारक स्वयं ईसाई नहीं बल्कि एक सूर्योपासक था| अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए उसने ईसाईयत का उपयोग किया| मृत्यु शैय्या पर जब वह मर रहा था तब पादरियों ने बलात् उसका बपतिस्मा कर के उसे ईसाई बना दिया|
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ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं जिनसे किसी को आहत नहीं होना चाहिए| मुझे तो यही अनुभूत होता है कि जीसस क्राइस्ट का कभी जन्म ही नहीं हुआ था, और उनके बारे में लिखी गयी सारी कथाएँ काल्पनिक हैं| उनके जन्म का कोई प्रमाण नहीं है| यदि वे थे भी तो उनकी मूल शिक्षाएँ भगवान श्रीकृष्ण की ही शिक्षाएँ थीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१९
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पुनश्चः :----
जीसस क्राइस्ट के नाम पर ही योरोपीय साम्राज्य विस्तार के लिए वेटिकन के आदेश से वास्कोडिगामा को यूरोप के पूर्व में, और कोलंबस को पश्चिम में भेजा गया था|
यूरोप से गए ईसाईयों ने ही दोनों अमेरिकी महाद्वीपों के प्रायः सभी करोड़ों मनुष्यों की ह्त्या कर के वहाँ योरोपीय लोगों को बसा दिया| वहां के जो बचे-खुचे मूल निवासी थे उन्हें बड़ी भयानक यातनाएँ देकर ईसाई बना दिया गया| कालान्तर में यही काम ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड में किया गया|
पुर्तगालियों ने यही काम गोवा में किया| गोवा में यदि कुछ हिन्दू बचे हैं तो वे भगवान की कृपा से ही बचे हैं| अंग्रेजों ने भी चाहा था सभी भारतवासियों की ह्त्या कर यहाँ सिर्फ अंग्रेजों को ही बसा देना| पर भगवान की यह भारत पर कृपा थी कि अंग्रेजों को इस कार्य में सफलता नहीं मिली| मुस्लिम शासकों ने अत्याचार करना ईसाई प्रचारकों से ही सीखा| ईसाइयों ने जितने अत्याचार और छल-कपट किया है उतना तो ज्ञात इतिहास में किसी ने भी नहीं किया|

जब राष्ट्र की अस्मिता खतरे में है ....

राष्ट्र की अस्मिता यानि हमारे धर्म व अस्तित्व पर जब मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, तब हमारा सर्वोपरी धर्म अपनी अस्मिता यानि धर्म और राष्ट्र की रक्षा करना है| हमें कोई मुक्ति नहीं चाहिए| हम तो नित्यमुक्त है, सारे बंधन भ्रम हैं| नित्यमुक्त को मुक्ति की कैसी कामना?
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इस राष्ट्र का ब्रह्मतेज और क्षात्रत्व हम जागृत करेंगे, यह हम सब का संकल्प है| इस राष्ट्र को अन्धकार व असत्य से मुक्त करायेंगे| हम जीयेंगे तो स्वाभिमान और आत्म-गौरव से, अन्यथा नहीं रहेंगे|
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इस लोकसभा के चुनाव में हम खुलकर राष्ट्रवाद का साथ देंगे, क्योंकि हमारा विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है कि भारतमाता अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हों, सनातन धर्म का पुनरोत्थान हो, व राम-राज्य की स्थापना हो|
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जय जननी जय भारत ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०१९

संध्याकाळ ---

संध्याकाल ..... 
दो श्वासों के मध्य का संधिकाल "संध्या" कहलाता है जो परमात्मा की उपासना का सर्वश्रेष्ठ अबूझ मुहूर्त है| लौकिक रूप से तो संध्याकाल .... प्रातः, सायं, मध्यरात्री और मध्याह्न में आता है, पर एक भक्त के लिए प्रत्येक प्रश्वास और निःश्वास, व निःश्वास और श्वास के मध्य का समय "संध्याकाल" है| हर श्वास पर परमात्मा का स्मरण होना चाहिए क्योंकि परमात्मा स्वयं ही सभी प्राणियों के माध्यम से साँसें ले रहे हैं, यह उनका प्राणियों को सबसे बड़ा उपहार है| हर एक प्रश्वास जन्म है, और हर एक निःश्वास मृत्यु| इनके मध्य के संध्याकाल में सदा परमात्मा का स्मरण होना ही चाहिए| यह ही वास्तविक संध्या उपासना है|
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एक सूक्ष्म श्वास आज्ञाचक्र से ऊपर भी चलता है जो परमात्मा की कृपा से ही समझा जा सकता है| नाक से नाभि तक इस भौतिक देह में जो सांस चलता है वह सूक्ष्म देह में डोल रहे प्राण-तत्व की प्रतिक्रिया मात्र है| प्राण-तत्व को भी परमात्मा की कृपा द्वारा ही समझा जा सकता है| जब प्राण-तत्व का डोलना बंद हो जाता है तब प्राणी की भौतिक मृत्यु हो जाती है| यह प्राण-तत्व हमें मेरुदंड में सुषुम्ना, तत्पश्चात आज्ञाचक्र से ऊपर उत्तरा-सुषुम्ना में अनुभूत होता है| इसके बाद की भी अवस्थाएँ हैं जो अनुभूतियों द्वारा परमात्मा की कृपा से ही समझ में आती हैं जिनका यहाँ वर्णन व्यर्थ है|
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हमारा मन जब मूलाधार व स्वाधिष्ठान केन्द्रों में ही रहता है तब वह धर्म की हानि है| हर श्वास में ईश्वरप्रणिधान का सहारा लेकर आज्ञाचक्र तक व उससे ऊपर उठना धर्म का अभ्युत्थान है|
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में मनुष्य देह को इस संसार सागर को पार करने की नौका, गुरु को कर्णधार, व अनुकूल वायु को परमात्मा का अनुग्रह बताया है| मैं वहीं से संकलित कर के इसे उद्धृत कर रहा हूँ .....
" बड़ें भाग मानुष तनु पावा | सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ||
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा | पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ||
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्‍या दोष लगाइ॥
एहि तन कर फल बिषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई। गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई॥
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
सार की बात यह कि जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है| ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
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ये अनुकूल वायु हमारी साँसें ही हैं| इनके संध्याकाल में परमात्मा सदा हमारी चेतना में रहें| आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०१९
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पुनश्चः :--- यह एक रहस्य की बात है जिसे सभी को जानना चाहिए कि जब दोनों नासिका छिद्रों से सांस चल रही हो, तब वह परमात्मा की साधना का सर्वश्रेष्ठ समय है| वह समय भी एक संधिकाल ही है| दोनों नासिका छिद्रों से सांस बराबर चलती रहे इस के लिए हठयोग में अनेक क्रियाएँ सिखाई जाती हैं|
आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में सभी सिद्धियों का निवास है| इन सिद्धियों का मोह छूट जाए इसके लिए सहस्त्रार में श्रीगुरु-चरणों का ध्यान करना होता है| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है|
ब्रह्मरंध्र से परे की अनंतता .... परमशिव है| वहाँ स्थित होकर जीव स्वयं शिव हो जाता है| कुण्डलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२२ मार्च २०१९

पुनर्जन्म न हो, इस पर एक लघु चर्चा .....

पुनर्जन्म न हो, इस पर एक लघु चर्चा .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन | मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||
अर्थात ... हे अर्जुन ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं| परन्तु हे कौन्तेय मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता||
जिसमें प्राणी उत्पन्न होते और निवास करते हैं, उसका नाम भुवन है| ब्रह्मलोक ब्रह्मभुवन कहलाता है| भगवान के अनुसार ब्रह्मलोक सहित समस्त लोक पुनरावर्ती हैं| अर्थात् जिनमें जाकर फिर संसार में जन्म लेना पड़े ऐसे हैं| परंतु केवल भगवान के प्राप्त होनेपर फिर पुनर्जन्म नहीं होता|
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एक ग्रन्थ में लिखा है .... "रथस्थं वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते|"
अर्थात् शरीर रूपी रथ में जो सूक्ष्म आत्मा को देखता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि इस शरीर रूपी रथ में सूक्ष्म आत्मा को कैसे देखे?
इसका उत्तर बड़ा कठिन है| जो लोग दीर्घकाल तक गहन ध्यान साधना करते हैं, वे ही निजानुभूतियों से इसे समझ सकते हैं| मुझे यह विषय बहुत अच्छी तरह समझ में आता है पर किसी जिज्ञासु को समझाने में असमर्थ हूँ, क्योंकि यह बुद्धि का नहीं बल्कि अनुभूति का विषय है जिसे अनुभूतियों द्वारा ही समझा जा सकता है|
इसका अर्थ वही समझ सकता है जो कूटस्थ में ज्योति, अक्षर और स्पंदन के लय को सदा अनुभूत करता है| इसे लययोग भी कहते हैं| अपना संपूर्ण ध्यान ब्रह्मरंध पर केंद्रित करके ब्रह्म में लीन हो जाना "लय योग ध्यान" है| इसमें नादानुसन्धान, आत्म-ज्योति-दर्शन और कुण्डलिनि-जागरण करना पड़ता है| इसे क्रियायोग भी कहते हैं जिसे किसी सिद्ध गुरु से ही सीखना चाहिए, हर किसी से नहीं|
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हम झूले में ठाकुर जी को झूला झुला कर उत्सव मनाते हैंं, यह तो प्रतीकात्मक है| पर वास्तविक झूला तो कूटस्थ में है जहाँ सचमुच आत्मा की अनुभूति .... ज्योति, नाद व स्पंदन के रूप में होती है| तब सौ काम छोड़कर भी उस में लीन हो जाना चाहिए| यह स्वयं में एक उत्सव है| ज्योति, नाद व भगवत-स्पंदन की अनुभूति होने पर पूरा अस्तित्व आनंद से भर जाता है जैसे कोई उत्सव हो| यही ठाकुर जी को झूले में डोलाना है|
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तंत्र शास्त्रों में इसे दूसरे रूप में समझाया गया है....
"पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले |
उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ||" (तन्त्रराज तन्त्र).
अर्थात् पीये, और बार बार पीये जब तक भूमि पर न गिरे| उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
यह एक बहुत ही गहरा ज्ञान है जिसे एक रूपक के माध्यम से समझाया गया है| यह क्रियायोग विज्ञान है|
आचार्य शंकर ने "सौंदर्य लहरी" के आरम्भ में ही भूमि-तत्त्व के मूलाधारस्थ कुण्डलिनी के सहस्रार में उठ कर परमशिव के साथ विहार करने का वर्णन किया है| विहार के बाद कुण्डलिनी नीचे भूमि तत्त्व के मूलाधार में वापस आती है| बार बार उसे सहस्रार तक लाकर परमेश्वर से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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सार : जिस विषय की चर्चा मैनें छेड़ी है उसकी साधना और अभ्यास में ही सार्थकता है| इस विषय में सिद्ध गुरु से दीक्षा लेकर उनके सान्निध्य में ही साधना करनी चाहिए|
आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०१९

होली की दारुण रात्रि .....

होली की दारुण रात्रि .....
आध्यात्मिक साधना और मंत्र सिद्धि के लिए चार रात्रियों का बड़ा महत्त्व है| ये हैं .... कालरात्रि (दीपावली), महारात्रि (महाशिवरात्रि), मोहरात्रि (जन्माष्टमी). और दारुण रात्रि (होली)| होली की रात्रि दारुणरात्रि है जो मन्त्र सिद्धि के लिए सर्वश्रेष्ठ है| इस रात्रि को किया गया ध्यान, जप-तप, भजन ... कई गुणा अधिक फलदायी होता है| दारुणरात्रि को की गयी मंत्रसाधना बहुत महत्वपूर्ण और सिद्धिदायी है| अनिष्ट शक्तियों से रक्षा, रोग निवारण, शत्रु बाधा, ग्रह बाधा आदि समस्त नकारात्मक बाधाओं के निवारण के लिए किसी आध्यात्मिक रक्षा कवच की साधना करने के इस अवसर का लाभ अवश्य उठाना चाहिए|
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भौतिक देह की चेतना से ऊपर उठने की साधना वैसे तो नित्य करनी चाहिए पर होली पर मिले इस सुअवसर का लाभ उठाना चाहिए|आत्म-विस्मृति ही सब दुःखों का कारण है| इस दारुणरात्रि को गुरु प्रदत्त विधि से अपने आत्म-स्वरुप यानि सर्वव्यापी परमात्मा का ध्यान करें| इस रात्रि में सुषुम्ना का प्रवाह प्रबल रहता है अतः निष्ठा और भक्ति से सिद्धि अवश्य मिलेगी| इस सुअवसर का सदुपयोग करें और समय इधर उधर नष्ट करने की बजाय आत्मज्ञान ही नहीं बल्कि धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए भी साधना करें| धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए एक विराट आध्यात्मिक शक्ति के जागरण की हमें आवश्यकता है| यह कार्य हमें ही करना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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इस अवसर पर एक बार गीता के आत्मसंयमयोग का कुछ स्वाध्याय कर लेते हैं| भगवान कहते हैं ....
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यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||६:२२||
भावार्थ : परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित मनुष्य परम आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भारी से भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है।
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तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्| स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा||६:२३||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए योग समाधि में स्थित रहकर कार्य करे।
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सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः| मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ||६:२४||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को सभी ओर से वश में करे।
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शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया| आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ||६:२५||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे।
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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ | ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ||६:२६||
भावार्थ : मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा में ही स्थिर करे।
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प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ | उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ||६:२७||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है।
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युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः| सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते||६:२८||
भावार्थ : इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है।
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सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि| ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः||६:२९||
भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव से देखने वाला होता है।
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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है।
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सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः| सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ||६:३१||
भावार्थ : योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है |
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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन| सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः||६:३२||
भावार्थ : हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणीयों को देखता है, सभी प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये।
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आप सब को नमन और होली की हार्दिक शुभ कामनाएँ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०१९

दूसरों के घर के दीपक बुझाकर कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता ....

दूसरों के घर के दीपक बुझाकर कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता| शांति का मार्ग जो भगवान् ने बताया है वह यह है ....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
श्रुति भगवती भी कहती है ..... "एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति |"
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विश्व के अनेक लोग जो स्वयं तो शान्ति से रहना नहीं जानते, पर अपनी शान्ति की खोज धर्म के नाम पर दूसरों के प्रति घृणा, दूसरों की सभ्यताओं के विनाश, और दूसरों के नरसंहार में ही ढूँढते रहे हैं| ऐसे ही नरसंहारों का शिकार भारत बहुत लम्बे समय तक रहा है| ऐसे ही लोग इस संसार को नष्ट करने के लिए तत्पर हैं| दूसरों से घृणा कर के या दूसरों का गला काट कर हम परमात्मा को प्रसन्न नहीं कर सकते|
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सभी में हम परमात्मा का दर्शन करें| साथ साथ आतताइयों से स्वयं की रक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए एकजुट होकर प्रतिरोध और युद्ध करने के धर्म का पालन भी करें| अपना हर कार्य और अपनी हर सोच निज विवेक के प्रकाश में हो| जिस भी परिस्थिति में हम हैं, उस परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ कार्य हम क्या कर सकते हैं, वह हम ईश्वर प्रदत्त निज विवेक से निर्णय लेकर ही करें| जहाँ संशय हो वहाँ भगवान से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करें| हम मिल जुल कर प्रेम से रहेंगे तो सुखी रहेंगे | श्रुति भगवती कहती है ....
"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् | देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ||"
अर्थात् हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोले , हमारे मन एक हो |
प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय हैं|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
१८ मार्च २०१९