Thursday 5 August 2021

भगवान शिव अपनी देह में भस्म क्यों लगाते हैं? --- (संशोधित/पुनर्प्रस्तुत लेख)

 

भगवान शिव अपनी देह में भस्म क्यों लगाते हैं? --- (संशोधित/पुनर्प्रस्तुत लेख)
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भगवान शिव तो समस्त जगत के स्वामी हैं, लेकिन वे अपनी देह में भस्म ही रमाते हैं, क्योंकि भस्म --वैराग्य की प्रतीक है। एक पुराणोक्त कथा है कि मतिहीन कामदेव ने ध्यानस्थ भगवान शिव को कामोद्दीप्त करने के लिए कामवाण चलाया था, जिस से शिव की समाधी भंग हुई और उनकी क्रोधाग्नि से कामदेव जल कर भस्म हो गया। कामदेव की पत्नी रति के करुण विलाप से द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने कामदेव के शरीर की भस्म को अपने शरीर पर लेप लिया और कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया। मनोभव यानि मन से उत्पन्न होने वाले कंदर्प यानि कामदेव की भस्म को अपनी देह पर रमाकर भगवान शिव ने सस्नेह घोषणा की कि 'आज से भक्त/अभक्त सबके देहावाशेषों की भस्म ही मेरा श्रेष्ठ भूषण होगी।'
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शैव ग्रंथों में लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर शिवपूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती। इसीलिए शिवभक्त भस्म, त्रिपुंड और रुद्राक्ष माला धारण करते हैं। तपस्वी साधू-संत ठंडी और गर्मी से बचाव के लिए भी भस्म लेपन करते हैं। भस्म --- त्याग तपस्या और वैराग्य का प्रतीक है। रुद्रयामल तंत्र के अनुसार यह अग्नि-स्नान है जो भगवन शिव को सर्वप्रिय है। भस्मलेप को अग्नि-स्नान माना जाता है। यामल तंत्र के अनुसार सात प्रकार के स्नानों में अग्नि-स्नान सर्वश्रेष्ठ है। भस्म देह की गन्दगी को दूर करता है। भगवान शिव ने अपने लिए आग्नेय स्नान को चुन रखा है।
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भस्म का आध्यात्मिक अर्थ बहुत गहन है। जिसने काम वासना और अहंकार से मुक्त होकर अपनी घनीभूत प्राण चेतना यानि कुण्डलिनी को जागृत कर गुरुकृपा से आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर लिया है वह भस्मधारी है। वही शिवमय होने का पात्र है। यही है शिव जी के भस्म धारण का रहस्य।
(तंत्रागमों में भस्म के बारे में और भी कई बातें है जिनका संबंध साधनाओं से है। उन्हें यहाँ लिखने का कोई औचित्य नहीं है।)
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भस्म बनाने की विधि ---
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भस्म सिर्फ देसी गाय के शुद्ध गोबर से ही बनती है। इसकी विधि यह है कि देसी गाय जब गोबर करे तब भूमि पर गिरने से पहिले ही उसे शुद्ध पात्र या बांस की टोकरी में एकत्र कर लें और स्वच्छ शुद्ध भूमि पर या बाँस की चटाई पर थाप कर कंडा (छाणा) बना कर सुखा दें। सूख जाने पर उन कंडों को इस तरह रखें कि उनके नीचे शुद्ध देसी घी का एक दीपक जलाया जा सके। उस दीपक की लौ से ही वे कंडे पूरी तरह जल जाने चाहियें। जब कंडे पूरी तरह जल जाएँ तब उन्हें एक साफ़ थैले में रखकर अच्छी तरह कूट कर साफ़ मलमल के कपडे में छान लें। कपड़छान हुई भस्म को किसी पात्र में इस तरह रख लें कि उसे सीलन नहीं लगे। भस्म तैयार है। पूजा से पूर्व माथे पर और अपनी गुरु परम्परानुसार देह के अन्य अंगों पर भस्म से त्रिपुंड लगाएँ।
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ॐ स्वस्ति !! शिवमस्तु !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
४ अगस्त २०२१

हे मेरे मन, तूँ अब स्वतंत्र है ---

 

हे मेरे मन, तूँ अब स्वतंत्र है, जहाँ भी जहाँ तक भी जा सकता है, वहाँ तक जा, और दसों दिशाओं के अखंड अनंत विस्तार में स्थायी रूप से सर्वत्र फैल जा। तुम्हें अब पूरी छूट है। याद रख कि मुझ आत्मा से अन्य कोई है ही नहीं। तुम्हारी गति मुझ से बाहर नहीं है। जहाँ भी तूँ जायेगा, वहीं मुझ आत्मा को ही पायेगा।
मोह और राग-द्वेष का अस्तित्व निद्रा में एक स्वप्न मात्र था। सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म मैं ही हूँ।
शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ अगस्त २०२१

मेरा स्वाभाविक प्रेम -- भारत और सनातन धर्म से है ---

 

मैं किसी भी प्रकार की वाहवाही या प्रशंसा के लिए नहीं लिखता। वाहवाही व प्रशंसा करने वालों से मैं प्रभावित भी नहीं होता। भगवान से प्रेम मेरा स्वभाव है जो मुझे लिखने के लिए बाध्य कर देता है। मेरी रुचि सिर्फ उन महान आत्माओं में है जिनके हृदय में भगवान के प्रति कूट-कूट कर प्रेम भरा पड़ा है और जो नित्य नियमित उपासना करते हैं। अन्य किसी से मेरा कणमात्र भी हार्दिक जुड़ाव नहीं है।
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भगवान का निज जीवन में साक्षात्कार -- सनातन धर्म है, जिस की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में हुई है। इसलिए मेरा स्वाभाविक प्रेम -- भारत और सनातन धर्म से है। सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो, व भारत एक सत्यनिष्ठ धर्मावलम्बी राष्ट्र बने जहाँ की राजनीति सत्य-सनातन-धर्म हो, यह मेरा संकल्प है जो निश्चित रूप से फलीभूत होगा। भगवान से भी ऐसा आश्वासन मुझे प्राप्त है। मेरे निज जीवन में भी परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति है, किसी भी तरह का कोई भेद नहीं है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
३ अगस्त २०२१

"तमोगुण से मुक्त कैसे हों?" ---

 

"तमोगुण से मुक्त कैसे हों?" ---
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यह हमारी सब से बड़ी समस्या है। तमोगुण न तो भगवान की भक्ति करने देता है, व न कोई सांसारिक सफलता प्राप्त करने देता है, और अंततः हमें नर्क-कुंड में डालता है। गीता में भगवान कहते हैं --
"ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१४:१८॥"
अर्थात् ... सतोगुण में स्थित जीव स्वर्ग के उच्च लोकों को जाता हैं, रजोगुण में स्थित जीव मध्य में पृथ्वी-लोक में ही रह जाते हैं, और तमोगुण में स्थित जीव पशु आदि नीच योनियों में नर्क को जाते हैं॥
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हम अपनी मनःस्थिति व भावावेशों से कई बार क्रोधित या दुखी हो जाते हैं। इसका एकमात्र कारण है -- अपेक्षाओं की पूर्ति न होने व असहायता की भावना से उत्पन्न कुंठा। इंद्रिय सुखों में अत्यधिक लिप्त होने से मानस रुग्ण हो जाता है। फिर जरा सी भी अपेक्षा की पूर्ति न होने से क्रोध या निराशा आने लगती है। कई बार तो वह निराशा इतनी अधिक होती है कि व्यक्ति आत्म-हत्या की सोचने लगता है। इस तरह के अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को तुरंत मनोवैज्ञानिक सहायता की आवश्यकता होती है। जब भी ऐसी मनःस्थिति उत्पन्न हो तब हमें उसका मानसिक रूप से प्रतिरोध करना चाहिए। इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में सिखाई गयी निःस्पृहता का अभ्यास करना होगा। यह एक साधना का विषय है अतः गीता का निरंतर गहन अध्ययन और नित्य नियमित ध्यान साधना करनी चाहिए।
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परमात्मा की कृपा सब पर बनी रहे। प्राण-तत्व के रूप में परमात्मा सभी जीवों और जड़-चेतन में व्याप्प्त है। उन की आरोग्यकारी उपस्थिति, सभी के देह, मन और आत्मा में प्रकट हो। सभी का कल्याण हो। ॐ नमः शिवाय !! ॐ तत्सत् !
३ अगस्त २०२१

यह सारा संसार प्रकृति के तीनों गुणों का ही खेल है ----

 

यह सारा संसार प्रकृति के तीनों गुणों का ही खेल है। यही भगवान की माया है जो आवरण और विक्षेप के रूप में कार्यरत है। हमारे सारे दुःखों का कारण तमोगुण और रजोगुण हैं। त्रिगुणातीत होना ही मुक्ति है। गीता में भगवान भी हमें निस्त्रैगुण्य होने को कहते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् - हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत निर्द्वन्द्व नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो॥"
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं कि -- "जो इस प्रकार विवेकबुद्धि से रहित हैं, उन कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी निष्कामी तथा निर्द्वन्द्व हो। सुखदुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी (युग्म) पदार्थ हैं उनका नाम द्वन्द्व है, उनसे रहित हो और नित्य सत्त्वस्थ हो अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करनेका नाम योग है, और प्राप्त वस्तुके रक्षणका नाम क्षेम है। योगक्षेम को प्रधान मानने वाले की कल्याणमार्ग में प्रवृत्ति होनी अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेम को न चाहनेवाला तथा आत्मवान् हो अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुए के लिये यह उपदेश है।"
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इस के लिए हमें क्या करना होगा? इसकी विधि गीता में ही भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े स्पष्ट शब्दों में अन्यत्र बताई है। योगसूत्रों में और उपनिषदों में भी इस विषय पर बहुत अच्छे और स्पष्ट उपदेश हैं। सरल से सरल शब्दों में कह सकते हैं कि हमें अपने अंतःकरण का विषय वासुदेव को ही बनाना होगा। अन्य कोई उपाय नहीं है। समान रूप से सर्वव्यापी भगवान वासुदेव के प्रति भक्ति भी जागृत करनी होगी, और उनका ध्यान भी करना होगा।
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सभी को शुभ कामनायें, सभी का मंगल हो। आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ अगस्त २०२१

सुख की अनुभूति मुझे तो सिर्फ अपने आराध्य परमशिव के ध्यान में ही मिलती हैं, अन्यत्र कहीं भी नहीं ---

 

(५ वर्ष पुराना एक संशोधित लेख पुनर्प्रस्तुत है)
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हमारे जीवन में एक अंतहीन भागदौड़, खालीपन, तनाव, असुरक्षा, अशांति, असंतुष्टि और असत्य का अंधकार क्यों छा जाता है? हमारे जीवन में एक अंतहीन खोखलापन क्यों है? हमारी सांसारिक उपलब्धियाँ हीं हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में तनाव और कष्टों का कारण क्यों बन जाती हैं? इतना पारिवारिक कलह, तनाव, लड़ाई-झगड़े, मिथ्या आरोप-प्रत्यारोप, अवसादग्रस्तता और आत्महत्या,आदि आदि !! -- लगता है सारा सामाजिक ढाँचा ही खोखला हो गया है।
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सब कुछ होते हुए भी जीवन में एक शुन्यता और पीड़ा क्यों है? यह पीड़ा तभी होती है जब हम अपनी आत्मा यानि स्वयं को भूल कर इस संसार में सुख ढूंढते हैं। अन्य कोई कारण नहीं है। यह मेरा अपना निजी अनुभव है। जब मैं स्वयं से दूर हो जाता हूँ, तब सारे नर्कों की घोर पीड़ायें मुझ पर टूट पड़ती हैं।
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🌹सुख की अनुभूति मुझे तो सिर्फ अपने आराध्य परमशिव के ध्यान में ही मिलती हैं, अन्यत्र कहीं भी नहीं।
मेरे आराध्य परमशिव -- सर्वव्यापी, अनंत, पूर्ण, परम कल्याणकारी और परम चैतन्य हैं। वे मेरे कूटस्थ हृदय में नित्य निरंतर बिराजमान हैं।
सृष्टि के सर्जन-विसर्जन की क्रिया उन का नृत्य है,
उनके माथे पर चन्द्रमा -- कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का,
उनके गले में सर्प -- कुण्डलिनी महाशक्ति का,
उन की दिगंबरता -- उनकी सर्वव्यापकता का,
उन की देह पर भस्म -- उनके वैराग्य का,
उन के हाथ में त्रिशूल -- त्रिगुणात्मक शक्तियों के स्वामी होने का,
उन के गले में विष -- स्वयं के अमृतमय होने का,
उन के माथे पर गंगा जी -- समस्त ज्ञान का प्रतीक है, जो निरंतर प्रवाहित हो रही है। अपनी जटाओं पर उन्होंने सारी सृष्टि का भार ले रखा है| उन के नयनों से अग्निज्योति की छटाएँ निकल रही हैं। वे मृगचर्मधारी और समस्त ज्ञान के स्त्रोत हैं। वे ही मेरे परात्पर परमेष्ठी सदगुरु हैं। मेरी चित्तवृत्तियाँ उन्हीं को समर्पित हैं।
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हे मेरे कुटिल मन, ऐसे भगवान परमशिव को छोड़कर तूँ क्यों संसार के पीछे भाग रहा है? वहाँ तुझे कुछ भी नहीं मिलेगा। तूँ उन परमशिव का निरंतर स्मरण और ध्यान कर। इस आयु में तुझे अन्य किसी कर्म की क्या आवश्यकता है? ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
३ अगस्त २०१७

भगवान को प्राप्त करने से अधिक सरल इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है ---

 

भगवान को प्राप्त करने से अधिक सरल इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है ---
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इसके लिए समर्पित भाव से अपने स्वभाव को सरल और प्रेममय बनाना पड़ेगा, और कुछ भी नहीं करना है। भगवान को सदा याद रखना हमारा स्वभाव बन जाये, तो हमारा काम बन जायेगा। आप जब साँसें ले रहे तो याद रहे कि भगवान ही साँसें ले रहा है, इस हृदय में धडक भी वो ही रहा है, इन आँखों से देख भी वो ही रहा है, कानों से सुन भी वो ही रहा है, इन पैरों से चल भी वो ही रहा है, भूख-प्यास भी उसी को लगती है, अतः भूख लगने पर भोजन भी वो ही कर रहा है, प्यास लगने पर जल भी वो ही पी रहा है, सर्दी-गर्मी भी उसी को लगती है, इस दिमाग से सोच भी वो ही रहा है, और हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) को भी वो ही चला रहा है। इस सृष्टि में उस के सिवाय अन्य कोई भी नहीं है, पूरी सृष्टि उसी का रूप है, सब कुछ वो ही है।
यही भक्ति है, यही ज्ञान है, व यही कर्म है, और यही हमारा सत्य सनातन स्वधर्म है।
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यह मैं नहीं कह रहा हूँ, गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कह रहे हैं --
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- "हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥"
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स्वनामधान्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में लिखा है कि "अनन्यचित्तवाला अर्थात् जिसका चित्त अन्य किसी भी विषय का चिन्तन नहीं करता, ऐसा जो योगी सर्वदा निरन्तर प्रतिदिन मुझ परमेश्वर का स्मरण किया करता है, यहाँ सततम् इस शब्द से निरन्तरता का कथन है, और नित्यशः इस शब्द से दीर्घकाल का कथन है, अतः यह समझना चाहिये कि छः महीने या एक वर्ष ही नहीं, किंतु जीवनपर्यन्त जो निरन्तर मेरा स्मरण करता है। हे पार्थ, उस नित्यसमाधिस्थ योगी के लिये मैं सुलभ हूँ। अर्थात् उसको मैं अनायास प्राप्त हो जाता हूँ। जब कि यह बात है इसलिये (मनुष्यको) अनन्य चित्तवाला होकर सदा ही मुझमें समाहितचित्त रहना चाहिये।"
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उपरोक्त श्लोक के साथ-साथ गीता में ही भगवान ने कहा है -- (इन के अर्थ और भाष्य का स्वाध्याय आप स्वयं पूर्ण मनोयोग से कीजिये, और उसका अनुसरण कीजिये, तभी आपका कल्याण होगा, अन्यथा कई जन्मों तक यों ही बहुत दुःखी होकर कष्ट पाते हुये भटकना पड़ेगा, व कुछ भी नहीं मिलेगा)
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८:१५॥"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥|
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रामचरितमानस में इसकी महिमा गाई है --
"एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई।।
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई।।
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।"
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समर्थ स्वामी रामदास जी कहते हैं --
"स्मरण देवाचें करावें। अखंड नाम जपत जावें। नामस्मरणें पावावें॥ समाधान॥२॥"
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भक्त रहीमदास जी बताते हैं –-
"रहिमन धोखे भाव से मुख से निकसे राम।
पावत पूरन परम गति कामादिक कौ धाम॥"
"भज नरहरि नारायण तजि वकबाद।
प्रगटि खंभ ते राख्यो जिन प्रह्लाद॥"
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कवि नाथूराम शास्त्री ‘नम्र’ की एक बहुत प्रसिद्ध कविता यही कहती है --
"क्षण भंगुर जीवन की कलिका,
कल प्रातः को जाने खिली न खिली।
मलयाचल की शुचि शीतल मंद,
सुगंध समीर चली न चली॥
कलि काल कुठार लिए फिरता,
तन 'नम्र' है चोट झिली न झिली॥
ले ले हरि नाम अरी रसना,
फिर अन्त समय में हिली न हिली॥"
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भक्त कबीर दास जी कहते हैं --
"राम नाम की लूट है, लूट सके सो लूट।
अंत काल पछतायेगा, प्राण जायेगा छूट॥"
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हर साँस पर परमात्मा का स्मरण एक पुनर्जन्म है। स्मरण करने से हमारे मन में चल रहे असंख्य विचारों का प्रवाह थम जाता है, मन को शांति मिलती है, सभी पापों से मुक्ति मिलती है, व संचित और प्रारब्ध कर्मफल नष्ट होते हैं। यही तो है पुनर्जन्म !! इस से अधिक सरल अन्य क्या हो सकता है? अतः निरंतर भगवान के नाम का स्मरण करें। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०२१

सुखी वही है जिसके हृदय में राम है ---

 

सुखी वही है जिसके हृदय में राम है ---
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हमारा कार्य निरंतर परमात्मा के स्मरण द्वारा अपनी चित्तभूमि में परमात्मा के प्रकाश की वृद्धि करना है, बाकी का कार्य परमात्मा पूर्ण करेंगे। हमारे में जैसे-जैसे सतोगुण की वृद्धि, और तमोगुण का ह्रास होता है, धीरे-धीरे वैसे ही गुरु में और स्वयं में भेद समाप्त होने लगता है। गुणातीत अवस्था में तो परमात्मा से भी भेद नहीं रहता।
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पता नहीं क्यों, बिना किसी प्रयास के स्वाभाविक रूप से मेरे हृदय से कई बार स्वतः प्रार्थना निकलती ही रहती है कि, "हे प्रभु, बहुत देर हो चुकी है, भारत भूमि पर फिर से अवतरित होकर दुष्टों का संहार, और धर्म की रक्षा करो।" यह मेरी ही नहीं, हम सब के हृदय की प्रार्थना है।
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हम शाश्वत आत्मा हैं, जिसकी अभीप्सा (तड़प और प्यास) सिर्फ परमात्मा के लिए है। परमात्मा की प्राप्ति ही आत्मा का स्वधर्म है। इस उद्देश्य के लिए लिया गया कर्म ही कर्मयोग है। इस स्वधर्म का थोड़ा सा भी अनुष्ठान महा भय से रक्षा करता है, अतः स्वधर्म पर दृढ़ रहो। गीता में भगवान का कथन है --
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् - "इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥"
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भगवान का यह भी आश्वासन है --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् - "सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥"
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सुखी वही है जिसके हृदय में राम है। मैं तो अनेक अति-समृद्ध लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, विश्व के अनेक देशों की यात्रा की है और विदेशों में भी खूब रहा हूँ, पर मैंने तो कहीं किसी को भी सुखी नहीं पाया। इस पृथ्वी का सारा धन-धान्य भी एक व्यक्ति को सुखी नहीं कर सकता। जिसके मन में लालसा है, वह कभी सुखी नहीं हो सकता, और जिसके मन में लालसा नहीं है, वह भी दुःखी है। सुखी वही है जिसके हृदय में राम है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३१ जुलाई २०२१

स्वयं ही अग्नि बनकर प्रज्ज्वलित हो जाओ ---

 

स्वयं ही अग्नि बनकर प्रज्ज्वलित हो जाओ ---
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चारों ओर छाये हुए असत्य के अति घने भयावह अंधकार को दूर करने का एक ही उपाय है -- "स्वयं ही अग्नि बनकर प्रज्ज्वलित हो जाओ।" किसी अन्य से कोई अपेक्षा मत करो, कोई दूसरा नहीं आयेगा। जिन सत्यनिष्ठ व्यक्तियों के हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम, श्रद्धा, और विश्वास है, उनका मार्ग-दर्शन, और उनकी रक्षा - किसी न किसी माध्यम से भगवान स्वयं करते हैं। भगवान ने वचन दिया है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
(वाल्मीकि रामायण ६/१८/३३).
अर्थात जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर मेरे से रक्षा की याचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ -- यह मेरा व्रत है। जब भगवान ने स्वयं इतना बड़ा आश्वासन दिया है, तब भय किस बात का? हम स्वयं राममय बनें।
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भगवान तो स्वयं ही हमारे हृदय में बिराजना चाहते हैं, अतः उनसे कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है? उनसे दूरी तो हमने ही बना रखी है। क्यों न हम उन्हें स्वयं में प्रवाहित होने दें? रात्री को सोने से पूर्व भगवान का गहनतम ध्यान कर के ही सोयें, वह भी इस तरह सोयें जैसे माता की गोद में निश्चिन्त होकर एक शिशु सो रहा है। प्रातः वैसे ही उठें जैसे एक शिशु अपनी माँ की गोद से उठ रहा है। उठते ही एक गहरा प्राणायाम कर के कुछ समय के लिए फिर से भगवान का ध्यान करें। दिवस का प्रारम्भ सदा भगवान के ध्यान से होना चाहिए। दिन में जब भी समय मिले, भगवान का फिर ध्यान करें। उनकी स्मृति निरंतर बनी रहे। यह शरीर चाहे नष्ट होकर छूट जाए, पर परमात्मा की स्मृति कभी न छूटे। भगवान सदा हमारे साथ हैं, और हर समय हमारी रक्षा कर रहे हैं।
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जीवन और मृत्यु से परे हम सदा भगवान के साथ एक हैं, और एक ही रहेंगे। हम यह भौतिक देह नहीं, उन की अनंतता और परम प्रेम हैं। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ जुलाई २०२१

परमशिव सम्पूर्ण सृष्टि के मंगल मूल हैं ---

 

परमशिव सम्पूर्ण सृष्टि के मंगल मूल हैं ---
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जो नियमित ध्यान-साधना करते हैं, उन्हें जब कूटस्थ में एक अति चमकीले श्वेत पंचमुखी नक्षत्र के दर्शन होने लग जाएँ, तब निरंतर उसी का ध्यान और उसी के साथ एकत्व स्थापित करना चाहिए। मेरे लिए वे ही पंचमुखी महादेव हैं, और उन्हीं को मैं परमशिव कहता हूँ। जो भी सत्य है, वह समय आने पर वे स्वयम् समझा देंगे। अभी तो मेरी समझ अति अल्प और अति सीमित है।
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जिस तेल से यह दीपक जल रहा है, वह बहुत कम बचा है, इसलिए मेरी रुचि अब निमित्त मात्र होकर सिर्फ उनके ध्यान और स्मरण में ही है। अब न तो स्वाध्याय का समय है, न सत्संग का, और न ही कुछ और सीखने का। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है, और ध्यान में उनके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है। मैं, मेरे गुरु, और परमशिव परमात्मा -- तीनों एक हैं। कहीं कोई भेद नहीं है। जो भी थोड़ी-बहुत लौकिकता बची है, वह उन्हीं की इच्छा से है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ जुलाई २०२१

साधना में असफलता को सफलता में परिवर्तित करें ---

 

साधना में असफलता को सफलता में परिवर्तित करें ---
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जब हमारी आध्यात्मिक साधना के सर्वश्रेष्ठ प्रयास विफल हो जाते हैं, निरंतर असफलताएँ ही असफलताएँ मिलती है, जीवन में चारों और निराशा का अन्धकार और दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है, तब किसी को दोष देने की बजाय अपनी समस्त आपदाएं, सद्गुरु और परमात्मा को सौंप दें। कछुआ जैसे संकट आने पर स्वयं को सिकोड़कर अपनी ढाल में छिप जाता है, वैसे ही अपनी सभी इंद्रियों को सिकोड़कर भगवान की शरणागत हो जायें। भगवान कहते हैं --
"यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५८॥"
अर्थात् - जैसे कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है॥
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जो परमात्मा समस्याओं के रूप में आया है, वही समाधान के रूप में भी आयेगा। ह्रदय में उसे प्रतिष्ठित कर लो, दुःख-सुख सब उसे सौंप दो, निरंतर अपनी साधना करते रहो। कर्ता भी उसी को बनाओ और भोक्ता भी। हमारे माध्यम से दुःखी वही है, और सुखी भी वही है। परमात्मा ही पञ्च महाभूतों में फँसकर हमारे रूप में दुःखी है। हम उस से दूर हो गये हैं, यही सब दुखों का एकमात्र कारण है।
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शिव-स्वरूप में स्थित होकर शिव का ध्यान करो, और सदा शिवमय होकर रहो।
ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२५ जुलाई २०२१

गुरु-पूर्णिमा पर गुरु-रूप में परमात्मा की अनंत सर्वव्यापक संपूर्णता को नमन ---

 

गुरु-पूर्णिमा पर गुरु-रूप में परमात्मा की अनंत सर्वव्यापक संपूर्णता को नमन ---
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आज आषाढ़-पूर्णिमा को गुरु-पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। इसे जो भी संप्रदाय या संस्था जिस भी रूप में मनाते हैं, उस से मेरी कोई असहमति नहीं है। श्रद्धानुसार सबके अपने-अपने विचार हैं। मेरे भी अपने स्वयं के अनुभवजन्य विचार औरों से कुछ हट कर हैं, जिन पर मैं दृढ़ हूँ।
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मेरी पूर्ण आस्था अपनी गुरु-परंपरा पर है, जिस में मुझे कणमात्र भी कोई संदेह नहीं है। लेकिन अब किसी भी तरह की कोई पृथकता का बोध नहीं रहा है। ध्यान के समय, मैं अपने में, गुरु में, और परमात्मा में कोई भेद नहीं पाता। इसलिए कोई बाहरी पूजा अब संभव नहीं रही है। कूटस्थ ही गुरु है, कूटस्थ ही परमात्मा है, और ध्यान में मैं स्वयं भी कूटस्थ में ही समाहित हो जाता हूँ। अतः कूटस्थ पर ध्यान ही मेरी गुरु-पूजा है। परमात्मा की ऊंची से ऊंची परिकल्पना जो मुझे समझ में आती है, वह है - परमशिव की। मैं उन्हें समय समय पर अन्य भी अनेक नामों से संबोधित करता हूँ, लेकिन कहीं कोई भेद नहीं है। इसमें छिपाने को कुछ भी नहीं है। कोई इसे अज्ञान कहे, या अहंकार कहे, या मूर्खता कहे, यह उनकी अपनी समस्या है, मेरी नहीं। तत्व-रूप में मेरे गुरु, और परमात्मा, मुझसे एक हैं।
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च अभिव्यक्तियाँ हैं, अतः आप सब महान आत्माओं को नमन! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ जुलाई २०२१

इस जन्म की सबसे बड़ी उपलब्धि ---

 

इस जन्म की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि इस जन्म में मुझे भगवान से प्रेम हुआ, और अनेक सत्यनिष्ठ व्यक्तियों से मिलना हुआ। जीवन में मुझे एक से बढ़कर एक, बहुत ही अच्छे-अच्छे निष्ठावान लोग मिले हैं। भगवान स्वयं ही सभी रूपों में आये थे। मैं धन्य हुआ, यह जीवन सफल रहा। जो कुछ भी जीवन में मिला या नहीं मिला, जो भी अनुभव जीवन में हुये, या नहीं भी हुए, उन सब के लिए मैं भगवान को नमन करता हूँ। सभी प्राणियों में और सर्वत्र मुझे भगवान के ही दर्शन होते हैं। उनसे पृथक कुछ भी नहीं है। बौद्धिक स्तर पर कोई जिज्ञासा या संशय अब अवशिष्ट नहीं है।
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सारी सृष्टि एक शिवलिंग की तरह दृष्टिगत होती है सब कुछ उसमें विलीन है। मैं उन सर्वव्यापी अनंत लिंगरूप परमशिव को नमन करता हूँ --
"पीठं यस्या धरित्री जलधरकलशं लिङ्गमाकाशमूर्तिम् ,
नक्षत्रं पुष्पमाल्यं ग्रहगणकुसुमं चन्द्रवह्न्यर्कनेत्रम्।
कुक्षिः सप्त: समुद्रं भुजगिरिशिखरं सप्तपातालपादम्
वेदं वक्त्रं षडङ्गं दशदिश वसनं दिव्यलिङ्गं नमामि॥"
अर्थात् - पृथ्वी जिन का आसन है, जल से भरे हुए मेघ जिन के कलश हैं, सारे नक्षत्र जिन की पुष्प माला है, ग्रह गण जिनके कुसुम हैं, चन्द्र सूर्य एवं अग्नि जिन के नेत्र हैं , सातों समुद्र जिन के पेट हैं , पर्वतों के शिखर जिन के हाथ हैं , सातों पाताल जिन के पैर हैं, वेद और षड़ङ्ग जिन के मुख हैं, तथा दशों दिशायें जिन के वस्त्र हैं -- ऐसे आकाश की तरह मूर्तिमान दिव्य लिङ्ग को में नमस्कार करता हूँ।
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स्वयं का बोध कराने वाली जो सत्ता है, वह ही परम-सत्य और परम-तत्व है। भगवान परमशिव की अनंतता का सदा ध्यान करें। सारा अस्तित्व भगवान परमशिव का ही रूप है। वह अनंतता और उस से परे जो दिव्यता है, वह ही हम हैं। सब समस्याएँ परमात्मा की हैं, हमारी नहीं। अपनी चेतना को कूटस्थ में रखो और निरंतर परमात्मा का ध्यान करो। परमात्मा का स्मरण करते-करते मृत्यु भी इस नारकीय संसारी जीवन से तो श्रेष्ठ है।
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जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ, वे परमशिव ही मेरे उपास्य हैं। मैं उनको भूल भी जाता हूँ तो वे ही मुझे याद कर लेते हैं।
ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !! 🌹🙏🌹
कृपा शंकर
२२ जुलाई २०२१

हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम (Prophet Abraham) कौन से मज़हब को मानने वाले थे? ---

 

हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम (Prophet Abraham) कौन से मज़हब को मानने वाले थे? इसके बारे में कोई जानकारी मुझे नहीं है।
यहूदी मज़हब तो उनके छोटे बेटे हज़रत इसाक़ (Prophet Isaac) ने चलाया था।
उनके बड़े बेटे हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम के वंश में बढ़ई दाऊद के घर पर हज़रत ईसा मसीह पैदा हुए थे, जिन्होने ईसाई मज़हब चलाया।
हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम के ही वंश में हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पैदा हुए जिन्होने इस्लाम मज़हब को चलाया।
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इसीलिए ये तीनों मज़हब (यहूदीयत, ईसाईयत और इस्लाम) इब्राहिमी मजहब (Abrahamic Religions) कहलाते हैं। इन तीनों के मूल पुरुष हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम (Prophet Abraham) हैं।
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आज का इस्लामी त्योहार ईद अल-अज़हा या बकरीद (अरबी में عید الاضحیٰ; ईद-उल-अज़हा अथवा ईद-उल-अद्'हा - जिसका मतलब क़ुरबानी की ईद) इस्लाम में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख पर्व है। इसके पीछे हज़रत इब्राहिम अलैहिस्सलाम और उनके बड़े बेटे हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम से जुड़ी हुई एक बहुत लंबी गाथा है, जिसे यहाँ लिखना असंभव है। इसे आप इन्टरनेट पर सर्च कर के पढ़ सकते हैं।
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पुनश्च: -- एक-दो बातें जो मुझे समझ में नहीं आईं, उन पर अपनी शंका पूर्ण सम्मान से व्यक्त कर रहा हूँ। ये उन सभी की शंकाएं हैं जो मुसलमान नहीं हैं। इसमें किसी की निंदा या बुराई नहीं है --
(१) हज़रत इब्राहिम और उनके बेटे हज़रत इस्माइल के समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था, फिर ये किस मजहब को मानते थे?
(२) हज़रत इब्राहिम जैसा अल्ला का भक्त, आज तक और कोई पैदा क्यों नहीं नहीं हुआ? उन्होंने तो अल्ला को खुश करने के लिए अपने सबसे प्रिय बड़े बेटे इस्माइल की कुर्बानी दे दी, और अल्ला ने उसे जीवित कर दिया। लेकिन उस घटना की याद में इस त्योहार पर करोड़ों निरीह मूक पशुओं की बड़ी क्रूरता से हत्या क्यों की जाती है?
किसी भी तरह की अभद्र टिप्पणी न करें।

संशय-विपर्यय को छोड़ो और अभ्यास में लगो ---

 

संशय-विपर्यय को छोड़ो और अभ्यास में लगो ---
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एक परमात्मा को साधने से ही संसार अपने आप सध जाता है, क्योंकि परमात्मा सब का मूल है। कोई भी आध्यात्मिक साधना हो, उसका एकमात्र उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है, न कि कुछ और। परमात्मा की ही उपासना करें, और सत्संग भी उन्हीं महात्माओं का करें जो हमारी साधना के अनुकूल हो, अन्यथा परमात्मा के साथ ही सत्संग करें। चाहे कितना भी बड़ा महात्मा हो, यदि उसका आचरण गलत हो तो उसे विष की तरह त्याग दो। यदि गुरु का आचरण गलत है, तो गुरु भी त्याज्य है।
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जब अनेक पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों का उदय होता है तब भगवान की भक्ति जागृत होती है। फिर कुछ और जन्म बीत जाते हैं तब अंतर्रात्मा में परमात्मा को पाने की अभीप्सा जागृत होती है। जब वह अभीप्सा अति प्रबल हो जाती है तब जीवन में सद्गुरु की प्राप्ति होती है। फिर भी हमारी निम्न प्रकृति हमें छोड़ती नहीं है। वह निम्न प्रकृति हमारे अवचेतन मन में छिपे पूर्व जन्मों के बुरे संस्कारों, और गलत आदतों को जागृत करती रहती है। इस निम्न प्रकृति पर विजय पाना ही सबसे बड़ी आरंभिक मुख्य साधना है।
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आज के समाज का वातावरण अत्यंत प्रदूषित और विषाक्त है जहाँ भक्ति करना लगभग असम्भव है। यदि कोई कर सकता है तो वह धन्य है। बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं, लाखों में कोई एक ऐसा परिवार होगा जहाँ पति-पत्नी दोनों साधक हों। ऐसा परिवार धन्य है, वे घर में रहकर भी विरक्त हैं। ऐसे ही परिवारों में महान आत्माएं जन्म लेती हैं। घर-परिवार के प्रति मोह बहुत बड़ी बाधा है। घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार, गलत विवाह, गलत मित्र, और गलत वातावरण, कोई साधन-भजन नहीं करने देता। मेरा तो यह मानना है कि जब एक बार युवावस्था में ईश्वर की एक झलक भी मिल जाये तब उसी समय व्यक्ति को गृहत्याग कर देना चाहिए। रामचरितमानस में कहा है --
"सुख सम्पति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई॥
ये सब रामभक्ति के बाधक। कहहिं संत तव पद अवराधक॥"
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चाहते तो सभी साधक यही हैं कि परमात्मा की चेतना सदा अंतःकरण में रहे पर अवचेतन मन में छिपे हुए पूर्वजन्मों के संस्कार जागृत होकर साधक को चारों खाने चित्त गिरा देते हैं। सभी मानते हैं कि तृष्णा बहुत बुरी चीज है पर तृष्णा को जीतना एक जंगली हाथी से युद्ध करने के बराबर है। यह मन का लोभ सुप्त कामनाओं यानि तृष्णाओं को जगा देता है। तो पहला प्रहार मन के लोभ पर ही करना होगा।
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घर का एक कोना निश्चित कर लें जहाँ सबसे कम शोरगुल हो, और जहाँ परिवार के सदस्य कम ही आते हों। उस स्थान को अपना देवालय बना दें। अधिकाँश समय वहीं व्यतीत करें। जो भी साधन भजन करना हो वहीं करें। बार बार स्थान न बदलें। वह स्थान ही चैतन्य हो जाएगा। वहाँ बैठते ही हम परमात्मा को भी वहीं पायेंगे। इधर उधर कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होगी, वही स्थान सबसे बड़ा तीर्थ हो जाएगा। सिर्फ जानने मात्र से कुछ नहीं होगा, उसे क्रिया में परिणित करना होगा। चाहे सारे शास्त्रों का स्वाध्याय कर लो, लेकिन व्यवहार रूप में परिणित नहीं किया तो वह व्यर्थ है। संशय-विपर्यय को छोड़ो और अभ्यास में लगो।
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आप सभी महान आत्माओं को मेरा नमन! ॐ नमःशिवाय! ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ!!
कृपा शंकर
२१ जुलाई २०२१

यह परमशिव की स्वतंत्र इच्छा है कि वे स्वयं को कैसे व्यक्त करें ---

 

यह परमशिव की स्वतंत्र इच्छा है कि वे स्वयं को कैसे व्यक्त करें। यह समस्त सृष्टि उन्हीं की अभिव्यक्ति है। उनके ही संकल्प से ऊर्जा-खंडों के विभिन्न आयाम, क्रिया, और प्राण आदि की उत्पत्ति हुई जिन्होनें इस सृष्टि का निर्माण किया। सम्पूर्ण सृष्टि में व उससे परे जो कुछ भी है, वह परमशिव का ही रूप है। परमशिव ही कूटस्थ हैं, वे ही पारब्रह्म परमात्मा हैं, और वे ही नारायण हैं। मैं स्वयं को उनसे पृथक नहीं पाता। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। उनकी ही कृपा से यह चंचल मन अब उन्हीं की स्मृति और प्रेम में रत रहने लगा है। अन्यत्र कहीं भी भागता है, तो बेचैन होकर तड़पने लगता है। लौटकर पुनश्च उनके चरणों में आश्रय पाकर ही प्रसन्न होता है। परमशिव भी यह बताना चाहते हैं कि मैं उनसे पृथक नहीं, उनके साथ एक हूँ। कहीं कोई भेद नहीं है। ॐ ॐ ॐ !!
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हमें अपनी पहिचान न तो स्वयं की बुराइयों से, और न ही अच्छाइयों (यदि हों तो) से करनी चाहिए। हमारे में लाखों बुराइयाँ और अच्छाइयाँ होंगी, वे सब, और हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व उन को समर्पित हो। हम उन के साथ एक और उनकी पूर्णता हैं। मेरी अनुभूति तो यह है कि सहस्त्रार ही उनके चरण-कमल हैं, और सहस्त्रार में स्थिति ही उनके चरण-कमलों में आश्रय है। अपनी चेतना को सदा उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में ही रखें। वहीं रहते हुए साक्षीभाव से सारे कार्य संपादित करें। सुषुम्ना के चक्रों में क्रिया-साधना भी उत्तरा-सुषुम्ना में रहते हुये साक्षीभाव से ही करें। उत्तरा-सुषुम्ना ज्ञान-क्षेत्र है, और सारी सिद्धियों का निवासस्थान है। यह भी हमारा स्थायी निवास नहीं है। यहाँ से भी पतन हो सकता है। इससे आगे का क्षेत्र परा है। परा से भी आगे की भूमियाँ हैं, जिनको हमें पार करना है। असली साधना तो आज्ञाचक्र के भेदन के पश्चात ही शुरू होती है। परमशिव ही कूटस्थ रूप में गुरु हैं। अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दें, वे निश्चित रूप से हमें कृत-कृत्य करेंगे।
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ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं, भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि॥"
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥"
"ऊँ सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मां विद्विषावहै॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
२० जुलाई २०२१

"भूमा" ही सत्य है, "भूमा" में ही सुख है, अल्पता में नहीं ---

 

"भूमा" ही सत्य है, "भूमा" में ही सुख है, अल्पता में नहीं ---
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पूर्ण भक्ति से समर्पित होकर परमात्मा की अनंतता और विराटता पर ध्यान करते करते "भूमा" की अनुभूति होती है। ब्रह्मविद्या के प्रथम आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके प्रिय शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा -- "सुखं भगवो विजिज्ञास इति"। जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है -- "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति"। भूमा में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में नहीं । जो भूमा है, व्यापक है, वह सुख है। कम में सुख नहीं है।
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"भूमा" शब्द सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद (७/२३/१) में आता है, जिसका अर्थ है -- सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन।
हिन्दी भाषा के कालजयी महाकाव्य "कामायनी" की इन पंक्तियों में महाकवि जयशंकर प्रसाद ने "भूमा" शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ बड़ा दार्शनिक है --
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य यही 'भूमा' का मधुमय दान |"
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दूसरे शब्दों में "भूमा", साधना की लगभग पूर्णता का आभास है। मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर एक भूमि है। इस सीमित शरीर का जब विराट् से सम्बन्ध हो जाता है, तब यह भूमा है। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात जो अनुभूति होती है, वह भूमा है। भूमा एक अनंत विराटता की अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं। इसकी अनुभूति उन्हें ही होती है जो परमात्मा की अनंत विराटता पर ध्यान करते हैं।
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आप सभी महान आत्माओं को नमन !! आप परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं।
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वसुदेवाय ||
कृपा शंकर
१९ जुलाई २०२१

दुविधा, बड़ी भयंकर दुविधा, एक बड़ी भयंकर रस्साकशी चल रही है ---

दुविधा, बड़ी भयंकर दुविधा :--- एक बड़ी भयंकर रस्साकशी चल रही है, एक शक्ति हमें ऊपर परमात्मा की ओर खींच रही है, व दूसरी शक्ति नीचे वासनाओं की ओर; हम बीच में असहाय हैं। शास्त्र हमें अभ्यास और वैराग्य का उपदेश देते हैं।

योगदर्शन में एक सूत्र है -- "अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः", अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से उन चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।
गीता में भी भगवान कहते हैं ...
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।
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यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति। वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन, और उन से विरक्ति। सुषुम्ना में नीचे के तीन चक्रों में यदि चेतना रहेगी तो वह अधोगामी होगी और ऊपर के तीन चक्रों में ऊर्ध्वगामी। अपनी चेतना को सदा प्रयासपूर्वक उत्तरा-सुषुम्ना में यानि आज्ञाचक्र से ऊपर रखें। सूक्ष्म देह में मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्रों से होते हुए सहस्त्रार तक एक अति-अति सूक्ष्म प्राण शक्ति प्रवाहित हे रही है, उसके प्रति सजग रहें व अजपा-जप की साधना और नादानुसंधान करें। अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें। निश्चित रूप से कल्याण होगा।
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यह सच्चिदानंद परमात्मा की करुणा, कृपा और अनुग्रह है कि हमें उनकी याद आ रही है, और हमें उनसे परमप्रेम हो गया है। अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा। प्रमाद और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं। परमात्मा को अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ प्रेम दें, और उन्हें निरंतर अपनी स्मृति में रखें।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१८ जुलाई २०२१

मेरे जैसे लोग जो कभी साहस नहीं जुटा पाये, उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है ---

मेरे जैसे लोग जो कभी साहस नहीं जुटा पाये, उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। वे अपनी अभीप्सा को बनाये रखें। उन्हें फिर अवसर मिलेगा। आध्यात्मिक यात्रा उन साहसी वीर पथिकों के लिए है जो अपना सब कुछ दांव पर लगा सकते हैं। लाभ-हानि की गणना करने वाले और कर्तव्य-अकर्तव्य की ऊहापोह में खोये रहने वाले कापुरुष इस मार्ग पर नहीं चल सकते। यह उन वीरों का मार्ग है जो अपनी इन्द्रियों पर विजय पा सकते हैं, और अपने लक्ष्य की प्राप्ति तक परिस्थितियों से कोई समझौता नहीं करते। मैं ऐसे बहुत लोगों को जानता हूँ जो बहुत भले सज्जन हैं, उनमें भगवान को पाने की अभीप्सा भी है, लेकिन घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार और गलत वातावरण -- उन्हें कोई साधन-भजन नहीं करने देता। घर-परिवार के मोह के कारण ऐसे जिज्ञासु जीवन में कुछ उपलब्ध नहीं कर पाते। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में निश्चित ही उन्हें आध्यात्मिक प्रगति का अवसर मिलेगा।

ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्च:
हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम। कभी भूल कर भी निराश न हों। परिस्थितियाँ बहुत तेजी से बदल रही हैं। नीरज की एक कविता की ये चार पंक्तियाँ यही भाव व्यक्त करती हैं--
"रावी की रवानी बदलेगी, सतलज का मुहाना बदलेगा
गर शौक में तेरे जोश रहा, तस्बीह का दाना बदलेगा!
तू खुद तो बदल, तू खुद तो बदल, बदलेगा ज़माना बदलेगा!
गंगा की कसम, जमना की कसम, यह ताना बाना बदलेगा" (नीरज)
 
१६ जुलाई २०२१

समभाव में स्थिति ही योगसिद्धि है ---

 

समभाव में स्थिति ही योगसिद्धि है ---
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नित्य नियमित ध्यान साधना करते-करते हम राग-द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं, और समभाव में हमारी स्थिति होने लगती है। संकल्प-शक्ति या इच्छा-शक्ति द्वारा यह संभव नहीं है। यह समभाव में स्थिति ही योग-सिद्धि है। गीता में भगवान कहते हैं --
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥२:४८॥"
अर्थात् - "हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है॥"
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हमारा हर कर्म ईश्वर को समर्पित हो। "ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों" -- ऐसा भाव तो आना ही नहीं चाहिए। साधना में साधक और साध्य एक हो जाते हैं। अंतःकरण शुद्ध होने से ज्ञान-प्राप्ति की सिद्धि होती है। ज्ञानप्राप्ति का न होना असिद्धि है। ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर कर्म (साधना) करते रहना चाहिए। यह जो सिद्धि-असिद्धि में समत्व है, इसीको योग कहते हैं।
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यदि यह शरीर, ईश्वर की साधना में हमारा साथ नहीं देता तो ऐसा शरीर छूट भी जाये तो कोई पछतावा नहीं होना चाहिए। किसी के भी प्रति दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। बाहर से अच्छी-अच्छी बातें कर किसी का अनिष्ट-चिंतन द्वेष है, और मीठी-मीठी बातें कर किसी को हानि पहुंचाना छल है, जो एक अक्षम्य अपराध है।
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अंतिम बात जो कहना चाहता हूँ, वह है "असंगत्व"। साधना में हम अकेले हैं, गुरु और परमात्मा दोनों ही हमारे साथ एक हैं, कोई भी अन्य नहीं है। गीता में भगवान की आज्ञानुसार असंग रूपी अस्त्र से इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ों को काट दें --
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
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"सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं। निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥"
ॐ तत्सत् !!
१७ जुलाई २०२१

योगारूढ़ (योगयुक्त) कौन है? ---

योगारूढ़ (योगयुक्त) कौन है? ---
जो ज्ञान-विज्ञान से तृप्त और कूटस्थ है, वही योगारूढ़ यानि योगयुक्त है। शास्त्रोक्त विषयों को समझने का नाम ज्ञान है, और शास्त्र से समझे हुए भावों को अन्तःकरण में प्रत्यक्ष अनुभव करनेका नाम विज्ञान है। वह चिंतन-मनन द्वारा अपने सारे संशयों को दूर कर जानने योग्य हर विषय को अनुभवगम्य बना लेता है। योगारूढ़ महात्मा का कर्ताभाव बहुत पीछे छूट जाता है। उसमें कोई आकांक्षा नहीं होती। उसकी हरेक क्रिया से लोक-कल्याण ही होता है। उसका हर वचन एक उपदेश है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥६:८॥"
"सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥६:९॥"
अर्थात् जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जो विकार रहित (कूटस्थ) और जितेन्द्रिय है, जिसको मिट्टी, पाषाण और कंचन समान है, वह (परमात्मा से) युक्त (योगारूढ़) कहलाता है॥ जो पुरुष सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बान्धवों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह श्रेष्ठ है॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
१६ जुलाई २०२१

फिर से होगा भारत अखंड ---

 

फिर से होगा भारत अखंड --- (लेखिका: - प्रो. कुसुमलता केडिया)
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सामान्यजन के मन में है कि हो गया, जो होना था, अब तो यह इतना ही भारत रहेगा। यहां तक कि 14 अगस्त 1947 को जो भारत था, जिसके बड़े हिस्से को अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट एवं ट्रूमेन, ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल और एटली तथा भारत के गांधीजी, श्री नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना तथा सोवियत संघ के स्तालिन ने मिलकर एक अलग मजहबी नेशन स्टेट बना दिया जो अब दो अलग नेशन स्टेट - पाकिस्तान एवं बांग्लादेश के रूप में है, उसे भी बहुत से लोग स्थायी रूप से ही अलग हो चुका हिस्सा मानते हैं। अफगानिस्तान तो 1922 ईस्वी से अलग हो ही चुका था। उसे भी अब लोग सदा के लिये अलग ही मानते हैं। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री ने बारम्बार इन नेशन स्टेट का पड़ोसी के रूप में ही उल्लेख किया था और कुछ इस तरह किया था, मानो अब वे सदा के लिये पड़ोसी ही रहेंगे। इस प्रकार सामान्यजन के लिये अखंड भारत तो अब एक दूर का स्वप्न ही है। कामना तो बहुतो की है परंतु यह साकार होगी, यह बहुत कम लोगों को आशा बची है। अधिकांश को यह अनुमान भी नहीं है कि वस्तुतः भारत से कितने हिस्से अलग हुये हैं और सबके एक होने से अखंड भारत का क्या स्वरूप बनेगा?
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जबकि सत्य यह है कि अगर हम विश्व इतिहास को देंखे तो अलग ही तथ्य सामने आयेंगे। 1871 ईस्वी में बिस्मार्क ने 300 अलग-अलग रियासतों में बंटी हुई जर्मनी को एक कर दिया। फिर दूसरे महायुद्ध के बाद 1949 ईस्वी में इंग्लैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस ने जर्मनी को पुनः दो टुकड़ों में बांट दिया। उसके बाद, 1990 ईस्वी में जर्मनी पुनः एक एकीकृत राष्ट्र बन गया।
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इसी प्रकार 16 राष्ट्रों को मिलाकर इंग्लैंड एक स्टेट 17वीं शताब्दी ईस्वी में ही बन पाया। 16वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार उसने आयरलैंड पर आक्रमण कर उसे अधीन बनाया और 17वीं शताब्दी ईस्वी में भयंकर गृहयुद्ध और मारकाट के बाद जाकर वह एक राज्य बना और फिर 18वीं शताब्दी ईस्वी में स्काटलैंड को मिलाकर वर्तमान ब्रिटेन को बनाने के लिये ‘एक्स ऑफ यूनियन’ नामक संधि हुई। 19वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ में इंग्लैंड, आयरलैंड और स्काटलैंड की एकता का कानून बना और इन सभी क्षेत्रों की एक संसद बनाये जाने की संधि पर हस्ताक्षर हुये। 19वीं शताब्दी ईस्वी में जब भयंकर अकाल पड़ा और इंग्लैंड के क्षेत्र के शसकों की गलत नीतियों के कारण दस लाख से अधिक आयरिश लोग मर गये तब आयरिश राष्ट्रवाद का प्रबल उभार हुआ और ब्रिटेन की एकता फिर खतरे में पड़ गई। अंत में 20वीं शताब्दी ईस्वी में (1921 ईस्वी में ही) दोनों में संधि हुई तथा इस प्रकार ब्रिटेन एक राष्ट्र राज्य बना।
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यहां यह तथ्य ध्यान में रखने योग्य है कि इधर लगभग 100-150 वर्षों से जो अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति बनी है, उसमें दुनिया में प्रायः उसी दिशा में परिवर्तन होते हैं, जो यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका की दिशा हो। इस दृष्टि से देखें तो अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य को समझने पर ही अखंड भारत के विषय में ठीक-ठीक अनुमान हो सकेगा।
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पिछले 150 वर्षों में, संयुक्त राज्य अमेरिका की तो कोई हैसियत नहीं थी। वह वस्तुतः 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही वैश्विक पटल पर उभरा है। इसी प्रकार सोवियत संघ की भी कोई हैसियत नहीं थी। स्वयं रूस कुल 300 वर्ष पूर्व ही अस्तित्व में आया है और 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही युद्ध में उन शक्तियों की विजय के कारण, जिनका साथ लेनिन और स्तालिन ने दिया था, 1917 ईस्वी में पहली बार सोवियत संघ अस्तित्व में आया और 73 वर्षों बाद सन् 1990-91 ईस्वी में वह पुनः बिखर गया और अभी फिर रूस उस पूरे क्षेत्र को अपने प्रभाव में लेने की कोशिश कर रहा है।
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प्रथम और द्वितीय महायुद्धों के बीच की अवधि में तथा द्वितीय महायुद्ध के बाद अनेक नये नेशन स्टेट बनाये गये हैं, जिनमें से अरब क्षेत्र और मध्य एशिया में बहुत छोटे-छोटे इलाके अमेरिका तथा इंग्लैंड-फ्रांस के द्वारा नेशन स्टेट बनाये गये हैं। अलजीरिया, बहरीन, ईजिप्त, ईराक, जार्डन, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मोरक्को, ओमान, यमन, कतर, सऊदी अरब, सूडान, सोमालिया, सीरिया, संयुक्त अरब अमीरात आदि बाईस राज्य बनाये गये। इनमें से अनेक आकार और जनसंख्या दोनों ही दृष्टि से बहुत छोटे हैं।
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इस प्रकार विश्व में विभिन्न राष्ट्रों की भौगोलिक सीमायें तथा स्वयं अस्तित्व भी लगातार बनते बिगड़ते नजर आते हैं। इसलिये भारत का वर्तमान रूप ही अंतिम और स्थायी है, यह मानने का कोई कारण नजर नहीं आता।
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यूरोप में घटी घटनाओं पर लिखी गई अनेक पुस्तकें (जिनमें से एक महत्वपूर्ण पुस्तक है - नार्मन डेविस द्वारा लिखित ‘यूरोप: ए हिस्ट्री’, हार्पर प्रकाशन, न्यूयार्क, 1998 ईस्वी) बताती हैं कि नेशन स्टेट की भौगोलिक सीमायें 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही कितनी बार, कितनी तेजी से बनी और बिगड़ी हैं।
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यह महत्वपूर्ण है कि जिस समय इंग्लैंड और जर्मनी जैसे नेशन स्टेट अपना दायरा बढ़ा रहे थे और नये-नये इलाके अपने नेशन स्टेट में जोड़ रहे थे, उसी अवधि में 20वीं शताब्दी ईस्वी में ही भारत से अनेक हिस्से अलग किये जा रहे थे। वर्तमान भारत के उत्तर में जो पांच नेशन स्टेट हैं- कजाकस्तान, किर्गिजिस्तान, उज्बेकिस्तान, तुर्कमानिस्तान और ताजकिस्तान ये 20वीं शताब्दी ईस्वी में प्रथम महायुद्ध के बाद ही इंग्लैंड की सहमति से सोवियत संघ में शामिल करने के लिये लेनिन और स्तालिन को सौंप दिये गये। उसके पहले तक ये भारत का ही अंग थे और यहां से राजस्व भारत के खजाने में ही 20वीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वाद्ध तक आता था। सोवियत संघ का अंग बनने के बाद ही यह रूका। स्वयं प्रख्यात कम्युनिस्ट लेखक राहुल सांकृत्यायन (जिनका मूल नाम केदार पाण्डे था और जो आजमगढ़ के ही थे) ने लिखा है कि 16,00,000 (सोलह लाख) वर्गकिलोमीटर से अधिक बड़ा यह इलाका वस्तुतः हिमालय क्षेत्र का ही अंग है और पहले यह शकद्वीप कहा जाता था तथा भारत का ही अंग था। 1920 ईस्वी में यह सोवियत संघ में शामिल हुआ। इस पूरे क्षेत्र में संस्कृत भाषा का प्रभाव रहा है। सोना, चांदी, शीशा, रांगा और तांबा सहित अनेक बहुमूल्य धातुओं की खाने यहां हैं।
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इसी प्रकार उजबेकिस्तान भी महाभारत काल से भारत का अंग रहा है तथा यह भारत का उत्तर-कुरू नामक जनपद रहा है। यहां प्राचीन भारतीय सभ्यता के बहुत से अवशेष मिले हैं और यहां की भाषा पर संस्कृत का गहरा प्रभाव है। इस्लाम के नाम पर यहां कैसा भयंकर नरसंहार किया गया, इसका स्वयं राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ‘मध्य एशिया’ में वर्णन किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि समरकंद में एक प्राचीन भारतीय वेदशाला थी जिसे मुसलमानों ने ध्वस्त कर स्वरूप बिगाड़कर मस्जिद बना दिया। इस क्षेत्र में संस्कृत के हजारों महत्वपूर्ण ग्रंथ भी मिले हैं।
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किर्गिजिस्तान भी भरतवंशी तुरूष्क क्षत्रियों का क्षेत्र रहा है। यहां भी मुसलमानों ने भयंकर नरसंहार किया। तुर्कमानिस्तान 11वीं शताब्दी ईस्वी तक हिन्दू संस्कृति का क्षेत्र था और 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक भारत का अंग था। इसी प्रकार ताजिकिस्तान भी कश्मीर से सटा हुआ भारतीय इलाका है जो हिमालय का पश्चिमी अंश है और 20वीं शताब्दी ईस्वी के आरंभ तक भारत का अंग था। भारतीय शकों का यह क्षेत्र था। यहां की भाषा में आज भी अरबी का कोई प्रभाव नहीं है, संस्कृत का ही मुख्य प्रभाव है। इस तरह ये पांचों ही स्तान थोड़े ही प्रयासों से पुनः भारत का अंग हो सकते हैं। क्योंकि उनमें भारत से अपनी आत्मीयता की स्मृति बहुत गहरी है।
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अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश वाले क्षेत्र में तो 20वीं शताब्दी ईस्वी तक संस्कृत की पाठशालायें चलती थीं और हिन्दुओं की अच्छी-खासी संख्या थी। अफगानिस्तान को रूस से सीधी टकराहट बचाने के लिये एक बफर स्टेट बनाया गया और बाद में 1947 ईस्वी में पाकिस्तान और बांग्लादेश वाले क्षेत्र को पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान का नाम देकर पूर्णतः मजहबी इलाका बना दिया गया तथा इस्लाम के लिये समर्पित कर दिया। परंतु ये दोनों ही नेशन स्टेट अनेक कबीलाई टकरावों और सामप्रदायिक टकरावों से जर्जर हो रहे हैं तथा सही राजनैतिक नेतृत्व भारत में होने पर ये क्षेत्र सहज ही भारत से जुड़ना चाहेंगे।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि वस्तुतः वैश्विक राजनैतिक परिवर्तनों का प्रभाव भारतीय क्षेत्र पर भी पड़ा है और जापान से घबरा कर स्तालिन को महत्व देकर उनके कब्जे वाली कम्युनिस्ट पार्टी का चीनी क्षेत्र में आधिपत्य स्थापित किया गया। जिन कारणों से रूस और चीन में कम्युनिस्ट पार्टियों को बढ़ावा दिया गया और भारत को बांटा गया, बदली हुई परिस्थितियों में उन्हीं कारणों से सोवियत संघ का विघटन कराया गया और अब चीन का विघटन सुनिश्चित है। विशेषकर कोरोना महामारी को विश्व भर में फैलाने के कारण चीन अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी में खलनायक बन गया है और अब चीन को ‘कन्टेन’ करने के लिये जापान को बढ़ावा देना स्वभाविक है।
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यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका को इस समय मुख्य चुनौती दे रहे हैं मुस्लिम आतंकवाद तथा चीनी विस्तारवाद जिसमें चीन का आर्थिक विस्तारवाद मुख्य है। उसे रोकने के लिये भू-राजनैतिक कारणों से यूरोप और अमेरिका को भारत की आवश्यकता है। इसलिये 21वीं शताब्दी ईस्वी में भारत का अत्यधिक महत्व है और भारत की अखंडता यूरोप तथा अमेरिका के लिये निर्णायक है। राबर्ट डी काप्लान ने अपनी पुस्तक ‘दि रिवेंज ऑफ जाग्रफी’ (रेण्डम हाउस, न्यूयार्क) में अध्याय 15, पृष्ठ 326 में लिखा है कि ‘भारत विश्व राजनीति में 21वीं शताब्दी ईस्वी में धुरी राज्य है’ अर्थात् विश्व राजनीति 21वीं शताब्दी ईस्वी में भारत के इर्द-गिर्द ही घूमेगी, भारत की इसमें निर्णायक भूमिका होगी।
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विश्व राजनीति को भूराजनीति तथा भौगोलिक संरचनायें बड़ी सीमा तक निर्धारित और प्रभावित करती हैं। भारत का सदा से ही अपनी भू-संरचना और भौगोलिक स्थिति के कारण विश्व राजनीति में निर्णायक स्थान रहा है। भारत का गौरवशाली इतिहास और सुशासन तथा सुव्यवस्था के साथ ही समृद्ध युद्धशास्त्र और वीरता की भव्य परंपरायें तथा प्राचीनतम काल से विकसित सैन्य व्यवस्था इसे सदा निर्णायक बनाये रही हैं और इसका लाभ इंग्लैंड को भी 90 वर्षों तक भारत के आधे हिस्से में आधिपत्य स्थापित करने तथा शेष हिस्से के राजाओं से गहन मैत्रीसंबंध स्थापित रखने के कारण मिलता रहा है।
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दोनों ही महायुद्धों में इंग्लैंड के पक्ष को निर्णायक जीत में भारत की सेनाओं की निर्णायक भूमिका रही है। अन्यथा पराजय सुनिश्चित थी। ब्रिटेन में भारत की इस भौगोलिक संरचना और राजनैतिक स्थिति को अच्छी तरह समझ कर स्वयं तो इसका भरपूर लाभ लिया परंतु भविष्य के प्रति आशंकित रहने के कारण जाते-जाते इस राष्ट्र में अनेक विजातीय राज्य थोप गये और मुख्य भूमि पर भी अपने एजेंट को बैठा गये। उनके संकेत पर सत्ता में बैठे लोगों ने भारत को कमजोर रखने के लिये अनेक कार्य किये और अपने निजी राजनैतिक झुकाव के कारण भी नेहरू ने भारत को स्तालिन से बांध दिया तथा स्तालिन के संकेत पर भारत की बहुत बड़ी भूमि छद्म युद्ध का नाटक कर चीन को सौंप दी।
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जापान द्वारा अचानक संयुक्त राज्य अमेरिका पर आक्रमण के कारण परमाणु बम द्वारा जापान को भारी क्षति पहुंचाने के साथ ही उसे पुनः बलशाली होने से रोकने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका के शासन ने भी चीन के कम्युनिस्ट शासन को पोषित किया। परंतु कोरोना की विश्वव्यापी घटना के बाद विश्व परिदृश्य बदल गया है और अब चीन के समकक्ष जापान को खड़ा करना अमेरिका को स्वाभाविक आवश्यक लग रहा है।
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भारत का महत्व तो संयुक्त राज्य अमेरिका के शासक सदा से समझते ही थे। इस प्रकार नई परिस्थितियों में भारत, जापान, तिब्बत और मंगोलिया को सब प्रकार से सशक्त करना और हिन्दू भारत की केन्द्रीय स्थिति सुनिश्चित होने में अपनी ओर से सहयोग करना अंतर्राष्ट्रीय प्रमुख शक्तियों की रणनैतिक अनिवार्यता हो गई है।
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अतः 21वीं सदी की भूराजनीति इन सब कारणों से भारत के पक्ष में है। मजहबी आतंकवाद पर प्रभावी रोक के लिये भी यह आवश्यक हो गया है इसलिये 21वीं सदी की भूराजनीति और प्रभावक्षेत्रों के पुनर्निर्धारण की अनिवार्यता हो जाने के कारण विक्रम की 21वीं शताब्दी समाप्त होते-होते (आगामी 25-30 वर्षों में) भारत का विश्वशक्ति के रूप में उभरना सुनिश्चित हो गया है और सौभाग्यवश भारत में तदनुकूल शासक भी श्री नरेन्द्र मोदी जैसे प्रभावी राजपुरूष के आने से उपस्थित है। इसलिये 21वीं सदी की भूराजनीति भारत के विश्व शक्ति के रूप में उत्कर्ष और प्रतिष्ठा को ऐतिहासिक नियति बना रही है। इसीलिये एक शक्तिशाली और मुस्लिम आतंकवाद तथा चीनी विस्तारवाद को रोकने में सक्षम, समर्थ भारत विश्व राजनीति के लिये निर्णायक महत्व का है। हमारे पास श्री नरेन्द्र मोदी जी जैसा सक्षम और प्रभावी नेतृत्व होने से अन्तर्राष्ट्रीय निर्णायक शक्तियों को भारत पर स्वाभाविक विश्वास हो गया है। इसलिये अखंड भारत के लिये उठाये गये आवश्यक राजनैतिक एवं कूटनैतिक कदमों को वैश्विक समर्थन प्राप्त होगा और श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत पुनः अखंड होगा तथा स्वामी विवेकानंद तथा श्री अरविन्द की भविष्यवाणी सही सिद्ध होगी।
(प्रो. कुसुमलता केडिया)
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(प्रो. रामेश्वर मिश्र की वाल से साभार)

वास्तविक स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में है, अन्यत्र कहीं भी नहीं ---

वास्तविक स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में है, अन्यत्र कहीं भी नहीं है। पिंजरे में बँधे पक्षी, बैलगाडी में जुड़े बैल, और हमारे में कोई अंतर नहीं है। हम एक बैल की तरह हैं जो बैलगाड़ी में जुड़ा हुआ है। जिनको हम अपना प्रियजन या पारिवारिक सगे-संबंधी कहते हैं, वे डंडे से मार-मार कर हमें हाँक रहे हैं। हम उनकी मार खाकर और उनकी इच्छानुसार चलकर बहुत प्रसन्न हैं और इसे अपना कर्त्तव्य मान रहे हैं।

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हम इस संसार में हैं, इसके मुख्यतः दो ही कारण हैं -- राग और द्वेष। द्वेष की शक्ति राग से बड़ी है। किसी को किसी के प्रति भी द्वेष यानि घृणा नहीं रखनी चाहिए। जिससे भी हम द्वेष रखते हैं, हो सकता है अगले जन्म उसी के घर जन्म लेना पड़े। जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें द्वेष हैं, वही वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है। युद्धभूमि में शत्रु का संहार करो, लेकिन उसके प्रति घृणा बिलकुल भी न हो। परमात्मा को कर्ता बनाकर सब कार्य करो, कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहो। सारे कार्य और उनके फल परमात्मा को समर्पित कर दो, फल की अपेक्षा या कामना मत करो। कामना ही राग है, जो बापस हमें इस संसार में ले आती है। 'अपेक्षा' भी राग का एक दूसरा रूप है। किसी से कोई अपेक्षा भी नहीं होनी चाहिए।
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कामनाओं के पीछे आजकल लोग यह तर्क देते हैं कि कामनाएँ ही नहीं होंगी तो मनुष्य जाति में कोई प्रगति नहीं होगी। उनके अनुसार हर नए अविष्कार और हर अच्छे कार्य के पीछे कोई न कोई कामना होती है।
इच्छा-शक्ति और कामना में अंतर है। निरंतर विकास की इच्छा किसी बंधन में नहीं डालती, लेकिन हर कामना बंधनकारी होती है। बंधन में बंधना कोई दुर्भाग्य नहीं है, दुर्भाग्य है -- मुक्त न होने का प्रयास करना।
ॐ तत्सत् !!
१५ जुलाई २०२१

हम किस की उपासना करें? ---

हम किस की उपासना करें? ---

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भगवान ही एकमात्र सत्य हैं। यदि हृदय में सत्यनिष्ठा होगी, तभी इस प्रश्न का उत्तर अपने अंतर से ही मिल सकता है, अन्यथा नहीं। इस विषय पर श्रीमद्भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" का गंभीर स्वाध्याय एक बार कर लेना चाहिए। शरणागत होकर हम खोजें कि वह पुरुषोत्तम कौन है? उन पुरुषोत्तम पुराण-पुरुष की ही हम उपासना करें। वे ही परमशिव हैं, और वे ही विष्णु हैं।
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जितना हम भगवान को पाने के लिए व्याकुल हैं, भगवान भी हमें पाने के लिए उतने ही व्याकुल हैं। लेकिन सृष्टि के संचालन के लिए अपनी स्वयं की बनाई हुई प्रकृति के नियमों को वे भी नहीं तोड़ते। हमें भगवान नहीं मिलते, इसका एकमात्र कारण सत्यनिष्ठा का अभाव है।
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भगवान कहते हैं ---
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
(तदुपरान्त) उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"॥
जिनका मान और मोह निवृत्त हो गया है, जिन्होंने संगदोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म में स्थित हैं जिनकी कामनाएं निवृत्त हो चुकी हैं और जो सुख-दु:ख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त हो गये हैं, ऐसे सम्मोह रहित ज्ञानीजन उस अव्यय पद को प्राप्त होते हैं॥
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ॐ तत्सत् !!
१४ जुलाई २०२१

आध्यात्मिक प्रगति के लक्षण ---

आध्यात्मिक प्रगति के लक्षण ---

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महात्माओं के सत्संग में सुना है कि चित्त के विक्षेप का कारण कर्मफलों से लगाव है। कर्मों के बंधन तभी तक हैं जब तक लोभ, मोह, कामना, अपेक्षा और अहंकार है। इनके नष्ट होने पर हम अच्छे-बुरे सभी कर्म-फलों से मुक्त हैं। जब हम निमित्त मात्र होते हैं, तब माया का विक्षेप हमारे पर प्रभाव नहीं डालता और चित्त-वृत्तियाँ भी शांत रहती हैं। निम्न लक्षण आध्यात्मिक साधक की प्रगति के संकेत हैं --
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(१) उसके भोजन की मात्रा संयमित हो जाती है| थोड़े से अल्प सात्विक भोजन से ही उसे तृप्ति हो जाती है| स्वाद में उसकी रूचि नहीं रहती| उसकी देह को अधिक भोजन की आवश्यकता भी नहीं पड़ती| वह उतना ही खाता है जितना देह के पालन-पोषण के लिए आवश्यक है, उससे अधिक नहीं|
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(२) उसकी वाचालता लगभग समाप्त हो जाती है| वह फालतू बातचीत नहीं करता| गपशप में उसकी कोई रूचि नहीं रहती| परमात्मा की स्मृति उसे निरंतर बनी रहती है| फालतू की बातचीत से परमात्मा की स्मृति समाप्त हो जाती है|
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(३) उसमें दूसरों के प्रति दुर्भावना और वैमनस्यता समाप्त हो जाती है| सभी के प्रति सद्भावना उसमें जागृत हो जाती है| उसकी सजगता, संवेदनशीलता और करुणा बढ़ जाती है| दूसरों को सुखी देखकर उसे प्रसन्नता होती है| दूसरों के दुःख से उसे पीड़ा होती है| उसे किसी से द्वेष नहीं होता|
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(४) उसके श्वास-प्रश्वास की मात्रा कम हो जाती है और उसे विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं| बार बार उसे यह लगता है कि वह यह शरीर नहीं है बल्कि समष्टि के साथ एक है|
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(५) सगे-सम्बन्धियों, घर-परिवार, धन-संपत्ति और मान-बडाई में उसका मोह लगभग समाप्त होता है| मोह का समाप्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है|
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(६) उसकी इच्छाएँ और कामनाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं| वह जीवन में सदा संतुष्ट रहता है| जीवन में संतोष धन का होना बहुत बड़ी उपलब्धि है| उसकी कोई पृथक इच्छा नहीं रहती, परमात्मा की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| इससे उसके जीवन में कोई दुःख नहीं रहता, और वह सदा सुखी, आनंदित और प्रसन्न रहता है|
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥"
इस विषय में किसी को कोई भी संदेह है तो उसे गीता के छठे अध्याय का अर्थ सहित पाठ और मनन करना चाहिए| भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय पर बहुत अधिक प्रकाश डाला है| भगवान् श्रीकृष्ण सभी गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गीता के अध्ययन से सारे संदेह दूर हो जाते हैं|
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उपरोक्त आत्म-निरीक्षण से यानि उपरोक्त कसौटियों पर कसकर हम स्वयं का आंकलन कर सकते हैं कि हम वास्तव में आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं या नहीं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०२१

(प्रश्न १) भवसागर क्या है? (प्रश्न 2) भवसागर को कैसे पार करें? ---

(प्रश्न १) भवसागर क्या है? (प्रश्न 2) भवसागर को कैसे पार करें? ---

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(उत्तर १) भवसागर क्या है? :-- भव-सागर को इस उदाहरण से समझ सकते हैं -- हम खाते क्यों हैं? -- कमाने के लिए, और कमाते क्यों हैं? -- खाने के लिए। यह चक्र कभी समाप्त नहीं होता। यही भवसागर का एक छोटा सा रूप है। इस संसार से सुख की आशा ही हमें इस भवसागर में फँसाए रखती है, जो कभी किसी को नहीं मिलता। यह एक मृगतृष्णा है। हमारी कामनाएँ और वासनाएँ ही इस तृष्णा रूपी भवसागर का निर्माण करती हैं।
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कामनाओं ओर वासनाओं से मुक्त होना ही भवसागर को पार करना है। और भी स्पष्ट शब्दों में संसार की निःसारता को समझ कर, विषय-वासनाओं को त्याग कर परमात्मा के प्रेम में मग्न हो जाना ही -- भवसागर को पार करना है।
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(उत्तर २) भवसागर को कैसे पार करें? :-- श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में संत तुलसीदास जी ने भवसागर को पार करने की जो विधि भगवान श्रीराम के मुख से कहलवाई है, वह समझने में सबसे अधिक सरल है --
चौपाई :--
"नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो।।
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा।।"
दोहा/सोरठा :--
"जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥"
इसका सार यह कि यह मनुष्य शरीर इस भवसागर को पार करने के लिए भगवान द्वारा दी हुई एक नौका है। सन्मुख वायु -- भगवान का अनुग्रह है। इस नौका के कर्णधार सदगुरु हैं। जो इस नौका को पाकर भी भवसागर को न तरे, उस से बड़ा अभागा अन्य कोई नहीं है।
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भवसागर पार करने का एक पंक्ति का सूत्र -- "सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो"।
गुरु तो स्वयं भगवान हैं, उन्हें कर्ता बनाओ, और सन्मुख मरुत यानि सामने जो ये सांसें चल रही हैं, उनसे निरंतर अजपा-जप करो। अजपा-जप क्या है? --
"सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आत्म अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥"
भावार्थ - 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥
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सार की बात -- अपने परमात्व-तत्व में स्थिति ही भवसागर को पार करना है। यदि मेरी बात समझ में नहीं आई है तो किसी उच्च कोटि के संत-महात्मा के समक्ष बैठकर बड़ी विनम्रता से उनसे ज्ञान प्राप्त करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०२१

अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही संसार-सागर को पार करना है ---

स्थितप्रज्ञता यानि अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना ही संसार-सागर को पार करना है। संसार-सागर एक मृगतृष्णा मात्र है, कोई वास्तविकता नहीं।

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परमात्मा का ध्यान करते करते जब परमात्मा से परमप्रेम और आनंद की अनुभूति होने लगे, जब सारे आकाशों की सीमाओं से परे ज्योतिर्मय अनंत असीम विस्तार के साथ एकत्व की अनुभूति होने लगे, जब पृष्ठभूमि में निरंतर प्रणवाक्षर का श्रवण होने लेगे, जब व्यक्तिगत चेतना एकाएक विस्तृत होकर अनन्त चेतना में समाने के लिए उतावली हो जाए, तथा बार बार इसे ही करने में आनन्द आने लगे, तब समझना चाहिए कि परमात्मा की कृपा हो रही है, और सारे भेद समाप्त हो रहे हैं।
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तब यदि हो सके तो उसी समय तुरंत विरक्त होकर एकांत में रहकर भगवान का ध्यान करना चाहिए। क्योंकि विक्षेप का खतरा टला नहीं है, पता नहीं माया का आक्रमण फिर कब हो जाये। स्थितप्रज्ञता बहुत बड़ी उपलब्धि है, कहीं हाथ से छूट न जाये। स्थितप्रज्ञ कौन है? भगवान कहते हैं --
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२:५५॥"
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५७॥"
"यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५८॥"
अर्थात् - श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है, और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है, उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
जो सर्वत्र अति स्नेह से रहित हुआ उन शुभ तथा अशुभ वस्तुओं को प्राप्त कर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित (स्थिर) है॥
कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है॥
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हे प्रभु, मेरे पूरे अन्तःकरण को स्वीकार करो। आपने सदा मेरे रक्षा की है, आगे भी करते रहना।
यह मेरा भगवान के साथ एक सत्संग था। अच्छा न लगे तो मत पढ़ना। मुझे भी अमित्र कर देना। बड़ी कृपा होगी। ॐ तत्सत् !!
१२ जुलाई २०२१

हमारी आभा और स्पंदन पूरी सृष्टि और सभी प्राणियों की सामूहिक चेतना में व्याप्त हैं, और सब का कल्याण कर रहे हैं ---

यह अति सुंदर पुष्प, इस निर्जन पथरीली भूमि पर नहीं, मेरे शुष्क ह्रदय में खिला है. मैं परमात्मा का पुष्प हूँ. प्रभु की उपस्थिति के प्रकाश से इस पुष्प की भक्ति रूपी पंखुडियाँ खिल उठी हैं, और इसकी महक इस हृदय से सभी हृदयों में व्याप्त हो रही हैं. परमात्मा भी मुझे अपनी बाँहों में लेने के लिए बेचैन हैं. मैं उनके साथ एक हूँ.

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'आत्मज्ञान' ही परम धर्म है| ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान दोनों एक ही हैं, जिनका अर्थ है परमात्मा का ज्ञान| सबसे बड़ी सेवा जो हम अपने परिवार, समाज, राष्ट्र, देश और विश्व की कर सकते हैं, वह है ..."आत्मसाक्षात्कार"| आत्म-साक्षात्कार एक अवस्था है जिसमें हम स्वयं को परमात्मा यानि ब्रह्म के साथ एक पाते हैं| यह परमात्मा के विशेष अनुग्रह यानि उनकी परम कृपा से ही होता है| भगवान को हम अपना पूर्ण प्रेम देंगे तो वे भी निश्चित रूप से अपनी कृपा करेंगे|

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निरंतर प्रभु की चेतना में स्थिर रहें, यह बोध रखें कि हमारी आभा और स्पंदन पूरी सृष्टि और सभी प्राणियों की सामूहिक चेतना में व्याप्त हैं, और सब का कल्याण कर रहे हैं| प्रभु की सर्वव्यापकता हमारी सर्वव्यापकता है, सभी प्राणियों और सृष्टि के साथ हम एक हैं| हमारा सम्पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम पूरी समष्टि का कल्याण कर रहा है| हम और हमारे प्रभु एक हैं|
 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
११ जुलाई २०२१

आध्यात्मिक दृष्टि से एकमात्र सत्य केवल परमात्मा हैं, उनके "कैवल्य" के बोध में स्वयं को समर्पित कीजिये ---

आध्यात्मिक दृष्टि से एकमात्र सत्य केवल परमात्मा हैं, उनके "कैवल्य" के बोध में स्वयं को समर्पित कीजिये ---

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एकमात्र सत्य केवल परमात्मा है। हमारी सारी आशायें, अपेक्षायें, आकांक्षायें व पृथकता का बोध -- हमारी विवेकाग्नि में भस्म हो जाये। विवेक की उस अग्नि को अपने अंतर में हमें स्वयं को ही प्रज्ज्वलित करना होगा। हमारा पूर्ण समर्पण "कैवल्य" के बोध व चेतना में ही हो। यही अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है। यही गीता के उपदेश का सार है। जो इस संकेत को समझ कर उस का आचरण करेंगे, उनका निश्चित रूप से कल्याण होगा। सारा मार्गदर्शन श्रीमद्भगवद्गीता व उपनिषदों में है। ॐ ॐ ॐ !!
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जो स्वयं को हिन्दू मानते हैं, और जो चाहते हैं कि भारत से असत्य का अंधकार दूर हो, उन्हें अपनी चेतना का उत्थान करना होगा। उन्हें एक सामान्य मनुष्य की चेतना से ऊपर उठकर स्वयं को देवत्व में स्थापित करना होगा। सिर्फ बातों से काम नहीं होगा, नित्य नियमित साधना करनी पड़ेगी, और परमात्मा को अपने जीवन का केंद्र बिन्दु बनाना पड़ेगा। आप यह नश्वर शरीर नहीं, शाश्वत अजर अमर आत्मा हैं, और एक देवता के रूप में इस पृथ्वी पर परमात्मा का कार्य करने के लिए आये हैं। आपको कोई पराजित नहीं कर सकता। इस वेद-वाक्य को याद रखो -- "अहं इन्द्रो न पराजिग्ये" अर्थात मैं इंद्र हूँ, मेरा पराभव नहीं हो सकता। आप वास्तव में देवताओं के राजा इंद्र है, जिसे कोई पराजित नहीं कर सकता। आप इस पृथ्वी देवताओं के राजा हैं, उन्हीं की तरह सोचिए, और उन्हीं की तरह आचरण कीजिये।
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शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः -- कृष्ण यजुर्वेद शाखा के श्वेताश्वतरोपनिषद में सनातन हिन्दू धर्म का सारा साधना पक्ष और ज्ञानयोग दिया हुआ है। इस उपनिषद् के छओं अध्यायों में जगत के मूल कारण, ॐकार-साधना, परमात्मतत्त्व से साक्षात्कार, ध्यानयोग, प्राणायाम, जगत की उत्पत्ति, जगत के संचालन और विलय का कारण, विद्या-अविद्या, जीव की नाना योनियों से मुक्ति के उपाय, और परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है। सारी आध्यात्मिक साधनाएँ यहीं से आरम्भ होती हैं। यह उपनिषद् अपने दूसरे अध्याय में हम सब को अमृत पुत्र कहता है। हम सब परमात्मा के अमृतपुत्र हैं।
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जो भी शिक्षा हमें जन्म से पापी होना सिखाती है वह वेदविरुद्ध होने के कारण विष के समान त्याज्य है। सिर्फ वेद ही प्रमाण हैं। कोई भी पौराणिक या आगम शास्त्रों की शिक्षा भी यदि वेदविरुद्ध है तो वह त्याज्य है। कुछ मंदिरों में आरती के बाद "पापोऽहं पापकर्माऽहं पापात्मा पापसंभवः" जैसा अभद्र मंत्रपाठ करते है। यह मन्त्र वेदविरुद्ध है।
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वेदों के चार महावाक्य हैं ---
(१) प्रज्ञानं ब्रह्म --- (ऐतरेय उपनिषद) --- ऋग्वेद,
(२) अहम् ब्रह्मास्मि --- (बृहदारण्यक उपनिषद) --- यजुर्वेद,
(३) तत्वमसि --- (छान्दोग्य उपनिषद्) --- सामवेद,
(४) अयमात्माब्रह्म --- (मांडूक्य उपनिषद) ---अथर्व-वेद।
हम महान ऋषियों की संतानें हैं, अतः जिन महावाक्यों को आधार बना कर हमारे हमारे महान ऋषियों ने तपस्या की और महान बने वे महावाक्य हमारे भी जीवन का आधार बनें। इन्हें परमात्मा की कृपा द्वारा ही समझा जा सकता है क्योंकि इनके दर्शन ऋषियों को गहन समाधि में हुए। इनकी समाधि भाषा है। इन्हें कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही समझा सकता है।
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सारे उपनिषद् हमें प्रणव यानि ओंकार पर ध्यान करने का आदेश देते हैं। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण का यही आदेश और उपदेश है। हमारे शास्त्रों में कहीं भी मनुष्य को जन्म से पापी नहीं कहा गया है। हम स्वधर्म पर अडिग रहें और स्वधर्म का पालन करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति ! 🌹🙏🕉🕉🕉🙏🌹
कृपा शंकर
११ जुलाई २०२१