Thursday, 5 August 2021

संशय-विपर्यय को छोड़ो और अभ्यास में लगो ---

 

संशय-विपर्यय को छोड़ो और अभ्यास में लगो ---
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एक परमात्मा को साधने से ही संसार अपने आप सध जाता है, क्योंकि परमात्मा सब का मूल है। कोई भी आध्यात्मिक साधना हो, उसका एकमात्र उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है, न कि कुछ और। परमात्मा की ही उपासना करें, और सत्संग भी उन्हीं महात्माओं का करें जो हमारी साधना के अनुकूल हो, अन्यथा परमात्मा के साथ ही सत्संग करें। चाहे कितना भी बड़ा महात्मा हो, यदि उसका आचरण गलत हो तो उसे विष की तरह त्याग दो। यदि गुरु का आचरण गलत है, तो गुरु भी त्याज्य है।
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जब अनेक पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों का उदय होता है तब भगवान की भक्ति जागृत होती है। फिर कुछ और जन्म बीत जाते हैं तब अंतर्रात्मा में परमात्मा को पाने की अभीप्सा जागृत होती है। जब वह अभीप्सा अति प्रबल हो जाती है तब जीवन में सद्गुरु की प्राप्ति होती है। फिर भी हमारी निम्न प्रकृति हमें छोड़ती नहीं है। वह निम्न प्रकृति हमारे अवचेतन मन में छिपे पूर्व जन्मों के बुरे संस्कारों, और गलत आदतों को जागृत करती रहती है। इस निम्न प्रकृति पर विजय पाना ही सबसे बड़ी आरंभिक मुख्य साधना है।
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आज के समाज का वातावरण अत्यंत प्रदूषित और विषाक्त है जहाँ भक्ति करना लगभग असम्भव है। यदि कोई कर सकता है तो वह धन्य है। बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं, लाखों में कोई एक ऐसा परिवार होगा जहाँ पति-पत्नी दोनों साधक हों। ऐसा परिवार धन्य है, वे घर में रहकर भी विरक्त हैं। ऐसे ही परिवारों में महान आत्माएं जन्म लेती हैं। घर-परिवार के प्रति मोह बहुत बड़ी बाधा है। घर-परिवार के लोगों की नकारात्मक सोच, गलत माँ-बाप के यहाँ जन्म, गलत पारिवारिक संस्कार, गलत विवाह, गलत मित्र, और गलत वातावरण, कोई साधन-भजन नहीं करने देता। मेरा तो यह मानना है कि जब एक बार युवावस्था में ईश्वर की एक झलक भी मिल जाये तब उसी समय व्यक्ति को गृहत्याग कर देना चाहिए। रामचरितमानस में कहा है --
"सुख सम्पति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई॥
ये सब रामभक्ति के बाधक। कहहिं संत तव पद अवराधक॥"
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चाहते तो सभी साधक यही हैं कि परमात्मा की चेतना सदा अंतःकरण में रहे पर अवचेतन मन में छिपे हुए पूर्वजन्मों के संस्कार जागृत होकर साधक को चारों खाने चित्त गिरा देते हैं। सभी मानते हैं कि तृष्णा बहुत बुरी चीज है पर तृष्णा को जीतना एक जंगली हाथी से युद्ध करने के बराबर है। यह मन का लोभ सुप्त कामनाओं यानि तृष्णाओं को जगा देता है। तो पहला प्रहार मन के लोभ पर ही करना होगा।
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घर का एक कोना निश्चित कर लें जहाँ सबसे कम शोरगुल हो, और जहाँ परिवार के सदस्य कम ही आते हों। उस स्थान को अपना देवालय बना दें। अधिकाँश समय वहीं व्यतीत करें। जो भी साधन भजन करना हो वहीं करें। बार बार स्थान न बदलें। वह स्थान ही चैतन्य हो जाएगा। वहाँ बैठते ही हम परमात्मा को भी वहीं पायेंगे। इधर उधर कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होगी, वही स्थान सबसे बड़ा तीर्थ हो जाएगा। सिर्फ जानने मात्र से कुछ नहीं होगा, उसे क्रिया में परिणित करना होगा। चाहे सारे शास्त्रों का स्वाध्याय कर लो, लेकिन व्यवहार रूप में परिणित नहीं किया तो वह व्यर्थ है। संशय-विपर्यय को छोड़ो और अभ्यास में लगो।
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आप सभी महान आत्माओं को मेरा नमन! ॐ नमःशिवाय! ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ!!
कृपा शंकर
२१ जुलाई २०२१

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