Thursday 5 August 2021

भगवान को प्राप्त करने से अधिक सरल इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है ---

 

भगवान को प्राप्त करने से अधिक सरल इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है ---
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इसके लिए समर्पित भाव से अपने स्वभाव को सरल और प्रेममय बनाना पड़ेगा, और कुछ भी नहीं करना है। भगवान को सदा याद रखना हमारा स्वभाव बन जाये, तो हमारा काम बन जायेगा। आप जब साँसें ले रहे तो याद रहे कि भगवान ही साँसें ले रहा है, इस हृदय में धडक भी वो ही रहा है, इन आँखों से देख भी वो ही रहा है, कानों से सुन भी वो ही रहा है, इन पैरों से चल भी वो ही रहा है, भूख-प्यास भी उसी को लगती है, अतः भूख लगने पर भोजन भी वो ही कर रहा है, प्यास लगने पर जल भी वो ही पी रहा है, सर्दी-गर्मी भी उसी को लगती है, इस दिमाग से सोच भी वो ही रहा है, और हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) को भी वो ही चला रहा है। इस सृष्टि में उस के सिवाय अन्य कोई भी नहीं है, पूरी सृष्टि उसी का रूप है, सब कुछ वो ही है।
यही भक्ति है, यही ज्ञान है, व यही कर्म है, और यही हमारा सत्य सनातन स्वधर्म है।
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यह मैं नहीं कह रहा हूँ, गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कह रहे हैं --
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
अर्थात् -- "हे पार्थ ! जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ॥"
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स्वनामधान्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में लिखा है कि "अनन्यचित्तवाला अर्थात् जिसका चित्त अन्य किसी भी विषय का चिन्तन नहीं करता, ऐसा जो योगी सर्वदा निरन्तर प्रतिदिन मुझ परमेश्वर का स्मरण किया करता है, यहाँ सततम् इस शब्द से निरन्तरता का कथन है, और नित्यशः इस शब्द से दीर्घकाल का कथन है, अतः यह समझना चाहिये कि छः महीने या एक वर्ष ही नहीं, किंतु जीवनपर्यन्त जो निरन्तर मेरा स्मरण करता है। हे पार्थ, उस नित्यसमाधिस्थ योगी के लिये मैं सुलभ हूँ। अर्थात् उसको मैं अनायास प्राप्त हो जाता हूँ। जब कि यह बात है इसलिये (मनुष्यको) अनन्य चित्तवाला होकर सदा ही मुझमें समाहितचित्त रहना चाहिये।"
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उपरोक्त श्लोक के साथ-साथ गीता में ही भगवान ने कहा है -- (इन के अर्थ और भाष्य का स्वाध्याय आप स्वयं पूर्ण मनोयोग से कीजिये, और उसका अनुसरण कीजिये, तभी आपका कल्याण होगा, अन्यथा कई जन्मों तक यों ही बहुत दुःखी होकर कष्ट पाते हुये भटकना पड़ेगा, व कुछ भी नहीं मिलेगा)
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८:९॥"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८:१५॥"
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८:१६॥|
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रामचरितमानस में इसकी महिमा गाई है --
"एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई।।
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई।।
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई।।
आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।"
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समर्थ स्वामी रामदास जी कहते हैं --
"स्मरण देवाचें करावें। अखंड नाम जपत जावें। नामस्मरणें पावावें॥ समाधान॥२॥"
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भक्त रहीमदास जी बताते हैं –-
"रहिमन धोखे भाव से मुख से निकसे राम।
पावत पूरन परम गति कामादिक कौ धाम॥"
"भज नरहरि नारायण तजि वकबाद।
प्रगटि खंभ ते राख्यो जिन प्रह्लाद॥"
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कवि नाथूराम शास्त्री ‘नम्र’ की एक बहुत प्रसिद्ध कविता यही कहती है --
"क्षण भंगुर जीवन की कलिका,
कल प्रातः को जाने खिली न खिली।
मलयाचल की शुचि शीतल मंद,
सुगंध समीर चली न चली॥
कलि काल कुठार लिए फिरता,
तन 'नम्र' है चोट झिली न झिली॥
ले ले हरि नाम अरी रसना,
फिर अन्त समय में हिली न हिली॥"
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भक्त कबीर दास जी कहते हैं --
"राम नाम की लूट है, लूट सके सो लूट।
अंत काल पछतायेगा, प्राण जायेगा छूट॥"
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हर साँस पर परमात्मा का स्मरण एक पुनर्जन्म है। स्मरण करने से हमारे मन में चल रहे असंख्य विचारों का प्रवाह थम जाता है, मन को शांति मिलती है, सभी पापों से मुक्ति मिलती है, व संचित और प्रारब्ध कर्मफल नष्ट होते हैं। यही तो है पुनर्जन्म !! इस से अधिक सरल अन्य क्या हो सकता है? अतः निरंतर भगवान के नाम का स्मरण करें। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०२१

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