Thursday, 5 August 2021

दुविधा, बड़ी भयंकर दुविधा, एक बड़ी भयंकर रस्साकशी चल रही है ---

दुविधा, बड़ी भयंकर दुविधा :--- एक बड़ी भयंकर रस्साकशी चल रही है, एक शक्ति हमें ऊपर परमात्मा की ओर खींच रही है, व दूसरी शक्ति नीचे वासनाओं की ओर; हम बीच में असहाय हैं। शास्त्र हमें अभ्यास और वैराग्य का उपदेश देते हैं।

योगदर्शन में एक सूत्र है -- "अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः", अर्थात् अभ्यास और वैराग्य से उन चित्तवृत्तियों का निरोध होता है।
गीता में भी भगवान कहते हैं ...
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥६:३५॥"
अर्थात् हे महबाहो निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।
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यहाँ अभ्यास का अर्थ है .... अपनी चित्तभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृत्ति। वैराग्य का अर्थ है दृष्ट व अदृष्ट प्रिय भोगों में बारंबार दोषदर्शन, और उन से विरक्ति। सुषुम्ना में नीचे के तीन चक्रों में यदि चेतना रहेगी तो वह अधोगामी होगी और ऊपर के तीन चक्रों में ऊर्ध्वगामी। अपनी चेतना को सदा प्रयासपूर्वक उत्तरा-सुषुम्ना में यानि आज्ञाचक्र से ऊपर रखें। सूक्ष्म देह में मूलाधार चक्र से स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि व आज्ञा चक्रों से होते हुए सहस्त्रार तक एक अति-अति सूक्ष्म प्राण शक्ति प्रवाहित हे रही है, उसके प्रति सजग रहें व अजपा-जप की साधना और नादानुसंधान करें। अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ और पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें। निश्चित रूप से कल्याण होगा।
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यह सच्चिदानंद परमात्मा की करुणा, कृपा और अनुग्रह है कि हमें उनकी याद आ रही है, और हमें उनसे परमप्रेम हो गया है। अभ्यास और वैराग्य की उपेक्षा न करें, अन्यथा यह जीवन यों ही व्यर्थ में बीत जाएगा। प्रमाद और दीर्घसूत्रता हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं जिनके आगे हम असहाय हो जाते हैं। परमात्मा को अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ प्रेम दें, और उन्हें निरंतर अपनी स्मृति में रखें।
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१८ जुलाई २०२१

2 comments:

  1. उनके प्रेम में सारी चाहतें मिट गयी हैं, कोई कामना नहीं है; सर्वत्र आनंद ही आनंद है। उस आनंद में हम स्वयं आनंदमय हैं। प्रकृति और पुरुष दोनों ही बड़े प्रेम से आनंदमय होकर नृत्य कर रहे हैं -- जय हो राधे ! जय हो गोबिंद ! आनंद आनंद आनंद !
    इस जीवन की सारी समस्याओं, उलझनों और जिज्ञासाओं का समाधान स्वयं में ही है।
    ॐ ॐ ॐ !!

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  2. नित्यमुक्त को जाने की आज्ञा कौन दे? परमशिव स्वेच्छा से अविद्या का आनंद लेने स्वतंत्र बंधनों में आये हैं। वे परतंत्र नहीं हैं। जब उन की कृपा से "इदम्" मिट जाता हैे, तब वे ही "अहम्" बन जाते हैं। जो भी है वे भगवान वासुदेव ही हैं, वे ही परमशिव है, वे ही पारब्रह्म हैं, वे ही जगन्माता हैं, वे ही सर्वस्व हैं।
    "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
    वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥गीता ७:१९॥"
    अर्थात् - बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥

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