आध्यात्मिक प्रगति के लक्षण ---
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महात्माओं के सत्संग में सुना है कि चित्त के विक्षेप का कारण कर्मफलों से लगाव है। कर्मों के बंधन तभी तक हैं जब तक लोभ, मोह, कामना, अपेक्षा और अहंकार है। इनके नष्ट होने पर हम अच्छे-बुरे सभी कर्म-फलों से मुक्त हैं। जब हम निमित्त मात्र होते हैं, तब माया का विक्षेप हमारे पर प्रभाव नहीं डालता और चित्त-वृत्तियाँ भी शांत रहती हैं। निम्न लक्षण आध्यात्मिक साधक की प्रगति के संकेत हैं --
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(१) उसके भोजन की मात्रा संयमित हो जाती है| थोड़े से अल्प सात्विक भोजन से ही उसे तृप्ति हो जाती है| स्वाद में उसकी रूचि नहीं रहती| उसकी देह को अधिक भोजन की आवश्यकता भी नहीं पड़ती| वह उतना ही खाता है जितना देह के पालन-पोषण के लिए आवश्यक है, उससे अधिक नहीं|
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(२) उसकी वाचालता लगभग समाप्त हो जाती है| वह फालतू बातचीत नहीं करता| गपशप में उसकी कोई रूचि नहीं रहती| परमात्मा की स्मृति उसे निरंतर बनी रहती है| फालतू की बातचीत से परमात्मा की स्मृति समाप्त हो जाती है|
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(३) उसमें दूसरों के प्रति दुर्भावना और वैमनस्यता समाप्त हो जाती है| सभी के प्रति सद्भावना उसमें जागृत हो जाती है| उसकी सजगता, संवेदनशीलता और करुणा बढ़ जाती है| दूसरों को सुखी देखकर उसे प्रसन्नता होती है| दूसरों के दुःख से उसे पीड़ा होती है| उसे किसी से द्वेष नहीं होता|
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(४) उसके श्वास-प्रश्वास की मात्रा कम हो जाती है और उसे विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं| बार बार उसे यह लगता है कि वह यह शरीर नहीं है बल्कि समष्टि के साथ एक है|
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(५) सगे-सम्बन्धियों, घर-परिवार, धन-संपत्ति और मान-बडाई में उसका मोह लगभग समाप्त होता है| मोह का समाप्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है|
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(६) उसकी इच्छाएँ और कामनाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं| वह जीवन में सदा संतुष्ट रहता है| जीवन में संतोष धन का होना बहुत बड़ी उपलब्धि है| उसकी कोई पृथक इच्छा नहीं रहती, परमात्मा की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| इससे उसके जीवन में कोई दुःख नहीं रहता, और वह सदा सुखी, आनंदित और प्रसन्न रहता है|
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥"
इस विषय में किसी को कोई भी संदेह है तो उसे गीता के छठे अध्याय का अर्थ सहित पाठ और मनन करना चाहिए| भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय पर बहुत अधिक प्रकाश डाला है| भगवान् श्रीकृष्ण सभी गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गीता के अध्ययन से सारे संदेह दूर हो जाते हैं|
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उपरोक्त आत्म-निरीक्षण से यानि उपरोक्त कसौटियों पर कसकर हम स्वयं का आंकलन कर सकते हैं कि हम वास्तव में आध्यात्मिक उन्नति कर रहे हैं या नहीं।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०२१
"जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करहिं सब कोई।
ReplyDeleteजिनके कपट, दम्भ नहिं माया, तिनके ह्रदय बसहु रघुराया॥"
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राम जी की मुझ पर कृपा हो, ऐसी भी कोई कामना, आकांक्षा या अभिलाषा नहीं है। उनकी इच्छा है, वे कृपा करें या न करें, यह उनका मामला, उनकी सोच, और उनकी समस्या है। यह भी क्या कम है कि मुझ अकिंचन के हृदय में उन्होने डेरा डाल दिया है, और मुझे समय समय पर याद करते रहते हैं। इतना ही बहुत है। अब और कुछ नहीं चाहिए आपसे। आपकी जय हो।