एक ही विकल्प --- . वास्तव में हमारे समक्ष एक ही विकल्प है कि हम परमात्मा को प्रेम करें या न करें, अन्य कोई विकल्प है ही नहीं| अन्य सब तो मात्र बुद्धि विलास है| प्रभु से प्रेम होगा तो हमारे विचार और संकल्प भी अच्छे होंगे| ये ही हमारे अच्छे कर्म हैं| अन्यथा स्वतः हमारे कर्म भी बुरे होंगे|
Sunday, 9 March 2025
एक ही विकल्प ---
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ह्रदय में कई बार यह प्रश्न उठता था कि सब कुछ प्रारब्ध के आधीन है या पुरुषार्थ के| कुछ संत कहते हैं कि जैसी ईश्वर की इच्छा होती है वैसे ही होता है, मनुष्य की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती| अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या मनुष्य कर्म करने को स्वतंत्र है? यदि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है तो कर्मफल का सिद्धांत कितना सही है?
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अधिकाँश लोग शिकायत करते हैं कि हमने तो कोई बुरा कर्म ही नहीं किया फिर कष्ट क्यों पा रहे हैं| इन सब पर मंथन करने के पश्चात जो उत्तर निकलता है वह यह कि भौतिक रूप से किया हुआ कार्य ही कर्म नहीं है|
हमारे विचार और अपेक्षाएँ ही हमारे "कर्म" हैं| हमारी हर कामना, संकल्प और अपेक्षा हमारा 'कर्म' है जिस का फल मिले बिना नहीं रहता| हमारे विचार ही घनीभूत होकर भौतिक जगत की रचना करते हैं| सारे सुखों और दु:खों का कारण हमारे विचार ही हैं| हर कामना, हर संकल्प और हर विचार फलीभूत अवश्य होता है|
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कहते हैं कि जीव जब गर्भस्थ होता है तभी उसकी आयु, कर्म, विद्या, धन तथा मृत्यु, ये ५ बातें विधाता निर्धारित कर देते हैं| इसे ही प्रारब्ध कहा गया है और जिन साधनों से जीव सांसारिक पदार्थों अथवा उपलब्धियों को प्राप्त करने की चेष्टा करता है , उसे ही पुरुषार्थ समझा जाता है| समस्त सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति प्रारब्ध की अनुकूलता में पुरुषार्थ साध्य तो है, किन्तु भगवत् भक्ति एक मात्र भगवत् कृपा से ही साध्य है| जीव के पुरुषार्थ तथा प्रारब्ध दोनों ही भगवत् भक्ति की प्राप्ति में असमर्थ हैं|
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अनेक जन्मों के बहुत ही बहुत अति अच्छे कर्मों से भगवान को उपलब्ध होने यानि प्राप्त करने की इच्छा जागृत होती है, तभी भक्ति प्राप्त होती है जिसे मैं मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धी मानता हूँ| भक्ति एक अवस्था है जिसे प्राप्त हुआ जाता है, कुछ करना नहीं पड़ता, बनना पड़ता है| सत्संग और सद्विचार साधन हैं|
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कर्म कोई अंतिम बंधन नहीं हैं| मनुष्य कर्मों से तभी तक बँधा हुआ है जब तक उसमें अहंकार यानि प्रभु से पृथकता है| पूर्ण समर्पण द्वारा ही सभी कर्मों से मुक्त हुआ जा सकता है| परमात्मा में कोई सीमाएँ नहीं हैं| प्रभु तो अनंत हैं| सभी सीमाएँ और पंथ व मार्ग .... ज्ञानियों द्वारा निर्मित हैं, भगवान द्वारा नहीं| महत्व इस बात का नहीं है की हम किस मार्ग पर चल रहे हैं, महत्व सिर्फ और सिर्फ इसी बात का है कि हम कितने प्रेममय हैं|.
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
९ मार्च २०१७
सनातन धर्म हमें बलशाली होने की शिक्षा देता है .....
सनातन धर्म हमें बलशाली होने की शिक्षा देता है .....
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नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ||
बलहीन को कभी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती|
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उस चट्टान की तरह बनो जो समुद्र की प्रचंड लहरों के आघात से भी विचलित नहीं होती|
उस परशु की तरह बनो जिस पर कोई गिरे वह भी नष्ट हो, और जिस पर भी गिरे वह भी नष्ट हो जाए|
तुम्हारे में हिरण्य यानि स्वर्ण की सी पवित्रता हो|
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सत्यं वद (सत्य बोलो) !
धर्मं चर (धर्म मेँ विचरण करो) !
स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यं |
वेदाध्ययन और उसके प्रवचन प्रसार मेँ प्रमाद मत करो !
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तद्विष्णोः परमं पदम् | सदा पश्यन्ति सूरयः ||
उस विष्णु के परम पद का दर्शन सदैव सूरवीर ही करते हैँ ||
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सत्य का आलोक, असत्य और अन्धकार के बादलोँ से ढका ही दिखता है , नष्ट नहीँ होता| भगवान भुवन भास्कर जब अपने पथ पर अग्रसर होते हैं तब मार्ग में कहीं भी तिमिर का अवशेष नहीं रहता| अब समय आ गया है| असत्य, अन्धकार और अज्ञान की शक्तियों का पराभव सुनिश्चित है| अपने अंतर में उस ज्योतिर्मय ब्रह्म को आलोकित करो| सत्य विचार अमर है| सनातन वैदिक धर्म अमर है||
९ मार्च २०१९
परमगुरु के पुण्य स्मृतिदिवस पर श्रद्धांजलि .....
परमगुरु के पुण्य स्मृतिदिवस पर श्रद्धांजलि .....
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९ मार्च १९३६ सोमवार सायंकाल के पाँच बजने वाले थे| जगन्नाथपुरी के अपने आश्रम में ८१ वर्षीय स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने अपने नारायण नाम के एक शिष्य को आवाज दी| उनका शिष्य नारायण निरंतर सदा अपने गुरु की सेवा में तत्पर रहता था| "नारायण, मेरा आज इस संसार को छोड़ने का समय आ गया है, आज मैं इस देह को त्याग दूँगा| क्या मुझे एक गिलास जल पिला सकते हो?" अत्यंत दुखी हृदय से उनका शिष्य नारायण भाग कर जल का एक गिलास लेकर आया| हाथ में गिलास लेते ही वह फर्स पर छूट कर गिर गया| करुणा और प्रेम से भरे शब्दों में उन्होंने कहा "नारायण, तुम देख रहे हो, किस तरह मैं तुम सब से दूर ले जाया जा रहा हूँ| व्यथित मत हो, अपने गुरु के प्रति तुम्हारा प्रेम, सेवा और भक्ति अनुपम हैं| मैं तुम्हारे से पूरी तरह संतुष्ट हूँ| अपना सम्बन्ध शाश्वत रहेगा|"
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सूर्यास्त का समय था, कुछ कुछ अन्धकार होने लगा था| स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने कृतिवास नाम के एक व्यक्ति को बुलाया और आदेश दिया "कृतिवास, तुरंत पुरी के रेलवे स्टेशन पर जाकर प्रभास को सन्देश भिजवाओ कि वह कोलकाता में योगानंद को सूचित कर दे कि अब मेरा इस देह को त्यागने का समय आ गया है| योगानंद आज रात्री की रेलगाड़ी से ही पुरी आ जाए|"
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प्रभास, योगानंद जी का भतीजा था और रेलवे विभाग खड़गपुर में एक प्रशासनिक अधिकारी था| उस जमाने में टेलीफोन सेवा का आरम्भ नहीं हुआ था| टेलीफोन सेवा सिर्फ रेलवे स्टेशन से रेलवे स्टेशन तक ही हुआ करती थी| खड़गपुर में ज्यों ही प्रभास को जगन्नाथपुरी से यह सूचना मिली, उसने तुरंत कोलकाता रेलवे स्टेशन के माध्यम से योगानंद जी के पास यह सन्देश भिजवा दिया पर गुरु के देह को छोड़ने वाली बात छिपा ली|
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि पद्मासन लगा कर नित्य की तरह अपने आसन पर शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए थे| उन्होंने अपने शिष्य नारायण को आदेश दिया कि वह उनकी छाती और कमर को अपने दोनों हाथों से सहारा दे दे| शिष्य ने वैसा ही किया| स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि गहनतम समाधि की अवस्था में चले गए, उनका शरीर एकदम शांत और स्थिर था| फिर सचेतन रूप से स्वयं को अपनी देह की चेतना से मुक्त कर दिया| उनके शिष्य नारायण को अपने गुरु की देह की छाती से ब्रह्मरंध्र तक एक हल्के से स्पन्दन की सी अनुभूति हुई और एक अति धीमी सी ध्वनि भी सुनाई दी जो ॐ से मिलती जुलती थी| हतप्रभ सा हुआ उनका शिष्य नारायण उनकी शांत हुई देह की बहुत देर तक मालिश ही करता रहा|
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थोड़ी देर में कृतिवास भी रेलवे स्टेशन से लौट आया| शिष्य नारायण ने कृतिवास को वहीं बैठाया और पड़ोस में रहने वाले डॉ.दिनकर राव को बुलाने चला गया| डॉ.दिनकर राव भी स्वामीजी के शिष्य थे| डॉ.राव ने निरीक्षण कर के बताया कि आधे घंटे पूर्व ही गुरु जी का शरीर शांत हो गया था|
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि के शिष्य स्वामी परमहंस योगानंद गिरि जो स्वयं एक महायोगी सिद्ध संत थे सब कुछ अपनी अंतरप्रज्ञा से समझ गए और रात्री की ट्रेन से पुरी के लिए चल दिए| (आगे का घटनाक्रम "योगी कथामृत" में लिखा है).
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स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी का व्यक्तित्व अत्यधिक प्रभावशाली था| जो भी उनके संपर्क में आया वह उन की अति दिव्यता और असीम विवेक व ज्ञान से प्रभावित हुए नहीं रह पाया| उनकी लम्बी व बलिष्ठ देह, लम्बे हाथ, चौड़ा माथा, मजबूत छाती, चमकती हुई दोनों आँखें, और सफ़ेद दाढी थी| अपने आसन पर हर समय पद्मासन लगाकर शाम्भवी मुद्रा में बैठे रहते थे| उनकी देह का जन्म कोलकाता के पास श्रीरामपुर में गंगा नदी के पास हुआ था| ८१ वर्ष की आयु प्राप्त की| स्वस्थ शरीर था और जगन्नाथपुरी में स्थित अपने आश्रम में सचेतन रूप से समाधिस्थ होकर देह-त्याग किया| वे वास्तविक ज्ञानावतार थे|
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उनकी पुण्य स्मृति पर परमगुरु को कोटि कोटि नमन !
ॐ श्रीपरमगुरवे नमः || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ मार्च २०१९
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पुनश्च: --
स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी भारत माँ के उन महान संतों में से एक थे जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक साधना द्वारा सनातन धर्म और राष्ट्र की रक्षा की| उनका लौकिक रूप से सबसे बड़ा योगदान था --- मुकुन्दलाल घोष को आध्यात्मिक प्रशिक्षण देकर और सन्यास की दशनामी सम्प्रदाय की गिरी शाखा में दीक्षित कर स्वामी योगानंद गिरी के नाम से धर्मप्रचार के लिए विदेश भेजना| ये स्वामी योगानंद ही बाद में परमहंस योगानंद के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुए| जय गुरु|
भगवान दक्षिणामूर्ति ---
भगवान को पाने के लिए ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की आवश्यकता होती है। इनसे अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, और आत्मज्ञान रूपी दीप प्रज्वलित हो उठता है। आत्म-तत्व' का बोध हमें सच्चिदानंदमय बना देता है। ऋषियों ने इसके लिए अनेक साधनाएँ बताई हैं, जिनमें से एक 'दक्षिणामुखी शिव' की उपासना भी है। इससे समस्त भव-बन्धन और पाप नष्ट हो जाते हैं। साधक 'मोक्ष' को प्राप्त कर लेता है।
गुरुओं के गुरु भगवान शिव को दक्षिणामूर्ति कहा गया है जो वेद और तंत्र का सम्पूर्ण ज्ञान अपने भक्तों को प्रदान करते हैं। इनके दो रूप हैं -- एक में तो वे बरगद के वृक्ष के नीचे दक्षिण दिशा में मुंह कर के एक विशिष्ट मुद्रा में बैठे हैं; दूसरे में वे कैलाश पर्वत के ऊपर उसी मुद्रा में दक्षिण दिशा में ही मुंह कर के बैठे हैं।
वे समस्त ज्ञान के प्रदाता हैं, इसलिए उनका विग्रह कैसा भी हो, हमारी रुचि उनके विग्रह में नहीं, उनसे शिव-तत्व का ज्ञान पाने की ही होनी चाहिए। शिव-तत्व ही आत्म-तत्व है, और यही ब्रह्म-तत्व है। यहाँ पाने को कुछ नहीं है, केवल स्वयं का शिव में पूर्ण समर्पण है।
यह साधना कृष्ण-यजुर्वेदीय परंपरा में आती है, जिस में शौनक आदि ऋषियों और ऋषि मार्कन्डेय के मध्य प्रश्नोत्तरों के रूप में सारी बातें समझाई गई हैं। कुछ मंत्रों का भी प्रयोग है इसलिए यह साधना सिद्ध गुरु से ही सीखनी चाहिए; किसी पुस्तक से पढ़कर नहीं।
९ मार्च २०२३
यह भगवत्-प्राप्ति का मौसम है, आज भगवत्-कृपा की वर्षा हो रही है, और उनके दिव्य प्रेम की बाढ़ आई हुई है ---
यह भगवत्-प्राप्ति का मौसम है, आज भगवत्-कृपा की वर्षा हो रही है, और उनके दिव्य प्रेम की बाढ़ आई हुई है ---
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मैं कोई मज़ाक नहीं कर रहा। बड़ी गंभीरता से कह रहा हूँ कि अगले सात दिन भगवत्-प्राप्ति हेतु साधना के लिये अति श्रेष्ठ हैं। होलिका-दहन वाली रात्रि मंत्र-सिद्धि और हरिःभजन के लिए सर्वश्रेष्ठ है। आपको स्वयं के कल्याण के लिये, या जन-कल्याण के लिए कोई भी साधना इस अवधि में करनी है तो वह अभी इसी समय से आरंभ कर दीजिये। आपको सिद्धि मिलेगी। मेरे पास समय नहीं है, मैं उपलब्ध नहीं हूँ। हम सब पर इस समय ईश्वर की बड़ी कृपा है। उनकी भक्ति की वर्षा हो रही है। जिधर भी देखता हूँ, भगवान श्रीकृष्ण ही दृष्टिगत हो रहे हैं।
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"सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम: !!"
भावार्थ - सच्चिदानंद के रूप में वे जो इस विश्व की उत्पत्ति के हेतु हैं, उन श्रीकृष्ण को हम नमन करते हैं। वे हमारे तीनों तापों (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) का विनाश करेंगे।
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खान-पान को शुद्ध रखें, किसी भी तरह का नशा न करें, और अभक्ष्य भक्षण न करें। मनसा-वाचा-कर्मणा किसी की हानि न करें, पर-निंदा से बचें, और अनावश्यक वार्तालाप भी न करें। किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करें, और हर समय ईश्वर की स्मृति बनाये रखें। आपका कल्याण होगा।
कृपा शंकर
९ मार्च २०२५
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