Friday, 2 June 2017

"यथा ब्रज गोपिकानाम्" .....

"यथा ब्रज गोपिकानाम्" .....
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भगवान को वैसे ही प्रेम करो जैसे ब्रज की गोपियों ने किया था|
कभी कभी ईश्वर से विछोह भी अच्छा है क्योंकि उसमें मिलने का आनंद समाया होता है| मिलने में वियोग की पीड़ा भी होती है| पर वह स्थिति सब से अच्छी है जहाँ न कोई मिलना है और न कोई विछुड़ना| क्योंकि जो मिलते और विछुड़ते हैं वे तो भगवान स्वयं ही हैं| उनसे पृथक तो कुछ है ही नहीं|
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जब हम एक अति उत्तुंग पर्वत शिखर से नीचे की गहराई में झाँकते हैं तो वह बड़ी डरावनी गहराई भी हमारे में झाँकती है| ऐसे ही जब हम नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हैं तो वह पर्वत भी हमें घूरता है| जिसकी आँखों में हम देखते हैं, वे आँखें भी हमें देखती हैं| जिससे भी हम प्रेम या घृणा करते हैं, उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर हमें ही प्राप्त होती है|

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वैसे ही जब हम प्रभु को प्रेम करते हैं तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर हमें ही प्राप्त होता है| वह प्रेम हम स्वयं ही हैं| प्रभु में हम समर्पण करते हैं तो प्रभु भी हमें समर्पण करते हैं| जब हम उनके शिवत्व में विलीन हो जाते हैं तो हम में भी वह शिवत्व विलीन हो जाता है और हम स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हैं| जहाँ ना कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, ना कोई मिलना-बिछुड़ना, जहाँ कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता हम स्वयं ही हैं|
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हमारा पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है|
ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
03 जून 2014

विचित्र दक्षिणा ......

विचित्र दक्षिणा ...... ......... (लेखक : स्व.श्री मिथिलेश द्विवेदी).
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(तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्' में यह कथा है| भगवान श्री राम ने रामेश्वरम में जब शिवलिंग की स्थापना की तब आचार्यत्व के लिए रावण को निमंत्रित किया था| रावण ने उस निमंत्रण को स्वीकार किया और उस अनुष्ठान का आचार्य बना| रावण त्रिकालज्ञ था, उसे पता था कि उसकी मृत्यु सिर्फ श्रीराम के हाथों लिखी है| वह कुछ भी दक्षिणा माँग सकता था| पर उसने क्या विचित्र दक्षिणा माँगी वह इस लेख में पढ़िए|
इस लेख के शब्द माननीय श्री मिथिलेश द्विवेदी जी के हैं, जिनका मैंने उनकी अनुमति से सिर्फ संकलन किया है)
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>>> रावण केवल शिव भक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था...उसे भविष्य का पता था...वह जानता था कि राम से जीत पाना उसके लिए असंभव था.....जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया....जामवन्त जी दीर्घाकार थे । आकार में वे कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे । इस बार राम ने बुद्ध-प्रबुद्ध, भयानक और वृहद आकार जामवन्त को भेजा है । पहले हनुमान, फिर अंगद और अब जामवन्त । यह भयानक समाचार विद्युत वेग की भाँति पूरे नगर में फैल गया । इस घबराहट से सबके हृदय की धड़कनें लगभग बैठ सी गई । निश्चित रूप से जामवन्त देखने में हनुमान और अंगद से अधिक ही भयावह थे । सागर सेतु लंका मार्ग प्रायः सुनसान मिला । कहीं-कहीं कोई मिले भी तो वे डर से बिना पूछे ही राजपथ की ओर संकेत कर देते थे। बोलने का किसी में साहस नहीं था । प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा ।
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यह समाचार द्वारपाल ने लगभग दौड़कर रावण तक पहुँचाया । स्वयं रावण उन्हें राजद्वार तक लेने आए । रावण को अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ । मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ । उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है । रावण ने सविनय कहा – आप हमारे पितामह के भाई हैं । इस नाते आप हमारे पूज्य हैं । आप कृपया आसन ग्रहण करें । यदि आप मेंरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा । जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की । उन्होंने आसन ग्रहण किया । रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया । तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने तुम्हें प्रणाम कहा है । वे सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं । इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है । मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ ।
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प्रणाम प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया कि क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जारहा है ? बिल्कुल ठीक । श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है ।
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प्रहस्त आँख तरेरते हुए गुर्राया – अत्यंत धृष्टता, नितांत निर्लज्जता । लंकेश्वर ऐसा प्रस्ताव कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे ।
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मातुल ! तुम्हें किसने मध्यस्थता करने को कहा ? लंकेश ने कठोर स्वर में फटकार दिया । जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है । क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दिया । लेकिन हाँ । यह जाँच तो नितांत आवश्यक है ही कि जब वनवासी राम ने इतना बड़ा आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी है भी अथवा नहीं ।
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जामवंत जी ! आप जानते ही हैं कि त्रिभुवन विजयी अपने इस शत्रु की लंकापुरी में आप पधारे हैं । यदि हम आपको यहाँ बंदी बना लें और आपको यहाँ से लौटने न दें तो आप क्या करेंगे ? जामवंत खुलकर हँसे । मुझे निरुद्ध करने की शक्ति समस्त लंका के दानवों के संयुक्त प्रयास में नहीं है, किन्तु मुझे किसी भी प्रकार की कोई विद्वत्ता प्रकट करने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता । ध्यान रहे, मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूँ, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहे हैं । जब मैं वहाँ से चलने लगा था तभी धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं । उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकाल कर संधान कर लिया है और मुझसे कहा है कि जामवन्त ! रावण से कह देना कि यदि आप में से किसी ने भी मेरा विरोध प्रकट करने की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा । इस कारण भलाई इसी में है कि आप मुझे अविलम्ब वांछित प्रत्युत्तर के साथ सकुशल और आदर सहित धनुर्धर लक्ष्मण के दृष्टिपथ तक वापस पहुँचने की व्यवस्था करें ।
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उपस्थित दानवगण भयभीत हो गए । प्रहस्थ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया । लंकेश तक काँप उठे । पाशुपतास्त्र ! महेश्वर का यह अमोघ अस्त्र तो सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते । अब भले ही वह रावण मेघनाथ के त्रोण में भी हो । जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी अब उसे उठा नहीं सकते । उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं । रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा – आप पधारें । यजमान उचित अधिकारी है । उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है । राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।
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जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए । अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है । यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है । तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं । विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना । ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी । अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना । स्वामी का आचार्य अर्थात् स्वयं का आचार्य । यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया । स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया ।
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सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरा । आदेश मिलने पर आना कहकर सीता को उसने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचा । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे । सम्मुख होते ही वनवासी राम ने आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया । दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण को भी उसने उपेक्षा कर दी । जैसे वे वहाँ हों ही नहीं ।
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भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा कि यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें । श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं । अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं । यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था । इन सबके अतिरिक्त तुम सन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है । इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ? कोई उपाय आचार्य ? आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं । स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं । श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया ।
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श्री रामादेश के परिपालन में विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे। अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान । आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया । गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं । अभी तक लौटे नहीं हैं । आते ही होंगे । आचार्य ने आदेश दे दिया विलम्ब नहीं किया जा सकता । उत्तम मुहूर्त उपस्थित है । इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालुका-लिंग-विग्रह स्वयं बना ले । जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित की । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया । श्रीसीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया । आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया ।
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अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की......राम ने पूछा आपकी दक्षिणा? पुनः एक बार सभी को चौंकाया आचार्य के शब्दों ने । घबराओ नहीं यजमान । स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती । आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है, लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य कि जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है ।
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आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे । आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी । ऐसा ही होगा आचार्य । यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी । “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर सभी ने उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए । सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया ।
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रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, व राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है?
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बहुत कुछ हो सकता था काश राम को वनवास न होता काश सीता वन न जाती किन्तु ये धरती तो है ही पाप भुगतने वालों के लिए और जो यहाँ आया है उसे अपने पाप भुगतने होंगे और इसलिए रावण जैसा पापी लंका का स्वामी तो हो सकता है देवलोक का नहीं |
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वह तपस्वी रावण जिसे मिला था-
ब्रह्मा से विद्वता और अमरता का वरदान
शिव भक्ति से पाया शक्ति का वरदान....
चारों वेदों का ज्ञाता,
ज्योतिष विद्या का पारंगत,
अपने घर की वास्तु शांति हेतु
आचार्य रूप में जिसे-
भगवन शंकर ने किया आमंत्रित .....
शिव भक्त रावण-
रामेश्वरम में शिवलिंग पूजा हेतु
अपने शत्रु प्रभु राम का-
जिसने स्वीकार किया निमंत्रण ....
आयुर्वेद, रसायन और कई प्रकार की
जानता जो विधियां,
अस्त्र शास्त्र,तंत्र-मन्त्र की सिद्धियाँ ....
शिव तांडव स्तोत्र का महान कवि,
अग्नि-बाण ब्रह्मास्त्र का ही नहि,
बेला या वायलिन का आविष्कर्ता,
जिसे देखते ही दरबार में
राम भक्त हनुमान भी एक बार
मुग्ध हो, बोल उठे थे -
"राक्षस राजश्य सर्व लक्षणयुक्ता"....
काश रामानुज लक्ष्मण ने
सुर्पणखा की नाक न कटी होती,
काश रावण के मन में सुर्पणखा
के प्रति अगाध प्रेम न होता,
गर बदला लेने के लिए सुर्पणखा ने
रावण को न उकसाया होता -
रावण के मन में सीता हरण का
ख्याल कभी न आया होता ....
इस तरह रावण में-
अधर्म बलवान न होता,
तो देव लोक का भी-
स्वामी रावण ही होता .....

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(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी| बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की 'इरामावतारम्' में यह कथा है|)
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(यह कथा श्री ज्वाला प्रसाद जी ने ईलाहाबाद से छपने वाले प्रेस श्री दुर्गा पुस्तक भण्डार से प्रकाशित रामचरित मानस में क्षेपक कथा कह कर जोड़ दी है|)

०३ जून २०१५
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श्री मिथिलेश द्विवेदी जी द्वारा टिप्पणियाँ :---
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(१) रामेश्वरम् के साथ एक पौराणिक कथा जुड़ी हुई है। इस कथा के अनुसार भगवान राम ने रावण का वध किया था। रावण ब्राह्मण था, इसलिए ब्राह्मण-हत्या के पाप से मुक्ति के लिए भगवान राम ने शिव की आराधना करने का संकल्प किया। इसके लिए उन्होंने हनुमानजी को कैलास पर्वत पर जाकर शिवजी से मिलने और उनकी कोई उपयुक्त मूर्ति लाने का आदेश दिया। हनुमानजी कैलास पर्वत गए, किंतु उन्हें अभीष्ट मूर्ति नहीं मिली। अभीष्ट मूर्ति प्राप्त करने के लिए हनुमानजी वहीं तपस्या करने लगे। इधर हनुमानजी के कैलास पर्वत से अपेक्षित समय में न आने पर श्रीराम और ऋषि-मुनियों ने शुभ मुहूर्त में सीताजी द्वारा बालू से निर्मित शिवलिंग को स्वीकार कर लिया। उस ज्योतिर्लिंग को सीताजी और रामजी ने जब चंद्रमा नक्षत्र में, सूर्य वृष राशि में था, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी, बुधवार को स्थापित कर दिया। यह स्थान रामेश्वरम् के नाम से जाना जाता है।

कुछ समय बाद हनुमानजी शिवलिंग लेकर कैलास पर्वत से लौटे, तो पहले से स्थापित बालुका निर्मित शिवलिंग को देखकर क्रुद्ध हो गए। उनका क्रोध शांत करने के लिए श्रीरामजी ने उनके द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी बालूनिर्मित शिवलिंग के बगल में स्थापित कर दिया और कहा कि रामेश्वरम् की पूजा करने के पहले लोग हनुमानजी द्वारा लाए गए शिवलिंग की पूजा करेंगे। अभी भी रामेश्वरम् की पूजा के पहले लोग हनुमानजी द्वारा लाए गए शिवलिंग की पूजा करते हैं। हनुमानजी द्वारा लाए शिवलिंग को ‘काशी विश्वनाथ’ कहा जाता है
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(२) वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना भी रावण ने की थी|
वैद्यनाथ लिंग की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की। उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिये। इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे। प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया। उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा। रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें। शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा। जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में ‘चिताभूमि’ में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई। उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया। इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया। वह लिंग वहीं अचल हो गया। वापस आकर रावण ने काफ़ी ज़ोर लगाकर उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा, किन्तु वह असफल रहा। अन्त में वह निराश हो गया और उस शिवलिंग पर अपने अँगूठे को गड़ाकर (अँगूठे से दबाकर) लंका के लिए ख़ाली हाथ ही चल दिया। इधर ब्रह्मा, विष्णु इन्द्र आदि देवताओं ने वहाँ पहुँच कर उस शिवलिंग की विधिवत पूजा की। उन्होंने शिव जी का दर्शन किया और लिंग की प्रतिष्ठा करके स्तुति की। उसके बाद वे स्वर्गलोक को चले गये।
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(३) यह लेख १७अक्तुबत, १९८२ के नवभारत टाइम्स समाचार-पत्र में मेरे नाम से सर्व-प्रथम प्रकाशित हुआ है|
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सभी कश्मीरी हिन्दुओं को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन ..

सभी कश्मीरी हिन्दुओं को आज के विशेष दिन शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन ..
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आज ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन यानि २ जून २०१७ को श्रीनगर (कश्मीर) से १४ किलोमीटर पूर्व में स्थित कश्मीरी हिन्दुओं के पवित्रतम मंदिर खीर भवानी का मेला है| यह मंदिर माँ भगवती के एक रूप महारज्ञा देवी का है| इन्हें प्रसाद के रूप में बसंत ऋतू में खीर का प्रसाद चढ़ाया जाता है इसलिए इनके मंदिर का नाम खीर भवानी पड़ गया|
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कश्मीरी हिन्दू माँ शारदा के रूप में भी इनका नमन इस मंत्रोच्चार के साथ करते है ..... "नमस्ते शारदा देवी, कश्मीर पुर वासिनी, प्रार्थये नित्यं विद्या दानं च देही मे"| अर्थात हे माँ शारदे देवी, कश्मीर में रहने वाली, मैं प्रार्थना करता हूँ कि मुझे विद्या दान कर| 
इस मंदिर का वर्णन कल्हन की राजतरंगिनी में भी है|
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मैं माँ भगवती से प्रार्थना करता हूँ कि कश्मीर में सुख शांति स्थापित हो, कश्मीरी शैव दर्शन और वहाँ की वैदिक परम्परा पुनर्प्रतिष्ठित हो| कश्मीर से विस्थापित हुए सभी हिन्दुओं को वहां सम्मान से रहने का अवसर मिले|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हमारे पतन का एक कारण हमारा आसुरी आहार है ......

हमारे पतन का एक कारण हमारा आसुरी आहार है ......
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गीता के अनुसार हम जो कुछ भी खाते हैं वह हम नहीं खाते हैं बल्कि अपनी देह में वैश्वानर अग्नि देव के रूप में स्थित परमात्मा को समर्पित करते हैं| उस भोजन से पूरी सृष्टि की तृप्ति होती है| जहाँ हम अपने स्वयं के लिए खाते हैं वहाँ हम पाप का भक्षण करते हैं|
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आजकल आसुरी खानपान का बहुत अधिक प्रचलन हो गया है| जिस खानपान से मन दूषित होता है वह आसुरी आहार है| लोग जूठा भोजन खाने खिलाने में भी परहेज नहीं करते| जूठा भोजन भी आसुरी हो जाता है| किसी का भी जूठा नहीं खाना चाहिए| मनु महाराज ने मनु स्मृति में उच्छिष्ट भोजन का निषेध किया है| भोजन पकाना एक पाकयज्ञ है जिसकी विधि का गृह्यसूत्रों में वर्णन है| रसोई के चूल्हे और बर्तनों की पवित्रता की हमें रक्षा करनी चाहिए| भोजन बनाने वाले के कैसे भाव हैं इसका भी प्रभाव खाने वाले पर पड़ता है|
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सिर्फ भोजन ही हमारा आहार नहीं है| जो हम सोचते हैं, देखते हैं, सूंघते हैं, सुनते हैं, और स्पर्श करते हैं .... वह भी हमारी इन्द्रियों द्वारा किया गया आहार ही है| हम अश्लीलता को सोचते है, देखते हैं और सुनते हैं तो यह अश्लीलता का आहार है| इन्द्रियों द्वारा लिया गया आहार भी हमारे मन को बनाता है|
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अतः आहार शुद्धि का ध्यान रखना एक आध्यात्मिक साधक का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है| आसुरी आहार के कारण ही हमारा मन दूषित हो जाता है| फिर हम पर देवताओं की कृपा नहीं होती और हमारा पतन हो जाता है|
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ॐ ॐ ॐ ||

गुरु चरणों में आश्रय और गुरु दक्षिणा ----

गुरु चरणों में आश्रय और गुरु दक्षिणा ----
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तत्व रूप में गुरु सब नाम-रूपों से परे हैं| अंततः वे एक अनुभूति हैं, परम ज्योतिर्मय कूटस्थ अक्षर परब्रह्म हैं| वे सब प्रकार के अन्धकार का नाश करते हैं| वे ही इस देहरूपी नौका के कर्णधार हैं|
सहस्त्रार में उनका निरंतर ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ गुरु-दक्षिणा है|
सहस्त्रार में उनकी चेतना में निरंतर बने रहना ही गुरु-चरणों में आश्रय है|
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गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ !