Thursday, 6 January 2022

अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें, किसी भी तरह की कोई शर्त न हो ---

 अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें, किसी भी तरह की कोई शर्त न हो ---

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पूजा प्रतीकात्मक रूप से गुरु-चरण-पादुका की ही होनी चाहिए, गुरु-देह की नहीं। गुरु एक तत्व हैं, कोई देह नहीं। उनका ध्यान कूटस्थ में ही होना चाहिए। कूटस्थ का केंद्र बदलता रहता है। वैसे कूटस्थ का केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं।
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सहस्त्रार-चक्र में ध्यान गुरु-चरणों का ध्यान है। सहस्त्रार में स्थिति गुरु-चरणों में आश्रय है। सहस्त्रार में ध्यान करते-करते जब विस्तार की अनुभूति हो तब उस विस्तार के साथ एक होकर उसी में ध्यान करें। हम स्वयं वह विस्तार हो जाएँगे। जब तक इस शरीर के साथ प्रारब्ध है, इस शरीर की मृत्यु नहीं हो सकती। उस अनंतता से भी परे एक परम आलोकमय दहराकाश है। धीरे-धीरे वहाँ एक पंचकोणीय अति-उज्ज्वल श्वेत नक्षत्र के दर्शन होने लगें, तब उसी में स्थित होकर उसी का ध्यान करें। वे परमशिव परमात्मा हैं। वह श्वेत आलोक क्षीर-सागर है।
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स्वयं की चेतना को कभी इस देह से बाहर पाएँ तब उस आनंददायक स्थिति का आनंद लें। हम यह देह नहीं, परमशिव हैं। हमारा प्रारब्ध हमें बापस इस देह में ले आयेगा। वैसे स्वेच्छा से देह-त्याग की भी एक अति-गोपनीय विधि है जिसका ज्ञान सिर्फ अति-उन्नत आत्माओं को ही होता है। वह किसी को बताई नहीं जाती। भगवान ही उसका ज्ञान करा देते हैं।
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अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें। किसी भी तरह की शर्त न हो। आत्मा का ध्यान करें, और आत्मा में ही स्थिर रूप से स्थित रहें। यह गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति है --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् -- हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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हे गुरु महाराज, आपकी जय हो। ॐ तत्सत् !! ॐ गुरु !!
कृपा शंकर
५ जनवरी २०२२

गुरु महाराज की जय हो ---

 गुरु महाराज की जय हो ---

"ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं । द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्॥
एकं नित्यं विमलंचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्। भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि॥"
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गुरु महाराज के बारे में क्या लिखूँ? इस समय तो वे इस विमान (इस देह और अन्तःकरण) के चालक हैं। वे स्वयं यह विमान भी हैं। सहस्त्रार चक्र में एक ज्योति के रूप में उनके चरण-कमलों के दर्शन हो रहे हैं। वे अमर हैं, और परमात्मा के साथ एक हैं। किसी भी तरह का नाम-रूप और देश-काल का बंधन उन पर नहीं है। गुरु, शिष्य और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। सभी एक हैं।
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गुरुकृपा से इस समय भगवान के परमप्रेम में डूब गया हूँ। चारों ओर भगवान के सिवाय कुछ भी अन्य नहीं रहा है। मेरी चेतना में इस समय सिर्फ भगवान हैं। उन के परमप्रेम में ही मेरी अवशिष्ट लोकयात्रा समर्पित है। इस संसार के किसी काम का मैं अब नहीं रहा हूँ, इसलिए सब को नमन कर रहा हूँ।
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जनवरी २०२२

श्रद्धा और विश्वास ही इस भव सागर से तार देंगे ---

 श्रद्धा और विश्वास ही इस भव सागर से तार देंगे। भगवान पर श्रद्धापूर्वक विश्वास करते हुए उनका निरंतर स्मरण कीजिये। उनके ये शाश्वत वचन है ---

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"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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अब क्या करना होगा? इसका उत्तर भगवान देते हैं --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
यह गीता का चरम श्लोक है। भगवान कहते हैं -- समस्त धर्मों (सभी सिद्धांतों, नियमों व हर तरह के साधन विधानों का) परित्याग कर एकमात्र मेरी शरण में आजा ; मैं तुम्हें समस्त पापों और दोषों से मुक्त कर दूंगा --- शोक मत कर।
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भगवान कहाँ हैं? भगवान यहीं पर, इसी समय, सर्वदा और सर्वत्र है। भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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भगवान कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिए हे अर्जुन! तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा॥
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रामचरितमानस की वंदना में ही संत तुलसीदास जी कहते हैं --
"भवानी-शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम्॥"
अर्थात् -- भवानी और शंकर ही श्रद्धा और विश्वास हैं। बिना श्रद्धा और विश्वास के सिद्धों को भी ईश्वर के दर्शन नहीं होते।
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अब और क्या चाहिए? सब कुछ तो भगवान ने बता दिया। नारायण नारायण !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२२

त्वदीय पाद पंकजम् नमामि देवी नर्मदे ---

 त्वदीय पाद पंकजम् नमामि देवी नर्मदे ---

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मेरे एक गुरूभाई मित्र हैं जो हिन्दी फिल्मों में गीतकार और संगीत निर्देशक भी हैं, इस समय दक्षिण तट से नर्मदा परिक्रमा कर रहे हैं। नित्य २५-३० किलोमीटर अकेले पैदल चलते हुए आज गुजरात में सरदार सरोवर बांध के पास पहुंचे हैं। वहाँ से आज उन्होंने वीडियो कॉल कर के नर्मदा जी की आरती का पूरा दृश्य दिखलाया। नित्य सायं और प्रातः दिन में दो बार वे मार्ग में आने वाले नयनाभिराम मनोरम दृश्यों के लघु वीडियो बनाकर भी भेजते रहते हैं। कल या परसों वे नर्मदा जी के मुहाने पर पहुँच कर नौका से उत्तरी तट पर पहुँच कर पूर्व दिशा में परिक्रमा पथ पर पैदल अग्रसर हो जाएँगे।
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मेरे अनेक मित्रों ने जिनमें अनेक साधू-संत भी हैं, ने नर्मदा परिक्रमा की है। मुझे इस का अवसर तो मिला लेकिन बहुत विलंब से। अब इस शरीर में अधिक पैदल चलने की सामर्थ्य नहीं है।
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एक बात जो सभी ने बताई है, वह यह है कि नर्मदा तट पर जितनी श्रद्धा और भक्तिभाव उन्होने अनुभूत किया, वैसा अनुभव विश्व में अन्यत्र कहीं भी उन्हें नहीं हुआ। इसलिए जिनमें भी श्रद्धा और भक्ति है, उन्हें जीवन में कम से कम एक बार नर्मदा परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए।
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हर नर्मदे हर !! जय माँ रेवा !! त्वदीय पाद पंकजम् नमामि देवी नर्मदे। नमामि देवी नर्मदे, नमामि देवी नर्मदे। त्वदीय पाद पंकजम् नमामि देवी नर्मदे॥
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२२

तुम्हें पाने की कोई इच्छा अब नहीं रही है ---

हे परमात्मा, हे परमेश्वर, तुम अब दूर रहो। तुम्हें पाने की कोई इच्छा अब नहीं रही है। जो आनंद तुम्हारे विरह में है, वह तुमसे मिलने में नहीं हो सकता। अब भगवान को पाने की कोई इच्छा नहीं रही है। उनके विरह में जो मजा आ रहा है वह उनके मिलते ही समाप्त हो जाएगा। अभीप्सा की प्रचंड अग्नि की दाहकता में जलने, और उनके वियोग में तड़फने का अब मजा आने लगा है। मुझे किसी का साथ नहीं चाहिए। पहले मैं भगवान के पीछे पीछे चलता था, अब वे मेरे पीछे पीछे चल रहे हैं। मेरे बिना वे नहीं रह सकते। मैं उन्हें याद नहीं करता, वे ही हर समय मुझे याद रखते हैं।

नारायण ! नारायण ! नारायण ! हरिः ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२२

भक्त होने का या भक्ति करने का भ्रम एक धोखा है ---

 भक्त होने का या भक्ति करने का भ्रम एक धोखा है। भगवान अपनी भक्ति स्वयं करते हैं। भगवान एक महासागर हैं और हम एक जल की बूँद। जल की बूँद भी महासागर से मिलकर महासागर हो जाती है। परमशिव में विलीन होकर, हम भी परमशिव हैं।

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परमात्मा कोई वस्तु या कोई व्यक्ति नहीं है जो आकाश से उतर कर आयेगा, और कहेगा कि भक्त, वर माँग। वह कोई सिंहासन पर बैठा हुआ दयालू या क्रोधी व्यक्ति भी नहीं है जो दंडित या पुरस्कृत करता है। वह हमारी स्वयं की ही उच्चतम चेतना है। यह अनुभूति का विषय है।
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मैं किसी की भक्ति नहीं करता। किसकी भक्ति करूँ? अन्य है ही कौन? मैं किसे पाने के लिए तड़प रहा हूँ? यह अतृप्त प्यास और असीम वेदना किसके लिए है? मेरे से अन्य तो कोई भी नहीं है। अंततः मैं भी नहीं हूँ। एक मात्र अस्तित्व उन्हीं का है।
गीता में भगवान कहते हैं ---
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता॥
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"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
अर्थात् -- (परमात्मा की प्राप्ति रूप) जिस लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता, (परमात्मा प्राप्ति रूप) जिस अवस्था में स्थित (योगी) बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
४ जनवरी २०२२

मेरे लिए फेसबुक सिर्फ एक सत्संग का माध्यम है ---

 मेरे लिए फेसबुक सिर्फ एक सत्संग का माध्यम है। बौद्धिक व आध्यात्मिक धरातल पर किसी भी तरह की कोई शंका या संदेह मुझे नहीं है। अधिकांशतः मैं एकांत में ही रहता हूँ, गिने चुने बहुत ही कम लोगों से मिलना-जुलना होता है। जीवन में जो भी अपेक्षाएं हैं वे सिर्फ सृष्टिकर्ता परमात्मा से हैं। किसी से कोई कामना नहीं है। हम एक माध्यम हैं जिन से भगवान प्रवाहित होते हैं। हम अपने अहंकार व लोभ के वशीभूत होकर भगवान के उस प्रवाह को अवरुद्ध कर देते हैं। हम अधिकाधिक निष्ठावान बनने का प्रयास करें। किसी भी तरह की कोई कुटिलता और असत्यता हम में न रहे। एक दिन हम पाएंगे कि हम भगवान के साथ एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है। आप सब मेरी निजात्माएँ हैं। आप सब को नमन।

कृपा शंकर
३ जनवरी २०२२