Sunday 20 January 2019

कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .....

कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .....
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गीता के मेरे पास लगभग बारह से अधिक प्रसिद्ध भाष्य यानी टीकाएँ हैं| पर भाष्यों के अध्ययन और स्वाध्याय से आज तक कोई आत्म संतुष्टि नहीं मिली है| बौद्धिक संतुष्टि तृप्त नहीं करती क्योंकि इस अल्प बुद्धि की भी एक सीमा है|
मेरे सर्वाधिक प्रिय भाष्य हैं ..... 
(१) शंकर भाष्य का हिंदी अनुवाद, (२) स्वामी रामतीर्थ प्रतिष्ठान लखनऊ द्वारा प्रकाशित नारायण स्वामी की टीका, (३) वाराणसी के स्वामी प्रणवानंद द्वारा बँगला भाषा में लिखी प्रणवगीता का हिंदी अनुवाद, (४) भूपेन्द्रनाथ सान्याल द्वारा लाहिड़ी महाशय की मौखिक व्याख्या पर आधारित बँगला भाषा में लिखी टीका का हिंदी अनुवाद, (५) परमहंस योगानंद द्वारा अंग्रेजी में लिखी God Talks with Arjuna का हिंदी अनुवाद|
अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों से कोई आनंद नहीं मिलता|
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अब इस अल्प और सीमित बुद्धि में अधिक समझने की क्षमता भी नहीं है और जीवन में अधिक समय भी नहीं बचा है क्योंकि आयु सत्तर को पार कर चुकी है| अतः सब पुस्तकों को बंद कर अब ध्यान साधना द्वारा सीखने का प्रयास आरम्भ करने की प्रेरणा मिल रही है| जीवन का संध्याकाल चल रहा है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो|
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मेरा यह मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही गीता का वास्तविक ज्ञान सिखा सकते हैं| अतः प्रत्यक्ष उनसे सीखने में ही सार है| गीता की हजारों टीकाएँ हैं, उन सब की व्याख्या भी अलग अलग हैं, पर भगवान श्रीकृष्ण के मन में इतने अर्थ नहीं हो सकते थे| उनके मन में क्या था यह तो वे ही बता सकते हैं| अतः सब पुस्तकों को बंद कर भगवान श्रीकृष्ण का गहनतम ध्यान ही सार्थक है| इसमें खोने को कुछ नहीं है| जीवन के इस संध्याकाल के अंतिम क्षणों में भगवान श्रीकृष्ण की चेतना में तो रहेंगे|
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"वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ||"
"वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात् ,
पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात् |
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात् ,
कृष्णात परम किमपि तत्व अहं न जानि ||
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:||"
"ॐ नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्||"
"कस्तुरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु करे कंकणम् |
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावलि |
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी ||"
"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||"
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० जनवरी २०१९

चीन की कम्पनियों में कर्मचारियों की स्थिति .....

चीन की कम्पनियों में कर्मचारियों की स्थिति .....
चीन के बारे में एक नई बात का पता चला है जिसकी जानकारी मुझे विगत में कभी नहीं मिली, हालाँकि मैं अब तक चार बार चीन की यात्रा कर चुका हूँ| वहाँ किसी कंपनी के कर्मचारी यदि अपने लक्ष्य (Target) को प्राप्त नहीं करते तो उन्हें बहुत बुरी सजा दी जाती है| कर्मचारियों को एक लाइन में खड़ा कर के उन के गालों पर थप्पड़ लगवाये जाते हैं, या सभी के पिछवाड़ों पर डंडों से पीटा जाता है| फिर कर्मचारियों को भरी सड़क पर चौपाये पशुओं की तरह घुटनों के बल चलने को बाध्य कर अपमानित किया जाता है| किसी भी कम्पनी के लिए उसके कर्मचारी एक खरीदे हुए गुलाम से अधिक नहीं होते| यह तो पता था कि वहाँ की जेलों में कैदियों से पशुओं की तरह काम करवाया जाता है जिसका उन्हें कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता| इसी लिए चीनी माल इतना सस्ता और हल्का होता है|
भारत के धूर्त साम्यवादी बड़ी बड़ी समता की झूठी बातें कहते हैं|
१८ जनवरी २०१९

प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय जी से एक भेंट .....

प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय जी से एक भेंट .....
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पिछले दिनों अनेक लोगों से भगवान की प्रेरणा से मिलना हुआ जिनमें कई तो संत स्वभाव के बहुत ही अच्छे आध्यात्मिक साधक थे, कुछ आध्यात्मिक रुझान वाले बहुत बड़े बड़े उद्योगपति थे और कुछ सामान्य व्यक्ति भी थे जिनसे भगवान मुझे मिलाना चाहते थे| यहाँ मैं एक विलक्षण और रहस्यमय विद्वान् व्यक्तित्व से मिलने के बारे में लिख रहा हूँ|
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आठ जनवरी को प्रातः दस बजे ईश्वर की प्रेरणा से ही मैं श्री अरुण उपाध्याय जी के घर उनसे मिलने गया था| घर के द्वार पर उन्होंने मेरा स्वागत किया| मैंने यह स्पष्ट कह दिया था कि आध्यात्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय पर मैं बात नहीं करूँगा|
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उनके घर पर यह नहीं लगा कि मैं उड़ीसा राज्य में पुलिस विभाग के सर्वोच्च पद (D.G.P.) से सेवानिवृत हुए एक बड़े से बड़े पूर्व पुलिस अधिकारी से बात कर रहा हूँ| उनके घर का वातावरण एक सात्विक ब्राह्मण के घर का सा था और वे स्वयं भी एक सात्विक ब्राह्मण ही थे| बड़े सहज भाव से उनसे वार्ता हुई| अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से मेरे मन में पुराणों, वेदों और ज्योतिष के बारे में जो भी शंकाएँ थीं उन सब का उन्होंने निवारण किया और बड़े प्रेम से मेरे हर प्रश्न का उत्तर देकर मुझे पूरी तरह संतुष्ट किया|
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दो-तीन अलौकिक और विलक्षण बातें उनके व्यक्तित्व में मुझे ध्यान में आईं ...
एक तो अहंकार उनमें बिलकुल भी नहीं दिखाई दिया|
दूसरा मैंने यह अनुभूत किया कि वेदों, पुराणों और ज्योतिष के बारे में उनको जो भी ज्ञान हैं, वह इस जन्म में अर्जित नहीं है|
उनको अपने कुछ पूर्व जन्मों का भी ज्ञान था और मैंने यह भी अनुभूत किया कि वे वेदों, पुराणों और ज्योतिष के बारे में जो भी जानना चाहते हैं वह ज्ञान स्वतः ही उनमें प्रकट हो जाता है|
यह सिद्धि ईश्वर और गुरु की परम कृपा से ही होती है जो उन पर स्पष्ट रूप से है|
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पूर्ण रूप से संतुष्ट होकर मैं ढाई घंटे तक उनसे चर्चा कर बापस आ गया| यह एक अलौकिक सत्संग था| इस से पूर्व भी जोधपुर में दंडी स्वामी मृगेन्द्र सरस्वती जी के आश्रम में उनसे मिलना हुआ था, पर उस दिन वहाँ बड़ी भीड़ थी अतः कोई आध्यात्मिक चर्चा नहीं हो पाई थी| ईश्वर ने पुनश्चः यह एक अवसर दिया|
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ॐ श्री गुरवे नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ जनवरी २०१९

आध्यात्मिक साधना क्या होती है ?

आध्यात्मिक साधना क्या होती है ?
आध्यात्मिक साधना का अर्थ है आत्म-साधना यानि स्वयं की अपनी आत्मा को जानना और अपनी सर्वोच्च क्षमताओं का विकास करना| मनुष्य के जब पापकर्मफल क्षीण होने लगते हैं और पुण्यकर्मफलों का उदय होता है तब परमात्मा को जानने की एक अभीप्सा जागृत होती है और करुणा व प्रेमवश परमात्मा स्वयं एक सद्गुरु के रूप में मार्गदर्शन करने आ जाते हैं| स्वयं के अंतर में इस सत्य का बोध तुरंत हो जाता है|
साधक को उसकी पात्रतानुसार ही मार्गदर्शन प्राप्त होता है जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता| ये पंक्तियाँ लिखने का मेरा उद्देश्य यही है कि साधना के मार्ग में किसी भी प्रकार का लालच व अहंकार .... पतन का कारण हो जाता है| परमात्मा के सिवाय अन्य किसी भी लाभ की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए, अन्यथा पतन सुनिश्चित है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जनवरी २०१९

काले पानी की कुछ पुरानी स्मृतियाँ .....

काले पानी की कुछ पुरानी स्मृतियाँ .....
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पोर्ट ब्लेयर (अंडमान) जाने का जीवन में कई बार अवसर मिला है| वहाँ की सेल्युलर जेल जिसे काले पानी की जेल भी कहते हैं, कई बार देखी है| विशेष कर के वह कोठरी जिस में स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने दो दो उम्रकैद की सजा काटी, वहाँ श्रद्धासुमन अवश्य चढ़ाये हैं|
वहाँ की सबसे प्रमुख स्मृति ११ फरवरी १९७९ की है जिस दिन भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने उस जेल को एक राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया था| उस दिन उस समय मैं वहीं पर उपस्थित था| उस समय के जीवित बचे हुए स्वतन्त्रता सेनानियों को निमंत्रित कर के कोलकाता से एक पानी के यात्री जहाज से ससम्मान बुलाया गया था|
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उस जेल के सात भाग थे जिनमें से चार को जापानियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नष्ट कर दिया था| बाकी बचे तीन में से एक भाग में वहाँ की स्थानीय जेल है, एक भाग में "गोबिंदवल्लभ पन्त अस्पताल" है, और बचा हुआ एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग है जिसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया हुआ है| वीर सावरकर की कोठरी इसी भाग में दूसरी मंजिल पर है जिस पर लोहे के सीन्खचों के दो दो दरवाजे हैं| शाम के समय वहाँ के मैदान में एक Light and Sound Show भी होता है जिसे देखने पर्यटकों की भारी भीड़ आती है| वहीं पास में एक म्यूजियम है और वह कोठरी भी है जहाँ फांसी दी जाती थी| पास में ही एक दूसरा छोटा सा वाइपर द्वीप है जहाँ महिलाओं को फांसी दी जाती थी|
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उस कालखंड के इतिहास पर अनेक शोध हुए हैं और अनेक पुस्तकें लिखी गयी हैं| मैं वहाँ के कई द्वीपों में खूब घूमा हूँ और बहुत अधिक स्मृतियाँ हैं| ग्रेट निकाबार द्वीप पर भारत के सबसे दक्षिणी भाग "इंदिरा पॉइंट" पर भी जाने का अवसर सुनामी से पहले मिला है| कुल मिलाकर यह बहुत ही सुन्दर स्थान है जहाँ जीवन में एक बार तो अवश्य ही जाना चाहिए|
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मुझे गर्व है कि भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने बीते हुए कल ३० दिसम्बर २०१८ को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेताजी सुभाष बोस को वह सम्मान दिया जिसके वे पूर्ण अधिकारी थे| ३० दिसंबर १९४३ को पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने तिरंगा फहराया थ| भारत की धरती पर यह स्वतंत्रता की प्रथम निशानी थी| सुभाष चंद्र बोस भारत की पहली आज़ाद सरकार के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री थे| उनकी सरकार को ९ देशों जिन में जर्मनी, फिलीपींस, थाईलैंड, मंचूरिया (अब चीन का भाग) और क्रोएशिया प्रमुख थे, ने मान्यता दी थी| आजाद हिन्द सरकार भारत की अस्थायी सरकार थी जिसे सिंगापुर में १९४३ में स्थापित किया गया था| दूसरी हर्ष की बात यह है कि एक करोड़ से अधिक भारतीयों के हत्यारे तीन अँगरेज़ सेनानायकों के सम्मान में रखे हुए तीन द्वीपों के नाम बदले गए हैं|
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पोर्ट ब्लेयर में रहने वाले राजस्थान के प्रवासियों ने वहाँ की एक पहाडी पर एक बहुत ही शानदार मंदिर बनाया हुआ है जिसे वहाँ के स्थानीय लोग "राजस्थान मंदिर" ही कहते हैं| वहाँ का मुख्य विग्रह भगवान श्री राधा-कृष्ण का है, साथ साथ अन्य देवी-देवताओं के विग्रह भी हैं|
पोर्ट ब्लेयर में हिंदी साहित्य का एक संग्रहालय भी है जिसमें हिन्दी साहित्य की लगभग डेढ़-दो हज़ार से अधिक अमूल्य पुस्तकों का संग्रह है|
धार्मिक दृष्टी से वहाँ "चिन्मय मिशन" का एक केंद्र है जहाँ कई धार्मिक कार्यक्रम होते रहते हैं| वहां के स्वामी जी मेरी बहुत घनिष्ठता थी|
माता अमृतानन्दमयी के भी कई अनुयायी हैं वहाँ जिन के भी कार्यक्रम होते रहते हैं|
वहाँ वनवासी कल्याण परिषद् का भी एक आश्रम है जहाँ से वनवासियों के कल्याण हेतु कई सेवा के कार्य होते रहते हैं| वनवासी कल्याण परिषद् से मैं भी कभी जुड़ा हुआ था| वहाँ २००१ में संघ के एक प्रचारक थे जो कभी मेरे बहुत घनिष्ठ मित्र थे, अब बंगाल में भाजपा के अध्यक्ष हैं| यदि बंगाल में भाजपा की सरकार बनी तो हो सकता है वे वहाँ के मुख्य मंत्री बनें| संघ से जुड़े हुए वहाँ के सभी स्वयसेवकों से २००१ में मेरी बहुत घनिष्ठता थी| अब इस समय तो कोई संपर्क नहीं है|
भारत माता की जय ! वन्दे मातरं !
कृपा शंकर
३१ दिसंबर २०१८

अपराजिता स्तोत्र ....

"अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते रामपूजित | प्रस्थानं च करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ||"
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ब्रह्माण्ड पुराण में दिए हुए एकमुखी हनुमत् कवचम् में ध्यान का यह आठवाँ मन्त्र है| किसी दुर्घटना या चोर डाकुओं के भय, भूत-प्रेत बाधा अथवा शत्रुओं से किसी प्रकार के अनिष्ट की, अथवा रणभूमि में शत्रु के भीषण प्रहार की आशंका रहती है| ऐसी स्थिति आने के पूर्व ही हमे उपरोक्त मन्त्र का प्रस्थान करते समय या उससे पूर्व कम से कम ११ बार जप कर लेना चाहिए| सब संकट कट जायेंगे और हम सकुशल घर लौट आयेंगे| उच्चारण सही और शुद्ध होना चाहिए|
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आचार्य सियारामदास नैयायिक जी ने इस विषय पर अपने ब्लॉग में लेख लिखे हैं| उनके जैसे कोई आचार्य ही इसे सिद्ध करने की सही विधि बता सकते हैं| हनुमत्कवच .... एकमुखी, पंचमुखी, सप्तमुखी और एकादशमुखी ..... अलग अलग उपलब्ध हैं| सबकी फलश्रुति भी अलग अलग है| किसी सिद्ध संत के मार्गदर्शन में ही इसे सिद्ध करें|

इन्द्रियों पर संयम न होना हमारे सभी दुःखों का मुख्य कारण है .....

इन्द्रियों पर संयम न होना हमारे सभी दुःखों का मुख्य कारण है .....
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इन्द्रियों पर संयम न होना ही हमारे दुःखों का मुख्य कारण है| जिसकी इन्द्रियाँ बस में नहीं होती वह व्यक्ति कभी भी सुख नहीं पा सकता| यह बात मैं नहीं, गीता में भगवान स्वयं कह रहे हैं .....
"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना| न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌||२:६६||"
अर्थात् जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती है, उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है, और न ही शान्ति प्राप्त होती है, उस शान्ति रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव है?||
"इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते| तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि||२:६७||"
अर्थात जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है||
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इससे मुक्त होने का क्या उपाय करे ? यह भी भगवान् वासुदेव ने गीता में ही बड़ा स्पष्ट कहा है, जिसका हम सब स्वाध्याय करें|
वे भगवान वासुदेव और उनके सभी भक्त संत-महात्मा मुझ अकिंचन पर अनुग्रह करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०१८

३१ दिसंबर की रात्रि निशाचर रात्रि होती है .....

आने वाले ३१ दिसंबर को निशाचर-रात्रि है| निशाचर-रात्रि की सभी निशाचरों को शुभ कामनाएँ ..... "परमात्मा सब का कल्याण करें" ....
आने वाले ३१ दिसंबर को निशाचर-रात्रि है, बच कर रहें| इस रात्रि को निशाचर लोग मदिरापान, अभक्ष्य भोजन, फूहड़ नाच गाना, और अमर्यादित आचरण करते हैं| "निशा" रात को कहते हैं, और "चर" का अर्थ होता है चलना-फिरना या खाना| जो लोग रात को अभक्ष्य आहार लेते हैं, या रात को अनावश्यक घूम-फिर कर आवारागर्दी करते हैं, वे निशाचर हैं|
रात्रि को या तो पुलिस ही गश्त लगाती है, या चोर-डाकू, व तामसिक लोग ही घूमते-फिरते हैं| जिस रात भगवान का भजन नहीं होता वह राक्षस-रात्रि है, और जिस रात भगवान का भजन हो जाए वह देव-रात्रि है| ३१ दिसंबर की रात को लगभग पूरी दुनिया ही निशाचर बन जाएगी| अतः बच कर रहें, सत्संग का आयोजन करें या भगवान का ध्यान करें| सबको शुभ कामनाएँ |
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर

भस्म धारण .....

(संशोधित व पुनर्प्रेषित). भस्म धारण .....
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विरक्त तपस्वी साधू-संत सर्दी-गर्मी से बचने के लिए भस्मलेपन करते हैं, जो अग्निस्नान है| यह वैराग्य का प्रतीक है| शैवागम के शास्त्रों में इसका बड़ा महत्त्व है| एक बार जब भगवान शिव समाधिस्थ थे तब मनोभव (मन में उत्पन्न होने वाला) मतिहीन कंदर्प (कामदेव) ने अन्य देवताओं के उकसाने पर सर्वव्यापी भगवान शिव पर कामवाण चलाया| भगवान शिव ने जब उस मनोज (कामदेव) पर दृष्टिपात किया तब कामदेव भगवान शिव की योगाग्नि से भस्म हो गया| कामदेव के बिना तो सृष्टि का विस्तार हो नहीं सकता अतः उसकी पत्नी रति बहुत विलाप करने लगी जिससे द्रवित होकर आशुतोष भगवान शिव ने मनोमय (कामदेव) की भस्म का अपनी देह पर लेप कर लिया, जिस से कामदेव जीवित हो उठा|
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भगवती माँ छिन्नमस्ता, कामदेव और उसकी पत्नी रति को भूमि पर पटक कर उनकी देह पर पर नृत्य करती है| फिर वे अपने ही हाथों से अपनी स्वयं की गर्दन काट लेती हैं| उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएँ निकलती हैं जिनमें से मध्य की रक्तधारा का पान वे स्वयं करती हैं, और अन्य दो धाराओं का पान उनके दोनों ओर खड़ी वर्णिनी और डाकिनी शक्तियाँ करती हैं| इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि साधक मेरी साधना से पूर्व कामदेव को अपने वश में करे और अहंकार से मुक्त हो|
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शैवागम तंत्रों में उत्तरा-सुषुम्ना को (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) "भ"कार शब्द से संबोधित किया गया है जिसमें सारी सिद्धियों का निवास है| योगमार्ग के साधक को अपनी चेतना निरंतर इसी उत्तरा सुषुम्ना में रखनी चाहिए और सहस्त्रार जो गुरुचरणों का प्रतीक है, पर ध्यान करना चाहिए| योगी के लिए आज्ञाचक्र ही उसका ह्रदय है| सहस्त्रार में स्थिति के पश्चात ही अन्य लोक भी दिखाई देने लगते हैं और अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं|
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विरक्त साधू भस्म धारण करते हैं इसका अर्थ है कि संसार में सब कुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है| अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है और शेष सब मिथ्या| भगवान शिव देह पर भस्म धारण करते हैं क्योंकि उन के लिए एक आत्मा को छोड़कर संसार के अन्य सब पदार्थ निरर्थक हैं| यह भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि हमारा जीवन क्षणिक है| भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड लगाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है| भगवन शिव अपनी भक्त-वत्सलता प्रकट करते हैं अपने भक्तों के चिताभस्म को अपने श्रीअंग का भूषण बनाकर|
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कुछ शैव सम्प्रदायों के साधुओं के अखाड़ों में विभूति-नारायण की पूजा होती है| विभूति-नारायण ..... अखाड़े के गुरुओं की देह से उतरी हुई भस्म का गोला ही होता है, जिसे वेदी पर रखकर पूजा जाता है| कुछ वैष्णव सम्प्रदायों के वैरागी साधू भी देह पर भस्म ही लगा कर रखते हैं| समस्त सृष्टि भगवान शिव का एक संकल्प मात्र यानि उनके मन का एक विचार ही है| भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के पीछे एक ऊर्जा है, उस ऊर्जा के पीछे एक चैतन्य है, और वह परम चैतन्य ही भगवन शिव हैं| उनका न कोई आदि है और ना कोई अंत| सब कुछ उन्हीं में घटित हो रहा है और सब कुछ वे ही हैं| जीव की अंतिम परिणिति शिव है| प्रत्येक जीव का अंततः शिव बनना निश्चित है | उन्हें समझने के लिए जीव को स्वयं शिव होना पड़ता है | वे हम सब को ज्ञान, भक्ति और वैराग्य दें!

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भस्म, त्रिपुंड और रुद्राक्ष माला .... ये तीनों भगवान शिव की साधना में साधक को धारण करनी चाहियें, इनके बिना पूरा फल नहीं मिलता|
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(भस्म सिर्फ देसी गाय के शुद्ध गोबर से ही बनती है| इसकी विधि यह है कि देसी गाय जब गोबर करे तब भूमि पर गिरने से पहिले ही उसे शुद्ध पात्र या बांस की टोकरी में एकत्र कर लें और स्वच्छ शुद्ध भूमि पर या बाँस की चटाई पर थाप कर कंडा (छाणा) बना कर सुखा दें| सूख जाने पर उन कंडों को इस तरह रखें कि उनके नीचे शुद्ध देसी घी का एक दीपक जलाया जा सके| उस दीपक की लौ से ही वे कंडे पूरी तरह जल जाने चाहियें| जब कंडे पूरी तरह जल जाएँ तब उन्हें एक साफ़ थैले में रखकर अच्छी तरह कूट कर साफ़ मलमल के कपडे में छान लें| कपड़छान हुई भस्म को किसी पात्र में इस तरह रख लें कि उसे सीलन नहीं लगे| भस्म तैयार है| पूजा से पूर्व माथे पर और अपनी गुरु परम्परानुसार देह के अन्य अंगों पर भस्म से त्रिपुंड लगाएँ|)
शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०१३

वास्कोडिगामा और कोलंबस का एक सच जो हम से छिपाया गया है :-----

वास्कोडिगामा और कोलंबस का एक सच जो हम से छिपाया गया है :-----
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यह सन १४९२ ई.की बात है| एक बार पुर्तगाल और स्पेन में लूट के माल को लेकर झगड़ा हो गया| दोनों ही देश दुर्दांत समुद्री डाकुओं के देश थे जिनका मुख्य काम ही समुद्रों में लूटपाट और ह्त्या करना होता था| दोनों ही देश कट्टर रोमन कैथोलोक ईसाई थे अतः मामला वेटिकन में उस समय के छठवें पोप के पास पहुँचा| लूट के माल का एक हिस्सा पोप के पास भी आता था| अतः पोप ने सुलह कराने के लिए एक फ़ॉर्मूला खोज निकाला और एक आदेश जारी कर दिया| ७ जून १४९४ को "Treaty of Tordesillas" के अंतर्गत इन्होने पृथ्वी को दो भागों में इस तरह बाँट लिया कि यूरोप से पश्चिमी भाग को स्पेन लूटेगा और पूर्वी भाग को पुर्तगाल|
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वास्कोडिगामा एक लुच्चा लफंगा बदमाश हत्यारा और समुद्री डाकू मात्र था, कोई वीर नाविक नहीं| अपने धर्मगुरु की आज्ञानुसार वह भारत को लूटने के उद्देश्य से ही आया था| कहते हैं कि उसने भारत की खोज की| भारत तो उसके बाप-दादों और उसके देश पुर्तगाल के अस्तित्व में आने से भी पहिले अस्तित्व में था| वर्तमान में तो पुर्तगाल कंगाल और दिवालिया होने की कगार पर है जब कि कभी लूटमार करते करते आधी पृथ्वी का मालिक हो गया था|
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ऐसे ही स्पेन का भी एक लुटेरा बदमाश हत्यारा डाकू था जिसका नाम कोलंबस था| अपने धर्मगुरु की आज्ञानुसार कोलंबस गया था अमेरिका को लूटने के लिए और वास्कोडीगामा आया था भारतवर्ष को लूटने के लिए| कोलंबस अमेरिका पहुंचा तब वहाँ की जनसंख्या दस करोड़ से ऊपर थी| कोलम्बस के पीछे पीछे स्पेन की डाकू सेना भी वहाँ पहुँच गयी| उन डाकुओं ने निर्दयता से वहाँ के दस करोड़ लोगों की ह्त्या कर दी और उनका धन लूट कर यूरोपियन लोगों को वहाँ बसा दिया| वहाँ के मूल निवासी जो करोड़ों में थे, वे कुछ हजार की संख्या में ही जीवित बचे| यूरोप इस तरह अमीर हो गया|
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कितनी दुष्ट राक्षसी सोच वाले वे लोग थे जो उन्होंने मान लिया कि सारा विश्व हमारा है जिसे लूट लो| कोलंबस सन १४९२ ई.में अमरीका पहुँचा, और सन १४९८ ई.में वास्कोडीगामा भारत पहुंचा| ये दोनों ही व्यक्ति नराधम थे, कोई महान नहीं जैसा कि हमें पढ़ाया जाता है|
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आज का अमेरिका उन दस करोड़ मूल निवासियों की लाश पर खडा एक देश है| उन करोड़ों लोगों के हत्यारे आज हमें मानव अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, सद्भाव और सहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे हैं|
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ऐसे ही अंग्रेजों ने ऑस्ट्रेलिया में किया| ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में वहाँ के सभी मूल निवासियों की ह्त्या कर के अंग्रेजों को वहाँ बसा दिया गया| भारत में भी अँगरेज़ सभी भारतीयों की ह्त्या करना चाहते थे, पर कर नहीं पाए|
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सभी को धन्यवाद! ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
२८ दिसंबर २०१८

ब्रिटेन की समृद्धि के पीछे का सच जो हम से छिपाया गया है .....

ब्रिटेन की समृद्धि के पीछे का सच जो हम से छिपाया गया है .....
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वैसे तो यूरोप की सारी समृद्धि अन्य महाद्वीपों को लूट कर प्राप्त हुए धन से ही हुई है, पर ब्रिटेन की सारी समृद्धि तो भारत को लूट कर मिले हुए धन से ही हुई है| हम लोग अपनी हीनभावना के कारण अंग्रेजों को महान समझते हैं और ब्रिटेन में जाना अपनी शान समझते हैं, पर इस ऐतिहासिक तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि सत्रहवीं शताब्दी तक समूचा ब्रिटेन अर्धसभ्य लोगों का उजाड़ देश था जो झोंपड़ियों में रहते थे| उनकी झोपड़ियाँ घासफूस और सरकंडों की बनी होती थीं, जिनके ऊपर मिट्टी का गारा लगाया हुआ होता था| घास-फूस जलाकर घर में आग तैयार की जाती थी जिससे सारी झोपड़ी में धुआँ भर जाता था| उनकी खुराक जौ, मटर, उड़द, कन्द और वृक्षों की छाल तथा मांस थी| उनके कपड़ों में जुएँ भरी होती थीं|
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वहां की जनसंख्या बहुत कम थी, जो महामारी और दरिद्रता के कारण आए दिन घटती जाती थी| शहरों की हालत गाँवों से कुछ अच्छी न थी| शहर वालों का बिछौना भूस से भरा एक थैला होता था| तकिये की जगह लकड़ी का एक गोल टुकड़ा लगाते थे| शहरी लोग जो खुशहाल होते थे, चमड़े का कोट पहनते थे| गरीब लोग हाथ-पैरों पर पुआल लपेट कर सर्दी से जान बचाते थे| न कोई कारखाना था, न कारीगर, न सफाई का इन्तजाम, न रोगी होने पर चिकित्सा की व्यवस्था|
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सड़कों पर डाकू फिरते थे और नदियाँ तथा समुद्री मुहाने समुद्री डाकुओं से भरे रहते थे| उन दिनों दुराचार का तमाम यूरोप में बोलबाला और यौन संक्रमित करने वाली गनोरिया व सिफलिस की बीमारी सामान्य बात थी| विवाहित या अविवाहित, गृहस्थ, पादरी, और यहाँ तक कि पोप दसवें लुई तक भी इस रोग से नहीं बचे थे| पादरियों ने इंग्लैंड की लाखों स्त्रियों को भ्रष्ट किया था| कोई भी पादरी बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी केवल थोड़े से जुर्माने की सज़ा पाता था| मनुष्य-हत्या करने पर भी केवल छः शिलिंग आठ पैंस .... लगभग पाँच रुपया जुर्माना देना पड़ता था| ढोंग-पाखण्ड और जादू-टोना पादरियों का व्यवसाय था।
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सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण तक लंदन नगर इतना गंदा था और वहाँ के मकान इस कदर भद्दे थे कि उसे मुश्किल से शहर कहा जा सकता था| सड़कों की हालत ऐसी थी कि पहियेदार गाड़ियों का चलना खतरे से खाली न था| लोग गधों, घोड़ों व टट्टुओं पर लद कर यात्राएँ करते थे| अधनंगी स्त्रियां जंगली और भद्दे गीत गाती फिरती थीं, पुरुष कटार घुमा-घुमाकर लड़ाई के नाच नाचा करते थे| लिखना-पढ़ना बहुत कम लोग जानते थे, यहाँ तक कि बहुत-से लार्ड अपने हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते थे| प्रायः पति कोड़ों से अपनी स्त्रियों को पीटा करते थे|
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अपराधी को टिकटिकी से बाँधकर पत्थर मार-मारकर मार डाला जाता था| औरतों की टाँगों को सरेबाजार शिकंजों में कसकर तोड़ दिया जाता था| शाम होने के बाद लंदन की गलियाँ सूनी, डरावनी और अंधेरी हो जाती थीं| उस समय कोई जीवट का आदमी ही घर से बाहर निकलने का साहस कर सकता था| हर समय वहाँ लुट जाने या गला कट जाने का भय था| असभ्य औरतें खिड़की खोल कर गन्दा पानी हर किसी पर फेंक देती थीं| गलियों में लालटेन थीं ही नहीं| लोगों को भयभीत करने के लिए टेम्स के पुराने पुल पर अपराधियों के सिर काट कर लटका दिए जाते थे| धार्मिक स्वतन्त्रता न थी| सम्राट के सम्प्रदाय से भिन्न दूसरे किसी सम्प्रदाय के गिरजाघर में जाकर उपदेश सुनने की सजा मौत थी| ऐसे अपराधियों के घुटने को शिकंजे में कसकर तोड़ दिया जाता था| स्त्रियों को दंड देने के लिए सहतीरों में बाँधकर समुद्र के किनारे पर मरने के लिए छोड़ देते थे ताकि धीरे-धीरे बढ़ती हुई समुद्र की लहरें उन्हें निगल जाएँ| बहुधा उनके गालों को लाल लोहे से दागदार अमेरिका निर्वासित कर दिया जाता था| उन दिनों इंग्लैंड की रानी गुलामों के व्यापर में अपने लाभ का भाग लेती थी।
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इंग्लैंड के किसान की अवस्था उस ऊदबिलाव के समान थी जो नदी किनारे मांद बनाकर रहता हो| कोई ऐसा धंधा-रोजगार न था कि जिससे वर्षा न होने की सूरत में किसान दुष्काल से बच सकें| उस समय समूचे इंग्लैंड की जनसंख्या पचास लाख से अधिक न थी| जंगली जानवर हर जगह फिरते थे| सड़कों की हालत बहुत खराब थी| बरसात में तो सब रास्ते ही बन्द हो जाते थे| देहात में प्रायः लोग रास्ता भूल जाते थे और रात-रात भर ठण्डी हवा में ठिठुरते फिरते थे| दुराचार का बोलबाला था| राजनीतिक और धार्मिक अपराधों पर भयानक अमानुषिक सजाएं दी जाती थीं|
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यह दशा केवल ब्रिटेन की ही न थी, समूचे यूरोप की थी| यूरोप के सब देशों के निरंकुश राजा स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि बताते थे| उन की इच्छा ही कानून थी| जनता की दो श्रेणियाँ थीं| जो कुलीन थे वे ऊँचे समझे जाते थे और जो जन्म से नीच थे वे दलित माने जाते थे| ऐसा एक भी राजा न था जो प्रजा के सुख-दुख से सहानुभूति रखता हो| विलासिता और अपनी शान ही में वे मस्त रहते थे| वे अपनी सब प्रजा के जानोमाल के स्वामी थे| राजा होना उनका जन्मसिद्ध अधिकार था| उनकी प्रजा को बिना सोचे-समझे उनकी आज्ञा का पालन करना पड़ता था|
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अब आप समझ गए होंगे कि हमारे ऊपर राज्य कर के हमें दरिद्र बना कर गए हुए अँगरेज़ कैसे थे| हमारे भारत के ही एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री ने तो इंग्लैंड को भारत पर राज्य करने के लिए धन्यवाद भी दिया था| उन्होंने कहा था कि अंग्रेजों ने भारत पर राज्य कर के भारत को सभ्य बनाया, भारत को पोस्ट ऑफिस और रेलवे दी| उनको इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय (जो भारत में लुटे हुए धन से बना था) ने डॉक्टरेट की उपाधी भी दी थी| वे बड़े शान से अपने नाम के साथ डॉक्टर की उपाधी लिखते थे| ऐसे ही भारत के एक भूतपूर्व गृहमंत्री और वित्तमंत्री ने भी इंग्लैंड में अपने एक भाषण में भारत की सभ्यता का श्रेय ब्रिटिश शासन को दिया था| मुझे भारत के ही कई तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ही बताया था कि यदि अँगरेज़ भारत में नहीं आते तो हम भारतीय लोग झाड़ियों व गुफाओं में ही रह रहे होते| अँगरेज़ लोग जाते जाते अपना शासन अपने ही मानसपुत्र एक काले अंग्रेज़ को सौंप गए थे जिसने भारत की अस्मिता को नष्ट ही किया| धन्य है वे सब लोग !!!
सही बातों का पता सब को होना चाहिए| भारत का तो इतिहास ही भारत के शत्रुओं ने लिखा है|
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हमारी तो पं.रामप्रसाद बिस्मिल के शब्दों में एक ही कामना है कि ..... 
"तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें|" भारत माता की जय! वन्दे मातरम् !

भारतभूमि सदा अज्ञान में नहीं रह सकती .....

भारतभूमि सदा अज्ञान में नहीं रह सकती, यह परमात्मा की भूमि है जहाँ भगवान स्वयं अनेक बार अवतृत हुए हैं| ब्रह्माजी ने यहीं इसी भूमि पर अपने ज्येष्ठ पुत्र ऋषि अथर्व को और भगवान सनत्कुमार ने अपने प्रिय शिष्य देवर्षि नारद को ब्रह्मज्ञान दिया| इसी भूमि पर ऋषि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को, और भगवान कपिल ने अपनी माता देवाहुति को उपदेश दिए| इसी भूमी पर रणक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को गीता के उपदेश दिए| यह त्यागी तपस्वी, योगियों, भक्तों और वीरों की भूमि है| कालखंड में कुछ समय के लिए यहाँ तिमिर छा जाता है, पर फिर ज्ञान का सूर्योदय होने लगता है| अब ज्ञान का सूर्योदय होने लगा है जो सारे तिमिर को दूर कर देगा| बुरा समय निकल चुका है| 
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हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिनाम ! जीवन के केंद्र में परमात्मा को रखिये| जो भी होगा वह अच्छा ही होगा| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय||
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०१८

अंत मति सो गति .....

(संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख). अंत मति सो गति .....
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गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अंतकाल में भ्रूमध्य में ओंकार का स्मरण करो, निज चेतना को कूटस्थ में रखो,आदि| संत-महात्मा भी कहते हैं कि मूर्धा में ओंकार का निरंतर जप करो| योगी लोग कहते हैं कि आज्ञाचक्र से भी ऊपर उत्तरा-सुषुम्ना के प्रति सजग रहो और ब्रह्मरंध्र में ओंकार का ध्यानपूर्वक जप करो| सभी कहते हैं कि परमात्मा से परम प्रेम करो| मुझे लगता है कि स्वाभाविक रूप से जब मनुष्य अपनी देह छोड़ता है उस से पूर्व ही कर्मफलानुसार यह तय हो जाता है कि उसका अगला जन्म कब और कहाँ होगा| सूक्ष्म लोक अनंत हैं, पर मुझे लगता है कि स्वर्ग और नर्क कोई स्थान नहीं बल्कि प्राण जगत की सुखदायी या दुखदायी अवस्थाएँ हैं जिनमें से जीवात्माओं को निकलना ही पड़ता है|
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सार की बात यह है कि अंत समय में जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है| महात्माओं ने बताया है कि इस देह में ग्यारह छिद्र हैं जिनसे जीवात्मा का मृत्यु के समय निकास होता है ..... दो आँख, दो कान, दो नाक, एक पायु, एक उपस्थ, एक नाभि, एक मुख और एक मूर्धा|
१.यह मूर्धा वाला मार्ग अति सूक्ष्म है और पुण्यात्माओं के लिए ही है|
२.नरकगामी जीव पायु यानि गुदामार्ग से बाहर निकलता है|
३.कामुक व्यक्ति मुत्रेंद्रियों से निकलता है और निकृष्ट योनियों में जाता है|
४.नाभि से निकलने वाला प्रेत बनता है|
५. भोजन लोलूप व्यक्ति मुँह से निकलता है,
६. गंध प्रेमी नाक से,
७. संगीत प्रेमी कान से, और
८. तपस्वी व्यक्ति आँख से निकलता है|
अंत समय में जहाँ जिसकी चेतना है वह उसी मार्ग से निकलता है और सब की अपनी अपनी गतियाँ हैं| कोई बात मैनें यहाँ नहीं लिखी है तो मुझे उसका बोध नहीं है| ये ज्ञान की बातें ऋषि याज्ञवल्क्य और राजा जनक के संवादों में मिल जायेंगी|
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जो ब्राह्मण संकल्प कर के और दक्षिणा लेकर भी यज्ञादि अनुष्ठान विधिपूर्वक नहीं करते/कराते वे ब्रह्मराक्षस बनते हैं| मद्य, मांस और परस्त्री का भोग करने वाला ब्राह्मण ब्रह्मपिशाच बनता है| इस तरह की कर्मों के अनुसार अनेक गतियाँ हैं| कर्मों का फल सभी को मिलता है, कोई इससे बच नहीं सकता|
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सबसे बुद्धिमानी का कार्य है परमात्मा से परम प्रेम, निरंतर स्मरण का अभ्यास और ध्यान | सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०१८
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पुनश्चः :---- मैं उन सभी संत-महात्माओं को नमन करता हूँ जिनके अनुग्रह और आशीर्वाद से मेरे हृदय में परमात्मा के प्रति प्रेम जगा है|

परमात्मा ही सत्य है .....

चारों ओर असत्य और अन्धकार की शक्तियों का वर्चस्व है, पर साथ साथ सत्य और देवत्व की भी शक्तियाँ हैं| परमात्मा ही सत्य है| हम यह देह नहीं, परमात्मा की अनंतता व परमप्रेम हैं| हम सृष्टि का भाग नहीं, सृष्टि हमारा भाग है|
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किसी व्यक्ति पर यदि भूत चढ़ जाए तो आवश्यकता उस भूत को उतारने की है, न कि उस व्यक्ति को प्रताड़ित करने की| वह व्यक्ति तो एक victim यानी शिकार मात्र है| वह भूत कोई विचारधारा भी हो सकती है जो हमारे हर कार्य को विकृत कर देती है| कहीं हम असत्य और अन्धकार की शक्तियों के उपकरण तो नहीं बन गए हैं, इस पर भी विचार करते रहें| हम परमात्मा के ही उपकरण बनें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०१८

अंडमान के तीन द्वीपों का नाम परिवर्तन .....

भारत सरकार द्वारा अंडमान-निकोबार के तीन लोकप्रिय द्वीपों के नाम बदलने का मैं स्वागत करता हूँ| यहाँ के हेवलॉक, नील और रोज द्वीपों के नामों पर मुझे सदा ही आपत्ति रही है| ये नाम उन राक्षस अँगरेज़ सेना नायकों के सम्मान में रखे गए थे जिन्होनें सन १८५७ में भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को निर्दयता से कुचला और करोड़ों भारतीयों का नरसंहार किया| इन राक्षसों ने १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का बदला लेने के लिए व्यापक नर-संहार किया था जो विश्व इतिहास में सबसे बड़ा था| एक करोड से अधिक निर्दोष भारतीयों की पेड़ों से लटका कर हत्याएँ की गयी थीं| दो माह के भीतर भीतर इतना बड़ा नर-संहार विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं हुआ है|
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(१) हेवलॉक द्वीप का नाम अँगरेज़ General Sir Henry Havelock के सम्मान में रखा गया था जिनके नेतृत्व में अँगरेज़ सेना ने झाँसी की रानी को भागने को बाध्य किया और उनकी ह्त्या की| इस राक्षस ने झांसी के आसपास के क्षेत्रों में लाखों भारतीयों की हत्याएँ करवाई थीं|
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(२) रोज द्वीप का नाम अँगरेज़ Field Marshal Henry Hugh Rose के सम्मान में रखा गया था जो १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को कुचलने का जिम्मेदार था| इस राक्षस ने कानपुर की ३ लाख की जनसंख्या में से लगभग दो लाख सत्तर हज़ार नागरिकों की ह्त्या कर कानपुर नगर को श्मसान बना दिया था| यह एक नर-पिशाच और भयानक हत्यारा था| कानपुर के पास के एक गाँव कालपी की तो पूरी आबादी को ही क़त्ल कर दिया गया| वहाँ तो किसी पशु-पक्षी को भी जीवित नहीं छोड़ा गया|
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(३) नील द्वीप का नाम अँगरेज़ सेनाधिकारी General James George Smith Neill के सम्मान में रखा गया था जिसने भी लाखों भारतीयों की निर्मम हत्याएँ की| बिहार में कुंवर सिंह के क्षेत्र में आरा और गंगा नदी के बीच के एक गाँव में इस राक्षस ने वहाँ के सभी ३५०० लोगों की हत्याएँ की| फिर बनारस के निकट के एक गाँव में जाकर वहाँ के सभी ५५०० लोगों की हत्याएँ करवाई| यह जहाँ भी जाता, गाँव के सभी लोगों को एकत्र कर उन्हें गोलियों से भुनवा देता|
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उपरोक्त तीनों अँगरेज़ सेनाधिकारियों में से हरेक ने अपनी सेवा काल में कम से कम बीस बीस लाख भारतीयों की हत्याएँ की, इसलिए इनके नाम पर उपरोक्त द्वीपों के नाम रख कर इन्हें सम्मानित किया गया था|
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अब तक किसी भी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया| अब केंद्र सरकार अंडमान और निकोबार के तीन लोकप्रिय द्वीपों .... रोज द्वीप, नील द्वीप और हैवलॉक द्वीप के नाम बदलने जा रही है| यह कदम स्वागत योग्य है| रोज द्वीप का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वीप, नील द्वीप का नाम शहीद द्वीप और हैवलॉक द्वीप का नाम स्‍वराज द्वीप रखने का फैसला किया गया है|
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नेताजी सुभाषचंद्र बोस को मैं भारत का प्रथम प्रधानमंत्री मानता हूँ| ३० दिसंबर १९४३ को नेताजी ने पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराया था और भारत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी| अनेक देशों ने उनकी सरकार को मान्यता भी दे दी थी| पर द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय के कारण उन्हें भारत छोड़कर ताईवान और मंचूरिया होते हुए रूस भागना पडा जहाँ उन की ह्त्या कर दी गयी| उन की ह्त्या के पीछे स्वतंत्र हो चुके भारत की सरकार की भी सहमति थी| ताईवान में वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की झूठी कहानी रची गयी| आज़ाद हिन्द फौज का खजाना जवाहार लाल नेहरू ने अपने अधिकार में ले लिया था| वह कहाँ गया उसे वे ही जानें|
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इंडोनेशिया में हनुमान जी को हन्डूमान कहते हैं| कुछ लोग कहते हैं कि अंडमान का नाम हन्डूमान से पड़ा|
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(अंडमान-निकोबार के कई द्वीपों में मुझे जाने का खूब अवसर मिला है जहाँ बिना विशेष सरकारी अनुमति के कोई जा ही नहीं सकता| वहाँ खूब घूमा हूँ अतः वहाँ के बारे में काफी जानकारी है)
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०१८

सांता क्लॉज़ बनने की अपसंस्कृति और सांताक्लॉज़ की वास्तविकता .....

सांता क्लॉज़ बनने की अपसंस्कृति और सांताक्लॉज़ की वास्तविकता .....
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अभी कुछ देर पूर्व एक चित्र देखा जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण और राधा जी को किसी ने सांता क्लॉज़ की ड्रेस पहना रखी थी, जिससे मुझे बहुत हँसी आई और ये पंक्तियाँ लिखने को मैं बाध्य हुआ| इसे मैं सांस्कृतिक पतन ही कहूंगा| भारत के अधिकाँश निजी विद्यालयों में बच्चों को सांता क्लॉज़ की ड्रेस पहनाई गयी, टॉफियाँ बाँटी गयी और भाषण दिया गया कि हमें ईसा मसीह के आदर्शों पर चलना चाहिए| अनेक लोगों ने बीयर या स्कॉच पी कर सपरिवार डांस भी किया, पार्टी भी की और एक दूसरे को खूब बधाइयाँ भी दीं| चलो सब खुश रहो!
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सबसे पहिले तो यह बताना कहूंगा कि पूरे विश्व में सांता क्लॉज़ के नाम पर जो नाटकबाजी हो रही है यह एक विशुद्ध बाजारवाद और मनोरंजन मात्र है| वास्तविकता यह है कि सांता क्लॉज़ नाम का चरित्र कभी इतिहास में जन्मा ही नहीं| यह ईसा की चौथी शताब्दी में सैंट निकोलस नाम के एक ग्रीक पादरी के दिमाग की कल्पना थी| ठण्ड से पीड़ित स्केंडेनेवियन देशों (नोर्वे, स्वीडन और डेनमार्क) व अन्य ठन्डे ईसाई देशों के पादरियों ने ठण्ड से पीड़ित अपने देशों के बच्चों के मन को बहलाने के लिए सांता क्लॉज़ की कल्पना को खूब लोकप्रिय बनाया|
बच्चों के मनोरंजन के लिए जैसे सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडरमैन, ग्रीन लैंटर्न, हल्क, डोनाल्ड डक, मिक्की माउस इत्यादि अनेकों कार्टून चरित्रों की कल्पना की गयी है वैसे ही संता क्लॉज़ भी एक काल्पनिक चरित्र है|

जीसस क्राइस्ट का जन्मदिवस २५ दिसम्बर को ही क्यों मनाया जाता है ?

एक बड़ी विचित्र बात है कि जीसस क्राइस्ट का जन्मदिवस २५ दिसम्बर को ही क्यों मनाया जाता है ?
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उपलब्ध प्रमाणों द्वारा पता चलता है कि जीसस क्राइस्ट का जन्म दिन ईसा की तीसरी शताब्दी में रोमन सम्राट कोंस्टेंटाइन द ग्रेट ने तय किया था| उसी को प्रमाण माना जाता है| यह सम्राट स्वयं ईसाई नहीं था, पर इसने ईसाईयत का उपयोग अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए किया| स्वयं यह एक सूर्य उपासक था| जब यह मरने वाला और असहाय था तब पादरियों ने जबरदस्ती इसका बप्तिस्मा कर के इसे ईसाई बना दिया| इसी सम्राट ने ११ मई ३३० ई.को कुस्तुन्तुनिया (Constantinople) (वर्तमान में इस्ताम्बूल) को अपनी राजधानी बनाया| वर्तमान में ईसाईयत की जो दिशा है वह इसी सम्राट ने तय की थी| यहाँ तक कि वर्तमान में उपलब्ध न्यू टेस्टामेंट के सारे ग्रन्थ भी इसी ने संशोधित करवाए और जो इसे अच्छे नहीं लगे वे नष्ट करवा दिए| रविवार को छुट्टी भी इसी ने शुरू करवाई क्योंकि यह एक सूर्योपासक था| अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए इसने ईसाईयत का प्रचार-प्रसार चारों ओर आरम्भ कराया|
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कुस्तुन्तुनिया रोमन/बैज़ेन्टाइन साम्राज्य (३३०-१२०४ व १२६१-१४५३ ई.) का भाग रही| बीच में इस पर १२०४-१२६१ ई.तक लेटिन साम्राज्य का अधिकार रहा| कुस्तुन्तुनिया ईसा की पांचवीं से तेरहवीं सदी तक यूरोप का सर्वाधिक समृद्ध और भव्यतम नगर था| यहाँ का ग्रीक ऑर्थोडॉक्स कैथेड्रल हागिया सोफिया वेटिकन के बाद ईसाई मज़हब का दूसरा सबसे बड़ा केंद्र था| यहाँ के एक पुस्तकालय में प्राचीन ग्रंथों की एक लाख से अधिक पांडुलिपियाँ थीं जिसे बाद में तुर्कों ने जला दिया| आरम्भ में यहीं से ईसाई मज़हब का पूरी दुनियाँ में फैलाव हुआ था|
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सन १४५३ ई.में तुर्की की सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) के सुल्तान महमूद ने एक युद्ध में अपनी उस्मानी फौज द्वारा ईसाइयों को हराकर कुस्तुन्तुनियाँ पर अपना अधिकार कर लिया और अगले लगभग पाँच सौ वर्षों तक यानि सन १९२३ ई.तक यह तुर्की की राजधानी रही| सुल्तान महमूद ने हागिया सोफिया कैथेड्रल को छोड़ कर लगभग सारे नगर को नष्ट कर दिया जो यूरोपीय स्थापत्य कला का भव्यतम रूप था| यह नगर तुर्कों ने दुबारा बसाया| तुर्की की उस्मानी फौज ने वहाँ से सारे ईसाइयों को मार कर भगा दिया, जो भी पुरुष मिला उसे क़त्ल कर दिया गया, सभी महिलाओं को गुलाम बंदी बना लिया गया और जो भी कोई जीवित बचे उन्हें मुसलमान बना दिया गया| हागिया सोफिया को एक शाही मस्जिद में बदल दिया गया था पर कालान्तर में अतातुर्क मुस्तफा कमाल पाशा ने इसे बापस ईसाइयों को सौंप दिया था| अब तो वहाँ एक म्यूजियम है| यहाँ एक बात यह भी बताना चाहता हूँ कि सल्तनत-ए-उस्मानिया अपने चरम काल में विश्व की सबसे बड़ी सल्तनत थी और वहाँ के सुल्तान बड़े शक्तिशाली थे जिनसे पूरा यूरोप डरता था| पर प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की पराजित हुआ और सारी उस्मानी सल्तनत (Ottoman Empire) बिखर गयी|
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बास्फोरस जलडमरूमध्य और निकट के दर्रा-दानियल के कारण इस्ताम्बूल भौगोलिक सृष्टि से विश्व का बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण स्थान है|
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(Note: मुझे १९७६ में तुर्की में इस्तांबूल जाने का एक बार अवसर मिला था पर भाषा की समस्या रही| वहाँ के एक अधिकारी से मित्रता हो गयी थी, उसी ने वहाँ घुमाया| उसे भी पूरी अंग्रेजी नहीं आती थी| फिर एक कैफ़े का मालिक मिला जो बहुत अच्छी अंग्रेजी जानता था| उसी से वहाँ के बारे में काफी कुछ जानने को मिला| १९८८ में फिर तुर्की जाने का अवसर मिला था पर कोई विशेष बात वहाँ नहीं लगी)
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पुनश्चः ----- (बाद में जोड़ा हुआ भाग) :---
यीशु के जन्म का कोई प्रमाण कभी भी नहीं मिला| अब पश्चिमी जगत के कुछ इतिहासकार भी यह दावा कर रहे हैं कि जीसस क्राइस्ट नाम का कोई व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं था| उनके अनुसार सैंट पॉल द्वारा रचित वे एक काल्पनिक चरित्र हैं| पर २५ दिसंबर का दिन उनके जन्मदिवस के रूप में रोमन सम्राट कोंस्टेंटाइन द ग्रेट ने ही तय किया था|
जीसस क्राइस्ट भौतिक रूप से कभी हुए या नहीं इससे मुझे कोई मतलब नहीं है| मेरा सम्बन्ध सिर्फ कृष्ण-चैतन्य यानी कूटस्थ चैतन्य से है जो जीसस में भी थी और जो सदा मेरे साथ भी है| जीसस में और मुझ में मैं कोई भेद नहीं पाता, जो वे थे वह ही मैं हूँ|
यूरोप के ही कई इतिहासकार अब यह दावा भी करते हैं कि जीसस क्राइस्ट ने मार्था से विवाह भी किया था और सारा नाम की एक पुत्री भी उन्हें हुई थी| मार्था की कब्र एक गुप्त स्थान पर फ़्रांस में थी, जिस की कई शताब्दियों तक एक सम्प्रदाय ने रक्षा की| उस सम्प्रदाय के लोगों को बाद में वेटिकन ने मरवा दिया और उस कब्र को नष्ट कर दिया गया| कुछ इतिहासकारों के अनुसार अपने पुनरोत्थान के बाद जीसस जब बापस भारत जा रहे थे तब उनके भक्त यहूदियों ने मार्था और सारा को फिलिस्तीन से निकाल कर बड़े गोपनीय तरीके से फ्रांस भिजवा दिया|
जीसस क्राइस्ट हुए थे और उनकी कब्र अभी भी कश्मीर के पहलगाम में है| उन की कब्र वहीं हैं जहाँ हज़रत मूसा की कब्र है| दोनों की कब्रें पास पास हैं| उनकी फोटो मैनें देखी है| जीसस की माता मेरी की कब्र पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मरी नामक स्थान पर है| उसकी फोटो मैनें देखी है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०१८
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पुनश्चः :--- ईस्वी कैलेंडर कई बार संपादित हुआ है।यह सब इतिहास में दर्ज है।अतः उसमें कई तारीखों में अंतर आ गया है।