Saturday, 19 February 2022

कामोत्तेजना से बचने का उपाय ---

 

कामोत्तेजना से बचने का उपाय ---
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युवा साधकों के समक्ष सबसे बड़ी बाधा है -- कामोत्तेजना|
यह एक सत्य है जिससे बचने के उपाय भी मनीषियों ने बताएं हैं|
विपरीत लिंग के व्यक्ति की उपस्थिति में युवा साधक कामोत्तेजित होकर एक उलझन में पड जाता है|
जब ऐसी स्थिति आ जाये तो घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है|
आप मेरुदंड सीधा कर बड़ी शांति से बैठ जाएँ और उड्डियान बन्ध करें यानि फेफड़ों से बलपूर्वक सारी हवा बाहर निकाल कर पेट को अन्दर सिकोड़ लें और ऐसा भाव करें कि जननांगों में एकत्र समस्त ऊर्जा बापस मेरुदंड में जा कर नाभि की ओर जा रही है|
जब सांस लेना आवश्यक हो जाये तो सांस लें और बार बार उड्डियान बन्ध करते रहें| ऐसा तब तक करते रहें जब तक कामोत्तेजना शांत नहीं हो जाए|
यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि मनुष्य की नाभि में एक ऐसी शक्ति है जो जननांगो से लौटती हुई ऊर्जा को ह्रदय की ओर प्रेषित कर देती है| यही ऊर्जा एक दिव्य प्रेम और भक्ति में परावर्तित हो जाती है|
साधक को दिन में तीन चार बार खाली पेट तीनों बन्ध (मूलबन्ध, उड्डियानबन्ध और जलंधरबन्ध) एकसाथ लगाकर अग्निसार क्रिया का अभ्यास करना चाहिए|
उपरोक्त अभ्यास आपके ब्रह्मचर्य में तो सहायक होगा ही, आपकी ध्यान साधना और कुंडलिनी जागरण में भी सहायक होगा|
कुण्डलिनी के बारे तरह तरह के उलटे सीधे लेख लिखकर अनेक भ्रांतियां फैलाई गयी हैं| कुण्डलिनी शक्ति आपकी प्राण ऊर्जा का ही एक घनीभूत रूप है| जिस ऊर्जा का आपकी बहिर्मुखी इन्द्रियों द्वारा निरंतर क्षय हो रहा है वही ऊर्जा ध्यान साधना में जब आपकी चेतना अंतर्मुखी हो जाती है तब मूलाधार चक्र में प्रकट हो ऊर्ध्वमुखी हो जाती है| यही कुण्डलिनी शक्ति है| इसका जागरण ही वीर्य का ऊर्ध्वगमन है| इसका आभास अजपा-जप के साधकों को भी शीघ्र हो जाता है|
साधक को मांस, मछली, अंडा, मदिरा और गरिष्ट भोजन के आहार का पूर्ण त्याग करना होगा| किसी भी परिस्थिति में कुसंग का पूर्ण त्याग करना होगा| सत्साहित्य और सत्संग के बारे में जितना लिखा जाये उतना ही कम है|
उपरोक्त साधना आपको न सिर्फ कामोत्तेजना से मुक्ति दिलाएगी बल्कि जीवन में तनाव को भी कम करेगी|
धन्यवाद| आप सब में भगवान नारायण को नमन| ॐ तत्सत्|
कृपा शंकर
२० फरवरी २०१३

हम निमित्त मात्र होकर अपने विवेक के प्रकाश में अपना सर्वश्रेष्ठ करते रहें ---

 

यह सृष्टि भगवान की है, उनकी प्रकृति अपने नियमों के अनुसार इस संसार को चला रही है| प्रकृति के नियमों के अनुसार ही यह सृष्टि चलती रहेगी, उन नियमों को न जानना हमारी अज्ञानता है| हमारा कर्मयोग है कि जहाँ भी भगवान ने हमें रखा है, वहाँ हम निमित्त मात्र होकर अपने विवेक के प्रकाश में अपना सर्वश्रेष्ठ करते रहें|
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हम अपने पूर्व जन्मों के कर्मफल भोगने के लिए ही इस मनुष्य देह में जन्म लेते हैं, साथ-साथ नए कर्मों को करने का अवसर भी इस मनुष्य देह से ही प्राप्त होता है| प्रारब्ध कर्मफल तो भोगने ही पड़ते हैं, संचित कर्मों से छुटकारा पाने का उपाय भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताया गया है| जो भी हमारे प्रारब्ध में है, वह तो होकर ही रहेगा| लगभग ४० वर्ष पूर्व सन १९८१ ई. में ही मैं इस सांसारिक जीवन से विरक्त होकर सन्यास लेना चाहता था, पर उसका योग-संयोग इस जन्म में नहीं था| महामाया ने भटकाये रखा, और प्रारब्ध कर्मों का भोग भोगने के लिए विवश कर दिया| महामाया के समक्ष हम सब विवश हैं --
"ज्ञानिनामपी चेतांसी देवी भगवती ही सा| बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयष्छति||"
मैं जब अधिक ही अपनी पर उतर आया तो भगवती ने स्पष्ट उत्तर मुझे दे दिया कि एक पतंग की तरह तुम उड़ते ही उड़ते रहना चाहते हो, पर यह मत भूलो कि कर्मों की डोर से बंधे हुये हो| यह कर्मों की डोर तुम्हें खींच कर बापस इस संसार में ले आएगी| अतः प्रारब्ध कर्म तो तुम्हें भुगतने ही पड़ेंगे| कोई उपाय नहीं है| साथ-साथ यह निर्देश भी दे दिया कि यदि हो सके तो घर में ही एक अलग कोने की व्यवस्था कर लो जहाँ कम से कम व्यवधान हो, और परमशिव का ध्यान करो|
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गीता में भगवान हमें निमित्त मात्र होकर रहने को कहते हैं ---
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व, जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||"
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मेरा अनुभव है कि भगवान ही भक्ति हैं, भगवान ही भक्त हैं, भगवान ही क्रिया और कर्ता हैं| जहां साधक होने का घमंड जन्म लेता है, उसी क्षण पतन होने लगता है| भूल कर भी कभी साधक, उपासक, भक्त या कर्ता होने का मिथ्या भाव मन में नहीं आना चाहिए| मैं यह बात अपनी निज अनुभूतियों से लिख रहा हूँ, कोई मानसिक कल्पना नहीं है| पतन का दूसरा द्वार हमारा लोभ है| एक बार ध्यान करते करते एक भाव-जगत में चला गया, जहाँ कोई अदृश्य शक्ति मुझसे पूछ रही थी कि तुम्हें क्या चाहिए| स्वभाविक रूप से मेरा उत्तर था कि आपके प्रेम के अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| मुझे उत्तर मिला कि -- "प्रेम का भी क्या करोगे? मैं स्वयं सदा तुम्हारे समक्ष हूँ, मेरे से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है|" तत्क्षण मुझे मेरी अभीप्सा (तड़प, अतृप्त प्यास) का उत्तर मिल गया| एक असीम वेदना शांत हुई| अगले ही क्षण मैं फिर बापस सामान्य चेतना में लौट आया| वास्तव में हमें परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| वे हैं तो सब कुछ हैं, उनके बिना कुछ भी नहीं है|
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वे निरंतर हमारे हृदय में हैं| वे निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं| वे सदा हमारे हृदय में हैं| भगवान कहते हैं ---
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति| भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६||"
" उमा दारु जोषित की नाईं| सबहि नचावत रामु गोसाईं||" (श्रीरामचरितमानस)
हम सब कठपुतलियाँ हैं भगवान के हाथों में| कठपुतली में थोड़ा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) डाल दिया गया है, जो हमें दुःखी कर रहा है|
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अब और कहने के लिए कुछ भी नहीं बचा है| अंत में थोड़ा अति-अति संक्षेप में प्राणतत्व और परमशिव का अपना अनुभव भी साझा कर लेता हूँ| परमात्मा का मातृ रूप जिसे हम अपनी श्रद्धानुसार कुछ भी नाम दें, वे भगवती आदिशक्ति -- प्राण-तत्व के रूप में हमारी सूक्ष्म देह के मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में सभी चक्रों को भेदते हुए विचरण कर रही हैं| जब तक उनका स्पंदन है, तभी तक हमारा जीवन है| वे ही साधक हैं, और वे ही कर्ता हैं| जिनका वे ध्यान कर रही हैं, उनको मैं मेरी श्रद्धा से परमशिव कहता हूँ, आप कुछ भी कहें| परमशिव एक अनुभूति है जो गहरे ध्यान में इस भौतिक देह के बाहर की अनंतता से भी परे होती है| वह अवर्णणीय है|
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सारी साधना वे जगन्माता, भगवती, आदिशक्ति ही स्वयं कर के परमशिव को अर्पित कर रही हैं| हम तो साक्षीमात्र हैं उस यजमान की तरह जिस की उपस्थिति इस यज्ञ में आवश्यक है| और कुछ भी नहीं| वे ही गुरु रूप में प्रकट हुईं और मार्गदर्शन किया| वे ही इस जीवात्मा का विलय परमशिव में एक न एक दिन कर ही देंगी| और कुछ भी नहीं चाहिए| उन परमशिव और जगन्माता को नमन !!
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० फरवरी २०२१

इस शरीर व अंतःकरण से तुम्हें जो भी काम लेना है, वह अभी ले लो ---

 हे भगवती ! इस शरीर व अंतःकरण से तुम्हें जो भी काम लेना है, वह अभी ले लो। ब्रह्मनिष्ठा के बाद मेरे लिए इन का कोई प्रयोजन नहीं रहा है।

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मेरी कोई इच्छा शेष नहीं रही है। मेरे गुण-दोष सब तुम्हें समर्पित हैं। परमशिव के साथ एक होकर मुझे भी अपने साथ एक करो। पृथकता का कोई अवशेष न रहे।
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ब्राह्मण का जीवन -- तप और त्याग के लिए ही बना है। मेरा एकमात्र संबंध अब परमात्मा से ही है। ब्राह्मण का जन्म ही निज जीवन में परमात्मा की प्राप्ति और परमात्मा को व्यक्त करने के लिए होता है। जब उच्च ब्राह्मण कुल में जन्म लिया है तो ब्राह्मण का धर्म भी निभायेंगे। इसी जन्म में परमात्मा का साक्षात्कार करेंगे।
ब्रहमनिष्ठा के पश्चात अब इस शरीर और इसके साथ जुड़े अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) से भी कोई मोह नहीं रहा है। कूटस्थ चैतन्य में भगवान नित्य बिराजित हैं। अब से तो यह जीवन परमात्मा की ही पूर्ण अभिव्यक्ति होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०२२

नर्मदा जयंती ---

आज माघ शुक्ल सप्तमी को नर्मदा-जयंती थी| सभी श्रद्धालुओं को मेरा नमन! विद्युत् प्रभा के रंग जैसी, हाथ में त्रिशूल लिए, कन्या रूप में प्रकट होकर माँ नर्मदा ने अपने तट पर तपस्यारत महात्माओं की सदा रक्षा की है| इसीलिए पूरा नर्मदा तट एक तपोभूमि रहा है| "नर्मदा सरितां श्रेष्ठ रुद्रतेजात् विनि:सृता| तारयेत् सर्वभूतानि स्थावराणि चरानी च||"
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अमरकंटक के शिखर पर भगवान शिव एक बार गहरे ध्यान में थे कि सहसा उनके नीले कंठ से एक कन्या का आविर्भाव हुआ जिसके दाहिने हाथ में एक कमंडल था, और बाएँ हाथ में जपमाला| वह कन्या उनके दाहिने पांव पर खड़ी हुई और घोर तपस्या में लीन हो गयी| जब शिवजी का ध्यान भंग हुआ तो उन्होंने उस कन्या का ध्यान तुडाकर पूछा --- हे भद्रे, तुम कौन हो? मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूँ| तब उस कन्या ने उत्तर दिया --- समुद्र मंथन के समय जो हलाहल निकला था, और जिसका पान करने से आप नीलकंठ कहलाये, मेरा जन्म उसी नीलकंठ से हुआ है| मेरी आपसे विनती है कि मैं इसी प्रकार आपसे सदा जुडी रहूँ| भगवान शिव ने कहा -- "तथास्तु! पुत्री, तुम मेरे तेज से जन्मी हो, इसलिए तुम न केवल मेरे संग सदा के लिए जुड़ी रहोगी बल्कि तुम महामोक्षप्रदा नित्य सिद्धि प्रदायिका रहोगी|" वरदान देने के बाद भगवान शिव तुरंत अंतर्ध्यान हो गए और वह कन्या पुनश्चः तपस्या में लीन हो गयी| भगवान शिव पुन: कुछ समय पश्चात उस कन्या के समक्ष प्रकट हुए और कहा -- "तुम मेरा जलस्वरूप बनोगी, मैं तुम्हे 'नर्मदा' नाम देता हूँ और तुम्हारे पुत्र के रूप में सदा तुम्हारी गोद में बिराजूँगा| हे महातेजस्वी कन्ये! मैं अभी से तुम्हारी गोद में चिन्मयशक्ति संपन्न होकर शिवलिंग के रूप में बहना आरम्भ करूँगा|" तभी से जल रूप में नर्मदा ने विन्ध्याचल और सतपूड़ा की पर्वतमालाओ के मध्य से पश्चिम दिशा की ओर बहना आरम्भ किया| माँ नर्मदा का एक नाम रेवा भी है| "सर्वसिद्धिमेवाप्नोति तस्या तट परिक्र्मात्" उसके तट की परिक्रमा से सर्वसिद्धियों की प्राप्ति होती है|
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रुद्रतेज से उत्पन्न हुईं, भगवान शिव की मानस कन्या -- नर्मदा जी के बारे में लोकनाथ ब्रह्मचारी जी जो महातप:सिद्ध शिवदेहधारी जीवनमुक्त महात्मा थे, ने अपने शिष्यों को बताया था कि एक बार नर्मदा की परिक्रमा करते समय वे नर्मदा तट पर मुंडमहारण्य में निर्जन गंगावाह घाट पर बैठे हुए थे कि एक विचित्र दृश्य देखा| एक काली गाय जिसका शरीर एकदम काला था आई और नर्मदा नदी में स्नान करने उतर गयी| जब वह नहाकर बाहर निकली तो उसका रंग बिलकुल गोरा हो गया और वह गाय बहुत तेजी से उस महारण्य में लुप्त हो गयी| इसका रहस्य जानने के लिए वे समाधिस्थ हुए और उन्हें बोध हुआ कि वह काली गाय और कोई नहीं साक्षात माँ गंगा थीं जो नर्मदा में स्नान करने आई थीं|
इसके बारे में एक पौराणिक कथा है जिसमें मार्कन्डेय मुनि कहते हैं कि माँ गंगा ने भगवान विष्णु की घोर तपस्या की और भगवान से निवेदन किया कि हर प्रकार के पापी लोग मुझमें स्नान कर पापमुक्त होते हैं उनके पापविष की ज्वाला में मैं झुलसती रहती हूँ, अतः इस पाप की जलन से मुक्त होने का कोई उपाय मुझे बताइये| भगवान विष्णु ने प्रतिदिन गंगाजी को नर्मदाजल में स्नान कर पापमुक्त होने को कहा|
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नर्मदा -- रुद्रतेज से उत्पन्न हुई भगवान शिव की मानस कन्या है| जन सामान्य को तो उनके दर्शन भौतिक जलरूप में ही होते हैं, लेकिन तपस्वी महात्माओं को समाधि की अवस्था में उनके दर्शन एक सूक्ष्म दैवीय सत्ता के रूप में होते हैं|
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माँ नर्मदे, आपकी जय हो! यदि फिर कभी इस धरा पर मेरा पुनर्जन्म हो तो उस जन्म में मैं जीवनमुक्त परमहंस सिद्धावस्था में आपके तट पर विचरण करूँ, इतनी कृपा अवश्य करना|
ॐ तत्सत् !! ॐ नमः शिवाय !! हर नर्मदे हर !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०२१