जिसका अहंकृतभाव नहीं है, और जिसकी बुद्धि कभी कहीं भी लिप्त नहीं होती, वह संसार के सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। गीता में भगवान कहते हैं ---
Saturday, 7 September 2024
धर्म-रक्षा और राष्ट्र-रक्षा के लिए यदि हमारा कर्तव्य हो जाता है, तो हम इस सारी सृष्टि का विनाश कर के भी पाप के भागी नहीं होते ---
(प्रश्न) : मन में बुरे विचार न आयें, विचारों पर नियंत्रण रहे, कोई अनावश्यक और फालतू बातचीत न हो, निरंतर सकारात्मक चिंतन हो, और परमात्मा की स्मृति हर समय बनी रहे। इसके लिए हमें क्या करना चाहिए ?
(उत्तर) : मैं जो लिखने जा रहा हूँ इसे गंभीरता से लें, हँसी में न उड़ायें। यदि आप इसे गंभीरता से लेंगे और निरंतर अभ्यास करेंगे तो आपका इतना अधिक कल्याण होगा, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
श्रेष्ठतम गुरु वह ही होता है जो शिष्य को परमात्मा से जोड़ दे ---
मैं जब गुरु पर ध्यान करता हूँ, उस समय मुझ में, गुरु में, और परमात्मा में कोई भेद नहीं होता। हम तीनों एक होते हैं। ऐसे ही जब मैं परमात्मा के किसी भी रूप पर ध्यान करता हूँ तब भी हमारे में कोई भेद नहीं होता।
शांति स्थापित होने का समय व्यतीत हो गया है ---
शांति स्थापित होने का समय व्यतीत हो गया है, अब महाविनाश निश्चित है। इस पृथ्वी पर सनातन स्थापित होने जा रहा है। केवल और केवल भगवान की कृपा ही अपने भक्तों की रक्षा करेगी। यह समय कायरता दिखाने का या रणभूमि से भागने का नहीं है। गीता में भगवान कहते है --
मंदिर जिसके विग्रह के दर्शन मात्र से करेंट लगता है ---
मुझे अपने जीवनकाल में ऐसे अनेक देवस्थानों पर जाने का तो अनुभव हुआ है जहाँ जाते ही साधक समाधिस्थ हो जाता है। लेकिन विग्रह के सामने से दर्शन करने मात्र से करेंट लगने की अनुभूति एक ही स्थान में हुई है। एक बार जोधपुर के मेरे एक मित्र मुझे घुमाने रामदेवड़ा (जिला जैसलमेर) में बाबा रामदेव के मंदिर में ले गए। मेरे साथ में तीन लोग और थे जो हर दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। हम रामदेवड़ा ऐसे समय में गए थे जब वहाँ कोई भीड़ नहीं होती। वह अति सामान्य दिन था, मंदिर में उस समय दर्शनार्थी बहुत कम, नहीं के बराबर ही थे।
कुरुक्षेत्र का युद्ध निरंतर हमारी चेतना में चल रहा है ---
भगवान के हरेक भक्त को कुरुक्षेत्र का युद्ध निमित्त मात्र बन कर (भगवान को कर्ता बनाकर) स्वयं लड़ना ही पड़ेगा। इसका कोई विकल्प नहीं है। यह युद्ध हमें जीतना ही होगा। पूर्ण विजय से अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ही हमारे मार्गदर्शक गुरु और एकमात्र कर्ता हैं।
परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति ऊर्ध्वस्थ मूल में ही होती है ---
श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम योग (अध्याय १५) में भगवान श्रीकृष्ण ने एक रहस्यों का रहस्य बताया है, जिसे समझना प्रत्येक साधक के लिए परम उपयोगी और आवश्यक है। परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति ऊर्ध्वस्थ मूल में ही होती है। भगवान कहते हैं कि हम उन्हें अपने ऊर्ध्वस्थ मूल में ढूंढें ---
भगवान ही मेरे जीवन हैं, जिनके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता ---
भगवान ही मेरे जीवन हैं, जिनके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता; उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहिए ---
किसी भी तरह की कामना -- अविद्या को जन्म देती है, और हमें भगवान से दूर करती है ---
८ सितंबर २०२३। समष्टि का कल्याण ही हमारा कल्याण है, जिसके लिए 'तप' करना होगा। आध्यात्म के पथिक को सब तरह की आकांक्षाओं से मुक्त होना होगा। सिर्फ एक अभीप्सा हो परमात्मा को पाने की। लेकिन समष्टि के कल्याण के लिए तो कर्म करना ही होगा। गीता में भगवान कहते हैं --
(१) कूटस्थ-चैतन्य ही कृष्ण-चैतन्य है, हम निरंतर उसी में स्थित रहें। (२) हमारी सारी समस्याएँ - भगवान का अनुग्रह है, जो हमारे विकास के लिए अति आवश्यक है।
(१) सर्वव्यापी ज्योतिर्मय भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही वह कूटस्थ ब्रह्मज्योति हैं, जिनके आलोक से समस्त सृष्टि प्रकाशित है। सर्वत्र उनकी ज्योति का प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अंधकार नहीं है। जहाँ भगवान स्वयं बिराजमान हैं, वहाँ किसी भी तरह के अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं रह सकता। हम हर समय उन कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म की चेतना "ब्राह्मी-स्थिति" में ही निरंतर रहें --
यह भगवान की ज़िम्मेदारी है कि वे हमें प्राप्त हों। हमारे साथ क्या होता है? यह भगवान की चिंता है, हमारी नहीं ---
अनन्य भाव से निश्चिंत होकर इधर-उधर देखे बिना आत्मरूप से उनका निरंतर निष्काम चिंतन करते हुए सीधे चलते रहो। हमारा योगक्षेम उनकी चिंता है।
गणेश-चतुर्थी मंगलमय हो ---
मैंने आज तक गणेश जी बारे में जो कुछ भी लिखा है और जो कुछ भी कहा है वह उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति के समक्ष सब महत्वहीन है। उनकी कृपा से मैं आज वह लिखने जा रहा हूँ जो आज तक मैंने कभी न तो लिखा है, और न कहा है। सारा परिदृश्य ही बदल गया है। गणेश जी के बारे में मेरे स्वयं के लिखे पुराने लेख सब महत्वहीन हो गये हैं।