Saturday 7 September 2024

धर्म-रक्षा और राष्ट्र-रक्षा के लिए यदि हमारा कर्तव्य हो जाता है, तो हम इस सारी सृष्टि का विनाश कर के भी पाप के भागी नहीं होते ---

 जिसका अहंकृतभाव नहीं है, और जिसकी बुद्धि कभी कहीं भी लिप्त नहीं होती, वह संसार के सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। गीता में भगवान कहते हैं ---

"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मारता है और न (पाप से) बँधता है॥
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जो कर्म का कर्ता होता है वही फल का भोक्ता भी होता है। लेकिन आत्मज्ञान के पश्चात हम शुभाशुभ कर्मों के कर्ता नहीं रहते। आत्मज्ञानी पुरुष का अहंकार अर्थात् जीवभाव ही समाप्त हो जाता है। तब उसकी बुद्धि विषयों में आसक्त, और गुण-दोषों से दूषित नहीं होती। वह पुरुष इन लोकों को मारकर भी, वास्तव में न तो किसी को मारता है, और न किसी बंधन में बंधता है।
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कर्तृत्वाभिमान के अभाव में मनुष्य को किसी भी कर्म का बन्धन नहीं हो सकता। वैसे ही जैसे एक हत्यारे व्यक्ति को तो मृत्युदण्ड दिया जाता है, और रणभूमि में शत्रु का संहार करने वाले वीर सैनिक का सम्मान किया जाता है। जिसका अहंकार पूर्णतया नष्ट हो जाता है, ऐसे ज्ञानी पुरुष को किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं होता।
He who has no pride, and whose intellect is unalloyed by attachment, even though he kill these people, yet he does not kill them, and his act does not bind him.
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ अगस्त २०२४

(प्रश्न) : मन में बुरे विचार न आयें, विचारों पर नियंत्रण रहे, कोई अनावश्यक और फालतू बातचीत न हो, निरंतर सकारात्मक चिंतन हो, और परमात्मा की स्मृति हर समय बनी रहे। इसके लिए हमें क्या करना चाहिए ?

 (उत्तर) : मैं जो लिखने जा रहा हूँ इसे गंभीरता से लें, हँसी में न उड़ायें। यदि आप इसे गंभीरता से लेंगे और निरंतर अभ्यास करेंगे तो आपका इतना अधिक कल्याण होगा, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।

जहाँ तक हो सके दिन में अधिकांश समय "अर्ध खेचरी मुद्रा" में रहें। अपनी जीभ को ऊपर की ओर मोड़ कर के रखने का अभ्यास करें। जीभ ऊपर की मोड़ कर जितनी भी पीछे मुड़ सकती है, उतनी ही पीछे मोड़ कर और तालू से सटाकर रखें। इसका कई दिनों तक अभ्यास करना पड़ता है।
साथ-साथ मन ही मन भगवान के किसी प्रिय बीज मंत्र का भी जप करते रहें। गीता में भगवान श्रीकृष्ण मूर्धा में ओंकार का जप करने को कहते हैं, वह यही विधि है। इसका विकल्प है "रां" का जप। दोनों का फल एक ही है।
जो मानसिक जप आप करते हैं, आंतरिक रूप से वह कानों में सुनना चाहिए। लेकिन गलती से भी किसी अन्य को सुनाई नहीं देना चाहिए।
उज्जयी प्राणायाम का अभ्यास भी करना चाहिए, जो साधना में बहुत सहायक है।
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सिर्फ पानी पीते समय, भोजन करते समय, बात करते समय, और सोते समय ही जीभ को सीधी रखें। जहाँ तक हो सके नाक से ही सांस लें। हठयोग में अनेक विधियाँ हैं जिनसे नासिका सदा खुली रहती हैं। यदि कोई मेडिकल समस्या है तो किसी अच्छे ENT सर्जन से उपचार करवाएँ।
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उपरोक्त अभ्यास से बुरे विचार आने बंद हो जाएँगे, भगवान की स्मृति हर समय बनी रहेगी, और आप आनंद से भर जाएँगे। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ अगस्त २०२४

श्रेष्ठतम गुरु वह ही होता है जो शिष्य को परमात्मा से जोड़ दे ---

मैं जब गुरु पर ध्यान करता हूँ, उस समय मुझ में, गुरु में, और परमात्मा में कोई भेद नहीं होता। हम तीनों एक होते हैं। ऐसे ही जब मैं परमात्मा के किसी भी रूप पर ध्यान करता हूँ तब भी हमारे में कोई भेद नहीं होता।

देने योग्य एक ही ज्ञान है, वह है शिव-तत्व का ज्ञान; जिसके प्राप्त होने पर सब कुछ प्राप्त हो जाता है। वही ब्रह्मज्ञान है। ध्यान हम परमशिव का करें, या पुरुषोत्तम का, परिणाम एक ही होता है। शिव ही विष्णु हैं, और विष्णु ही शिव हैं।
साधक में आवश्यकता है केवल सत्यनिष्ठा और परमप्रेम (भक्ति) की। यदि ये हैं तो सब कुछ हैं।
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एक अंतिम बात और कहना चाहता हूँ कि सत्य-सनातन-धर्म की पुनःस्थापना का कार्य प्रकृति द्वारा आरंभ हो चुका है। सनातन की पुनः स्थापना भी होगी और वैश्वीकरण भी होगा।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अगस्त २०२४

शांति स्थापित होने का समय व्यतीत हो गया है ---

 शांति स्थापित होने का समय व्यतीत हो गया है, अब महाविनाश निश्चित है। इस पृथ्वी पर सनातन स्थापित होने जा रहा है। केवल और केवल भगवान की कृपा ही अपने भक्तों की रक्षा करेगी। यह समय कायरता दिखाने का या रणभूमि से भागने का नहीं है। गीता में भगवान कहते है --

"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - "जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥"
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"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व, जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥
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किसी भी परिस्थिति में, किसी भी क्लेश/कष्ट में भगवान हमारी रक्षा करेंगे। स्मरण रखो --
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
भावार्थ -- "वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण को वंदन है, उन गोविंद को पुनः पुनः नमन है, वे हमारे क्लेश/कष्टों का नाश करें॥"
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह के समक्ष एक शुद्ध घी का दीपक जलायें। और इस मंत्र की कम से कम एक माला नित्य करें। घर में सुख और शांति बनी रहेगी। कलह-क्लेश और नकारात्मक ऊर्जा भी दूर होगी। ​ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२४

मंदिर जिसके विग्रह के दर्शन मात्र से करेंट लगता है ---

 मुझे अपने जीवनकाल में ऐसे अनेक देवस्थानों पर जाने का तो अनुभव हुआ है जहाँ जाते ही साधक समाधिस्थ हो जाता है। लेकिन विग्रह के सामने से दर्शन करने मात्र से करेंट लगने की अनुभूति एक ही स्थान में हुई है। एक बार जोधपुर के मेरे एक मित्र मुझे घुमाने रामदेवड़ा (जिला जैसलमेर) में बाबा रामदेव के मंदिर में ले गए। मेरे साथ में तीन लोग और थे जो हर दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। हम रामदेवड़ा ऐसे समय में गए थे जब वहाँ कोई भीड़ नहीं होती। वह अति सामान्य दिन था, मंदिर में उस समय दर्शनार्थी बहुत कम, नहीं के बराबर ही थे।

मंदिर में विग्रह के सामने जैसे ही मैं गया मुझे हल्का करेंट का झटका लगा। मैं एक कदम दाहिनी ओर गया तो कोई करेंट नहीं। फिर विग्रह के सामने गया तो फिर करेंट का झटका। एक कदम बाईं और गया तो कुछ नहीं। मंदिर में उस दिन भीड़ नहीं थी इसलिए मैं यह सब प्रयोग कर सका। मैने कम से कम दस बार इसका रहस्य जानने का प्रयास किया, फिर इसे एक चमत्कार ही मान लिया। मंदिर के पुजारियों को भी पूछा, वे भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके। फिर मैंने यही मान लिया कि विग्रह बहुत शक्तिशाली है जिसके समक्ष जाते ही शक्तिपात होता है। ऐसा अनुभव और कहीं भी नहीं हुआ।
सभी को धन्यवाद और नमन !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२४

कुरुक्षेत्र का युद्ध निरंतर हमारी चेतना में चल रहा है ---

 भगवान के हरेक भक्त को कुरुक्षेत्र का युद्ध निमित्त मात्र बन कर (भगवान को कर्ता बनाकर) स्वयं लड़ना ही पड़ेगा। इसका कोई विकल्प नहीं है। यह युद्ध हमें जीतना ही होगा। पूर्ण विजय से अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ही हमारे मार्गदर्शक गुरु और एकमात्र कर्ता हैं।

(१) कौरव सेना कौन है? :--- जो भी शक्ति हमें परमात्मा से दूर ले जाती है, वह कौरव सेना है।
(२) पांडव सेना कौन हैं? :--- जो भी शक्ति हमें परमात्मा से जोड़ती है, वह पांडव सेना है। युधिष्ठिर शांति, भीम बल, अर्जुन आत्मानुशासन, नकुल सन्मार्ग, और सहदेव हर तरह की बुराई से दूर रहने के प्रतीक हैं।
यह युद्ध हमें जीतना ही है। भगवान हमारे साथ हैं। हम विजयी होंगे। कभी कभी अज्ञान का अंधकार हमें घेर लेता है, जो वास्तव में असत्य का अंधकार है। वह ज्ञान की ज्योति के समक्ष नहीं टिक सकता। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ अगस्त २०२४

परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति ऊर्ध्वस्थ मूल में ही होती है ---

श्रीमद्भगवद्गीता के पुरुषोत्तम योग (अध्याय १५) में भगवान श्रीकृष्ण ने एक रहस्यों का रहस्य बताया है, जिसे समझना प्रत्येक साधक के लिए परम उपयोगी और आवश्यक है। परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति ऊर्ध्वस्थ मूल में ही होती है। भगवान कहते हैं कि हम उन्हें अपने ऊर्ध्वस्थ मूल में ढूंढें ---

"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है॥
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>>> मेरा आप सब पाठकों से अनुरोध है कि किसी श्रौत्रीय ब्रहमनिष्ठ गीता-मर्मज्ञ सिद्ध योगी महात्मा के चरण कमलों में बैठकर उनसे उपदेश और सीख लें। मैं हरिःकृपा से बहुत विद्वतापूर्ण लेख तो लिख सकता हूँ जिसे पढ़कर आप वाह-वाह करने लगेंगे, लेकिन उससे किसी का कल्याण होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। <<<
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मुझे स्वयं को तो बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं है। लेकिन दूसरों के संशयों को दूर कर पाऊँगा या नहीं, इसमें मुझे संशय है। इसलिए आगे और कुछ भी इस विषय पर नहीं लिखूंगा।
कृपा शंकर
८ सितंबर २०२२

भगवान ही मेरे जीवन हैं, जिनके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता ---

 भगवान ही मेरे जीवन हैं, जिनके बिना मैं जीवित नहीं रह सकता; उनकी प्रत्यक्ष उपस्थिती के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहिए ---

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भगवान की भक्ति -- भगवान की कृपा से ही होती है, निज प्रयासों से नहीं। पिछले कुछ दिनों में कुछ अपरिहार्य कारणों से ऐसे सांसारिक व्यवधान आए जिनसे जीवनचर्या एकदम अस्त-व्यस्त हो गई। ध्यान-साधना और भक्ति छूट सी गई। मन में बड़ी ग्लानि हुई। लेकिन मन को कैसे भी समझा लिया कि भगवान ही एकमात्र कर्ता और भोक्ता हैं; मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ।
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भगवान से कुछ भी नहीं चाहिए, लेकिन उनके बिना रह भी तो नहीं सकते। उनसे इतनी सी ही प्रार्थना है कि वे सदा मेरे समक्ष यानि मेरे दृष्टि-पथ में हर समय निरंतर रहें। यदि भूल से कभी कुछ उनसे मांग भी लूँ, तो वे मेरी इच्छा-पूर्ति कभी भी न करें। दिन में २४ घंटे, सप्ताह में सातों दिन, हर समय वे मेरी चेतना के केंद्र-बिन्दु रहते हुए मेरे समक्ष रहें। भगवान से उनकी उपस्थिती के अलावा और कुछ भी नहीं चाहिए।
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मेरे जैसे अकिंचन के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के ये पाँच श्लोक अर्थ सहित नित्य पठनीय है --
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः॥६:२४॥"
शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥६:२५॥"
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥६:२६॥"
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः॥६:२९॥
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर
८ सितंबर २०२३

किसी भी तरह की कामना -- अविद्या को जन्म देती है, और हमें भगवान से दूर करती है ---

किसी भी तरह की कामना -- अविद्या को जन्म देती है, और हमें भगवान से दूर करती है। समष्टि का कल्याण ही हमारा कल्याण है, जिसके लिए 'तप' करना होगा। आध्यात्म के पथिक को सब तरह की आकांक्षाओं से मुक्त होना होगा। सिर्फ एक अभीप्सा हो परमात्मा को पाने की। लेकिन समष्टि के कल्याण के लिए तो कर्म करना ही होगा। गीता में भगवान कहते हैं --
"न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३:२२॥"
अर्थात् -- हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्म में ही लगा रहता हूँ।
There is nothing in this universe, O Arjuna, that I am compelled to do, nor anything for Me to attain; yet I am persistently active.
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जो सब कामनाओं से मुक्त होकर समभाव में स्थित है, वह ज्ञानी कहलाता है। समभाव में स्थिति -- ज्ञान है। ज्ञानी कुछ पाने के लिए कर्म नहीं करते। उनका हर कर्म समष्टि के कल्याण के लिए ही होता है, उसे ही तप कहते हैं।
तप क्या है? इसे एक सद्गुरु ही अपने शिष्य को समझा सकता है। हमारी आध्यात्मिक साधना भी एक तप है। यह तो हमें करनी ही होगी।
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सभी को मंगलमय शुभ शुभेच्छा और नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर

८ सितंबर २०२३। समष्टि का कल्याण ही हमारा कल्याण है, जिसके लिए 'तप' करना होगा। आध्यात्म के पथिक को सब तरह की आकांक्षाओं से मुक्त होना होगा। सिर्फ एक अभीप्सा हो परमात्मा को पाने की। लेकिन समष्टि के कल्याण के लिए तो कर्म करना ही होगा। गीता में भगवान कहते हैं --

"न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३:२२॥"
अर्थात् -- हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्म में ही लगा रहता हूँ।
There is nothing in this universe, O Arjuna, that I am compelled to do, nor anything for Me to attain; yet I am persistently active.
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जो सब कामनाओं से मुक्त होकर समभाव में स्थित है, वह ज्ञानी कहलाता है। समभाव में स्थिति -- ज्ञान है। ज्ञानी कुछ पाने के लिए कर्म नहीं करते। उनका हर कर्म समष्टि के कल्याण के लिए ही होता है, उसे ही तप कहते हैं।
तप क्या है? इसे एक सद्गुरु ही अपने शिष्य को समझा सकता है। हमारी आध्यात्मिक साधना भी एक तप है। यह तो हमें करनी ही होगी।
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सभी को मंगलमय शुभ शुभेच्छा और नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ सितंबर २०२३

(१) कूटस्थ-चैतन्य ही कृष्ण-चैतन्य है, हम निरंतर उसी में स्थित रहें। (२) हमारी सारी समस्याएँ - भगवान का अनुग्रह है, जो हमारे विकास के लिए अति आवश्यक है।

 (१) सर्वव्यापी ज्योतिर्मय भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही वह कूटस्थ ब्रह्मज्योति हैं, जिनके आलोक से समस्त सृष्टि प्रकाशित है। सर्वत्र उनकी ज्योति का प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अंधकार नहीं है। जहाँ भगवान स्वयं बिराजमान हैं, वहाँ किसी भी तरह के अंधकार का कोई अस्तित्व नहीं रह सकता। हम हर समय उन कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म की चेतना "ब्राह्मी-स्थिति" में ही निरंतर रहें --

"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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(२) हमारी सारी समस्याएँ - भगवान का अनुग्रह है, जो हमारे विकास के लिए
अति आवश्यक है।
हर विपरीत परिस्थिति और हर समस्या -- भगवान द्वारा दिया गया एक दायित्व है जिस से हम बच नहीं सकते। यह हमारे विकास के लिए आवश्यक है। हमें हर परिस्थिति से ऊपर उठना ही पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नहीं है। किसी अन्य को दोष देना व्यर्थ है। दुर्बलता स्वयं में ही होती है। बाहर की समस्त समस्याओं का समाधान स्वयं के भीतर ही है। जैसा हम सोचते हैं और जैसे लोगों के साथ रहते हैं, वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हमारे चारों ओर हो जाता है। हमारे प्रारब्ध और संचित कर्मों के फलस्वरूप भी जो परिस्थितियाँ हमें मिलती हैं उन से भी ऊपर हमें उठना ही होगा। अन्य कोई विकल्प नहीं है। जो साहस छोड़ देते हैं वे अपने अज्ञान की सीमाओं में बंदी बन जाते हैं। सारी समस्याएँ -- भगवान का अनुग्रह हैं। यह हमारी मानसिक सोच पर निर्भर है कि हम उनसे निराश होते हैं या उत्साहित होते हैं। जब हम परिस्थितियों के सामने समर्पण कर देते हैं या उनसे हार मान जाते हैं, तब हमारे दुःखों और दुर्भाग्य का आरम्भ होता है।
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श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित अर्थ सहित स्वाध्याय सब प्रकार की परिस्थितियों से ऊपर उठने में हमारी सहायता करता है। गीता कोई साम्प्रदायिक ग्रन्थ नहीं है, यह सार्वभौमिक है, और भारत का प्राण है। यह समस्त मानव जाति को दिया हुआ भगवान का सन्देश है।
जन्माष्टमी का पर्व सभी के लिए शुभ हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ सितंबर २०२३

यह भगवान की ज़िम्मेदारी है कि वे हमें प्राप्त हों। हमारे साथ क्या होता है? यह भगवान की चिंता है, हमारी नहीं ---

 अनन्य भाव से निश्चिंत होकर इधर-उधर देखे बिना आत्मरूप से उनका निरंतर निष्काम चिंतन करते हुए सीधे चलते रहो। हमारा योगक्षेम उनकी चिंता है।

अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम योग है, और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम क्षेम है। जीवन और मृत्यु में भी हमारी वासना नहीं होनी चाहिए। केवल भगवान ही हमारे अवलम्बन हों।
गीता में उन्होने जो वचन दिया है, वह झूठा नहीं हो सकता ---
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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भगवान क्या खाते है?
भगवान को आपके बड़े बड़े राजसी पक्वान्न पसंद नहीं हैं। पत्र, पुष्प, फल और जल आदि जो भी आप उन्हें प्रेम से अर्पित करेंगे, उन्हें वे खा लेंगे।
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥९:२६॥"
अर्थात् -- जो कोई भी भक्त मेरे लिए पत्र, पुष्प, फल, जल आदि भक्ति से अर्पण करता है, उस शुद्ध मन के भक्त का वह भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ (पत्र पुष्पादि) मैं भोगता हूँ अर्थात् स्वीकार करता हूँ॥
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अतः चिंता मत करो कि भगवान को क्या खिलाएँगे। कोई ५६ भोग बनाने की या किसी ५ सितारा होटल से खाना मंगाने चिंता न करें। हम जो कुछ भी खाते हैं वह वास्तव में भगवान ही खाते हैं, और वे ही पचाते हैं। हम जो कुछ भी खा रहे हैं, वह हम नहीं अपितु हमारे माध्यम से भगवान ही खा रहे हैं।
हर साँस पर उनका स्मरण हो। यदि हमारा यह स्वभाव बन जाये तो इसी जन्म में हमारी मुक्ति निश्चित है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ सितंबर २०२३

गणेश-चतुर्थी मंगलमय हो ---

मैंने आज तक गणेश जी बारे में जो कुछ भी लिखा है और जो कुछ भी कहा है वह उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति के समक्ष सब महत्वहीन है। उनकी कृपा से मैं आज वह लिखने जा रहा हूँ जो आज तक मैंने कभी न तो लिखा है, और न कहा है। सारा परिदृश्य ही बदल गया है। गणेश जी के बारे में मेरे स्वयं के लिखे पुराने लेख सब महत्वहीन हो गये हैं।

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ब्रह्ममुहूर्त में प्रातःकाल उठते ही मैं सर्वप्रथम सहस्त्रारचक्र में गुरुपादुका को नमन कर वहाँ दिखाई दे रही ज्योति के रूप में गुरु महाराज के पाद-पद्मों (गुरु-चरणों) का ध्यान करता हूँ। वहाँ बिखरे हुए प्रकाश-कण उनके चरणों की रज है। इस ध्यान से मुझे गुरु-चरणों में आश्रय मिल जाता है।
मैं जो लिखने जा रहा हूँ, उसे लिखने की मुझे एक आंतरिक अनुमति है। अन्यथा निषेधात्मक कारणों से इसे नहीं लिखा जाता।
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कई बार सहस्त्रार से ऊपर का भाग खुल जाता है और चेतना इस देह से बाहर निकल कर अनंताकाश को भेदती हुई एक परम ज्योतिर्मय जगत में चली जाती है, जिसे मैं परमशिव की अनुभूति कहता हूँ।
आज मूलाधारचक्र में गणपती के एक मंत्र का जप कर रहा था, तो एक चमत्कार घटित हो गया। सब चक्रों के माध्यम से सारी चेतना ऊर्ध्वमुखी होकर सहस्त्रारचक्र में आ गयी। मेरी चेतना मे एक अति आनंददायक सर्वव्यापी श्वेत ज्योति व्याप्त हो गयी, जो सूर्य से भी अधिक चमकीली थी लेकिन उसमें शीतलता थी, कोई उष्णता नहीं। ओंकार की ध्वनि का श्रवण भी स्वतः ही होने लगा। उसी के ध्यान में कितना समय निकल गया, कुछ पता ही नहीं चला। जो कुछ भी समझ में आना चाहिए था वह सब समझ में आ गया। कई बाते ऐसी होती हैं कि उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं होते। यह भी अनुभूतिजन्य ऐसी ही बात है जो शब्दों से परे है।
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लौकिक रूप से घर पर जो गणेश जी की जो पूजा होती है वह परंपरागत रूप से सम्पन्न कर दी। मेरे आसपास किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। सबको आदत पड़ गई है मुझे एकांत में रहते देखने की। लेकिन इस तरह के अनुभव बहुत कुछ सिखा जाते हैं। सभी में परमात्मा को नमन॥ इस समय किसी भी तरह की चर्चा करने में असमर्थ हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ सितंबर २०२४