Friday, 21 September 2018

सत्संग सार .....

सत्संग सार .....
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भगवान की यह परम कृपा रही है कि संसार की इस अथाह भीड़ में से उन्होंने मुझे भी छाँट कर स्वयं के श्रीचरणों की सेवा में लगा दिया है| उनके श्री चरण ही मेरे आराध्य हैं, वे ही मेरी गति हैं और वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मेरी कोई भी कामना नहीं है| अनेक लेख मुझ अकिंचन के माध्यम से लिखे जा चुके हैं, उनकी संख्या बढाने से अब कोई लाभ नहीं है| सब का सार यही है कि हमारे हृदय में कोई भी कामना नहीं होनी चाहिए| हमारा पूर्ण प्रेम और अभीप्सा सिर्फ परमात्मा के प्रति ही हो, कोई किसी भी तरह की कामना न रहे| कामनाएँ ही पाप का मूल हैं| स्वर्ग की कामना भी एक धोखा है जो अंततः नर्कगामी ही है|
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सूक्ष्म जगत के अनेक महात्माओं ने मुझे आशीर्वाद दिया है जिनको भौतिक रूप में मैनें कभी भी नहीं देखा| इस भौतिक विश्व में भी मुझे संत चरणों से प्यार है जो निरंतर आशीर्वाद देते रहते हैं| भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है कि किसी भी कामना का जन्म न हो और उन्हीं के श्रीचरणों में अंतःकरण लगा रहे|
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हम सब नित्यमुक्त हैं अतः किसी भी तरह की कोई मुक्ति हमें नहीं चाहिए| हमारा पूरा अंतःकरण यानि मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भगवान को समर्पित हो| भगवान के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप आप सब को भी मेरा दण्डवत् प्रणाम स्वीकार हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितम्बर २०१८
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पुनश्चः :-- एक आध्यात्मिक शक्ति भारतवर्ष का पुनरोत्थान कर रही है| भारतवर्ष फिर से अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त होगा| असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ पराभूत होंगी, ज्ञान का आलोक सर्वत्र व्याप्त होगा| भारतवर्ष में दस भी ऐसे महात्मा हैं जो परमात्मा को प्राप्त हैं, तो भारतवर्ष कभी नष्ट नहीं हो सकता|

भगवान किसे प्राप्त होते हैं ? ...

भगवान किसे प्राप्त होते हैं ? ... (यह संत-महात्माओं के सत्संग से प्राप्त ज्ञान का सार है)
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भगवान उसी साधक को प्राप्त होते हैं जिसे भगवान स्वयं स्वीकार कर लेते हैं| भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है यानि भगवान को ही प्राप्त करना चाहता है, कुछ अन्य नहीं|
महत्व उनको पाने की घनिभूत अभीप्सा का है, अन्य किसी चीज का नहीं| आध्यात्मिक साधनाएँ यदि उनको पाने की अभीप्सा बढ़ाती हैं तभी सार्थक हैं, अन्यथा निरर्थक हैं|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||
अर्थात् जो भक्त जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से मुझे भजते हैं उनको मैं उसी प्रकार से भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उनपर अनुग्रह करता हूँ|
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असली भक्त को तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं हो सकती, वह प्रभु को ही पाना चाहता है, अतः प्रभु भी उसे ही पाना चाहते हैं| एक ही साधक को एक साथ "मुमुक्षुत्व" और "फलार्थित्व" नहीं हो सकते| जो फलार्थी हैं उन्हें फल मिलता है, और जो मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष मिलता है| इस प्रकार जो जिस तरह से भगवान को भजते हैं उनको भगवान भी उसी तरह से भजते हैं| भगवान में कोई राग-द्वेष नहीं होता, जो उनको जैसा चाहते हैैं, वैसा ही अनुग्रह वे भक्त पर करते हैं| भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं|
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जैसे एक स्त्री और एक पुरुष सिर्फ एक दूसरे को ही पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं, तभी वे एक-दूसरे के होते हैं, वैसे ही जो सिर्फ भगवान को ही वरता है, भगवान भी उसे ही वरते हैं| सिर्फ कामना करने मात्र से ही भगवान किसी को नहीं मिलते|
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गीता में ही भगवान कहते हैं .....
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||२:४४||
अर्थात् जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृढ़ संकल्पित बुद्धि नहीं होती है||
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भगवान आगे और भी कहते हैं .....
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ||२:४५||
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||
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सबका सार यही है कि कोई भी किसी भी तरह की कामना नहीं होनी चाहिए, सिर्फ परमात्मा को उपलब्ध होने की ही गहनतम अभीप्सा हो, तभी भगवान प्राप्त होते हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० सितम्बर २०१८

वेदांत दर्शन, साधन चतुष्टय और संत आशीर्वाद :--

वेदांत दर्शन, साधन चतुष्टय और संत आशीर्वाद :--
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यह बात मैं पूरे दावे के साथ अपने अनुभव से कह रहा हूँ कि वेदान्त दर्शन को सिर्फ स्वाध्याय से तब तक कोई भी ठीक से नहीं समझ सकता जब तक किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध महात्मा का आशीर्वाद प्राप्त न हो| तपस्वी महात्माओं के आशीर्वाद से प्राप्त अनुभूतियों से वेदान्त स्वतः भी समझ में आ सकता है| अतः एक मुमुक्षु को संतों का सदा सत्संग करना चाहिए|
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वैसे वेदान्त में प्रवेश के लिए साधन चतुष्टय यानी चार योग्यताओं की आवश्यकता पड़ती है|
वे हैं .....
(१) नित्यानित्य विवेक.
(२) वैराग्य.
(३) षड्गुण/षट सम्पत्ति... (शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति, और तितिक्षा).
(४) मुमुक्षुत्व.
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रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं .....
"बिनु सत्संग विवेक न होई| राम कृपा बिनु सुलभ न सोई||"
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भगवान से प्रेम करेंगे तो भगवान की कृपा होगी और भगवान की कृपा होगी तो सत्संग लाभ भी होगा| सत्संग लाभ होगा तो विवेक जागृत होगा, और विवेक जागृत होगा तो वैराग्य भी होगा| वैराग्य और अभ्यास से छओं सदगुण भी आयेंगे और मुमुक्षुत्व भी जागृत होगा| फिर साधक जितेन्द्रिय हो जाता है और भोगों की आसक्ति नष्ट हो जाती है|
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इस दिशा में पहला कदम है .... परमप्रेम जो सिर्फ परमात्मा से ही हो सकता है| अपने पूर्ण ह्रदय से अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को दें, फिर सारे द्वार अपने आप ही खुल जायेंगे, सारे दीप अपने आप ही जल उठेंगे, और सारा अन्धकार भी अपने आप ही नष्ट हो जाएगा||

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० सितम्बर २०१८

सफ़ेद गुलाब और गौरैया .....

सफ़ेद गुलाब और गौरैया .....
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एक बगीचे में कई गुलाब के फूल खिले थे| सब के रंग लाल, पीले, गुलाबी और अन्य थे, पर सिर्फ एक ही सफ़ेद रंग का गुलाब था| उस सफ़ेद गुलाब में एक हीन भावना आ गयी और वह भगवान से प्रार्थना करता कि मुझे भी लाल रंग का बना दो|
एक दिन एक गौरैया उड़ती हुई उस बगीचे में आई, उसने उस सफ़ेद गुलाब को देखा और उससे प्यार करने लगी| पूरे दिन दोनों ने बातचीत की और गौरैया ने अगले दिन फिर आने की बात कही| सफ़ेद गुलाब ने अपनी शर्त रखी कि वह लाल रंग का होने पर ही मित्रता करेगा|
गौरैया पूरी रात विचार करती रही कि अपने मित्र सफ़ेद गुलाब को लाल कैसे बनाए| दुसरे दिन जब सूर्योदय हुआ तब सफ़ेद गुलाब जागा और अपनी पंखुड़ियाँ फैला दीं| घोर आश्चर्य ! उसकी सब पंखुड़ियाँ लाल थीं| वह प्रसन्नता से नाच उठा| उसने नीचे देखा तो बड़ा दुखद दृश्य था| नीचे मरी हुई गौरैया अपने स्वयं के रक्त में ही भीगी हुई पडी थी, उसकी छाती में कई कटे हुए के चिह्न थे|
सफ़ेद गुलाब को समझ में आया कि क्या हुआ| रात को गौरैया आई थी, उसने मित्रता निभाने के लिए फूल के साथ लगे काँटों से अपना सीना छलनी किया और बंद सफ़ेद गुलाब को अपने रक्त से भिगो दिया|
कई लोगों ने हमारे जीवन में प्रसन्नता लाने के लिए त्याग किया है| हमें उन सब का उपकार मानना चाहिए| हम उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ प्यार दें| पर पहला प्यार परम प्रिय परमात्मा को दें जिन्होनें हमें अपना प्रियतम स्वरुप दिया है|

"भूमा" शब्द का अर्थ :----

"भूमा" शब्द का अर्थ :----
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कामायनी महाकाव्य की इन पंक्तियों में जयशंकर प्रसाद ने "भूमा" शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ बड़ा दार्शनिक है .....
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल |
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य यही "भूमा" का मधुमय दान |"
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"भूमा" शब्द सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद (७/२३/१) में आता है जिसका अर्थ होता है ..... सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन|
" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " |
भूमा तत्व में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में सुख नहीं है| जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है| कम में सुख नहीं है|
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ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा ..
" सुखं भगवो विजिज्ञास इति " |
जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है .....
" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " |
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ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर 
१९ सितम्बर २०१८ 

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उपरोक्त लेख पर श्री अरुण उपाध्याय जी की टिप्पणी :--

यही साधना की पूर्णता भी है। मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर है अर्थात् भूमि है। योग साधना की भी ७ भूमि कही गयी है (महानारायण उपनिषद्)। इस सीमित शरीर का जब विराट् से सम्बन्ध हो तो यह भूमा है।
पृथ्वी ग्रह अपनी परिधि के भीतर भूमि है। आकाश में उसके प्रभाव (
गुरुत्वाकर्षण आदि) का क्षेत्र भूमा है।
इसी प्रकार दो अन्य सीमित-विराट् जोड़े हैं जिनको एक मान कर व्याख्या की जाती है-
पुरुष - पूरुष, ईश-ईशा।
एक पुर में सीमित पुरुष है।
उसका मूल स्रोत या बनने के बाद अधिष्ठान पूरुष है जो उससे बड़ा है। पुरुष सूक्त तथा गीता में २-२ स्थान पर पूरुष शब्द का प्रयोग है। विश्व का पूर्ण स्रोत पूरुष है। उसके ४ भाग में १ भाग से ही पूरा विश्व बना है, यह पुरुष है।
पुरुष एवेदं सर्वं यदभूतं यच्च भाव्यं।
एतावान् अस्य महिमा अतो ज्यायांश्च पूरुषः।
पादो अस्य भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।
ततो विराट् अजायत विराजो अधि पूरुषः। (पुरुष सूक्त)।
विश्व के हर विन्दु हृदय या चिदाकाश में रह कर सञ्चालन करने वाला इश या ईश्वर है-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया।
(गीता १८/६१)
उमा दारु जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं।। (रामचरितमानस)
हर चिदाकाश को मिलाकर उसके ईश का विस्तार ईशा है-
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्।
यहां कई लोग ईशा का अर्थ ईश की तृतीया विभक्ति के साथ मानते हैं-अर्थात् ईश के द्वारा। पर यह वाक्य विश्व के प्रसंग में है।
यहाँ तीन शब्द हैं-ईश का विस्तार विश्व रूप में ईशा, जगत्, जगत्यां जगत्।
गीता अध्याय १८ के आरम्भ में इनको ब्रह्म, कर्म, यज्ञ कहा गया है।
सब कुछ ब्रह्म है-सर्वं खलु इदं ब्रह्म।
ब्रह्म में जहां कहीं गति है वह कर्म है। = जगत्।
जिस कर्म द्वारा चक्रीय क्रम में उत्पादन हो रहा है वह यज्ञ है (गीता, ३/१०)।= जगत्यां जगत्।


मेरी दृष्टी से एक आदर्श दिनचर्या :---

मेरी दृष्टी से एक आदर्श दिनचर्या :---
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१) प्रातःकाल इस भाव से उठें जैसे माँ भगवती की गोद में सोये हुए थे और उन्हीं की गोद में से सो कर उठ रहे हैं| सिर के नीचे कोई तकिया नहीं बल्कि माँ का बायाँ हाथ है और सिर के ऊपर उनके प्रेममय दायें हाथ की हथेली है जिस से वे हमें प्रेम करते हुए आशीर्वाद भी दे रही हैं|
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(२) किसी भी तरह का कोई अहंकार व दंभ न हो|
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(३) उठते ही दो बार में धीरे धीरे एक लम्बी गहरी सांस लें और कुछ क्षणों के लिए पूरे शरीर को तनाव से भरकर प्राण तत्व से भरे होने का संकल्प करें| अधिक से अधिक पांच सेकंड्स तक ही यह तनाव रखें, फिर धीरे धीरे शरीर को शिथिल करें पर शरीर प्राण तत्व से भरपूर रहे|
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(४) एक गिलास गुनगुने शुद्ध जल का पीयें और आवश्यक हो तो लघुशंका आदि से निवृत हो लें|
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(५) एक कम्बल के शुद्ध आसन पर स्थिर होकर बैठ जाएँ, मेरुदंड उन्नत, मुख पूर्व दिशा की ओर, ठुड्डी भूमि के समानांतर, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में और चेतना ... आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा सुषुम्ना में हो|
(आज्ञाचक्र की स्थिति :-- ठुड्डी भूमि के समानांतर हो तो दोनों कानों के मध्य से थोड़ा पीछे की ओर खोपड़ी के पीछे के भाग में| वहाँ छूते ही पता चल जाता है|)
(सहस्त्रार की स्थिति :-- ठुड्डी भूमि के समानांतर हो तो दोनों कानों के मध्य से खोपड़ी के सबसे ऊपर का भाग| वहां अँगुलियों से छूने पर ब्रह्मरंध्र की स्थिति का पता चल जाता है|)
(जो योगसाधना करते हैं, उनके लिए आज्ञाचक्र ही हृदय है| जीवात्मा का निवास भी आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में है|)
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(६) पूर्ण प्रेम से अपनी चेतना को सारे ब्रह्मांड में फैला दें, सारी सृष्टि को उस से आच्छादित कर दें| वह अनंत विस्तार ही हम हैं, उस विस्तार का ध्यान करें| अजपा-जप का अभ्यास करें, गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र का खूब मानसिक जप करें, परमात्मा के सर्वव्यापी अपने प्रियतम रूप का ध्यान कर उसी में स्वयं को विलीन कर दें| (इस से आगे का मार्गदर्शन स्वयं भगवान किसी न किसी तरह पात्रतानुसार अवश्य करेंगे|)
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(७) किसी भी तरह का कोई भय न हो| साक्षात जगन्माता माँ भगवती हमारी रक्षा कर रही है| कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता| पूरे दिन हमारा सत्य व्यवहार और परमात्मा का निरंतर स्मरण हो|
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(८) रात्री को पुनश्चः गहरा ध्यान कर के माँ भगवती की गोद में वैसे ही सो जायें जैसे एक अबोध बालक अपनी माँ की गोद में सोता है|
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सायं व प्रातः यथासंभव अधिकाधिक समय ध्यान करें| रात्री को सोने से पूर्व फिर से एक बार गहरा ध्यान अवश्य करें| परमात्मा को जीवन का केंद्रबिंदु, एकमात्र कर्ता और सर्वस्व बनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ सितम्बर २०१८

पृथ्वी पर इस समय "शैतान" का राज्य बहुत लम्बे समय से चल रहा है ....

एक अलग दृष्टिकोण .....

पृथ्वी पर इस समय "शैतान" का राज्य बहुत लम्बे समय से चल रहा है| "शैतान" कोई व्यक्ति नहीं है, मनुष्य की "कामवासना", "लोभ" और "अहंकार" ही "शैतान" है| "परमात्मा" की परिकल्पना सिर्फ भारत की ही देन है, पर भारत में भी घोर "तमोगुण" के रूप में "शैतान" ही राज्य कर रहा है| भारत में "जातिगत द्वेष", और "पारस्परिक जातिगत घृणा" .... "तमोगुण" की प्रधानता के कारण है| यह "तमोगुण" भी "शैतान" ही है|
मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ पूरे क्षेत्र में ही दुर्भाग्य से इतना भयंकर "जातिगत द्वेष" है कि मेरा दम घुटने लगता है| कई बार मुझे लगता है कि मैं गलत क्षेत्र में और गलत समाज में रह रहा हूँ| कहीं जाने का मन भी नहीं करता| जहाँ "तमोगुण" की प्रधानता है वहाँ "शैतान" ही राज्य करता है|

१५ सितम्बर २०१८

पंचप्राणरूपी गणों के, ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को नमन !

पंचप्राणरूपी गणों के, ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को नमन !
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(गणपति का आधिदैविक स्वरूप) .....
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ॐ नमस्ते गणपतये ॥ त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ॥ त्वमेव केवलं कर्तासि ॥ त्वमेव केवलं धर्तासि ॥ त्वमेव केवलं हर्तासि ॥ त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ॥ त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥
(सत्य कथन) .....
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ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ २॥
(रक्षण के लिये प्रार्थना) .....
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अव त्वं माम्‌ ॥ अव वक्तारम् ॥ अव श्रोतारम् ॥ अव दातारम् ॥ अव धातारम् ॥ अवानूचानमव शिष्यम् ॥ अव पश्चात्तात्‌ ॥ अव पुरस्तात् ॥ अवोत्तरात्तात् ॥ अव दक्षिणात्तात् ॥ अव चोर्ध्वात्तात् ॥ अवाधरात्तात् ॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
(गणपतिजी का आध्यात्मिक स्वरूप) .....
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त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ॥ त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ॥ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
(गणपति का स्वरूप) .....
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सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ॥ सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ॥ त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ॥ त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ॥ त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं‌ चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥
(गणेशविद्या / गणेश मन्त्र) .....
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गणादिन् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस्तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम् ॥ संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः। निचृद्‌गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥७॥
(गणेश गायत्री) .....
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एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥ ८ ॥
(गणेशरूप ध्यान).....
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एकदन्तं चतुर्हस्तम् पाशमं कुशधारिणम् ॥ रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तम् लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥
रक्तगन्धानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥९॥
(अष्टनाम गणपति नमन) .....
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नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ॥ १० ॥
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॥ फलश्रुति ॥ (सिर्फ हिंदी अनुवाद) :----
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इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा। ॥ ११॥
(विविध प्रयोग)
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। ॥ १२॥
(यज्ञ प्रयोग)
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। ॥ १३॥
(अन्य प्रयोग)
जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है। ॥ १४॥

साधू , सावधान ! यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है .....

साधू , सावधान ! यह एक चेतावनी है, आगे खतरा ही खतरा है .....
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"ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते| संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते||२:६२||"
"क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः| स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति||२:६३||"
श्रुति भगवती भी सचेत कर रही है .....
"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत| क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति||" (कठोपनिषद् १:३:१४)
भय की बात नहीं है| भगवान आश्वासन भी दे रहे हैं .....
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||
तुरंत उठ ! वैराग्यवान होकर सिर्फ परमात्मा का चिंतन कर ! दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है |
ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१३ सितम्बर २०१८
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पुनश्चः .....
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साधू, सावधान ! ....
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मुझे भय है कि कहीं मैं बुद्धि-विलास, शब्दजाल और विकृत विद्वता के अरण्य में तो नहीं भटक गया हूँ| यदि यह कणमात्र भी सत्य है, तो अभी इसी क्षण से मुझे संभल कर इस जंजाल से निकलना होगा|
कृपा शंकर
१८ फरवरी २०१९ 
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वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्| वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये||"
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।‘
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शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्| अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः||"
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् वन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए।
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अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै ||"
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?
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"वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।"
(विवेक चूड़ामणि--६)
‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।‘
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"अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला| विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला||"
(विवेक चूड़ामणि---६१)
‘परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!