Tuesday 7 September 2021

परमात्मा का ध्यान और वाहन चलाने की कुशलता ---

परमात्मा का ध्यान और वाहन चलाने की कुशलता ---
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इस शरीर में हम सब एक किरायेदार हैं, जिसका किराया/भाड़ा तो किसी भी परिस्थिति में एक न एक दिन चुकाना ही पड़ेगा। संसार के सारे संबंध इस नश्वर शरीर से हैं, जो परमात्मा द्वारा किराये/भाड़े पर दिया हुआ एक वाहन (जैसे मोटर साइकिल) मात्र है। इसका भाड़ा चुकाने के लिए हमारे पास क्या है? पास में चाहे कुछ भी नहीं हो, लेकिन भाड़ा तो किसी भी परिस्थिति में चुकाना ही पड़ेगा, कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं चुकाया तो चक्रवर्ती ब्याज सहित चुकाना पड़ेगा। इसके लिए वे कोई दूसरा वाहन (जैसे किसी पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े जैसे जीव-जन्तुओं का शरीर) चलाने को दे देंगे।
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जन्म और मृत्यु - इस शरीर रूपी वाहन के धर्म हैं। जिस दिन इस वाहन की आयु समाप्त हो जाएगी, उस दिन संसार के सारे संबंध भी समाप्त हो जायेंगे। हम सब शाश्वत जीवात्माएँ हैं, जिनका एकमात्र संबंध परमात्मा से है। जिस दिन हम परमात्मा से जुड़ जायेंगे, उस दिन सारा किराया माफ हो जाएगा। अभी इस समय तो हम इस शरीर में जीवित रहने का भाड़ा ही चुका रहे हैं। इस वाहन की ठीक से देखभाल करते हुए और कुशलता से चलाते हुए इस लोकयात्रा को हम पूर्ण करें, यही वे चाहते हैं। यदि हम उनकी इस इच्छा को पूरी करते हैं, तो हम जीवभाव से मुक्त और स्वतंत्र हो जायेंगे।
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अब अंतिम प्रश्न है -- वाहन चलाने की कुशलता हम कैसे अर्जित करें? यह कुशलता आएगी परमात्मा के ध्यान से, जिसे सीखने के लिए हमें किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करना होगा। अंतर्चेतना में भगवान हमारे समक्ष समान भाव से सर्वत्र व सर्वदा बिराजित हैं। उन्हें हम कभी भी नहीं भूलें, और सदा अपनी स्मृति में रखें। उनकी कृपा की याचना करने की अपेक्षा हम उन्हें स्वयं को ही अपने अपने हृदय में बैठा कर उन्हें ही इस वाहन का चालक बना लें। वे ही यह वाहन हैं, और वे ही इस वाहन के चालक हैं। वे हमें भक्ति और समर्पण का अवसर देकर कृतार्थ कर रहे हैं। हम निमित्त मात्र बनकर उन्हें समर्पित हो जाएँ।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
५ सितंबर २०२१


"राम" नाम और "ॐ" दोनों का फल एक ही है ---

 

"राम" नाम और "ॐ" दोनों का फल एक ही है ---
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कुछ संतों ने संस्कृत व्याकरण और आध्यात्मिक साधना दोनों से ही सिद्ध किया है कि तारक ब्रह्म "राम" और "ॐ" दोनों की ध्वनि एक ही है।
संस्कृत व्याकरण की दृष्टी से --
राम = र् + आ + म् + अ |
= र् + अ + अ + म् + अ ||
हरेक स्वर वर्ण पुल्लिंग होता है अतएव पूरा स्वतंत्र होता है| इसी तरह हर व्यंजन वर्ण स्त्रीलिंग है अतः वह परतंत्र है|
'आद्यन्त विपर्यश्च' पाणिनि व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार विश्लेषण किये गए 'राम' शब्द का 'अ' सामने आता है| इससे सूत्र बना --- अ + र् + अ + अ + म् |
व्याकरण का यह नियम है कि अगर किसी शब्द के 'र' वर्ण के सामने, तथा वर्ण के पीछे अगर 'अ' बैठते हों, तो उसका 'र' वर्ग 'उ' वर्ण में बदल जाता है|
इसी कारण राम शब्द के अंत में आने वाले र् + अ = उ में बदल जाते हैं|
इसलिए अ + र् + अ = उ
अर्थात उ + अ = ओ हुआ|
ओ + म् = ओम् या ॐ बन गए|
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इसी तरह 'राम' शब्द के भीतर ही 'ॐ' मन्त्र निहित है| राम शब्द का ध्यान करते करते राम शब्द 'ॐ' में बदल जाता है| जिस प्रकार से ॐकार मोक्ष दिलाता है, उसी तरह से 'राम' नाम भी मोक्ष प्रदान करता है| इसी कारण से 'राम' मन्त्र को तारकब्रह्म कहते हैं|
जो साधक ओंकार साधना करते हैं और जिन्हें ध्यान में ओंकार की ध्वनी सुनती है वे एक प्रयोग कर सकते हैं| ध्यान में ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पिछले भाग में मेरु-शीर्ष (Medulla Oblongata) के ठीक ऊपर सुनाई देती है| यह प्रणव नाद मेरु-शीर्ष से सहस्त्रार और फिर समस्त ब्रह्माण्ड में फ़ैल जाता है| आप शांत स्थान में कमर सीधी रखकर आज्ञा चक्र पर दृष्टी रखिये और मेरुशीर्ष के ठीक ऊपर राम राम राम राम राम शब्द का खूब देर तक मानसिक जाप कीजिये| आप को ॐकर की ध्वनी सुननी प्रारम्भ हो जायेगी और राम नाम ॐकार में बदल जाएगा| कुछ समय के लिए कानों को अंगूठे से बंद कर सकते हैं| धन्यवाद| जय श्रीराम !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
७ सितंबर २०१५

भाद्रपद अमावस्या को मेरा जन्मदिवस है ---

 

"वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वम् इति। ॐ ॐ ॐ"
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आज का दिन मेरे लिए विशेष है। आज भाद्रपद अमावस्या है -- हिन्दी तिथि के अनुसार, लोकयात्रा निमित्त मिले हुए इस शरीर रूपी वाहन के इस पृथ्वी पर अवतरण का दिन। मेरे लौकिक परिवार के सदस्य इसी दिन मनाते हैं। अंग्रेजी दिनांक के अनुसार ३ सितंबर को मेरी जन्मतिथि थी, उस दिन मुझे सैंकड़ों
बधाई
संदेश मिले थे।
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मुझे किसी भी तरह का
अभिनंदन
या
बधाई
संदेश मत भेजिये। सिर्फ कुछ क्षण परमात्मा की याद कर लीजिये, जिनको यह आत्मा समर्पित है। मैं यह शरीर नहीं हूँ। मैं अनंत और शाश्वत आत्मा हूँ, जो परमशिव को समर्पित है। मेरी आयु शाश्वतता है। मेरा कोई जन्म या मृत्यु नहीं है, वे तो इस शरीर के धर्म हैं।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥२:२२॥"
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२:२३॥"
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२:२४॥"
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आप में व्यक्त हो रहे परमात्मा को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
७ सितंबर २०२१


"अक्षर" किसे कहते हैं? ---

 

"अक्षर" किसे कहते हैं? ---
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शास्त्रार्थ करते हुए गार्गी ने याज्ञवल्क्य से पूछा कि आकाश किसमें ओतप्रोत हैं? याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि कहा कि वह "अक्षर" में प्रतिष्ठित है। अक्षर का अर्थ है जो कभी क्षर नहीं होता। याज्ञवल्क्य ने अक्षर शब्द को बृहदारण्यक में बहुत अच्छी तरह से समझाया है। गीता में भी भगवान ने कहा है --
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥"
अर्थात् - "इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥"
"अक्षर" अनंत और कामनारहित है। इसी लिए श्रुति भगवती हमें अनंत और कामना रहित होने को कहती है। अनंत और कामना रहित होकर ही हम अमृतमय और ब्रहमविद् हो सकते हैं। एक ध्वनि है जो पूरे ब्रह्मांड में गूँज रही है, पूरी सृष्टि उस से निर्मित हुई है। उस के साथ एक होकर ही हम सृष्टि के रहस्यों को समझते हुए, परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं।
ॐ तत्सत् !! गुरु ॐ !! जय गुरु !!
कृपा शंकर
८ सितंबर २०२१

तपस्या क्या है? ---

 

तपस्या क्या है?
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निज भौतिक-स्वार्थ के लिए कार्य न कर के समष्टि के कल्याण के लिए साधना ही तपस्या है| भगवान ने स्वयं को समष्टि के रूप में व्यक्त किया है, इसीलिए हम भगवान की अनंतता पर ध्यान करते हैं| यही तप है| तप में सब तरह की कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं| जो हम चाहते थे, वह तो हम स्वयं हैं| हम यह देह नहीं, परमात्मा के साथ एक हैं| सारा ब्रह्मांड ही अपनी देह है| पूरी सृष्टि में जो कुछ भी है, वह हम स्वयं हैं| इसी भाव से अजपा-जप की साधना होती है, जिसे हंसयोग, शिवयोग आदि का नाम भी दिया गया है| यह भाव ही सारी साधनाओं का आधार है, और यही तप है| हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ही सारे कर्म करते हैं| हमारा एकमात्र कर्म तो उनके प्रति समर्पित होकर उनकी चेतना में रहना है|
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परमात्मा के पास सब कुछ है, उनका कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे निरंतर कर्मशील हैं| एक माइक्रो सेकंड (एक क्षण का दस लाखवाँ भाग) के लिए भी वे निष्क्रिय नहीं हैं| उनका कोई भी काम खुद के लिए नहीं है, अपनी सृष्टि के लिए वे निरंतर कार्य कर रहे हैं| यही हमारा परम आदर्श है| हम कर्ताभाव को त्याग कर, पूर्णत: समर्पित होकर उन्हें अपने माध्यम से कार्य करने दें, इस से बड़ा अन्य कोई तप नहीं है| स्वयं के लिए न कर के जो भी काम हम समष्टि यानी परमात्मा के लिए करते हैं, वही तप है, वही सबसे बड़ी तपस्या है, और यह तपस्या ही हमारी सबसे बड़ी निधि है| कर्ताभाव का कण मात्र भी न हो| तप तो भगवान स्वयं ही हमारे माध्यम से कर रहे हैं, हम सिर्फ साक्षी हो सकते हैं| कर्ताभाव अज्ञान है| हमारे माध्यम से समष्टि के कल्याण हेतु संपन्न कर्म ही "तप" है| वही परमात्मा की प्रसन्नता है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ सितम्बर २०२०
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पुनश्च: --- तप --- प्रश्न है कि तप क्या है? किशोरावस्था में हम समझते थे कि साधु लोग धूणा जलाकर बैठते हैं, और आग से तपते हैं, उसी को तप और तपस्या कहते हैं। बाद में समझ में आया कि आध्यात्मिक साधना के लिए किया गया परिश्रम ही तप है। कुछ लोग समझते हैं कि अपने स्वार्थ के लिए कार्य न करके, दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करना - तप है। किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया गया परिश्रम भी तप है। >हमारे माध्यम से समष्टि के कल्याण हेतु संपन्न कर्म ही "तप" है। वही परमात्मा की प्रसन्नता और हमारी एकमात्र निधि है। <
 
पुनश्च :-- गीता के १७वें अध्याय "श्रद्धा त्रय विभाग योग" में श्लोक क्रमांक १४ से २० तक में अनेक प्रकार के तप बताए गए हैं। वहीं इन का स्वाध्याय अधिक अच्छा रहेगा।