Wednesday, 3 January 2018

साधना मार्ग के कुछ अनुभव .....

साधना मार्ग के कुछ अनुभव .....
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स्वामी रामतीर्थ ने अद्वैत वेदान्त पर देश-विदेश में बहुत सारे प्रवचन दिए थे जिनको लखनऊ की एक संस्था "रामतीर्थ प्रतिष्ठान" ने अंग्रेजी और हिंदी में छपा कर उपलब्ध करवाया था| दोनों भाषाओं में उनके सारे साहित्य को मैनें कोई पचीस वर्ष पूर्व खरीद कर मंगाया था| अंग्रेजी में उनका साहित्य १० खण्डों में था और हिंदी में १६ खण्डों में| अलग से उनकी जीवनी और उनके एक विद्वान् मानस शिष्य द्वारा गीता पर पुस्तक रूप में लिखे लेख भी मंगाकर उनका अध्ययन किया था|
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इस से पूर्व स्वामी विवेकानंद के सम्पूर्ण साहित्य का भी दो बार अध्ययन कर लिया था| रमण महर्षि का भी उपलब्ध साहित्य सारा पढ़ लिया था| ओशो की भी अनेक पुस्तकें पढ़ीं| पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा परमहंस योगानंद के साहित्य का| श्रीअरविन्द का साहित्य मुझे कभी रुचिकर नहीं लगा, संभवतः उसे समझना मेरी तत्कालीन बौद्धिक क्षमता से परे था| उनके महाकाव्य 'सावित्री' को तो कभी समझ ही नहीं पाया|
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परमहंस स्वामी योगानंद के साहित्य से ध्यान साधना में रूचि जगी और ध्यान का अभ्यास आरम्भ कर दिया| ध्यान में आनन्द आने लगा तो पुस्तकों का अध्ययन छूट गया| फिर उतना ही पढ़ता जिस से ध्यान करने की प्रेरणा मिलती| स्वामी योगानंद के साहित्य की यही खूबी है कि उसे पढने वाले की रूचि पढने से अधिक ध्यान साधना में लग जाती है|
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भगवान की कृपा से मुझे विविध सम्प्रदायों के अनेक महात्माओं का सत्संग मिला, इसलिए मैं सभी का सम्मान करता हूँ| सभी सम्प्रदायों के एक से बढकर एक तपस्वी और विद्वान् महात्मा मिले|
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ध्यान साधना का यह लाभ हुआ कि वेदान्त में रूचि जागृत हुई और वेदान्त की अनुभूतियों से सारे संदेह दूर हो गए| अब बौद्धिक रूप से न तो कुछ पढने की इच्छा है और न कुछ जानने की| कोई संदेह या शंका नहीं है| सारा मार्ग स्पष्ट है| बचा खुचा जो जीवन है वह परमात्मा के ध्यान में ही बिता देना है| भगवान ही प्रेरणा देकर कुछ पढवा देंगे तो पढ़ लूंगा, अन्यथा नहीं|
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एक समय था जब जीवन में बहुत अधिक असंतोष था| क्रोध भी बहुत अधिक आता था| अनेक कुंठाएँ थीं| कई बार अवसादग्रस्त भी हुआ जीवन में| आत्महत्या तक के नकारात्मक विचार जीवन में अनेक बार आये| दो बार हृदयाघात भी हुआ| पर अब वह सब एक स्वप्न सा लगता है| सारा जीवन एक मधुर सपना था|
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अब तो पूर्ण प्रसन्नता है, कोई कुंठा नहीं है, कोई अवसाद नहीं है, अब क्रोध नहीं आता, कोई असंतोष या पछतावा नहीं है| भगवान की अनुभूतियाँ भी खूब होती हैं, जिनसे खूब आनंद आता है| कामनाएँ और अपेक्षाएं भी समाप्त हो गयी हैं| कुल मिलाकर जीवन सुख और प्रसन्नता से भर गया है| अब शांति ही शांति है|
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हे प्रभु, आपकी यह कृपा सदा बनी रहे| ॐ ॐ ॐ !!
०४ जनवरी २०१८ 

हम परमात्मा के प्रवाह के माध्यम हैं .....

हर व्यक्ति एक माध्यम है जिस से परमात्मा प्रवाहित होते हैं| पर हम अपने अहंकारवश परमात्मा के उस प्रवाह को अवरुद्ध कर देते हैं| ध्यान साधना और गहन प्रभु चिंतन द्वारा हम अपने निज जीवन में प्रभु को आकर्षित करते हैं| जितना गहरा हमारा ध्यान और चिंतन होता है, उतनी ही गहराई से भगवान हमारे में व्यक्त होते हैं| हम अधिकाधिक निष्ठावान बनने का प्रयास करें, किसी भी तरह की कोई कुटिलता और असत्यता हम में न रहे| 
आप सब को नमन| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
०३ दिसंबर २०१८

मेरे लिए फेसबुक एक सत्संग का माध्यम है .....

मेरे लिए फेसबुक सिर्फ एक सत्संग का माध्यम है| परमात्मा पर गहरा ध्यान और हरि-चिंतन ही मेरा मनोरंजन है| मैं अपने जीवन से पूर्ण संतुष्ट, प्रसन्न और सुखी हूँ| किसी से भी कोई शिकायत नहीं है| बौद्धिक व आध्यात्मिक धरातल पर किसी भी तरह की कोई शंका या संदेह मुझे नहीं है| मेरी जितनी पात्रता है, उस से भी बहुत ही अधिक परमात्मा की पूर्ण कृपा मुझ पर है|
मैं स्वभाववश अधिकांशतः एकांत में ही रहता हूँ, गिने चुने बहुत ही कम लोगों से मिलना-जुलना होता है| सत्संग के उद्देश्य से ही कहीं आता-जाता हूँ| बेकार की गपशप और अनावश्यक बातों की आदत नहीं है| ७० वर्ष की आयु के कारण शरीर में भी अधिक भागदौड़ की क्षमता नहीं है| जिस उपनगर में रहता हूँ वह भी नगर के मुख्य केंद्र से बहुत दूर है| आध्यात्म और राष्ट्रवाद के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर मैं बात नहीं करता| आत्म-साक्षात्कार के अतिरिक्त जीवन में कोई अपेक्षा या कामना नहीं रही है|
आप सब मेरी निजात्माएँ हैं| आप सब को नमन| ॐ ॐ ॐ !!

गायत्री, अजपा-जप और ध्यान .....

गायत्री, अजपा-जप और ध्यान .....
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जो द्विज हैं यानी जिन्होनें यज्ञोपवीत धारण कर रखा है उन के लिए गायत्री जप किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य है, अन्यथा उनका द्विजत्व च्युत हो जाता है| एक माला तो अनिवार्य है, पर यदि हो सके तो दस माला नित्य करनी चाहिए|
कुछ आचार्यों के अनुसार इस नियम से वे ही मुक्त हैं जो खूब लम्बे समय तक अजपा-जप (सांस के साथ "हं" और "सः" का मानसिक जप) करते हैं| उनके अनुसार अजपा-जप लघु गायत्री है|
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गायत्री मन्त्र के देवता सविता ही ज्योतिर्मय ब्रह्म हैं जिन की भर्गः ज्योति का हम कूटस्थ में ध्यान करते हैं| वे ही परब्रह्म परमशिव हैं, वे ही नारायण हैं, और वे ही आत्म-सूर्य यानी सभी तत्वों के तत्व हैं| उन्हीं के बारे में श्रुति भगवती कहती है ....
"न तत्र सूर्यो भांति न चन्द्र-तारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कूतोऽयमग्नि |
तम् एव भान्तम् अनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वम् इदं विभाति ||"
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"हिरन्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्
तत् त्वं पूषन्न्-अपावृणु सत्य-धर्माय दृष्टये |"
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"पूषन्न् अकर्ये यम सूर्य प्राजापत्य व्युह-रश्मीन् समूह तेजो यत् ते रूपं कल्याणतमं तत् ते पश्यामि यो ऽसव् असौ पुरुषः सो ऽहम् अस्मि |
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हमें उस आभासित ब्रह्म आत्मसूर्य का ही ध्यान करना चाहिए| वह ही हम हैं|
प्रार्थना :---
हे प्रभु, हे परमात्मा, मैं अपनी तुच्छ और अति अल्प बुद्धि से कुछ भी समझने में असमर्थ हूँ| मुझे इस द्वैत से परे ले चलो, अपनी पवित्रता दो, अपना परम प्रेम दो| इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं मालूम, और कुछ भी नहीं चाहिए|
हे परम प्रिय, तुम हवाओं में बह रहे हो, झोंकों में मुस्करा रहे हो, सितारों में चमक रहे हो, हम सब के विचारों में नृत्य कर रहे हो, समस्त जीवन तुम्हीं हो| हे परमात्मा, हे गुरु रूप ब्रह्म, तुम्हारी जय हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०३ जनवरी २०१८

जातिवादी भावनाएँ भड़काने वालों से बचें .....

जातिवादी भावनाएँ भड़काने वालों से बचें  .....

देश में कई स्थानों पर जातिवादी भावनाएँ भड़का कर दंगे कराने का प्रयास किया जा रहा है| इस के पीछे चुनाव में हारे राजनेताओं व दलों का हाथ लगता है| यह जातिवाद देश में एक विष घोल रहा है| इस से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि सभी सरकारी कागजों पर जाति के उल्लेख पर स्थायी प्रतिबन्ध लगा दिया जाए| ये दंगे भड़काने वाले कौन लोग हैं, इनकी पहिचान कर इन्हें दण्डित किया जाए| क्या सरकार यह पता नहीं कर सकती कि इन के पीछे कौन हें, व कहाँ से इन्हें पैसा मिल रहा है?
कम्युनिस्ट लोग भी किसान आन्दोलन के नाम पर जातिगत जहर घोल रहे हैं| जातिवाद के नाम पर सता में आने के प्रयास देश में कहीं एक गृह युद्ध नहीं आरम्भ करवा दें| क्या जातिवाद पर आधारित राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता ?
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जिस तरह से देश में जातिगत भावनाएँ भड़का कर वर्ग-संघर्ष का प्रयास कराया जा रहा है वह बड़ा खतरनाक है| इस से गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है| वर्ग-सहयोग हमारा आदर्श है, न कि वर्ग-संघर्ष| मार्क्सवादियों के खूनी हाथ का सबसे बड़ा अस्त्र ... वर्ग-संघर्ष है, जो अब कांग्रेस का अस्त्र बन रहा है|
समय रहते ही इसे कुचल देना चाहिए अन्यथा यह देश के लिए बड़ा घातक होगा| भारत का श्रुतिसम्मत परम आदर्श समष्टिवाद है, न कि अन्य कुछ और|
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सन २०१९ में होने वाले चुनावों तक का समय देश के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है| २०१९ के आम चुनावों में राष्ट्रवादियों का सता में आना बहुत अनिवार्य है| सता में वे ही लोग आने चाहिएँ जो राष्ट्र की आकांक्षाओं को समझते हैं, न कि कांग्रेसी, जातिवादी, सेकुलर या वामपंथी जो भारत की अस्मिता के विरुद्ध हैं|
पूरे देश को जाति के नाम पर तोड़ कर कांग्रेस २०१९ का चुनाव जितना चाहती है| हर कदम पर हमें कांग्रेस का विरोध करना होगा|
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वर्तमान परिस्थिति में समय की आवश्यकता धर्म प्रचार की है| परमात्मा से प्रेम, ध्यान साधना, धर्म के लक्षणों के ज्ञान, अपने सनातन धर्म और संस्कृति पर स्वाभिमान आदि से धर्म प्रचार होगा| हम अपने निज जीवन में भी गीता में बताये हुए स्वधर्म का पालन करें| इसी से धर्म की रक्षा होगी|
धर्म-निरपेक्षता यानि सेकुलरिज्म के नाम पर झूठा इतिहास पढ़ाकर हिन्दुओं में आत्महीनता का बोध उत्पन्न किया गया है| दुर्भाग्य से आज के अधिकांश हिन्दू युवा वर्ग को अपने धर्म का ज्ञान ही नहीं है|
मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाला समय सत्य सनातन धर्म का ही होगा| 

ॐ तत्सत्  !   ॐ ॐ ॐ  !!

हमारी एकमात्र कमी .....

हमारी एकमात्र कमी .....
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जब कमियों की ओर देखता हूँ तो मुझे स्वयं में एक ही कमी दिखाई देती है, वह कमी यह है कि हम स्वयं के प्रति ईमानदार नहीं हैं| हम कहते कुछ और हैं व करते कुछ और हैं| हम चाहते हैं मुझ स्वयं को छोड़कर बाकी सारी दुनियाँ सुधर जाए| हम अपेक्षा करते हैं कि दुनियाँ में सब ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ यानि धर्मनिष्ठ हों, पर स्वयं नहीं| दुनिया को सुधारने का काम हम एक ही व्यक्ति के साथ कर सकते हैं, वह व्यक्ति हम स्वयं हैं, और कोई नहीं| इस कमी को दूर करने पर बाकी सब कमियाँ अपने आप ही दूर हो जाएँगी|
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अब प्रश्न उठता है कि हम स्वयं को कैसे सुधारें?
इसका उत्तर मैं मेरे जीवन के पूरे अनुभव से देना चाहूँगा| मैंने खूब दुनियाँ देखी है, विश्व के अनेक देशों में गया हूँ, साम्यवाद को भी बहुत समीप से देखा है और पूँजीवाद को भी, दरिद्रता को भी निकट से देखा है और सम्पन्नता को भी, जीवन में अन्याय भी बहुत देखा है और न्याय भी, जीवन में अच्छे से अच्छे लोग भी मिले हैं और बुरे से बुरे भी| इस जीवन में स्वयं को सुधारने का एकमात्र उपाय है ... "परमात्मा को पूर्ण समर्पण", अन्य कोई उपाय नहीं है| इस बात को कौन कैसे समझता है यह उसके विवेक पर निर्भर है|
मेरा पूरा अस्तित्व परमात्मा को समर्पित हो, कुछ भी पृथकता कहीं पर भी शेष ना हो| बस यही प्रभु से प्रार्थना है| निश्चित रूप से उनकी कृपा अवश्य ही होगी और वे अवश्य ही यह समर्पण स्वीकार करेंगे|
पूर्णता सिर्फ परमात्मा में ही है| जहां पूर्णता है, वहां कोई कमी नहीं हो सकती|
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ॐ पूर्णमदः पूणमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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अथातोऽद्वयतारकोपनिषदं व्याख्यास्यामो यतये
जितेन्द्रियाय शमदमादिषड्‌गुणपूर्णाय ॥ १ ॥
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चित्स्वरूपोऽहमिति सदा भावयन् सम्यक् निमीलिताक्षः
किंचिद् उन्मीलिताक्षो वाऽन्तर्दृष्ट्या भ्रूदहरादुपरि
सचिदानन्दतेजःकूटरूपं परं ब्रह्मावलोकयन् तद्‌रूपो भवति ॥ २ ॥
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गर्भजन्मजरामरणसंसारमहद्‌भयात् संतारयति तस्मात्तारकमिति ।
जीवेश्वरौ मायिकाविति विज्ञाय सर्वविशेषं नेति
नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म ॥ ३ ॥
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तत्सिद्ध्यैः लक्ष्यत्रयानुसंधानं कर्तव्यः ॥ ४ ॥
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अन्तर्लक्ष्यलक्षणम् -
देहामध्ये ब्रह्मनाडी सुषुम्ना सूर्यरूपिणी पूर्णचन्द्राभा वर्तते । सा तु मूलाधारादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रगामिनी भवति । तन्मध्ये तडित्कोटिसमानकान्त्या मृणालसूत्रवत् सूक्ष्माङ्‌गी कुण्डलिनीति प्रसिद्धाऽस्ति । तां दृष्ट्वा मनसैव नरः सर्वपापविनाशद्वारा मुक्तो भवति । फालोर्ध्वगललाटविशेषमंडले निरन्तरं तेजस्तारकयोगविस्फारणेन पश्यति चेत् सिद्धो भवति । तर्जन्यग्रोन्मीलितकर्णरन्धद्वये तत्र फूत्कारशब्दो जायते । तत्र स्थिते मनसि चक्षुर्मध्यगतनीलज्योतिस्स्थलं विलोक्य अन्तर्दृष्ट्या निरतिशयसुखं प्राप्नोति । एवं हृदये पश्यति । एवं अन्तर्लक्ष्यलक्षणं मुमुक्षुभिरुपास्यम् ॥ ५ ॥
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बहिर्लक्ष्यलक्षणम् -
अथ बहिर्लक्ष्यलक्षणम् । नासिकाग्रे चतुर्भिः षड्‌भिरष्टभिः दशभिः द्वादशभिः क्रमाद् अङ्‌गुलान्ते नीलद्युतिश्यामत्वसदृग्रक्तभङ्‌गीस्फुरत् पीतशुक्लवर्णद्वयोपेतं व्योम यदि पश्यति स तु योगी भवति । चलदृष्ट्या व्योमभागवीक्षितुः पुरुषस्य दृष्ट्यग्रे ज्योतिर्मयूखा वर्तन्ते । तद्दर्शनेन योगी भवति । तप्तकाञ्चनसंकाशज्योतिर्मयूखा अपाङ्‌गन्ते भूमौ वा पश्यति तद्‍दृष्टिः स्थिरा भवति । शीर्षोपरि द्वादशाङ्‍गुलसमीक्षितुः अमृतत्वं भवति । यत्र कुत्र स्थितस्य शिरसि व्योमज्योतिर्दृष्टं चेत् स तु योगी भवति ॥ ६ ॥
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मध्यलक्ष्यलक्षणम् -
अथ मध्यलक्ष्यलक्षणं प्रातश्चित्रादिर्णाखण्डसूर्यचक्रवत् वह्निज्वालावलीवत् तद्विहीनान्तरिक्षवत् पश्यति । तदाकाराकारितया अवतिष्ठति । तद्‌भूयोदर्शनेन गुणरहिताकाशं भवति । विस्फुरत् तारकाकारदीप्यमानागाढतमोपमं परमाकाशं भवति । कालानलसमद्योतमानं महाकाशं भवति । सर्वोत्कृष्टपरमद्युतिप्रद्योतमानं तत्त्वाकाशं भवति । कोटिसूर्यप्रकाशवैभवसंकाशं सूर्याकाशं भवति । एवं बाह्याभ्यन्तरस्थ-व्योमपञ्चकं तारकलक्ष्यम् । तद्दर्शी विमुक्तफलः तादृग् व्योमसमानो भवति । तस्मात् तारक एव लक्ष्यं अनमस्कफलप्रदं भवति ॥ ७ ॥
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द्विविधं तारकम् -
तत्तारकं द्विविधं पूर्वार्धं तारकं उत्तरार्धं अमनस्कं चेति । तदेष श्लोको भवति । तद्योगं च द्विधा विद्धि पूर्वोत्तरविधानतः । पूर्वं तु तारकं विद्यात् अमनस्कं तदुत्तरमिति ॥ ८ ॥
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तारकयोगसिद्धिः -
अक्ष्यन्तस्तारयोः चन्द्रसूर्यप्रतिफलनं भवति । तारकाभ्यां सूर्यचंद्रमण्डलदर्शनं ब्रह्माण्डमिव पिण्डाण्डशिरोमध्यस्थाकाशे रवीन्दुमण्डलद्वितयमस्तीति निश्चित्य तारकाभ्यां तद्दर्शनम् । अत्रापि उभयैक्यदृष्ट्या मनोयुक्तं ध्यायेत् । तद्योगाभावे इंद्रियप्रवृत्तेरनवकाशात् । तस्माद अन्तर्दृष्ट्या तारक एवानुसंधेयः ॥ ९ ॥
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मूर्तामूरभेदेन द्विविधमनुसन्धेयम् -
तत्तारकं द्विविधं, मूर्तितारकं अमूर्तितारकं चेति । यद् इंद्रियान्तं तत् मूर्तिमत् । यद् भ्रूयुगातीतं तत् अमूर्तिमत् । सर्वत्र अन्तःपदार्थ- विवेचने मनोयुक्ताभ्यास इष्यते । तारकाभ्यां तदूर्ध्वस्थसत्त्वदर्शनात् मनोयुक्तेन अन्तरीक्षणेन सच्चिदानन्दस्वरूपं ब्रह्मैव । तस्मात् शुक्लतेजोमयं ब्रह्मेति सिद्धम् । तद्‌ब्रह्म मनःसहकारिचक्षुषा अन्तर्दृष्ट्या वेद्यं भवति । एवं अमूर्तितारकमपि । मनोयुक्तेन चक्षुषैव दहरादिकं वेद्यं भवति । रूपग्रहणप्रयोजनस्य मनश्चक्षुरधीनत्वात् बाह्यवदान्तरेऽपि आत्ममनश्चक्षुःसंयोगेनैव रूपग्रहणकार्योदयात् । तस्मात् मनोमयुक्ता अन्तर्दृष्टितारकप्रकाशाय भवति ॥ १० ॥
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तारकयागस्वरूपम् -
भूयुगमध्यबिले दृष्टिं तद्‍द्वारा ऊर्ध्वस्थितजेज आविर्भूतं तारकयोगो भवति । तेन सह मनोयुक्तं तारकं सुसंयोज्य प्रयत्‍नेन भ्रूयुग्मं सावधानतया किंचित् ऊर्ध्वं उत्क्षेपयेत् । इति पूर्वतारकयोगः । उत्तरं तु अमूर्तिमत् अमनस्कं इत्युच्यते । तालुमूलोर्ध्वभागे महान् ज्योतिर्मयूखो वर्तते । तद्योगिभिर्ध्येयम् । तस्मात् अणिमादि सिद्धिर्भवति ॥ ११ ॥
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शाम्भवीमुद्रा -
अन्तर्बाह्यलक्ष्ये दृष्टौ निमेषोन्मेषवर्जितायां सत्यां शांभवी मुद्रा भवति । तन्मुद्रारूढज्ञानिनिवासात् भूमिः पवित्रा भवति । तद्‍दृष्ट्वा सर्वे लोकाः पवित्रा भवन्ति । तादृशपरमयोगिपूजा यस्य लभ्यते सोऽपि मुक्तो भवति ॥ १२ ॥
अन्तर्लक्ष्यविकल्पाः -
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अन्तर्लक्ष्यज्वलज्योतिःस्वरूपं भवति । परमगुरूपदेशेन सहस्रारे जलज्ज्योतिर्वा बुद्धिगुहानिहितचिज्ज्योतिर्वा षोडशान्तस्थ तुरीयचैतन्यं वा अन्तर्लक्ष्यं भवति । तद्दर्शनं सदाचार्यमूलम् ॥ १३ ॥
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आचार्यलक्षणम् -
आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
योगज्ञो योगनिष्ठश्च सदा योगात्मकः शुचिः ॥ १४ ॥
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गुरुभक्तिसमायुक्तः पुरुषज्ञो विशेषतः ।
एवं लक्षणसंपन्नो गुरुरित्यभिधीयते ॥ १५ ॥
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गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः ।
अंधकारनिरोधित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥ १६ ॥
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गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः ।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परायणम् ॥ १७ ॥
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गुरुरेव पराकाष्ठा गुरुरेव परं धनम् ।
यस्मात्तदुपदेष्टासौ तस्मात्-गुरुतरो गुरुरिति ॥ १८ ॥
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ग्रन्थाभ्यासफलम् -
यः सकृदुच्चारयति तस्य संसारमोचनं भवति । सर्वजन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति । सर्वान् कामानवाप्नोति । सर्वपुरुषार्थ सिद्धिर्भवति । य एवं वेद । इति उपनिषत् ॥
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!