Thursday, 6 February 2025

महात्मा कौन है ?

एक वीतराग (राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त) और स्थितप्रज्ञ (जिसकी प्रज्ञा परमात्मा में स्थिर है) व्यक्ति ही वास्तविक महात्मा है, जो महत् तत्व से जुड़ा है। कोई दुराचारी व्यक्ति महात्मा नहीं हो सकता। ऐसी मेरी मान्यता है।

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श्रीमद्भगवद्गीता के "आत्मसंयम योग" में भगवान कहते हैं -- "प्रशान्त अन्त:करण से निर्भय और ब्रह्मचर्य में स्थित होकर, मन को संयमित कर अपने चित्त को निजात्मा में ही लगायें। किसी भी तरह की स्पृहा न हो। समस्त कामनाओं का परित्याग कर के, मन के द्वारा इन्द्रिय समुदाय को सब ओर से सम्यक् प्रकार से वश में कर के, शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा उपरामता (शांति) को प्राप्त हों, और मन को आत्मा में स्थित कर के फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करें।"
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भगवान हमारे चैतन्य में ही हैं, कहीं बाहर नहीं। भगवान में हम दृढ़ निश्चयपूर्वक स्थित रहें। सदा यह भाव रखें कि इस सृष्टि में मैं ही सभी की आत्मा हूँ, और सारे प्राणी मेरी ही आत्मा में हैं।
भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो मुझे सर्वत्र देखता है, और सब को मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता, और वह मुझ से वियुक्त नहीं होता॥
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भारत तमोगुण से मुक्त हो। सभी महान आत्माओं को नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२५

हमारे पतन का कारण हमारा तमोगुण है ---

किसी भी कालखंड में जब भी हमारा पतन हुआ, उसका मुख्य और एकमात्र कारण हमारे जीवन में तमोगुण की प्रधानता का होना था। हमारी जो भी प्रगति हो रही है, वह तमोगुण का प्रभाव घटने, और रजोगुण में वृद्धि के कारण हो रही है।

सार्वजनिक जीवन में सतोगुण की प्रधानता तो बहुत दूर की बात है, निज जीवन में हमें सतोगुण का ही चिंतन और ध्यान करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता के सांख्ययोग नामक दूसरे अध्याय के स्वाध्याय से यह बात ठीक से समझ में आती है। वास्तव में गीता का आधार ही उसका सांख्य योग नामक अध्याय क्रमांक २ है, जिसे समझ कर ही हम आगे की बातें समझ सकते हैं।
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हमें अपनी चेतना के ऊर्ध्व में परमात्मा के सर्वव्यापी परम ज्योतिर्मय कूटस्थ पुरुषोत्तम का ही ध्यान करना चाहिए। जो बात मुझे समझ में आती है, वही लिखता हूँ। ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत तो स्वयं परमात्मा हैं, बाकी सब से केवल सूचना ही प्राप्त होती है। कूटस्थ का अर्थ होता है परमात्मा का वह ज्योतिर्मय स्वरूप जो सर्वव्यापी है लेकिन प्रत्यक्ष में कहीं भी इंद्रियों से दिखता नहीं है। उसका कभी नाश नहीं होता। योगमार्ग में ध्यान में दिखाई देने वाली ज्योति और नाद को "कूटस्थ" कहते हैं।

ॐ परमात्मने नमः !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२५