Sunday 26 February 2017

मेरा परिचय .....

संशोधित व पुनर्प्रस्तुत. (26 फरवरी, 2012 को प्रस्तुत किया हुआ लेख)
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मेरा परिचय .....
I am the polestar of my shipwrecked thoughts .....
मैं ध्रुव तारा हूँ मेरे ही विखंडित विचारों का,
मैं पथ-प्रदर्शक हूँ स्वयं के भूले हुए मार्ग का.
मैं अनंत, मेरे विचार अनंत,
मेरी चेतना अनंत और मेरा अस्तित्व अनंत.
मेरा केंद्र है सर्वत्र,
परिधि कहीं भी नहीं.
मेरे उस केंद्र में ही मैं स्वयं को खोजता हूँ,
बस यही मेरा परिचय है.
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शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि .

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आत्मज्ञान, ज्ञान, अज्ञान, मोह, मोक्ष, सत्य, आत्मा, परमात्मा, माया, जीव, ब्रह्म, साधक, साधना, योग और वियोग आदि अनेक ------- अत्यधिक भारी भरकम शब्दों से मैं आज स्वयं को मुक्त कर रहा हूँ|
मैं इनका भार और नहीं ढो सकता|
ये सब अहं, प्राण, मन और बुद्धि की सीमाएँ हैं| इनसे परे भी कुछ ना कुछ अवश्य है| मेरी अभीप्सा अनंत है| वह अनन्त परम चैतन्य जो मैं स्वयं हूँ | ॐ ॐ ॐ ||

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ........

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ........
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'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापरः' ........ भगवत्पाद जगद्गुरू शंकराचार्य का यह कथन उनका अपना अनुभव है| उन्होंने समाधी की उच्चतम अवस्था में इस सत्य को अनुभूत किया| जिसने इसे अनुभूत किया उसके लिए तो यह सत्य है, और जो सिर्फ बुद्धि से या पूर्वाग्रह से कह रहा है उसके लिए असत्य है|
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आज के भौतिक विज्ञानी कह रहे हैं कि पदार्थ का कोई अस्तित्व नहीं है, यह घनीभुत उर्जा ही है जो अपनी आवृतियों द्वारा पदार्थ के रूप में व्यक्त हो रही है| किस अणु में कितने इलेक्ट्रोन हैं वे तय करते हैं कि पदार्थ का बाह्य रूप क्या हो| अंततः ऊर्जा भी एक विचार मात्र है ---- सृष्टिकर्ता के मन का एक विचार या संकल्प|
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यह बात वैज्ञानिक दृष्टी से तो सत्य है पर जो इसे नहीं समझता उसके लिए असत्य| आज के वैज्ञानिक तो सत्य अपनी प्रयोगशालाओं में सिद्ध कर रहे हैं उसी सत्य को भारतीय ऋषियों ने समाधी की अवस्था में समझा| इस सत्य को आचार्य शंकर ने चेतना के जिस स्तर को उपलब्ध होकर कहा उसे हम चेतना के उस स्तर पर जाकर ही समझ सकते हैं| बुद्धि द्वारा किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते| धन्यवाद|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||

साधकों के लिए रात्रि को सोने से पहिले का समय सर्वश्रेष्ठ होता है ......

साधकों के लिए रात्रि को सोने से पहिले का समय सर्वश्रेष्ठ होता है .......
इसके लिए तैयारी करनी पडती है .....

(1) सायंकालीन आहार शीघ्र लें |
(2) पूर्व या उत्तर की और मुंह करके बिस्तर पर ही कम्बल के आसन पर बैठकर सद्गुरु, परमात्मा और सब संतों को प्रणाम करें|
(3) सद्गुरु प्रदत्त या इष्ट देव के मन्त्र का तब तक जाप करें जब तक आपका ह्रदय प्रेम से नहीं भर उठे| इतना जाप करें कि आप प्रेममय हो जाएँ| जीवन में एकमात्र महत्व उस प्रेम का ही है जो परमात्मा के प्रति आपके अंतर में है|
(4) मूलाधार से आज्ञाचक्र तक (कुछ दिनों बाद सहस्त्रार तक) और बापस क्रमशः हरेक चक्र पर ओम का मानसिक जाप खूब देर तक करें जब तक आप को संतुष्टि न मिले| समापन आज्ञाचक्र पर ही करें|
(5) अपनी सब चिंताएं और समस्याएँ जगन्माता को सौंपकर निश्चिन्त होकर वैसे ही सो जाएँ जैसे एक बालक माँ की गोद में सोता है| ध्यान रहे आप बिस्तर पर नहीं, माँ की गोद में सो रहे हैं| पूरी रात सोते जागते कैसे भी हो, जगन्माता की प्रेममय चेतना में ही रहें| संसार में जगन्माता को छोड़कर अन्य कोई भी आपका नहीं है| उनका साथ शाश्वत है जो जन्म से पूर्व, मृत्यु के बाद और निरंतर अनवरत आपके साथ है|
(6) प्रातःकाल उठते ही आज्ञाचक्र पर सद्गुरु को प्रणाम कर (गुरु पादुका स्तोत्र में दिये) वाग्भव बीजमंत्र का जाप करें| अनाहत चक्र पर जगन्माता या इष्टदेव का मोहिनी बीजमंत्र या गुरु प्रदत्त मन्त्र के साथ ध्यान करे| साथ साथ आज्ञाचक्र यानि कूटस्थ पर गुरु की चेतना भी बनी रहे|
(7) शौचादि से निवृत होकर कुछ देर व्यायाम करें जैसे टहलना, दौड़ना, सूर्यनमस्कार व महामुद्रा आदि| फिर प्राणायाम जैसे अनुलोम-विलोम आदि कर अपने साधना कक्ष में पूर्व या उत्तर की और मुंह कर कम्बल के आसन पर बैठ जाओ| मेरुदंड सदा उन्नत रहे इसका ध्यान रहे| ध्यान खेचरी मुद्रा में ही करें| यदि खेचरी मुद्रा नहीं भी कर सकते हो तो प्रयासपूर्वक जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखें| धीरे धीरे अभ्यास हो जयेगा और खेचरी भी होने लगेगी| सद्गुरु, इष्टदेव और सब संतों को प्रणाम कर प्रार्थना करें और क्रमशः सब चक्रों पर खूब देर तक ओम का जाप करें| समापन आज्ञाचक्र पर कर वहां खूब देर तक ओम का ध्यान करें| अजपाजाप का अभ्यास करें और गुरु प्रदत्त साधना करें| ध्यान के बाद योनीमुद्रा का अभ्यास करें| चक्रों पर ध्यान के लिए और वैसे भी साधना के लिए भागवत मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है| ध्यान के बाद तुरंत आसन ना छोड़ें, कुछ देर बैठे रहें फिर सद्गुरु को प्रणाम करते हुए सर्वस्व के कल्याण की प्रार्थना के साथ समापन करें|
(8) पूरे दिन भगवान का स्मरण रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही फिर स्मरण शुरू कर दें| मेरुदंड यानि कमर सदा सीधी रखें| याद आते ही कमर सीधी कर लें| दोपहर को यदि समय मिले तो फिर कुछ देर चक्रों में ओम का जाप कर लें| भागवत मन्त्र का यथासंभव खूब जाप करें|
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धीरे धीरे आप की चेतना भगवान से युक्त हो जायेगी| भगवान से उनके प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी न मांगे| उन्हें पता है कि आपको क्या चाहिए| भगवान के पास सब कुछ है पर आपका प्रेम नहीं है जिसके लिए वे भी तरसते हैं| आप भगवान से इतना कुछ माँगते हो, भगवान ने ही आपको सब कुछ दिया है तो क्या आप अपना पूर्ण प्रेम भगवान को नहीं दे सकते?
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ॐ नमः शिवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ ॐ ॐ ||

जीवन एक अनसुलझा रहस्य ..

जीवन एक अनसुलझा रहस्य .......
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जीवन में हम अनेक ऐसे स्वप्न देखते हैं, जो उस समय वास्तविक लगते है| पर समय बीतने पर वे सब बातें स्वप्नवत हो जाती हैं| जीवन में पता नहीं कितने और किस किस तरह के लोगों से मिला, कहाँ कहाँ गया, कहाँ कहाँ रहा, कितने आश्चर्य देखे, कितने विचार आये, कितने संकल्प किये, कितना अभिमान किया, कितनी पीड़ाएँ भोगीं, कितनी खुशियाँ मनाईं, कितनी उपलब्धियाँ मनाईं .......... वे सब अब स्वप्न सी लगती हैं|
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जीवन का रहस्य अभी तक अनसुलझा है| यह यात्रा यों ही चलती रहेगी| वाहन (देह) बदल जाते हैं पर यात्री (प्राणी) वो ही रहता है| सारी खुशियाँ, सारे दुःख, सारी उपलब्धियाँ ... सब स्वप्न हैं| कितनी भी लम्बी यात्रा कर लो पर अंततः यही पाते हैं कि ..... वो ही घोड़ा है और वो ही मैदान है|
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आप सब दिव्यात्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप और आत्मतत्व को भूलना आत्महत्या है ...

भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप और आत्मतत्व को भूलना आत्महत्या है ...
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ब्रह्महत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है| मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से ब्रह्महत्या के दो अर्थ हैं ..... एक तो अपने स्वयं में अन्तस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना, और दूसरा है किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की ह्त्या कर देना| श्रुति भगवती कहती है कि अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देना उसका हनन यानि ह्त्या है| सांसारिक उपलब्धियों को हम अपनी महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दायित्व बना लेते हैं| पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक सेवा कार्य भी हमें करने चाहियें क्योंकि इनसे पुण्य मिलता है, पर इनसे आत्म-साक्षात्कार नहीं होता|
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हमारे कूटस्थ ह्रदय में सच्चिदानन्द ब्रह्म यानि स्वयं परमात्मा बैठे हुए हैं| हम संसार की हर वस्तु की ओर ध्यान देते हैं पर परमात्मा की ओर नहीं| हम कहते हैं कि हमारा यह कर्तव्य बाकी है और वह कर्तव्य बाकी है पर सबसे बड़े कर्तव्य को भूल जाते हैं कि हमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना है| बच्चों की शिक्षा, बच्चों को काम पर लगाना, व्यापार की सँभाल करना आदि आदि में ही जीवन व्यतीत हो जाता है| जो लोग कहते हैं कि हमारा समय अभी तक नहीं आया है, उनका समय कभी आयेगा भी नहीं|
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भगवान को भूलना ब्रह्म-ह्त्या का पाप है| आजकल गुरु बनने और गुरु बनाने का भी खूब प्रचलन हो रहा है| गुरु पद पर हर कोई आसीन नहीं हो सकता| एक ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय और परमात्मा को उपलब्ध हुआ महात्मा ही गुरु हो सकता है जिसे अपने गुरु द्वारा अधिकार मिला हुआ हो| सार कि बात यह कि भगवान को भूलना ब्रह्महत्या है, और भगवान को भूलने वाले ब्रह्महत्या के दोषी हैं जो सबसे बड़ा पाप है|
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मनुष्य योनी में जीव का जन्म होता ही है पूर्ण समर्पण का पाठ सीखने के लिए| अन्य सब बातें इसी का विस्तार हैं| यह एक ही पाठ प्रकृति द्वारा निरंतर सिखाया जा रहा है| कोई इसे देरी से सीखता है, कोई शीघ्र| जो नहीं सीखता है वह इसे सीखने को बाध्य कर दिया जाता है| लोकयात्रा के लिए हमें जो देह रूपी वाहन दिया गया है वह नश्वर और अति अल्प क्षमता से संपन्न है| बुद्धि भी अति अल्प और सिमित है, जो कुबुद्धि ही है| चित्त नित-नूतन वासनाओं से भरा है| अहंकार महाभ्रमजाल में उलझाए हुए है| मन अति चंचल और लालची है| ये सब मिलकर इस मायाजाल में फँसाए हुए है जिसे तोड़ने का पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है| हमें आता जाता कुछ नहीं है पर सब कुछ जानने का झूठा भ्रम पाल रखा है|
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इस लेख के अंत में कुछ विचार प्रस्तुत करता हूँ .......
माता पिता परमात्मा के अवतार हैं, उनका पूर्ण सम्मान करें|
प्रातः और सायं विधिवत साधना करनी चाहिए| निरंतर प्रभु का स्मरण रहे|
गीता के कम से कम पाँच श्लोकों का नित्य पाठ करना चाह्हिए|
कुसंग का सर्वदा त्याग|
कर्ताभाव से मुक्ति|
किसी भी प्रकार के नशे का त्याग|
सात्विक भोजन|
एकाग्रता से अनन्य भक्ति|
वैराग्य और एकांत का अभ्यास|
भगवान का अनन्य भक्त ही ब्राह्मण है| हर श्रद्धालु क्षत्रिय है|
सिर्फ नाम या वस्त्र बदलने से कोई विरक्त नहीं होता|
वैराग्य प्रभु कि कृपा से ही प्राप्त होता है|
गुरुलाभ भी भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है|
संन्यास मन की अवस्था है|
तामसिक साधनाओं से बचें|
साधना के फल का भगवान को अर्पण|
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आप सब को नमन ! ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||


समस्त सृष्टि ही भगवान शिव का नटराज के रूप में नृत्य है .....

समस्त सृष्टि ही भगवान शिव का नटराज के रूप में नृत्य है .....
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निरंतर हो रहे ऊर्जा खण्डों का प्रवाह, परमाणुओं का सृजन और विसर्जन, भगवान नटराज का नृत्य है| मूल रूप से कोई पदार्थ है ही नहीं, सब कुछ ऊर्जा है| उस ऊर्जा के पीछे भी एक विचार है, और उस विचार के पीछे भी एक परम चेतना है| वह परम चेतना और उससे भी परे जो है वह परम शिव है|
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मनुष्य की अति अल्प और सीमित बुद्धि द्वारा परमात्मा अचिन्त्य और अगम्य है| समय समय पर महापुरुषों ने मार्गदर्शन किया है कि परमात्मा के किस रूप का और कैसे ध्यान करना चाहिए|
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ह्रदय में जब परमात्मा के लिए परम प्रेम उत्पन्न होता है तब एक जिज्ञासु साधक को स्वतः ही भगवान से मार्गदर्शन प्राप्त होने लगता है| उसी का हमें अनुशरण करना चाहिए|
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लौकिक रूप से यही कहना उचित है कि अपनी अपनी गुरु-परम्परानुसार ही उपासना करनी चाहिए|
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भगवान् शिव की उपासना सबसे सरल और स्वाभाविक है| हम सब पर भगवान परम शिव की कृपा बनी रहे| शुभ कामनाएँ और नमन !
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

इस सृष्टि में देवासुर संग्राम सदा से चलता आया है .....

इस सृष्टि में देवासुर संग्राम सदा से चलता आया है और निरंतर सदा ही चलता रहेगा| जब तक यह सृष्टि है तब तक हमारे भीतर और बाहर ऐसे ही रहेगा| इस से मुक्त होने के लिए हमें स्वयं की चेतना को ऊपर उठाकर आध्यात्मिक साधना द्वारा इस द्वन्द्व और त्रिगुणात्मक सृष्टि की चेतना से परे जाना होगा| जीव जब तक स्वयं को शिवत्व में स्थापित नहीं कर लेता तब तक इसी द्वंद्व में फँसा रहेगा| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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यह सृष्टि हमारे विचारों का ही घनीभूत रूप है| हम सब के विचार मिल कर ही इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हो रहे हैं| इसी लिए हमारे शास्त्र कहते हैं कि हमारा हर संकल्प शिव संकल्प होना चाहिए, क्योंकि हर संकल्प पूरा अवश्य होता है| हमारे विचार, कामनाएँ, इच्छाएँ आदि पूर्ण अवश्य होती हैं| ये ही हमारे कर्म हैं जिनका फल अवश्य मिलता है| इनसे मुक्त हुए बिना काम नहीं चलेगा| हमारी हरेक समस्याओं के कारण भी हमारे भीतर है और समाधान भी हमारे भीतर ही है|
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शुभ कामनाएँ| हमारा हर संकल्प शिव संकल्प हो| हम जीव से शिव बनें, हम सब को पूर्णता की प्राप्ति हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सम्पूर्ण विश्व में आसुरी शक्तियाँ घृणा और द्वेष उत्पन्न कर रही हैं .....

सम्पूर्ण विश्व में आसुरी शक्तियाँ घृणा और द्वेष उत्पन्न कर समाज व राष्ट्रों को नष्ट करते रहने का कार्य करती रही हैं| विश्व में सारा आतंक और सारे युद्ध इसी कारण हुए हैं| पूरे विश्व का इतिहास ऐसे ही आतताइयों के कारनामों से भरा पडा है|
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जिन्होनें भी अहिंसा, शांति, प्रेम, भाईचारे आदि की बातें की वे सब लोग, समाज और राष्ट्र आतताइयों द्वारा नष्ट कर दिए गए| बड़ी बड़ी बातें कुछ धूर्त असुर लोग दूसरों को ठगने या मूर्ख बनाने के लिए ही करते हैं, जबकि उनका स्वयं का जीवन कुटिलता और असत्य से भरा होता है|
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क्या कहीं कोई ऐसी व्यवस्था भी है जहाँ किसी भी प्रकार का कोई दैविक, देहिक व भौतिक ताप यानि कष्ट न हो, जहाँ कोई अत्याचार और अन्याय न हो?
क्या राम राज्य की परिकल्पना यथार्थ के धरातल पर सत्य हो सकती है?
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मैं तो इस बाहरी संसार में सत तत्त्व का अभाव पाता हूँ| इतनी विशाल सृष्टि में क्या हमारा सिर्फ भौतिक अस्तिव ही है? इससे परे भी कुछ ना कुछ तो होगा ही? क्या हम घृणा, ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार से मुक्त हो सकते हैं?
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सत्य क्या है और कैसे हम उसे उपलब्ध हो सकते हैं? इस पर हमें विचार करना चाहिए| अपने कल्पित दृढ़ विश्वासों और अथाह लोभ-लालच ने मनुष्य के हृदयों को बाँट रखा है| अधिकाँश मनुष्य अपनी स्वनिर्मित मिथ्या धारणाओं की दीवारों की कैद के पीछे रहते हुए परमात्मा की सर्वव्यापकता को विस्मृत कर चुके हैं| इस संसार में जहाँ हम रहते हैं, वह चाहे कैसा भी हो, कितनी भी विषमताएँ उसमें हों, पर हमें तो उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ ही करना है जहाँ तक हमारी क्षमता है| बाकी सब सृष्टिकर्ता की इच्छा है| राग-द्वेष, घृणा और अहंकार से भरे हुए इस विश्व में हमारी भूमिका यही हो सकती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ॐ ॐ ॐ ||

हमें पानीपत के तृतीय युद्ध वाली मानसिकता से बाहर आना ही होगा .....

हमें पानीपत के तृतीय युद्ध वाली मानसिकता से बाहर आना ही होगा .....
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पानीपत का तृतीय युद्ध अति शक्तिशाली मराठा सेना अपने सेनापति की अदूरदर्शिता और गलत निर्णय के कारण हारी थी| वह हिन्दुओं की एक अत्यंत भयावह पराजय थी| पर उससे हमने कोई सबक नहीं लिया, और वे ही भूलें हम अब तक करते आये हैं| चीन से युद्ध भी हम उसी भूल से हारे| कारगिल के युद्ध में भी वही भूल हमने नियंत्रण रेखा को पार नहीं कर के की, पर सौभाग्य से हम विजयी रहे| कश्मीर की समस्या का हल भी हम अपनी यथास्थितिवादी मानसिकता के कारण नहीं कर पाए हैं| अब पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक कर के हमने अपनी भूल सुधारी है, और यथास्थितिवादी मानसिकता से बाहर निकलने का प्रयास किया है|
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पानीपत के तृतीय युद्ध में अगर मराठा सेना आगे बढकर पहले आक्रमण करती तो निश्चित रूप से विजयी होतीं और पूरे भारत पर उनका राज्य होता| युद्धभूमि में जो पहले आगे बढकर आक्रमण करता है पलड़ा उसी का भारी रहता है| उनको पता था कि आतताई अहमदशाह अब्दाली कुछ अन्य नवाबों की फौजों के साथ सिर्फ विध्वंश और लूटने के उद्देश्य से आ रहा है| उन्हें आगे बढ़कर मौक़ा मिलते ही उसे नष्ट कर देना चाहिए था| अन्य हिन्दू राजाओं से भी सहायता माँगनी चाहिए थी| पर मराठा सेना उसके यमुना के इस पार आने की प्रतीक्षा करती रहीं| अब्दाली निश्चिन्त था कि जब तक मैं नदी के उस पार नहीं जाऊंगा मराठा सेना आक्रमण नहीं करेगी| उसने कब और कैसे नदी पार की मराठों को पता ही नहीं चला और ऐसे अवसर पर आक्रमण किया जब मराठा सेना असावधान और निश्चिन्त थीं| मराठों को सँभलने का अवसर भी नहीं मिला|

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कारगिल के युद्ध में भी वाजपेयी जी ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि हम काल्पनिक नियंत्रण रेखा को किसी भी स्थिति में पार नहीं करेंगे| पकिस्तान तो निश्चिन्त हो गया था कि भारत किसी भी परिस्थिति में नियंत्रण रेखा को पार नहीं करेगा| यह हमारी मुर्खता थी| यदि हमारी सेना नियंत्रण रेखा को पार कर के आक्रमण करती तो न तो हमारे इतने सैनिक मरते और न युद्ध इतना लंबा चलता|
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कश्मीर की समस्या का स्थायी समाधान करने का प्रयास भी हमने कभी किया ही नहीं| बस यथास्थिति बनाए रखी| अब कश्मीर की समस्या का स्थायी समाधान करने का ईमानदारी और कठोरता से प्रयास आरम्भ हुआ है|
मुझे पूरी आशा है कि अब जो भी होगा वह अच्छा ही होगा, क्योंकि कालचक्र की गति भारत के पक्ष में है|
ॐ ॐ ॐ ||

१८ फरवरी १९४६ का नौसैनिक विद्रोह .....

१८ फरवरी १९४६ के दिन एक अति महत्वपूर्ण घटना भारत के इतिहास में हुई थी, जिसने भारत से अंग्रेजों को भागने को बाध्य कर दिया था| यह भारतीयों के जनसंहारकारी अंग्रेजी राज के कफन में आख़िरी कील थी| इस घटना के इतिहास को स्वतंत्र भारत में छिपा दिया गया और विद्यालयों में कभी पढ़ाया नहीं गया|
अगस्त १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन पूर्ण रूपेण विफल हो गया था| अंग्रेजों ने उसे हिंसात्मक रूप से कुचल दिया था| गांधी जी की नीतियों ने पूरे भारत में एक भ्रम उत्पन्न कर दिया था और उनके द्वारा तुर्की के खलीफा को बापस गद्दी पर बैठाए जाने के लिए किये गए खिलाफत आन्दोलन ने भारत में विनाश ही विनाश किया| उसकी प्रतिक्रियास्वरूप केरल में मोपला विद्रोह हुआ और लाखों हिन्दुओं की हत्याएँ हुई| गाँधी ने उन हत्यारों को स्वतंत्रता सेनानी कहा| पकिस्तान की मांग भी भयावह रूप से तीब्र हो उठी|
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भारत स्वतंत्र हुआ इसका कारण था कि ..... द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अंग्रेजी सेना की कमर टूट गयी थी और वह भारत पर नियंत्रण करने में असमर्थ थी| भारतीय सिपाहियों ने अन्ग्रेज़ अधिकारियों के आदेश मानने से मना कर दिया था और नौसेना ने विद्रोह कर दिया जिससे अँगरेज़ बहुत बुरी तरह डर गए और उन्होंने भारत छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी|
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यहाँ मैं माननीय श्री विश्वजीत सिंह जी के द्वारा लिखे इस लेख को यों का यों उद्धृत कर रहा हूँ ......
इंडियन नेवी का मुक्ति संग्राम और भारत की स्वतंत्रता .....
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस व आजाद हिन्द फौज द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने 18 फरवरी 1946 को एचआईएमएस तलवार नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया था । उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की|
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नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई , कोलकात्ता , रंगून और कराँची तक फैल गया । महानगर , नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया । उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा । स्थान - स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी । ऐसे समय में भारतीय नेताओं ने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड रहे उन वीर सैनिकों का कोई साथ नहीं दिया , जबकि देश की आम जनता ने उन सैनिकों को पूरा सहयोग दिया । क्रान्तिकारी नौसैनिकों के नेतृत्वकर्ता ' श्री बी. सी. दत्त ' ने खेद प्रकट किया कि उनकों प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिए कोई राष्ट्रीय नेता उनके पास नहीं आया , राष्ट्रीय नेता केवल अंग्रेजों के साथ लम्बी वार्ता करने में तथा सत्रों व बैठकों के आयोजन में विश्वास रखते है । उनसे क्रान्तिकारी कार्यवाही की कोई भी आशा नहीं की जा सकती ।
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नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना ने निन्दा की थी व जवाहरलाल नेहरू ने अपने को नौसैनिक मुक्ति संग्राम से अलग कर लिया था । मोहनदास जी गांधी जो उस समय पुणे में थे तथा जिन्हें इंडियन नेवी के मुक्ति संग्राम से हिंसा की गंध आती थी , उन्होंने नेवी के सैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला , अपितु इसके विपरीत उन्होंने वक्तव्य दे डाला कि -
" यदि नेवी के सैनिक असन्तुष्ठ थे तो वे त्यागपत्र दे सकते थे । "
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क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था ? जो लोग देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों पर खेलते थे , जो लोग कोल्हू में बैल की तरह जोते गये , नंगी पीठ पर कोडे खाए , भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झुल गये क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था ?
इंडियन नेवी के क्षुब्ध सैनिकों ने राष्ट्रीय नेताओं के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा कि -
" हमने रॉयल इंडियन नेवी को राष्ट्रीय नेवी में परिवर्तित पर दिया है , किन्तु हमारे राष्ट्रीय नेता इसे स्वीकार करने को तैयार नही है । इसलिए हम स्वयं को कुण्ठित और अपमानित अनुभव कर रहे है । हमारे राष्ट्रीय नेताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया ने हमको अंग्रेज नेवी अधिकारियों से अधिक धक्का पहुँचाया है । "
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भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया , लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जडे हिला दी और अंग्रेजों के दिलों को भय से भर दिया । अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता , भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर 1857 का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा , अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है ।
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तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी । 1947 में ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि -
" हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे । "
( दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ - 125 , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा )
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नेताजी सुभाष से प्रेरणाप्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था । इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री ' लार्ड ' एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ' पी. बी. चक्रवर्ती ' जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है ।
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जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे - सीधे पूछा कि " गांधी का अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन तो 1947 से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय भारतीय स्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों को भारत छोडना आवश्यक हो जाए , तब आपने ऐसा क्यों किया ? "
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तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया , जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण " इंडियन नेवी का विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना , थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था । "
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अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि " गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम् ही रहा । "
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एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है -
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम - 3 , लेखक - डॉ. आर. सी. मजूमदार ।
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका - गिरिजा के. मुखर्जी ।
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा ।
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- विश्वजीतसिंह
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पुनश्चः :- आज़ादी हमें कोई चरखा चलाकर या अहिंसा से नहीं मिली| इस आज़ादी के पीछे लाखों लोगों का बलिदान था| नेहरु और जिन्ना दोनों ही अंग्रेजों के हितचिन्तक थे जिन्हें गांधी की मूक स्वीकृति थी| भारत से अँगरेज़ गए और जाते जाते अपने ही मानस पुत्रों .... नेहरु और जिन्ना को सत्ता सौंप गए| जितना अधिकतम भारत का विनाश वे कर सकते थे उतना विनाश जाते जाते भी कर गए|
वन्दे मातरं | भारत माता की जय |

हे जगन्माता, हे भगवती, मैं पूर्ण रूप से तुम्हारी कृपा पर आश्रित हूँ ....

हे जगन्माता, हे भगवती, मैं पूर्ण रूप से तुम्हारी कृपा पर आश्रित हूँ| धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कुछ भी मेरी क्षमता में नहीं है| मेरे में न तो कोई विवेक है और न शक्ति| अब मेरे वश में कुछ भी नहीं है| जो करना है वह तुम ही करो, मैं तुम्हारी शरणागत हूँ| सत्य-असत्य, नित्य-अनित्य आदि का मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है| अपनी सृष्टि के लिए इस देह का जो भी उपयोग करना चाहो वह तुम ही करो| मेरी कोई इच्छा नहीं है| तुम चाहो तो इस देह को इसी क्षण नष्ट कर सकती हो| मेरी करुण पुकार तुम्हें सुननी ही होगी|
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हे भगवती, तुम्ही एकमात्र कर्ता हो| तुम्हीं इन पैरों से चल रही हो, इन हाथों से तुम्हीं कार्य कर रही हो, इस ह्रदय में तुम्हीं धड़क रही हो, ये साँसें भी तुम्ही ले रही हो, इन विचारों से जगत की सृष्टि संरक्षण और संहार भी तुम्ही कर रही हो| हे जगन्माता, तुम ही यह 'मैं' बन गयी हो| यह पानी का बुलबुला तुम्हारे ही अनंत महासागर में तैर रहा है| इसे अपने साथ एक करो| इस बुलबुले में कोई स्वतंत्र क्षमता नहीं है|
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हे भगवती, इस जीवन में मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ और जहाँ कहीं भी गया हूँ, तुम्हारे ही विभिन रूपों से मिला हूँ, तुम्हारे में ही विचरण करता आया हूँ, अन्य कोई है ही नहीं| यह 'मैं' होना एक भ्रम है, इस पृथकता के बोध को समाप्त करो| हे भगवती, तुम ही यह 'मैं' बन गयी हो, अब तुम्हारा ही आश्रय है, तुम ही मेरी गति हो|
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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||

हम स्वयं इतने ज्योतिर्मय बनें कि हमारे समक्ष कोई असत्य और अंधकार टिक ही नहीं सके .....

हम स्वयं इतने ज्योतिर्मय बनें कि
हमारे समक्ष कोई असत्य और अंधकार टिक ही नहीं सके .....
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भगवान भुवन भास्कर जब अपने पथ पर अग्रसर होते हैं तब मार्ग में कहीं भी कैसे भी तिमिर का कोई अवशेष मात्र भी नहीं मिलता| हम भी ब्रह्मतेज से युक्त होकर इतने ज्योतिर्मय बनें कि हमारे मार्ग में हमारे समक्ष भी कहीं कोई अन्धकार और असत्य की शक्ति टिक ही न सके| हमारे जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा बने, और परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हम में हो|
ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

भारत को किसी भी परिस्थिति में वर्गसंघर्ष से बचना होगा ...

भारत को किसी भी परिस्थिति में वर्गसंघर्ष से बचना होगा .....
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वर्गसंघर्ष का अर्थ है समाज के एक वर्ग को दूसरे वर्ग से लड़ा देना| वर्गसंघर्ष की परिणिति ही गृहयुद्ध होता है जिसका लाभ विदेशी आक्रान्ताओं को मिलता है| भारतवर्ष में एक लम्बे समय से बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, अगड़ा-पिछड़ा-अतिपिछड़ा, मनुवाद-ब्राह्मणवाद, साम्प्रदायिक-धर्मनिरपेक्ष, गुलाम-आज़ाद, शोषक-दलित, आदि नामों से नए वर्गों की रचना कर उन्हें आपस में लड़ाने व गृहयुद्ध का षड्यंत्र रचा जाता रहा है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं की वर्ण-व्यवस्था स्वयं उनकी यानि परमात्मा की रचना है| मनुष्य के स्वाभाविक रूप से चार ही वर्ण हैं, अर्थात चार ही तरह के लोग हैं| मनु ने यह भी लिखा है कि जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शुद्र होता है और संस्कारों व कर्मों से ऊपर उठता है| ब्राह्मण भी यदि तीन दिन तक संध्या न करे तो वह शुद्र बन जाता है|
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भगवान हमारी रक्षा करें........ कहीं भारत में गृहयुद्ध करवाने का आसुरी षड्यंत्र सफल न हो जाए| जय श्रीराम ! जयश्रीराम ! जय श्री राम !
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||

यह "मनुवाद" क्या है ? ......

यह "मनुवाद" क्या है ? ......
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एक समय था जब साम्यवादी (मार्क्सवादी) लोग किसी को गाली देते तो उसको "प्रतिक्रियावादी", "पूंजीवादी", "फासिस्ट" और "बुर्जुआ" आदि शब्दों से विभूषित करते| ये उनकी बड़ी से बड़ी गालियाँ थीं| किसी की प्रशंसा करते तो उसको "प्रगतिवादी"और 'मानवतावादी" कहते|

फिर समय आया जब कोंग्रेसी लोग किसी को गाली देते तो उसको "साम्प्रदायिक" कहते| किसी की प्रशंसा में उनका सबसे बड़ा शब्द था ... "धर्मनिरपेक्ष"|

भारतीय जनसंघ (वर्तमान भाजपा) वाले जब साम्यवादियों को गाली देते तो "पंचमांगी" कहते, जो उनकी बड़ी से बड़ी गाली थी|

फिर एक शब्द चला ..... "समाजवादी" जिसको कभी कोई परिभाषित नहीं कर पाया| जहाँ तक मुझे याद है इस शब्द को लोकप्रिय डा.राममनोहर लोहिया ने किया था, फिर श्रीमती इंदिरा गाँधी को भी यह अत्यंत प्रिय था, जिन्होंने संविधान संशोधित कर भारत को समाजवादी धर्मनिरपेक्ष देश घोषित कर दिया| आजकल समाजवादी बोलते ही श्री मुलायम सिंह यादव की छवि सामने आती है| फिर और भी कई वाद चले जैसे "राष्ट्रवाद", "बहुजन समाजवाद" आदि|

पर आजकल एक नई गाली और एक नया वाद चला है और वह है ..... "मनुवाद"|
आजकल चाहे "बहुजन समाजवादी" हों या कांग्रेसी हों, किसी की भी बुराई करते हैं तो उसे "मनुवादी" कहते हैं|
मैं मनुस्मृति को पिछले पचास वर्षों से पढ़ता आया हूँ| उस पर लिखे अनेक विद्वानों के भाष्य भी पढ़े हैं| मनुस्मृति भारत में हज़ारों वर्षों तक एक संविधान की तरह रही है| मुझे तो उसमें कहीं कोई बुराई नहीं दिखी| वह तो सृष्टि के आदि से है| हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए अंग्रेजों ने उसमें कई बातें प्रक्षिप्त कर दी थीं| पर उन प्रक्षिप्त अंशों को निकाला जा रहा है| मनु महाराज तो एक क्षत्रिय राजा थे जिन्होंने एक नई सर्वमान्य व्यवस्था दी जो हज़ारों वर्षों से हैं| उसमें कहीं भी कोई जातिवाद या भेदभाव वाली बात नहीं है|

पता नहीं आजकल के इन तथाकथित राजनयिकों को मनुस्मृति का अध्ययन किये बिना ही उसमें क्या "जातिवाद" या "सम्प्रदायवाद" दिखाई दे रहा है जो किसी की निंदा करने के लिए "जातिवादी" "साम्प्रदायिक" और "मनुवादी" कहते हैं|

सादर धन्यवाद|
जय श्रीराम जय श्रीराम जय श्रीराम!

सनातन वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना के लिए ही भारत का अस्तित्व है .....

सनातन वैदिक धर्म की सम्पूर्ण विश्व में पुनर्प्रतिष्ठा यानि पुनर्स्थापना के लिए ही भारतवर्ष का अस्तित्व अब तक बचा हुआ है| यह एक ऐसा कार्य है जिसे पूरा करना भारतवर्ष की ही नियती में है|
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परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम, शरणागति, समर्पण, आत्मसाक्षात्कार और समष्टि के कल्याण की भावना सिर्फ सनातन धर्म में ही है| आध्यात्म और विविध दर्शन शास्त्रों का प्राकट्य जितना यहाँ हुआ है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है|
बुरे से बुरा समय बीत चुका है| आने वाला समय अब अच्छे से अच्छा ही होगा|
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जब तक भारतवर्ष में आध्यात्म, भक्ति, परमात्मा के प्रति समर्पण और स्वधर्म की चेतना है तब तक भारत भारत ही रहेगा| हमें आवश्यकता है एक ब्रह्मतेज की जो अनेक साधकों की साधना से ही प्रकट होगा|
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मैं पूर्ण ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ कि भगवान हम सब का कल्याण करें, हमारी अज्ञानता की ग्रंथियों का नाश करें, उनके स्वरुप का हमें बोध हो, और उनकी पूर्ण कृपा हम पर हो| हम सब के हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित हो|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !