सम्पूर्ण विश्व में आसुरी शक्तियाँ घृणा और द्वेष उत्पन्न कर समाज व
राष्ट्रों को नष्ट करते रहने का कार्य करती रही हैं| विश्व में सारा आतंक
और सारे युद्ध इसी कारण हुए हैं| पूरे विश्व का इतिहास ऐसे ही आतताइयों के
कारनामों से भरा पडा है|
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जिन्होनें भी अहिंसा, शांति, प्रेम, भाईचारे आदि की बातें की वे सब लोग, समाज और राष्ट्र आतताइयों द्वारा नष्ट कर दिए गए| बड़ी बड़ी बातें कुछ धूर्त असुर लोग दूसरों को ठगने या मूर्ख बनाने के लिए ही करते हैं, जबकि उनका स्वयं का जीवन कुटिलता और असत्य से भरा होता है|
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क्या कहीं कोई ऐसी व्यवस्था भी है जहाँ किसी भी प्रकार का कोई दैविक, देहिक व भौतिक ताप यानि कष्ट न हो, जहाँ कोई अत्याचार और अन्याय न हो?
क्या राम राज्य की परिकल्पना यथार्थ के धरातल पर सत्य हो सकती है?
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मैं तो इस बाहरी संसार में सत तत्त्व का अभाव पाता हूँ| इतनी विशाल सृष्टि में क्या हमारा सिर्फ भौतिक अस्तिव ही है? इससे परे भी कुछ ना कुछ तो होगा ही? क्या हम घृणा, ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार से मुक्त हो सकते हैं?
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सत्य क्या है और कैसे हम उसे उपलब्ध हो सकते हैं? इस पर हमें विचार करना चाहिए| अपने कल्पित दृढ़ विश्वासों और अथाह लोभ-लालच ने मनुष्य के हृदयों को बाँट रखा है| अधिकाँश मनुष्य अपनी स्वनिर्मित मिथ्या धारणाओं की दीवारों की कैद के पीछे रहते हुए परमात्मा की सर्वव्यापकता को विस्मृत कर चुके हैं| इस संसार में जहाँ हम रहते हैं, वह चाहे कैसा भी हो, कितनी भी विषमताएँ उसमें हों, पर हमें तो उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ ही करना है जहाँ तक हमारी क्षमता है| बाकी सब सृष्टिकर्ता की इच्छा है| राग-द्वेष, घृणा और अहंकार से भरे हुए इस विश्व में हमारी भूमिका यही हो सकती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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जिन्होनें भी अहिंसा, शांति, प्रेम, भाईचारे आदि की बातें की वे सब लोग, समाज और राष्ट्र आतताइयों द्वारा नष्ट कर दिए गए| बड़ी बड़ी बातें कुछ धूर्त असुर लोग दूसरों को ठगने या मूर्ख बनाने के लिए ही करते हैं, जबकि उनका स्वयं का जीवन कुटिलता और असत्य से भरा होता है|
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क्या कहीं कोई ऐसी व्यवस्था भी है जहाँ किसी भी प्रकार का कोई दैविक, देहिक व भौतिक ताप यानि कष्ट न हो, जहाँ कोई अत्याचार और अन्याय न हो?
क्या राम राज्य की परिकल्पना यथार्थ के धरातल पर सत्य हो सकती है?
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मैं तो इस बाहरी संसार में सत तत्त्व का अभाव पाता हूँ| इतनी विशाल सृष्टि में क्या हमारा सिर्फ भौतिक अस्तिव ही है? इससे परे भी कुछ ना कुछ तो होगा ही? क्या हम घृणा, ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार से मुक्त हो सकते हैं?
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सत्य क्या है और कैसे हम उसे उपलब्ध हो सकते हैं? इस पर हमें विचार करना चाहिए| अपने कल्पित दृढ़ विश्वासों और अथाह लोभ-लालच ने मनुष्य के हृदयों को बाँट रखा है| अधिकाँश मनुष्य अपनी स्वनिर्मित मिथ्या धारणाओं की दीवारों की कैद के पीछे रहते हुए परमात्मा की सर्वव्यापकता को विस्मृत कर चुके हैं| इस संसार में जहाँ हम रहते हैं, वह चाहे कैसा भी हो, कितनी भी विषमताएँ उसमें हों, पर हमें तो उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ ही करना है जहाँ तक हमारी क्षमता है| बाकी सब सृष्टिकर्ता की इच्छा है| राग-द्वेष, घृणा और अहंकार से भरे हुए इस विश्व में हमारी भूमिका यही हो सकती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
ॐ ॐ ॐ ||
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