Thursday, 14 April 2022

सफलताओं के बीज बोये जा चुके हैं, विफलताओं का मौसम, लौट कर बापस नहीं आना चाहिए ---

सफलताओं के बीज बोये जा चुके हैं, विफलताओं का मौसम, लौट कर बापस नहीं आना चाहिए ---
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हर समय विपरीत परिस्थितियों का प्रतिकार करते रहें। हमें किंचित भी निराश या विचलित नहीं होना चाहिए। कभी-कभी समय भी कुछ खराब चल रहा होता है। निराशा की कोई बात नहीं है। जैसे व्यक्तिगत कर्मफल होते हैं, उसी तरह सामूहिक कर्मफल भी होते हैं, जिन का परिणाम हमें भुगतना ही पड़ता है।
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जो भी समय हमारे पास है, उसमें हमें धैर्यपूर्वक अपना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक बल निरंतर बढाते रहना चाहिए। हमारी आध्यात्मिक शक्ति निश्चित रूप से हमारी रक्षा करेगी। किसी से भी कोई अपेक्षा न रखें। जो करना है वह स्वयं ही करें। हर अपेक्षा दुःखदायी होती है, चाहे वह स्वयं से ही क्यों न हो।
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विफलताओं का मौसम अब लौट कर बापस नहीं आना चाहिए। सफलताओं के बीज बोये जा चुके हैं। हम अपने जीवन काल में ही देखेंगे कि भारत में एक परम वैभवशाली आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र का निर्माण होगा, जहाँ की राजनीति सत्य सनातन धर्म होगी। यह कार्य और किसी से नहीं, हम सब के सामूहिक प्रयासों से होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
१४ अप्रेल २०२१

हम प्रकृति से ऊपर उठें, और परमात्मा के साथ एक हों, तभी हमारा जीवन सार्थक है, अन्यथा नहीं ---

हमारा स्वभाव ही हमारी प्रकृति है, जो हमारे पूर्वजन्मों के कर्मफलों का परिणाम है। हम प्रकृति से ऊपर उठें, और परमात्मा के साथ एक हों, तभी हमारा जीवन सार्थक है, अन्यथा नहीं ---

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"अपेक्षा" सदा दुःखदायी होती है, चाहे वह स्वयं से ही क्यों न हो। "आशा" और "तृष्णा" भी अपेक्षा का ही एक सूक्ष्म रूप है। आशा, निराशा और तृष्णा -- इन सब से ऊपर हमें उठना ही पड़ेगा। पूर्वजन्मों के संस्कारों से हमारे स्वभाव का निर्माण होता है। हमारा स्वभाव ही हमारी प्रकृति है। जैसी हमारी प्रकृति होगी, वैसा ही कार्य हमारे द्वारा संपादित होगा।
गीता में भगवान कहते हैं --
"सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३:३३॥
अर्थात् ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं, फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा।
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अपने उपास्य के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित होकर, नित्य नियमित उपासना से ही कुछ सार्थक कार्य हम कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। परमात्मा सब बंधनों से परे हैं, और उनमें ही समस्त स्वतन्त्रता है। हम उन के साथ एक हों, कहीं भी कोई भेद नहीं रहे, तभी हमारे सभी कार्य सार्थक होंगे।
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हमारी ज्ञान की बातों से, और उपदेशों से, जब तक ईश्वर की इच्छा नहीं हो, किसी को कोई भी लाभ नहीं पहुँचता है। यह समय की बर्बादी है। हर मनुष्य अपने अपने स्वभाव के अनुसार ही चलेगा, चाहे उसे कितने भी उपदेश दो। थोड़ी सी भी अपेक्षा, -- निराशाओं को ही जन्म देगी।
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यह सृष्टि, परमात्मा के संकल्प से प्रकृति के नियमों के अनुसार चल रही है। प्रकृति अपने नियमों का पालन बड़ी कठोरता से करती है। हमारी दृढ़ संकल्प शक्ति ही हमारी प्रार्थना हो। हम प्रकृति से ऊपर उठें, और परमात्मा के साथ एक हों, तभी हमारा जीवन सार्थक है, अन्यथा नहीं।
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ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अप्रेल २०२१

परमात्मा कौन है? ---

 परमात्मा कौन है?

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हमने परमात्मा के बारे में तरह तरह की विचित्र कल्पनाएँ कर रखी हैं। परमात्मा -- अपने हाथ में डंडा लेकर किसी बड़े सिंहासन पर बैठा अकौकिक पुरुष नहीं है, जो अपनी संतानों को दंड और पुरस्कार दे रहा है। परमात्मा बुद्धि की समझ से परे अचिन्त्य है। उसकी अनुभूतियाँ उसकी कृपा से ही हो सकती हैं।
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यह सृष्टि परमात्मा का एक विचार मात्र है। हम भी परमात्मा के अंश हैं, अतः हमारे चारों ओर की सृष्टि हमारे विचारों का ही घनीभूत रूप है। हमारे विचार और सोच ही हमारे कर्म हैं। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही हमारे चारों ओर घटित होने लगता है, वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हो जाता है।
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उस परम-तत्व से एकाकार होकर उसके संकल्प से जुड़कर ही हम कुछ सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। उस परम तत्व से जुड़ना ही सबसे बड़ी सेवा है जो कोई किसी के लिए कर सकता है।
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परमात्मा तो एक अगम अचिन्त्य परम चेतना है। हम उससे पृथक नहीं हैं। वह ही यह लीला खेल रहा है। कुछ लोग यह सोचते हैं कि परमात्मा ही सब कुछ करेगा और वह ही हमारा उद्धार करेगा। पर ऐसा नहीं है। हमारी उन्नत आध्यात्मिक चेतना ही हमारी रक्षा करेगी। यह एक ऐसा विषय है जिस पर चर्चा मात्र से कोई लाभ नहीं है।
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परमात्मा की ओर चलने के लिए जो मार्ग है, वह है -- सत्संग, परमप्रेम, शरणागति और समर्पण का। सत्संग, भक्ति और नियमित साधना करने से मार्गदर्शन मिलता है, पर यह सब हम को स्वयं करना पड़ता है, वैसे ही जैसे प्यास लगने पर पानी स्वयं को ही पीना पड़ता है। दूसरे के पानी पीने से स्वयं की प्यास नहीं बुझती। कोई दूसरा हमें मुक्त करने नहीं आएगा। अपनी मुक्ति का मार्ग स्वयं को ही ढूंढना पड़ेगा।
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कोई भी शैतान, जिन्न, भूत-प्रेत, या दुरात्मा, हम को तब तक प्रभावित नहीं कर सकता; जब तक हम स्वयं ही यह नहीं चाहें। सारे दु:ख और कष्ट आते ही हैं, व्यक्ति को यह याद दिलाने के लिए कि वह गलत दिशा में जा रहा है। अपनी परिस्थितियों के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं, और स्वयं के प्रयास से ही मुक्त हो सकते हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१४ अप्रेल २०१६