Friday 6 September 2024

"जो व्यक्ति परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हो जाता है, उसका कोई लौकिक कर्तव्य बाकी नहीं रहता, वह कृतकृत्य और कृतार्थ है" ---

"जो व्यक्ति परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हो जाता है, उसका कोई लौकिक कर्तव्य बाकी नहीं रहता, वह कृतकृत्य और कृतार्थ है।" परमात्मा को पूरी तरह समर्पित हो जाना हमारा सर्वोपरी कर्तव्य है। ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व ही पूरी मनुष्यता के लिए एक वरदान है। वह पृथ्वी पर चलता-फिरता देवता है। जहाँ भी उसके चरण पड़ते हैं, वह भूमि धन्य और सनाथ हो जाती है।
अपनी बात के समर्थन में मैं गीता में भगवान श्रीकृष्ण को उद्धृत करता हूँ --
"यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३:१७॥"
"नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३:१८॥"
अर्थात् - "परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमने वाला आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं रहता॥"
"इस जगत् में उस पुरुष का कृत और अकृत से कोई प्रयोजन नहीं है और न वह किसी वस्तु के लिये भूतमात्र पर आश्रित होता है॥"
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ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व ही हमारे लिए एक वरदान है। रामचरितमानस के सुंदरकांड में हनुमान जी - सीता जी को कहते हैं --
"बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥
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कृतकृत्य और कृतार्थ -- इन दो शब्दों में सूक्ष्म भेद है। हम कृतकृत्य और कृतार्थ -- दोनों ही एक साथ हो सकते हैं। जो अपना विलय (समर्पण) परमात्मा में कर देते हैं, और परमात्मा में ही निरंतर रमण करते हैं, वे आत्माराम हो जाते हैं --
"यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।"
यह नारद भक्ति सूत्र के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है, जो भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है। उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है। शाण्डिल्य सूत्रों में भी इस बात का अनुमोदन किया गया है। जो भी व्यक्ति अपनी आत्मा में रमण करता है उसके लिये "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता।
उसके योगक्षेम की चिंता - गीता के अनुसार स्वयं भगवान करते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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जिन लोगों में रजोगुण प्रधान होता है, वे सिर्फ कर्मयोग को ही समझ सकते हैं। आजकल के कर्मयोगी दूसरों को अज्ञानी और मूर्ख समझते हैं। भक्ति और ज्ञान को समझना उनके वश की बात नहीं है, फिर भी वे स्वयं को महाज्ञानी समझते हैं।
भक्तियोग और ज्ञानयोग को समझ पाना सतोगुण से ही संभव है।
तमोगुण प्रधान व्यक्ति को तो सिर्फ मारकाट या "जैसे को तैसा" की बात ही समझ में आ सकती है, उससे अधिक कुछ नहीं।
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परमात्मा को मैं उनकी समग्रता में नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० अगस्त २०२४

हमारा सबसे बड़ा शत्रु और सबसे बड़ा मित्र कौन है? ---

 हमारा सबसे बड़ा शत्रु और सबसे बड़ा मित्र कौन है?

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आप सब का अभिनंदन और अभिवादन॥ इस समय हम विचार कर रहे हैं कि हमारे सबसे बड़े शत्रु और मित्र कौन हैं। इस विषय पर मुंडकोपनिषद, योगदर्शन, और श्रीमद्भगवद्गीता में मार्गदर्शन उपलब्ध है।
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सार रूप में -- "आध्यात्मिक, मानसिक, और भौतिक", हर स्तर पर "आत्मरक्षा" और "आत्मोत्थान" -- हमारे सबसे बड़े कर्तव्य और सबसे बड़े दायित्व हैं। हमारे अपने स्वयं के बुरे विचार ही हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं, और हमारे अपने स्वयं के अच्छे विचार ही हमारे सबसे बड़े मित्र हैं।
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हमारे विचारों में काम-वासना और लोभ -- हमारे पतन के मुख्य कारण हैं। ये हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं। इनसे हम अपनी निरंतर रक्षा करें। फिर हमारे चारों ओर का वातावरण भी हमारे अनुकूल हो। इसका भी निरंतर प्रयास करें। परमात्मा को स्वयं में व्यक्त करने की अभीप्सा हमारी सबसे बड़ी मित्र है।
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हमारा सबसे बड़ा अहित तो हमारे धर्म-निरपेक्ष, नास्तिक और अधर्मी शासकों ने किया है, जिन्होंने धर्म-शिक्षा से हमें वंचित कर रखा है। यही हमारे विनाश का सबसे बड़ा कारण होगा। अधर्म से हम अपनी रक्षा करें। हमारी रक्षा हमारा धर्म ही कर सकता है। धर्म एक ही है, अनेक नहीं। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३१ अगस्त २०२४

श्रीराधा कृष्ण कौन हैं ?

(१) जिन्होंने इस सम्पूर्ण सृष्टि को धारण कर रखा है, उस परा शक्ति का नाम श्रीराधा है। उनके संकल्प से सारी सृष्टि संचालित है। वे घनीभूत प्राण-तत्व के रूप में अनुभूत होती हैं। पूरे ब्रह्मांड में वे सारी सृष्टि की प्राण हैं।

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(२) जिन्हें हम वेदान्त में ब्रह्म कहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण ही साकार रूप में वे परमब्रह्म, परमशिव हैं। उनकी अनुभूति आकाश-तत्व और परमप्रेम के रूप में होती है।
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(3) कुंडलिनी महाशक्ति का जागृत होकर परमशिव से मिलन ही --- श्रीराधाकृष्ण का मिलन है। इसे समाधि की अवस्था में ही समझा जा सकता है।
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(४) भगवान श्रीकृष्ण त्रिभंग मुद्रा में खड़े होकर बांसुरी बजा रहे हैं। उनका यह बांसुरी बजाना नए सृजन का प्रतीक है। बांसुरी बजाकर वे नई सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं। उनकी त्रिभंग मुद्रा एक रूपक है, जो अज्ञान की तीनों ग्रंथियों -- रुद्रग्रंथि (मूलाधारचक्र), विष्णुग्रंथि (अनाहतचक्र), और ब्रह्मग्रंथि (आज्ञाचक्र) के भेदन का प्रतीक है। अज्ञान की इन तीनों ग्रंथियों का भेदन किए बिना परमब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती।
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ सितंबर २०२४

लैपटॉप और मोबाइल का उपयोग न्यूनतम करूंगा। ये सब रामभक्ति में बाधक हैं ---

 अब इसी क्षण से लैपटॉप और मोबाइल का उपयोग न्यूनतम। ये सब रामभक्ति में बाधक हैं। भगवान से संवाद हेतु इनकी आवश्यकता नहीं है।

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पुनश्च: --- मुझे नित्य निरंतर आंतरिक प्रेरणा मिल रही है कि जब तक शरीर में प्राण है, तब तक किसी भी परिस्थिति में मुझे नित्य कम से कम छः घंटे परमात्मा का ध्यान करना ही पड़ेगा। यह एक ईश्वरीय आदेश है, अतः इसका पालन करना ही होगा। कुछ बातों को सपष्ट करना आवश्यक है, इसीलिए यह संवाद कर रहा हूँ।
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प्राण क्या है? इस देह में प्राणों को किसने धारण कर रखा है?
जगन्माता, जिन्होने इस सृष्टि को धारण कर रखा है, वे ही मेरा प्राण हैं। स्पष्ट शब्दों में कुंडलिनी महाशक्ति ही मेरा प्राण है। जिस क्षण वे परमशिव से मिल जायेंगी, उसी क्षण मैं भी परमात्मा को प्राप्त कर उनके साथ एक हो जाऊंगा। वे मेरे मेरुदण्ड की सुषुम्ना नाड़ी की ब्रह्म उपनाड़ी में सचेतन रूप से विचरण कर रही हैं। साकार रूप में वे ही भगवती श्रीराधा हैं, वे ही सीता जी हैं, वे ही उमा हैं, और वे ही तंत्र की दसों महाविद्याएँ हैं। यह शरीर महाराज उन्हीं की कृपा से इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ वाहन है। मुझे लोग इस नश्वर शरीर महाराज के रूप में ही जानते हैं।
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परमशिव क्या है?
परमशिव एक अनुभूति है जो गहन समाधि की अवस्था में गुरुकृपा से होती है। यह अपरिभाष्य और अवर्णनीय है, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। साकार रूप में वे ही शिव और विष्णु हैं। सारा विश्व उन्हीं का रूप है। वे ही यह विश्व बन गए हैं।
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गणेश जी क्या हैं?
पञ्चप्राण ही उनके गण है, वे ओंकार रूप में इन सब गणों के अधिपति हैं, इसलिए वे गणेश हैं। उनका ध्यान मूलाधार चक्र में उनके मंत्रों से होता है। भगवती बाला की उपासना भी मूलाधार चक्र में होती है।
कुंडलिनी महाशक्ति भी गुरुकृपा से मूलाधार चक्र में ही जागृत होती है। योग मार्ग में सूक्ष्म प्राणायाम (जो एक गोपनीय विद्या है, जिसे गुरुमुख से ही प्राप्त किया जाता है) द्वारा कुंडलिनी जागरण होता है, और श्रीविद्या की साधना में गोपनीय मंत्रों के द्वारा। दोनों मार्गों में सद्गुरु का मार्गदर्शन और संरक्षण आवश्यक है।
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ओंकार का ध्यान कैसे होता है?
इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का और उपनिषदों का स्वाध्याय कीजिये। यदि आपके कर्म अच्छे होंगे तो जीवन में किसी सद्गुरु का अवतरण होगा जो आपको परमात्मा से जोड़ देगा। सद्गुरु की पहिचान यही होती है कि वह अपने चेले को परमात्मा से जोड़ देता है।
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शेष कुशल। मंगलमय शुभ कामनाएँ। आपका जीवन कृतार्थ हो, व आप कृतकृत्य हों।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ हरिः ॐ॥ ॐ तत्सत्॥
२ सितंबर २०२४

"आप का न जन्म हो सकता है और न मृत्यु" / मेरी आयु अनंत (Infinity) है ---

 "आप का न जन्म हो सकता है और न मृत्यु"

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जिन महान आत्माओं ने इस शरीर महाराज के जन्मदिवस पर शुभ कामनाएँ प्रेषित कीं, और जो नहीं भी कर पाये उन सभी का मंगल हो। आप शाश्वत आत्मा हैं, आपका न जन्म हो सकता है और न मृत्यु। भगवान के इस वचन को याद रखें --
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- "हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥"
"O Arjuna! This is the state of the Self, the Supreme Spirit, to which if a man once attain, it shall never be taken from him. Even at the time of leaving the body, he will remain firmly enthroned there, and will become one with the Eternal."
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आप निरंतर ब्रह्म की चेतना में रहिए जो अनंत है, और निरंतर जिसका अनंत विस्तार हो रहा है। इसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में "ब्राह्मी स्थिति", यानी ब्रह्मरूप से स्थित होने को कहा है। इस स्थिति को पाकर मनुष्य फिर मोहित नहीं होता। इस देह के अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्ममय हो जाता है। यह ईश्वरीय पथ है। इस जीवन में ही यह समझना है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०३ सितंबर २०२४
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मेरी आयु अनंत (Infinity) है। My age is only -- ONE, and that is infinity.
क्या परमात्मा का या इस सृष्टि का कोई जन्मदिवस होता है? ये चाँद-तारे, ग्रह-नक्षत्र, नदियाँ और पर्वत -- क्या कोई इनका जन्मदिवस जानता है?
जिस भौतिक देह रूपी वाहन में मैं यह लोकयात्रा कर रहा हूँ, उसका आज भाद्रपद अमावस्या को जन्म हुआ था। विक्रम संवत के अनुसार आज मेरा जन्म-दिवस है। ग्रेगोरियन कैलंडर से मैं नहीं मनाता।
परमात्मा के आनंद में डूब रहा हूँ। मेरी आयु अनंत (Infinity) है। अब तक पता नहीं कितनी बार जन्म लिया और कितनी बार मरा। लेकिन मैं शाश्वत हूँ, और शाश्वत ही रहूँगा। इस देह के जन्म दिवस पर सभी को मंगलमय शुभ-कामनाएँ॥
कृपा शंकर

मेरा स्वधर्म --

मेरा स्वधर्म -- एक ही है, और वह है निमित्त मात्र रहते हुए निरंतर परमात्मा का स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन और निज चैतन्य में उनकी सतत् अभिव्यक्ति। वे ही कर्ता हैं और वे ही भोक्ता हैं। मैं केवल साक्षी मात्र हूँ, वास्तव में साक्षी भी वे ही हैं; मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। मेरा धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, कष्ट और आनंद सब कुछ यही है, इससे अतिरिक्त मैं अन्य कुछ भी नहीं जानता हूँ; और जानना भी नहीं चाहता।

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समाज और राष्ट्र की मेरी अवधारणा -- वह नहीं है जो आधुनिक पश्चिमी विचारक कहते हैं, या जो पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाई जाती है। इसे समझने के लिए महाभारत और रामायण का स्वाध्याय करना पड़ेगा। तभी इस विषय को हम ठीक से समझ पायेंगे। हमारा दृष्टिकोण भारतीय हो, न कि ईसाई विचारकों द्वारा हम पर थोपा हुआ।
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यह हमारा दायित्व है कि हम यह सुनिश्चित करें कि हमारे शासक धर्मनिष्ठ हों। शासक का सर्वोपरी दायित्व धर्म की रक्षा है, न कि अपने अहंकार की पूर्ति। हम कुछ भी करने में असमर्थ हैं तो अपने दृढ़ संकल्प और आध्यात्मिक साधना के बल पर करें। जो धर्मनिष्ठ नहीं हैं, उन्हें हटायें, और धर्मनिष्ठ शासकों को लायें। हमारे शासक हमारी प्रजा हैं, बाकी सब उनकी प्रजा। किसी भी राजनीतिक विचारधारा के मानसिक दास न बनें। धर्म की स्थापना का कार्य भगवान हमारे ही माध्यम से करेंगे। यह याद रखें कि हमारे शासक हमारी ही प्रजा हैं, न कि हम उनकी प्रजा। जो धर्म कि रक्षा नहीं कर सकता वह अयोग्य शासक है। सबसे पहिले हम अपने निज जीवन में धर्म को अवतरित करें, फिर भगवान हमारे माध्यम से धर्म की पुनःस्थापना करेंगे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ सितंबर २०२४
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पुनश्च: --- सनातन धर्म को सबसे अधिक खतरा ईसाई विचारकों से है जो विचारधारा के स्तर पर हमारा सबसे अधिक अहित करते हैं। सनातन धर्म का सबसे अधिक अहित ईसाई विचारकों, प्रचारकों और शासकों ने किया है। यह मार्क्सवाद, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षतावाद आदि उन्हीं के शैतानी दिमाग की उपज है। उन्होने ही हमारे शास्त्रों में मिलावट की और हमें नीचा दिखाने के लिए हमारे विरुद्ध अत्यधिक दुष्प्रचार किया। इस समय वे लोगों का मतांतरण कर हमारे धर्म को नष्ट कर रहे हैं।
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यह विचार कि हमारे शासक हमारी ही प्रजा हैं, मुझे माननीय प्रोफेसर श्री रामेश्वर मिश्र 'पंकज' जी से मिला जो एक युगपुरुष और महान विचारक हैं।

समर्पण ---

आज प्रारब्धवश जीवन में एक नया संकल्प और एक नया मोड़ आ चुका है, जो मेरी नियति में था। यह होना ही था। आज से जीवन पूर्णतः परमात्मा को समर्पित है। कोई किन्तु-परंतु नहीं, कोई पूर्वाग्रह या पूर्व शर्त नहीं। मेरे व्यक्तित्व में जो कमियाँ थीं और हैं, वे पूर्व जन्मों से हैं। वे भी धीरे धीरे दूर हो जायेंगी। किसी से मेरी कोई अपेक्षा, शिकायत, आलोचना व निंदा का विषय नहीं है। जहाँ तक आध्यात्मिक साधनाओं की बात है, मेरे चिंतन में और विचारों में बिल्कुल स्पष्टता है। किसी भी प्रकार का कणमात्र भी कोई संशय नहीं है। किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक मार्गदर्शन की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। पूर्व जन्म की कुछ कुछ स्मृतियाँ कभी कभी आ जाती हैं, और सूक्ष्म जगत से पूर्व-जन्मों के मेरे गुरु अभी भी मेरा मार्गदर्शन, रक्षा और सहायता कर रहे हैं।
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मैंने जो लेख लिखे थे, उनमें जो भी नकारात्मकता है उन्हें मैं धीरे धीरे हटा दूंगा। कोई नया लेख नहीं लिखूंगा। आवश्यकता हुई तो किसी पुराने लेख को संशोधित कर के पुनःप्रस्तुत कर दूंगा। किसी के प्रति मेरी ओर से कोई भी किसी भी तरह का प्रज्ञा-अपराध हुआ है तो मैं उसके लिए क्षमा याचना करता हूँ। आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ सितंबर २०२४
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पुनश्च: ----- मैं कोई नया मित्रत्ता अनुरोध (Friend Request) स्वीकार नहीं करूंगा। पुराने मित्रों में भी उन्हीं को रखूँगा जिनके विचारों का ​स्तर अच्छा है। अन्यों को धीरे धीरे क्षमा-याचना करते हुए हटा दूंगा।

सभी आचार्यों से करबद्ध निवेदन है कि मुझ अकिंचन को हर समय अपना आशीर्वाद प्रदान कर कृतार्थ करते रहें ---

किसी समय मेरे हृदय में अभीप्सा और विवेक की एक प्रचंड अग्नि हर समय प्रज्ज्वलित रहती थी, जो समय के साथ मंद पड़ती पड़ती बुझ गई। जब तक वह अग्नि अपने उष्णतम स्वरूप में प्रज्ज्वलित थी, मैं आनंद में था। उस अग्नि की दाहकता के समाप्त होते ही वह आनंद भी समाप्त हो गया।

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वह अग्नि अब पुनश्च: प्रज्ज्वलित हो रही है। मैं उसकी दाहकता से स्वयं को वंचित नहीं करना चाहता। उसकी दाहकता ही मेरा आनंद है। मैं चाहता हूँ कि मेरा सारा राग-द्वेष, लोभ और अहंकार उस अग्नि में जल कर भस्म हो जाये। वह अग्नि अपनी भीषणतम दाहकता से मुझे वीतराग और स्थितप्रज्ञ बना दे। मेरी सारी पृथकता का बोध उसमें जल कर नष्ट हो जाये।
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मेरी चेतना में मैं अकेला नहीं हूँ। यह सारी सृष्टि, सारा अनंत ब्रह्मांड मेरे साथ एक है। मैं सांसें लेता हूँ तो सारा ब्रह्मांड मेरे साथ सांसें लेता है। मैं जो भी अल्प आहार लेता हूँ, उसे स्वयं परमात्मा, वैश्वानर के रूप में ग्रहण कर सारी सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं। मैं चलता हूँ तो स्वयं परमात्मा मेरे साथ चलते हैं। मैं कुछ भी नहीं करता, सब कुछ वे सच्चिदानंद कर रहे हैं। वे सच्चिदानंद मुझे स्वीकार करें। मेरे पास भेंट में देने के लिए अन्य कुछ भी नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ सितंबर २०२४
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यह कोई लेख नहीं, हृदय के भाव हैं, जो स्वतः ही व्यक्त हो रहे हैं।

गणेश चतुर्थी (2024)

 गणेश चतुर्थी ---

कल ७ सितम्बर २०२४ को "गणेश चतुर्थी" है। अपनी अपनी आर्थिक क्षमता, और अपनी अपनी मान्यतानुसार लोग इस पर्व को मनाते हैं। अपनी पारिवारिक परंपरानुसार गणेश जी की पूजा करें। परम्पराएँ भी बदलती रहती हैं। शुभ मुहूर्त और पूजा पद्धति आदि की जानकारी आप अपने स्थानीय कर्मकांडी पारिवारिक पंडित जी से पूछें।
राजस्थान में हर घर के द्वार के ऊपर एक आलय में गणेश जी की प्रतिमा होती है। शुभ मुहूर्त में उस पर नया सिंदूर लगाया जाता है, बंदनवार बांधी जाती है। दीपक जलाकर पूजा की जाती है और लड्डुओं का प्रसाद लगाया जाता है।
पूजाघर में पारिवारिक परंपरानुसार हम लोग तो पार्थिव गणेश जी की ही पूजा करते हैं। उनके पार्थिव रूप की ही पूजा करेंगे। अपनी अपनी आर्थिक क्षमतानुसार श्रद्धालु लोग मंहगे विग्रहों की भी पूजा करते हैं। कोई संदेह है तो किन्हीं कर्मकांडी पंडित जी को ससम्मान घर पर बुलाकर उन से पूजा करवाएँ। बाद में बिना पूछे ही कम से कम ५०१ या ११०० या अधिक की राशि उन्हें दक्षिणा के रूप में ससम्मान प्रदान करें। कोई सौदेबाजी न करें।
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सबसे अधिक महत्वपूर्ण है गणेश जी के मंत्रों का जप और ध्यान। गणेश जी पञ्चप्राण रूपी गणों के, ओंकार रूप में अधिपति हैं, इसलिए वे गणेश हैं। उनके किस मंत्र का कितनी बार, किस चक्र पर, किस विधि से जप और ध्यान करें? यह आप अपनी गुरु-परंपरा के अनुसार या अपने पारिवारिक आचार्य के बताये अनुसार करें।
नित्य उनकी आराधना का समय मध्यरात्रि से पूर्व लगभग ११ से ११.३२ बजे के मध्य का है। यदि हो सके तो इस अवधि में नित्य गणेशजी का जप और ध्यान करें। यह जीवन में आने वाले संकटों से आपकी रक्षा करेगा। यदि इस समय न कर सकें तो अन्य किसी भी समय पर करें, लेकिन करें अवश्य। किसी भी समय हरेक पूजा से पूर्व भी सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा होती है।
ॐ तत्सत् !!
६ सितंबर २०२४