जीवन में सर्वप्रथम भगवान को प्राप्त करो फिर उनकी चेतना में अन्य सारे कर्म करो| भगवान को प्राप्त करने का अधिकारी सिर्फ भगवान का भक्त है जिसने भगवान में अपने सारे भावों का अर्पण कर दिया है|
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परमशिव परमात्मा का ज्ञान ही सच्चा प्रकाश है| ब्रह्मज्ञान में लीन होकर रहना ही सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है| परमशिव परमात्मा ही हमारे एकमात्र संबंधी हैं| परमशिव में तन्मय हो जाना ही आनंद है|
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हम निरंतर भगवान की गोद में हैं| हमारा स्थायी निवास परमात्मा के हृदय में है| परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है| जो परमात्मा से प्रेम करेगा, वह ही परमात्मा का साक्षात् अनुभव कर सकेगा, और परमात्मा का ही स्वरूप होगा|
भगवान कहते हैं ---
"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः| मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते||१३:१९||"
अर्थात् -- इस प्रकार, (मेरे द्वारा) क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को संक्षेपत: कहा गया इसे तत्त्व से जानकर (विज्ञाय) मेरा भक्त मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है||
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मेरा भक्त अर्थात् मुझ सर्वज्ञ परमगुरु वासुदेव परमेश्वर में अपने सारे भावों को जिसने अर्पण कर दिया है| जिस किसी भी वस्तु को देखता सुनता और स्पर्श करता है, उन सब में सब कुछ भगवान् वासुदेव ही है ऐसी निश्चित बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह उपर्युक्त यथार्थ ज्ञान को समझकर मेरे भाव को अर्थात् मेरा जो परमात्मभाव है, उसको प्राप्त करनेमें समर्थ होता है|
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परमात्मा का स्मरण कभी न छूटे, चाहे यह देह इसी समय छूट कर यहीं भस्म हो जाये| बड़ी भयंकर पीड़ा हो रही है| अब एक क्षण भी भगवान के बिना जीवित नहीं रह सकते|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ फरवरी २०२१
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पुनश्च: ---- यह शरीर महाराज बड़ा धोखेबाज मित्र है| निश्चित रूप से यह अपना तो नहीं हो सकता| जिस का भी है, इस का किराया तो हमें उस को चुकाना ही पड़ेगा, क्योंकि इस पर सवार होकर लोकयात्रा जो की है|
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ईस्वर अंस जीव अबिनासी| चेतन अमल सहज सुखरासी|
सो माया बस भयउ गोसाई| बंध्यो कीर मरकट की नाई||
"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः|मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति|१५:७||"