Monday, 5 September 2016

शिवलिंग की पूजा का रहस्य .....

शिवलिंग की पूजा का रहस्य .....
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मुझे मेरी देश-विदेश की यात्राओं में विधर्मी ही नहीं स्वधर्मी लोगों ने भी अज्ञानतावश या चाहे छेड़ने के लिए ही सही, अनेक बार चलाकर यह पूछा है कि आप हिन्दू लोग शिवलिंग की पूजा क्यों करते हो|
हिन्दू धर्म के विरुद्ध ईसाई धर्म प्रचारकों ने कई सौ वर्षों से सबसे बड़ा निंदा अभियान यह चला रखा है कि हिन्दू लोग अपने काल्पनिक पुरुष देवता शिव की जननेंद्रिय यानि शिश्न की पूजा करते हैं अतः हिन्दू धर्म अज्ञानी मूर्खों का धर्म है| उन में दुराग्रहता के कारण इतनी समझ या क्षमता नहीं होती कि वे तत्व की बात समझ सकें|
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यहाँ मैं मेरी सिमित व अल्प बुद्धि से जो भी भगवान ने मुझे दी है, अपने स्वाध्याय और अनुभव से अपनी क्षमतानुसार शिवलिंग की पूजा का रहस्य जो मैं समझ पाया हूँ, बताने का प्रयास कर रहा हूँ| वैसे तो भगवान शिव परम तत्व हैं, वे आंशिक रूप से अपना रहस्य किसी साधक को कृपा कर के स्वयं ही बोध करा सकते हैं| अपने आप उन्हें समझने का प्रयास मनुष्य की बुद्धि की क्षमता से परे है|
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शिवलिंग अनंत, सर्वव्यापी, परम चैतन्य या परम तत्व भगवन शिव का एक प्रतीक हैं जिसकी विधिवत साधना से शिवलिंग प्रत्यक्ष चैतन्य हो जाता है|
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जिसके अन्दर सबका विलय होता है उसे लिंग कहते हैं| स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे ..... तुरीय चेतना में विलय हो जाता है| उस तुरीय चेतना का प्रतीक हैं ..... शिवलिंग, जो साधक की कूटस्थ चेतना में स्वयं निरंतर जागृत रहता है|
उसके समक्ष साधना करने से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है| इसकी अनुभूति अधिकांश साधक करते हैं|
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भगवन शिव विध्वंस यानि विनाश के नहीं बल्कि परम चैतन्य के प्रतीक हैं|
इस पर आगे और प्रकाश डालने का प्रयास करता हूँ|
मैंने पुराणों के सन्दर्भ में पढ़ा था कि एक बार ऋषियों ने सुमेरु पर्वत पर ब्रह्मा जी से पूछा कि कौन सा तत्व अव्यय है| इस विषय पर कोई निष्कर्ष नहीं निकला तो ब्रह्माजी सहित यज्ञ के देवता क्रतु ने वेदों का आवाहन किया| चारों वेद प्रकट हुए और उन्होंने शिव को एकमात्र परम तत्व बताया|
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भगवान शिव दुःखतस्कर हैं| तस्कर का अर्थ होता है ... चोर जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है| भगवन शिब अपने भक्तों के दुःख कष्ट हर लेते हैं, अतः अनंत काल से वे हमारे उपास्य देवता रहे हैं| 'नमो वंचते परिवंचते स्तायुनां पतये नमो नमो निषंगिण इषुधिमते तस्कराणांपतये नमोनम:||' भक्तोंके कष्ट की तस्करी करते हैं शिवजी ।
वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं| जीवों को स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं|
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गहन ध्यान में सभी को एक विराट ज्योतिर्पुंज (सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म) के दर्शन कूटस्थ में होते हैं जिसमें समस्त अस्तित्व का विलय हो जाता है| उन सर्वव्यापी ब्रह्म का प्रतीक ही शिवलिंग है|
उनकी साधना साधक स्थूल रूप से प्रतीकात्मक शिवलिंग के रूप में करते हैं| यह है शिवलिंग की पूजा का रहस्य|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
२४ जुलाई २०१४

मनुष्य का जन्म अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही होता है ....

मनुष्य का जन्म अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही होता है ....
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संचित कर्मों में से प्रारब्ध ..... जन्म से पहिले ही बन जाता है| यहाँ हम जो भी जीवन जी रहे हैं ..... सारे दुःख-सुख ..... वे सब अपने ही प्रारब्ध कर्मों का फल है| किसी अन्य पर दोषारोपण गलत है| हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं|
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यह कर्म फल भोगते भोगते हम और भी नए कर्मों की सृष्टि कर लेते हैं जो संचित हो जाते हैं| उनका फल भी कभी ना कभी तो भुगतना ही पड़ता है| यह एक अंतहीन चक्र है| इस अंतहीन चक्र से मुक्ति पाना ही मोक्ष है| इसका उपाय भी परमात्मा कृपा कर के किसी सद्गुरु के माध्यम से अवगत करा देते हैं|
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कुछ महान जीवनमुक्त आत्माएँ करुणावश परोपकार के लिए स्वेच्छा से जन्म लेती हैं| वे कर्म बंधनों से मुक्त होती है| वे स्वेच्छा से आती हैं और स्वेच्छा से ही जाती हैं|
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यह देह भी हमें मिली है तो अपने कर्मों का फल भोगने के लिए ही मिली है| हम अपने कर्म फलों से मुक्त होने का प्रयास करें| हम अपनी पहिचान भौतिक शरीर से करते हैं पर भौतिक शरीर के साथ साथ सूक्ष्म और कारण शरीर भी हमारी अभिव्यक्ति के एक माध्यम मात्र हैं| हम ये शरीर नहीं हैं| ये शरीर एक वाहन हैं जिन पर हम अपनी लोकयात्रा कर रहे हैं| ये शरीर हमारे उपकरण मात्र हैं जिनको धारण करने का उद्देश्य तो भगवत्कृपा से ही समझ में आ सकता है|
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प्रकृति में कुछ भी निरुद्देश्य नहीं है| लोकयात्रा हेतु यह जो देहरुपी वाहन मिला हुआ है, उसका एक उद्देश्य है, और वह एकमात्र उद्देश्य है ..... परमात्मा की प्राप्ति|
कर्मफलों से मुक्त होने का एक ही उपाय है, और वह है ----- भगवान की पराभक्ति, शरणागति और समर्पण| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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इस देह में रहते हुए हम विद्यार्जन करते हैं| यदि उस अर्जित विद्या के उपयोग से हमारा चरित्र निर्माण नहीं हो सकता तो वह विद्या निरर्थक ही नहीं , अविद्या है और नाशकारी है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

या तो मैं गलत समय पर इस संसार में हूँ, या गलत स्थान पर हूँ .....

या तो मैं गलत समय पर इस संसार में हूँ, या गलत स्थान पर हूँ .....
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जैसा स्वभाव भगवान ने मुझे दिया है, उसके अनुसार तो इस संसार में मैं बिलकुल अनुपयुक्त यानि misfit हूँ| परमात्मा की परम कृपा से ही अब तक की यात्रा की है, इसमें मेरी कोई महिमा नहीं है| संभवतः परमात्मा को मुझ पर विश्वास यानि भरोसा था इसीलिए उन्होंने मुझे यहाँ भेज रखा है| विश्वासघात तो मैं परमात्मा से कर नहीं सकता, पर एक प्रार्थना अवश्य कर सकता हूँ कि ......
हे प्रभु, जहाँ भी तुमने मुझे रखा है, वहीँ तुम्हें आना ही पडेगा| तुम्हें यहीं आना पडेगा| ॐ ॐ ॐ ||

गणेश चतुर्थी की शुभ कामनाएँ .......

ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि | ॐ ॐ ॐ !!
गणेश चतुर्थी की शुभ कामनाएँ .......
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आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन, पंच प्राण रूपी गणों के ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को रिद्धि-सिद्धि सहित नमन ! सभी श्रद्धालुओं को भी नमन ! भगवान श्रीगणेश ओंकार रूप में हमारे चैतन्य में नित्य विराजमान रहें |
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भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित होने से पूर्व बालकों का अध्ययन गणेश चतुर्थी के दिन से ही आरम्भ होता था| मुझे भी अतीत की कुछ स्मृतियाँ हैं| गणेश चतुर्थी के दिन हमें धुले हुए साफ़ वस्त्र पहिना कर पाठशाला भेजा जाता था| गले में दो डंके भी लटका कर ले जाते थे| विद्यालयों में लडड्ड बाँटे जाते थे| अब वो अतीत की स्मृतियाँ हैं| आधुनिक अंग्रेजी अध्यापकों व विद्यार्थियों को गणेश चतुर्थी का कोई ज्ञान नहीं है| हमारी संस्कृति के अच्छे दिन कभी न कभी फिर बापस लौटेंगे|
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ॐ सहनाववतु सहनो भुनक्तु सहवीर्यंकरवावहे तेजस्वी नावधितमस्तु मा विद्विषामहे || ॐ शांति शांति शांति ||

संत की पहिचान .......

संत की पहिचान .......
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यह लेख लिखने की मेरी बिलकुल भी इच्छा नहीं थी, पर फिर भी किसी प्रेरणावश लिख रहा हूँ| हम लोग इतने भोले हैं कि बिना परखे ही किसी को भी संत कह देते हैं|
किन्हीं राजनीतिक परिस्थितियों में या किसी संस्था द्वारा समारोह मनाकर घोषित किये जाने पर, हमारा धर्मांतरण करने वाला क्या कोई संत बन जाता है ?
जो हमारी जड़ें खोदता है, और हमारी अस्मिता पर ही मर्मान्तक प्रहार करता है, क्या ऐसा व्यक्ति कोई संत हो सकता है ?
जो हमारी आस्था को खंडित करता है व हमारे लोगों का धर्मांतरण करता है ऐसा व्यक्ति संत नहीं हो सकता| ऐसे ही कोई आत्म-घोषित भी संत नहीं होता|
मरते हुए विवश व असहाय व्यक्ति को बाध्य कर के अपने मत में सम्मिलित करने वाले क्या संत होते हैं?

यहाँ मैं संतों के कुछ लक्षण लिख रहा हूँ ....
(1) संतों में कुटिलता का अंशमात्र भी नहीं होता ......
संत जैसे भीतर से हैं, वैसे ही बाहर से होते है| उनमें छल-कपट नहीं होता|
(2) संत सत्यनिष्ठ होते हैं ......
चाहे निज प्राणों पर संकट आ जाए, संत कभी असत्य नहीं बोलते| वे किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलेंगे| रुपये-पैसे माँगने वे चोर बदमाशों के पास नहीं जायेंगे| वे पूर्णतः परमात्मा पर निर्भर होते हैं|
(3) संत समष्टि के कल्याण की कामना करते हैं, न कि सिर्फ अपने मत के अनुयायियों की|
(4) उनमें प्रभु के प्रति अहैतुकी प्रेम लबालब भरा होता है| उनके पास जाते ही कोई भी उस दिव्य प्रेम से भर जाता है|
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संत दादूदयाल जी के पट्ट शिष्य सुन्दर दास जी ने संत-असंत के अनेक लक्षणों का विस्तृत व स्पष्ट वर्णन अपनी वाणी में किया है|
मेरा निवेदन है कि आँख मींच कर हम किसी को संत न माने, चाहे भारत सरकार उसे वोटों की राजनीति के कारण संत मानती हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!

आध्यात्म में कोई भी उपलब्धी अंतिम नहीं होती ....

आध्यात्म में कोई भी उपलब्धी अंतिम नहीं होती .....
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जिसे हम खजाना मानकर खुश होते हैं, कुछ समय पश्चात पता लगता है कि वह कोई खजाना नहीं बल्कि कंकर पत्थर का ढेर मात्र था|
आध्यात्मिक अनुभूतियाँ अनंत हैं| जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं, पीछे की अनुभूतियाँ महत्वहीन होती जाती हैं| यहाँ तो बस एक ही काम है कि बढ़ते रहो, बढ़ते रहो और बढ़ते रहो| पीछे मुड़कर ही मत देखो|
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अन्य कुछ भी मत देखो, कहीं पर भी दृष्टी मत डालो; सिर्फ और सिर्फ हमारा लक्ष्य ही हमारे सामने निरंतर ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे| फिर चाहे कितना ही अन्धकार हो, परमात्मा की कृपा से हमें मार्ग दिखाई देता रहेगा|
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एक बार किसी साधक से किसी ने पूछा --- क्या तुम भगवान में विश्वास करते हो?
उस साधक का उत्तर था --- नहीं, भगवान मुझमें विश्वास करते हैं इसीलिए मैं यहाँ हूँ|
उन्हें विश्वास था कि मैं उनकी बाधाओं को पार कर सकता हूँ तभी ये सब बाधाएँ हैं|
मैं उनके साथ विश्वासघात नहीं कर सकता|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!

लोक देवता गौरक्षक वीर तेजाजी ........

लोक देवता गौरक्षक वीर तेजाजी ........
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राजस्थान में अनेक वीरों को आज भी लोक देवता के रूप में पूजा जाता है| इनमें प्रमुख हैं ---- पाबूजी, गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी, हडबुजी और महाजी| इन सब ने धर्मरक्षार्थ बड़े भीषण युद्ध किये और कीर्ति अर्जित की|
कुछ दिनों पूर्व गोगानवमी पर वीर गोगा जी (गोगा राव चौहान) पर प्रस्तुति दी थी जिसमें बताया था कि किस तरह उन्होंने सोमनाथ मंदिर के विध्वंश के लिए जा रहे महमूद गज़नवी का मार्ग अवरूद्ध कर दिया था और धर्म रक्षार्थ उससे युद्ध करते हुए अपना बलिदान दिया|
आज तेजा दशमी पर तेजा जी पर यह प्रस्तुति देकर बता रहे हैं कि अपने वचन और गौ रक्षा के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया और लोक देवता बने|
ग्याहरवीं सदी के अंत का समय था| उत्तर पश्चिम भारत में नागवंशियों के छोटे बड़े शासन थे| ये लोग ‘नाग देवता’ को अपने वंश का प्रतीक मानते थे, जैसे अन्य शासक सूर्य, चन्द्र या मीन को मानते थे| इनमें चौहान, परिहार, परमार, सांखला, तंवर, गहलोत आदि प्रमुख थे| लेकिन बड़े ही लोकतांत्रिक ढंग से ये शासन चलते थे| राजा भी सामान्य जन की तरह काम करता था| पद योग्यता के आधार पर समाज द्वारा दिया जाता था और सम्मान का सूचक था| जरूरत पड़ने पर राजा के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी जाती थी| कभी कई समूह मिलकर लड़ते थे| और कभी कभी ये समूह आपस में भी लड़ लेते थे|
बाद में जब सुल्तानी शासन आया तो कई नागवंशी शासकों ने वचन के कारण राज छोड़ दिया और कृषि व अन्य कार्य करने लग गए| इनमें से आज अधिकतर जाट कहलाते हैं| नागौर जिले का नाम इन्हीं नागवंशियों के शासन के कारण है जो आज भी उस शासन की याद दिलाता है|
नागवंशी शासन के समय में नागौर के पास खरनाल के शासक ताहड़ देव चौहान (धोलिया) के घर तेजाजी अवतरित हुए| यह विक्रम सम्वत 1130 थी और दिन था, मार्गशीर्ष महीने के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी का| छः भाइयों में सबसे छोटे तेजाजी ही थे|
वैसे तेजाजी शिवभक्त थे और गाँव के शिव मंदिर में घंटों ध्यान करते थे|
बड़े होने पर तेजाजी को मां ने हल जोतने का कहा तो वे ना नुकुर करते रहे और कहते रहे कि उनकी अभी खेलने कूदने की उम्र है| पर मां की जिद के आगे उन्हें खेत जोतने जाना पड़ा| मां का कहना था कि तेजाजी के हाथ से बोये जाने पर खेत में मोती पैदा हो जायेंगे| आज भी उसी विश्वास के साथ किसान तेजाजी के नाम से खेती प्रारंभ करता है|
तेजाजी का विवाह बचपन में ही हो गया था| कार्तिक पूर्णिमा के पुष्कर के मेले में ही सगाई हुई और विवाह भी हो गया| उनके ससुर अजमेर जिले के रूपनगढ़ के पास पनेर के शासक थे| वे झांझर गोत्र के थे| पर बाद में किसी बात को लेकर दोनों परिवारों में अनबन हो गई थी| इस कारण गौना नहीं हुआ था|
तेजाजी ने तय किया कि वे अब किसी भी हाल में पेमल को लेकर आयेंगे| वे पहले बहन राजल को लेकर आये और फिर पंडित जी से मुहूर्त पूछने गए तो उन्होंने समय प्रतिकूल बताया| कई दूसरे अपशगुन भी हुए पर तेजाजी इन सबकी अनदेखी करते हुए पनेर अपनी प्रिय घोड़ी लीलण पर सवार होकर चल दिए| बारिश का समय था और बहते नदी नाले सामने थे पर लीलण अपने सवार को पनेर की सरहद तक ले ही गई|
पनेर के पनघट पर तेजाजी जब महिलाओं से अपने ससुर का पता पूछते हैं तो बात गाँव में फ़ैल जाती है| पेमल को खबर लगते ही वह श्रृंगार कर अपनी भाभी के साथ पनघट पहुँचती हैं| तेजाजी को घर चलने का आमंत्रण दिया जाता है| तेजाजी आग्रह मानकर जैसे ही घर में लीलण के साथ प्रवेश करते हैं, गायें बिदक जाती हैं| ऐसे में दूध दूह्ती पेमल की मां गायों को भड़काने वाले सवार को काले सांप से डसे जाने की बद्दुआ देती है| तेजाजी इस व्यवहार को सहन नहीं कर पाते हैं और वापस लौटने लगते हैं| पेमल दुखी हो जाती है| वह तेजाजी से मां के व्यवहार के लिए माफी मांगती है और कहती हैं कि यह सब अनजाने में हुआ है| वह तेजाजी को अपने बाग़ में बने महल में रूकने को राजी कर लेती हैं|
तेजाजी और पेमल बातें कर रहे होते हैं कि दूर से एक महिला के रोने की आवाज आती है|
बाहर देखने पर पता चला कि पेमल की सहेली लाछां गुर्जरी है| वह बताती है कि उसकी गायें मीणा छीनकर ले गए हैं| उन दिनों गाय महँगा धन था और अक्सर गायें लूटकर ले जाने का अपराध होता था| लाछां ने बताया कि गाँव का कोई भी व्यक्ति उसकी मदद नहीं कर पाया है सब लुटेरों से मिल गए हैं और साजिश कर ली गई है|
लाछां का रोना तेजाजी से नहीं देखा गया और उन्होंने मीणाओं से गायें वापस लाने का वादा कर दिया| उधर पेमल धर्म संकट में थीं| एक तरफ बरसों बाद पति से मिलन हो रहा था तो दूसरी तरफ एक असहाय सहेली का दुःख था| पेमल ने भी तेजाजी के वादे से खुद को जोड़ा और युद्ध में साथ जाने की जिद करने लगी| तेजाजी ने उन्हें समझाकर रोका और अपने अभियान के लिए उसी समय चल दिए|
तेज गति से लीलण बढ़ रही थी कि तेजाजी को रास्ते में आग में जलता काला नाग दिखाई दिया| दयालु तेजाजी ने भाले से नाग को आग से बाहर निकाला तो नाग देवता नाराज हो गए| बोले कि मैं इस योनि से छुटकारा पा रहा था और आपने व्यवधान कर दिया| तेजाजी हैरान थे कि अब प्रायश्चित कैसे किया जाए ? नागराज बोले कि आपको डसने से ही हिसाब बराबर होगा| तेजाजी ने वचन दे दिया पर उस समय तक मोहलत माँगी, जब तक वे लाछां की गायें लौटा दें| नाग देवता ने इस वचन के साक्षी के बारे में जानना चाहा तो तेजाजी ने खेजड़े और सूरज को साक्षी बताया| नागराज मान गए|
भीषण युद्ध हुआ| मीणा दुहाई देते रहे कि उन्होंने कभी तेजाजी की मां को बहन माना था पर मामा की एक नहीं सुनी गई और तेजाजी ने युद्ध में गायें मीणों से छीन लीं| घायल तेजाजी लाछां को गायें लौटाकर अपना वादा निभाने नागदेवता की बाम्बी की तरफ चल दिए| नागराज ने वचन के पक्के तेजाजी को देखा तो पसीज गए और बहाने करने लगे. बोले कि आपका तो पूरा शरीर घायल है, मेरे डसने के लिए कोई कुंवारी जगह नहीं बची है| तेजाजी बोले कि आप मेरी जीभ को डस लीजिये, यह किसी भी घाव से अछूती है| नागराज मजबूर हो गए पर तेजाजी को वरदान दे गए| एक अबला की निस्वार्थ मदद करने वाले वीर और वचन के पक्के तेजाजी को उन्होंने अमरत्व की आशीष दी|
तेजाजी के देवलोक होने की खबर देने के लिए लीलण उनके गाँव खरनाल चल दी और यह खबर देने के बाद लीलण अपने सवार की याद में चल बसी| तेजाजी की बहन भुन्गरी भी भाई के विछोह को सहन नहीं कर पाई और देह त्याग दी| पेमल भी तेजाजी के साथ ही देवलोक चली गईं|
उस दिन वि.सं. 1160 के भादों महीने की शुक्ल पक्ष की दशमीं थी. इसे तेजा दशमीं कहते हैं.
तेजाजी लोकदेव हो गए. उनके निस्वार्थ बलिदान की कहानी समूचे उत्तर पश्चिम भारत में फ़ैल गई.
तेजाजी राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात प्रान्तों में लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं। किसान वर्ग अपनी खेती की खुशहाली के लिये तेजाजी को पूजता है।
तेजाजी ने ग्यारवीं शदी में गायों की डाकुओं से रक्षा करने में अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे। वीर तेजाजी का जाटों में महत्वपूर्ण स्थान है। तेजाजी सत्यवादी और दिये हुये वचन पर अटल थे। उन्होंने अपने आत्म - बलिदान तथा सदाचारी जीवन से अमरत्व प्राप्त किया था। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों से जनसाधारण को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया और जनसेवा के कारण निष्ठा अर्जित की। तेजाजी के मंदिरों में निम्न वर्गों के लोग पुजारी का काम करते हैं। उन्होंने जनसाधारण के हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति लुप्त विश्वास को पुन: जागृत किया।
तेजाजी के भारत मे अनेक मंदिर हैं। तेजाजी के मंदिर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गजरात तथा हरयाणा में हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है| आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है| जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं| The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे| अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे| इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था। श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है।
धन्य है वीर प्रसूता भारत माँ जिसने हर काल खंड में असंख्य वीरों को जन्म दिया|
जय जननी, जय भारत|

आध्यात्म में पढो कम, और ध्यान अधिक करो ......

आध्यात्म में पढो कम, और ध्यान अधिक करो ......
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हम जितना समय पढने में लगाते हैं, उससे चार गुना अधिक समय पूर्ण प्रेम से परमात्मा के ध्यान में व्यतीत करना चाहिए| ध्यान का आरम्भ नाम-जप से होता है| जप-योग का अभ्यास करते करते, यानि जप करते करते, ध्यान अपने आप होने लगेगा| पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम नाम का जाप कर रही है| हमें उसे निरंतर सुनना और उसी में लीन हो जाना है| अतः पढो कम, और ध्यान अधिक करो| उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती हो| पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है| साथ भी उन्हीं लोगों का करो जो हमारी साधना में सहायक हों, यही सत्संग है| साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा का बोध कराये|
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है| जड़ता का आभास माया का आवरण है| यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है| यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है|
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वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है वे शिव हैं| सारी आकाश गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से परिक्रमा कर रहे हैं| सृष्टि का कहीं ना कहीं तो कोई केंद्र है, वही विष्णु नाभि है और जिसने समस्त सृष्टि को धारण कर रखा है वे विष्णु हैं|
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उस गति की, उस प्रवाह की और नटराज के नृत्य की भी एक ध्वनी हो रही है जिसकी आवृति हमारे कानों की सीमा से परे है| वह ध्वनी ही ओंकार रूप में परम सत्य 'राम' का नाम है| उसे सुनना और उसमें लीन हो जाना ही उच्चतम साधना है| समाधिस्थ योगी जिसकी ध्वनी और प्रकाश में लीन हैं, और सारे भक्त साधक जिस की साधना कर रहे हैं, वह 'राम' का नाम ही है जिसे सुनने वालों का मन उसी में मग्न हो जाता है|
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जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहे हैं| कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों| कई लोग मेरे विचारों से आक्रामक और हिंसक होकर अपशब्दों पर उतर जाते हैं, वे कृपा कर के मुझे क्षमा करे मुझसे कोई संपर्क न रखें| मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||