Monday 5 September 2016

शिवलिंग की पूजा का रहस्य .....

शिवलिंग की पूजा का रहस्य .....
-------------------------------
मुझे मेरी देश-विदेश की यात्राओं में विधर्मी ही नहीं स्वधर्मी लोगों ने भी अज्ञानतावश या चाहे छेड़ने के लिए ही सही, अनेक बार चलाकर यह पूछा है कि आप हिन्दू लोग शिवलिंग की पूजा क्यों करते हो|
हिन्दू धर्म के विरुद्ध ईसाई धर्म प्रचारकों ने कई सौ वर्षों से सबसे बड़ा निंदा अभियान यह चला रखा है कि हिन्दू लोग अपने काल्पनिक पुरुष देवता शिव की जननेंद्रिय यानि शिश्न की पूजा करते हैं अतः हिन्दू धर्म अज्ञानी मूर्खों का धर्म है| उन में दुराग्रहता के कारण इतनी समझ या क्षमता नहीं होती कि वे तत्व की बात समझ सकें|
.
यहाँ मैं मेरी सिमित व अल्प बुद्धि से जो भी भगवान ने मुझे दी है, अपने स्वाध्याय और अनुभव से अपनी क्षमतानुसार शिवलिंग की पूजा का रहस्य जो मैं समझ पाया हूँ, बताने का प्रयास कर रहा हूँ| वैसे तो भगवान शिव परम तत्व हैं, वे आंशिक रूप से अपना रहस्य किसी साधक को कृपा कर के स्वयं ही बोध करा सकते हैं| अपने आप उन्हें समझने का प्रयास मनुष्य की बुद्धि की क्षमता से परे है|
.
शिवलिंग अनंत, सर्वव्यापी, परम चैतन्य या परम तत्व भगवन शिव का एक प्रतीक हैं जिसकी विधिवत साधना से शिवलिंग प्रत्यक्ष चैतन्य हो जाता है|
.
जिसके अन्दर सबका विलय होता है उसे लिंग कहते हैं| स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे ..... तुरीय चेतना में विलय हो जाता है| उस तुरीय चेतना का प्रतीक हैं ..... शिवलिंग, जो साधक की कूटस्थ चेतना में स्वयं निरंतर जागृत रहता है|
उसके समक्ष साधना करने से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है| इसकी अनुभूति अधिकांश साधक करते हैं|
.
भगवन शिव विध्वंस यानि विनाश के नहीं बल्कि परम चैतन्य के प्रतीक हैं|
इस पर आगे और प्रकाश डालने का प्रयास करता हूँ|
मैंने पुराणों के सन्दर्भ में पढ़ा था कि एक बार ऋषियों ने सुमेरु पर्वत पर ब्रह्मा जी से पूछा कि कौन सा तत्व अव्यय है| इस विषय पर कोई निष्कर्ष नहीं निकला तो ब्रह्माजी सहित यज्ञ के देवता क्रतु ने वेदों का आवाहन किया| चारों वेद प्रकट हुए और उन्होंने शिव को एकमात्र परम तत्व बताया|
.
भगवान शिव दुःखतस्कर हैं| तस्कर का अर्थ होता है ... चोर जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है| भगवन शिब अपने भक्तों के दुःख कष्ट हर लेते हैं, अतः अनंत काल से वे हमारे उपास्य देवता रहे हैं| 'नमो वंचते परिवंचते स्तायुनां पतये नमो नमो निषंगिण इषुधिमते तस्कराणांपतये नमोनम:||' भक्तोंके कष्ट की तस्करी करते हैं शिवजी ।
वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं| जीवों को स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं|
.
गहन ध्यान में सभी को एक विराट ज्योतिर्पुंज (सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म) के दर्शन कूटस्थ में होते हैं जिसमें समस्त अस्तित्व का विलय हो जाता है| उन सर्वव्यापी ब्रह्म का प्रतीक ही शिवलिंग है|
उनकी साधना साधक स्थूल रूप से प्रतीकात्मक शिवलिंग के रूप में करते हैं| यह है शिवलिंग की पूजा का रहस्य|
.
ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
२४ जुलाई २०१४

2 comments:

  1. ध्यान में आत्मतत्व की अनुभूति ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप एक बृहत लिंगाकार में होती है| उसी में पंचप्राण हैं और उसी में सारी सृष्टि|

    ReplyDelete
  2. मेरे सारे सर्वश्रेष्ठ प्रयास सदा विफल रहे हैं| निरंतर असफलताएँ ही असफलताएँ मिली हैं, जीवन में निराशा और हताशा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिला है| पर मैं निराश और हताश नहीं हूँ, क्योंकि गुरुरूप भगवान परमशिव सदा मेरे ह्रदय में हैं|
    उन्होंने मेरी समस्त निराशाओं के अन्धकार और असफलताओं को अपने ऊपर ले लिया है| जब वे हैं तो मैं चिंतामुक्त हूँ| उनका मेरे ह्रदय में आना और स्वयं के हृदय में मुझे स्थान देना .... उनकी परम कृपा है|

    इस पवित्र श्रावण मास में गोस्वामी तुलसीदासकृत रामचरितमानस में दिए त्वरित फलदायी निम्न शिव रुद्राष्टक का पाठ करते हैं .......

    नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम्‌ ।
    निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

    निराकांर मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम्‌ ।
    करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम्‌ ॥

    तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम्‌ ।
    स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

    चलत्कुण्डलं शुभ्र सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्‌ ।
    मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

    प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम्‌ ।
    त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम्‌ ॥

    कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिदान्द दाता पुरारी।
    चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

    न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्‌ ।
    न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥

    न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम्‌ सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम्‌ ।
    जरा जन्म दुःखौध तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥

    रुद्राष्टकम् इदं प्रोक्तं विप्रेणहरोतषये
    ए पठन्त‍ि नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसिदति।।

    ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

    ReplyDelete