Monday 5 September 2016

मनुष्य का जन्म अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही होता है ....

मनुष्य का जन्म अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही होता है ....
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संचित कर्मों में से प्रारब्ध ..... जन्म से पहिले ही बन जाता है| यहाँ हम जो भी जीवन जी रहे हैं ..... सारे दुःख-सुख ..... वे सब अपने ही प्रारब्ध कर्मों का फल है| किसी अन्य पर दोषारोपण गलत है| हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं|
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यह कर्म फल भोगते भोगते हम और भी नए कर्मों की सृष्टि कर लेते हैं जो संचित हो जाते हैं| उनका फल भी कभी ना कभी तो भुगतना ही पड़ता है| यह एक अंतहीन चक्र है| इस अंतहीन चक्र से मुक्ति पाना ही मोक्ष है| इसका उपाय भी परमात्मा कृपा कर के किसी सद्गुरु के माध्यम से अवगत करा देते हैं|
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कुछ महान जीवनमुक्त आत्माएँ करुणावश परोपकार के लिए स्वेच्छा से जन्म लेती हैं| वे कर्म बंधनों से मुक्त होती है| वे स्वेच्छा से आती हैं और स्वेच्छा से ही जाती हैं|
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यह देह भी हमें मिली है तो अपने कर्मों का फल भोगने के लिए ही मिली है| हम अपने कर्म फलों से मुक्त होने का प्रयास करें| हम अपनी पहिचान भौतिक शरीर से करते हैं पर भौतिक शरीर के साथ साथ सूक्ष्म और कारण शरीर भी हमारी अभिव्यक्ति के एक माध्यम मात्र हैं| हम ये शरीर नहीं हैं| ये शरीर एक वाहन हैं जिन पर हम अपनी लोकयात्रा कर रहे हैं| ये शरीर हमारे उपकरण मात्र हैं जिनको धारण करने का उद्देश्य तो भगवत्कृपा से ही समझ में आ सकता है|
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प्रकृति में कुछ भी निरुद्देश्य नहीं है| लोकयात्रा हेतु यह जो देहरुपी वाहन मिला हुआ है, उसका एक उद्देश्य है, और वह एकमात्र उद्देश्य है ..... परमात्मा की प्राप्ति|
कर्मफलों से मुक्त होने का एक ही उपाय है, और वह है ----- भगवान की पराभक्ति, शरणागति और समर्पण| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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इस देह में रहते हुए हम विद्यार्जन करते हैं| यदि उस अर्जित विद्या के उपयोग से हमारा चरित्र निर्माण नहीं हो सकता तो वह विद्या निरर्थक ही नहीं , अविद्या है और नाशकारी है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

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