आध्यात्मिक सफलता -- "आत्मश्रद्धा" व "आत्मविश्वास" पर निर्भर है ---
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आध्यात्मिक साधना की सिद्धि तभी संभव है जब स्वयं में श्रद्धा और विश्वास हो। स्वयं में श्रद्धा और विश्वास होने पर ही हमारा संकल्प दृढ़ होता है। जितनी दृढ़ हमारी आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास और संकल्प होगा, उतनी ही शीघ्र सफलता और सिद्धि हमारे चरणों में होंगी। यह बात मैं अपने पूरे जीवन के अनुभव से कह रहा हूँ। इस बात का अनुमोदन वेदान्त दर्शन भी करता है। सब तरह के बलों में "आत्मबल" सर्वश्रेष्ठ है। आत्मबल की कुंजी है -- आत्मश्रद्धा। अचल आत्मश्रद्धा से ही आत्मविश्वास जागृत होता है। आत्मविश्वास से ही हमारा शिव-संकल्प दृढ़ होता है। यह अचल आत्मश्रद्धा ही आत्मबल के रूप में व्यक्त होती है। आत्मश्रद्धा का अभाव ही -- असफलता, निराशा, निर्धनता, रोग व दुःख आदि के रूप में व्यक्त होता है। आत्मश्रद्धा की प्रचूरता -- सफलता, समृद्धि, सुख-शांति आदि के रूप में व्यक्त होती है। आत्मश्रद्धा न होने से हमें हमारे सामर्थ्य पर संदेह होता है, जिसका परिणाम असफलता, निष्क्रियतता, उत्साह-हीनता, और निराशा है।
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हमारे शास्त्र जिसे -- सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सच्चिदानंद, शाश्वत, अनंत, अखंड, अव्यय, अविनाशी, निरंजन, निराकार, निर्लेप और परम-प्रेमास्पद कहते हैं, वह अन्य कोई नहीं, हम स्वयं हैं। हम जो चाहें वह बन सकते हैं। यह रहस्यों का रहस्य है कि जिसके अंतःकरण में अचल दृढ़ आत्मश्रद्धा रूपी चुम्बकत्व है, सारी सिद्धियाँ उसी का वरण करती हैं। हमारे परम आदर्श भगवान श्रीराम हैं, उनके पास कोई साधन नहीं था, लेकिन सारी सफलताएँ व सिद्धियाँ उनके पीछे-पीछे चलती थीं। हमें राम-तत्व को स्वयं के जीवन में अवतरित करना होगा। बालक ध्रुव के पास कौन से साधन थे? लेकिन उन्होने भगवान विष्णु के परम-पद को प्राप्त किया। बालक आचार्य शंकर के पास कौन से साधन थे? लेकिन उन्होने सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा की। आत्मा में अचल श्रद्धा होनी चाहिए। क्षण मात्र के लिए भी प्रकट हुई अश्रद्धा, विजय को पराजय में बदल सकती है।
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गीता में बताए हुए अपने स्वधर्म व कर्मयोग को न छोड़ें। अर्जुन की तरह भगवान श्रीकृष्ण को अपने जीवन का कर्ता बनायें, और सदा याद रखें --
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥१८:७८॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है॥
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जो कुछ भी जीवन में हमें मिलता है, वह अपनी श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है। बिना श्रद्धा-विश्वास के कुछ भी नहीं मिलता। भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।४:३९॥" (गीता)
अर्थात् श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥
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श्रद्धावान् के साथ-साथ मनुष्य को "तत्पर" और "संयतेन्द्रिय" (जितेंद्रिय) भी होना पड़ेगा। श्रद्धालुता में छल-कपट नहीं चल सकता।
रामचरितमानस के मंगलाचरण में संत तुलसीदास जी ने श्रद्धा-विश्वास को भवानी-शंकर बताया है, जिनके बिना सिद्धों को भी अपने इष्ट के दर्शन नहीं हो सकते --
"भवानी-शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त:स्थमीश्वरम्॥"
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अब और कुछ कहने को बचा ही नहीं है। हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं है, सब कुछ भगवान का है। पाने के लिए परमात्मा के हृदय का अनंत साम्राज्य है। जिनके हृदय में परमात्मा नहीं है, उन्हें विष (Poison) की तरह त्याग दें, अन्यथा उनके नकारात्मक स्पंदन हमें भटका देंगे। भगवान का साथ पर्याप्त है, और कुछ भी नहीं चाहिए।
"जाके प्रिय न राम-बैदेही। तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥"
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आप सब महान आत्माओं को सप्रेम सादर नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१० जून २०२१