(१५ अप्रेल २०१३).
क्या परमात्मा है ? हमें जीवन में परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ?......
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कुछ शाश्वत जिज्ञासाएँ और प्रश्न हैं उनमें से सबसे बड़ी जिज्ञासा रही है कि क्या परमात्मा है और हमें उसकी आवश्यकता क्यों है? विश्व में ईसाईयत और इस्लाम ने अपनी अपनी ईश्वर की अवधारणाएँ विकसित कीं और बहुत ही निर्मम और हिंसक तरीके से अपनी मान्यताओं को विश्व में स्थापित किया| पर ये दोनों विचारधाराएँ आपस में सदा युद्धरत रहीं| इनका मत था कि सभी इनकी मान्यताओं को या तो मानें अन्यथा मरने के लिए तैयार रहें| इस्लाम, ईसाई और यहूदी .... इन तीनों मतों का जन्म मध्यपूर्व में हुआ और तीनों इब्राहिमी (Abrahamic religion) मत हैं पर तीनों में कोई समानता नहीं है| इतिहास में ये आपस में सदा युद्धरत रहे हैं| इनमें कभी यह चिंतन नहीं किया गया कि परमात्मा की आवश्यकता क्यों है|
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रूस में नास्तिक साम्यवादी विचारधारा विकसित हुई जो बलात् सब पर थोपी गयी, जहाँ ईश्वर को मानने का अर्थ था अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना| यह भी बहुत अधिक हिंसक व्यवस्था थी| अब वह व्यवस्था अपनी स्वाभाविक मौत मर चुकी है, सिर्फ भारत में ही इसके कुछ अनुयायी बचे हैं| विश्व में सिर्फ उत्तरी कोरिया ही एक ऐसा देश है जहाँ ईश्वर को मानने की सजा मौत है| वहाँ का निरंकुश शासक ही स्वघोषित सब कुछ है|
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भारत में जो नास्तिक मत प्रचलित हुए उनके पास एक अति गहन दर्शन था| उन्होंने ईश्वर की आवश्यकता को कभी स्वीकार नहीं किया| इन नास्तिक मतों में प्रमुख हैं ... बौद्ध और जैन मत| इन मतों का विश्व में खूब प्रचार हुआ| ये कभी हिंसक नहीं रहे| बौद्ध मत में 'निर्वाण', और जैन मत में 'वीतरागता' लक्ष्य रही|
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अपना प्रश्न यह है कि हमें ईश्वर की आवश्यकता क्यों है? आवश्यकता है भी या नहीं? मनुष्य संसार में सुख, शांति और समृद्धि ढूँढता है, पर उसे सदा निराशा मिलती है| अंततः हार कर वह विचार करता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, यह सृष्टि क्यों है, सृष्टिकर्ता कौन है आदि आदि| यहीं से ईश्वर को जानने की जिज्ञासा का जन्म होता है| इन जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ही व्यक्ति ईश्वर की आवश्यकता को अनुभूत करता है|
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ईश्वर की आवश्यकता हमें इसलिए है कि हम ईश्वर में से आये हैं और जब तक अपने मूल में बापस नहीं लौट जाते तब तक संतुष्ट नहीं हो सकते, तब तक हमें कोई सुख शांति और सुरक्षा नहीं मिल सकती| यह सृष्टि बनी ही ऐसे है| इसका नियम भी यही है| कोई चाहे या न चाहे प्रत्येक जीव को बापस अपने मूल में लौटना ही पड़ता है| जो इसे समझते हैं वे बिना कष्ट पाए चले जाते है और जो नहीं समझते उन्हें कष्ट पाकर लौटना ही पड़ता है| प्रत्येक जीव को शिव बनना ही पड़ता है यही सृष्टि का नियम है| जिस परम चेतना से हमारा प्रादुर्भाव हुआ है उस चेतना में अपने अहंभाव को नष्ट कर हमें विलीन होना ही पड़ेगा| ईश्वर "सच्चिदानन्द" है जिसे उपलब्ध होने के लिए ही हमारा अस्तित्व हुआ है यही ईश्वर की सबसे बड़ी आवश्यकता है| प्रत्येक जीव का शिव बनना उसकी नियति है|
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ईश्वर पर और उसकी आवश्यकता पर जितना चिंतन भारत में हुआ है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है| खूब गहन चिंतन मनन करने, और साधना द्वारा साक्षात्कार करने के उपरांत ईश्वर के अस्तित्व और उसकी आवश्यकता को सनातन परम्परा में स्वीकार किया गया है|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ये, तु, अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, पर्युपासते | सर्वत्रागम्, अचिन्त्यम्, च, कूटस्थम्, अचलम्, ध्रुवम्" ||१२:३||
"सन्नियम्य, इन्द्रियग्रामम्, सर्वत्रा, समबुद्धयः | ते, प्राप्नुवन्ति, माम्, एव, सर्वभूतहिते, रताः" ||१२:४||
अर्थात् जो अक्षर की, अनिर्देश्य की, अव्यक्त की, सर्वव्यापक की, अचिंत्य की, कूटस्थ की, अचल ध्रुव की खोज करते हैं , सभी जगह समबुद्धि रखनेवाले, सभी भूतों के हित में लगे वे लोग मेरे पास ही आते हैं|
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हमारे जीवन में एक पीड़ादायक अभाव हर समय सदा ही रहता है| वह अभाव सिर्फ ईश्वर की भक्ति से ही दूर होता है| जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था उस समय १९६७, १९६८ में मैं दो वर्ष रूस में रहा| रूसी भाषा का अच्छा ज्ञान था| मेरी आयु १९-२० वर्ष की थी पर हर समय कुछ नया जानने और सीखने की प्रबल जिज्ञासा रहती थी| वहाँ ईश्वर का नाम लेने, धार्मिक कर्मकांड, किसी भी तरह के धार्मिक साहित्य और गतिविधि पर पूर्ण प्रतिबन्ध था| नास्तिकता ही राजधर्म थी| वहाँ की व्यवस्था की सोच यह थी कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता (जैसे रोटी, कपड़ा और मकान) पूरी हो जाए और व्यक्ति समर्पित होकर पूर्ण रूप से राज्य व्यवस्था के लिए कार्य करे| सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था वहाँ एकदम समाप्त हो गयी थी| उस घोर नास्तिक व्यवस्था में लोगो की वेदना और तड़प को मैंने प्रत्यक्ष देखा और अनुभूत किया है| लोग अपने आतंरिक अभाव की पूर्ती शराब और सेक्स से ही करने का प्रयास करते थे| किसी भी उत्सव पर या सप्ताहांत में जिधर देखो उधर चारों ओर नशे में चूर युवक युवतियों की भीड़ बिना किसी वर्जना के दिखाई देती थी| उन्ही दिनों तीन महीने लातविया की राजधानी रीगा में भी रहने का अवसर मिला| वहाँ के लोगों की तड़प तो रूसियों से भी अधिक थी| अब तो यह सोचकर काँप उठता हूँ कि बिना ईश्वर के कैसा अर्थहीन जीवन होता है| १९८० में २० दिन के लिए उत्तरी कोरिया जाने का अवसर मिला था| वहाँ के सभी अधिकारियों को रूसी भाषा आती थी अतः संवाद में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई| वहां की घोर नास्तिक व्यवस्था में मनुष्य सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाली मशीन के अलावा और कुछ भी नहीं था| ऐसी नास्तिक व्यवस्था की कल्पना करते हुए भी डर लगता है| १९७६ में रोमानिया गया था कुछ दिनों के लिए| वहां भी सभी नास्तिक साम्यवादी देशों जैसा ही बुरा हाल था| क्या स्त्री क्या पुरुष सब की एक ही सोच थी कि खूब सिगरेट, शराब और सेक्स का सेवन करो और राज्य की व्यवस्था के अनुकूल रहो| १९८८ के अंत में जब साम्यवाद का पतन हुआ तब मैं संयोगवश युक्रेन के ओडेसा नगर में था| उस समय वहाँ के कुछ दृश्य भूल नहीं सकता जब अनेक युवक युवतियां राज्य की नास्तिक व्यवस्था को पूर्ण चुनौती देते हुए सार्वजनिक पार्कों में कीर्तन करते थे| पुलिस उन्हें जेल में डालती तो वहां भी वे कीर्तन करने लगते| वहाँ की नास्तिक सरकार उन लोगों से डरने लगी थी| वहाँ मैनें यह प्रत्यक्ष देखा कि जीवन में ईश्वर की क्यों आवश्यकता है| जीवन में बहुत नास्तिक लोगों को देखा है उनका जीवन सदा असंतुष्ट और दुःखी ही रहता है| इससे अधिक और लिखना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| सभी को धन्यवाद!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०१३
क्या परमात्मा है ? हमें जीवन में परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ?......
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कुछ शाश्वत जिज्ञासाएँ और प्रश्न हैं उनमें से सबसे बड़ी जिज्ञासा रही है कि क्या परमात्मा है और हमें उसकी आवश्यकता क्यों है? विश्व में ईसाईयत और इस्लाम ने अपनी अपनी ईश्वर की अवधारणाएँ विकसित कीं और बहुत ही निर्मम और हिंसक तरीके से अपनी मान्यताओं को विश्व में स्थापित किया| पर ये दोनों विचारधाराएँ आपस में सदा युद्धरत रहीं| इनका मत था कि सभी इनकी मान्यताओं को या तो मानें अन्यथा मरने के लिए तैयार रहें| इस्लाम, ईसाई और यहूदी .... इन तीनों मतों का जन्म मध्यपूर्व में हुआ और तीनों इब्राहिमी (Abrahamic religion) मत हैं पर तीनों में कोई समानता नहीं है| इतिहास में ये आपस में सदा युद्धरत रहे हैं| इनमें कभी यह चिंतन नहीं किया गया कि परमात्मा की आवश्यकता क्यों है|
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रूस में नास्तिक साम्यवादी विचारधारा विकसित हुई जो बलात् सब पर थोपी गयी, जहाँ ईश्वर को मानने का अर्थ था अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना| यह भी बहुत अधिक हिंसक व्यवस्था थी| अब वह व्यवस्था अपनी स्वाभाविक मौत मर चुकी है, सिर्फ भारत में ही इसके कुछ अनुयायी बचे हैं| विश्व में सिर्फ उत्तरी कोरिया ही एक ऐसा देश है जहाँ ईश्वर को मानने की सजा मौत है| वहाँ का निरंकुश शासक ही स्वघोषित सब कुछ है|
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भारत में जो नास्तिक मत प्रचलित हुए उनके पास एक अति गहन दर्शन था| उन्होंने ईश्वर की आवश्यकता को कभी स्वीकार नहीं किया| इन नास्तिक मतों में प्रमुख हैं ... बौद्ध और जैन मत| इन मतों का विश्व में खूब प्रचार हुआ| ये कभी हिंसक नहीं रहे| बौद्ध मत में 'निर्वाण', और जैन मत में 'वीतरागता' लक्ष्य रही|
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अपना प्रश्न यह है कि हमें ईश्वर की आवश्यकता क्यों है? आवश्यकता है भी या नहीं? मनुष्य संसार में सुख, शांति और समृद्धि ढूँढता है, पर उसे सदा निराशा मिलती है| अंततः हार कर वह विचार करता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, यह सृष्टि क्यों है, सृष्टिकर्ता कौन है आदि आदि| यहीं से ईश्वर को जानने की जिज्ञासा का जन्म होता है| इन जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ही व्यक्ति ईश्वर की आवश्यकता को अनुभूत करता है|
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ईश्वर की आवश्यकता हमें इसलिए है कि हम ईश्वर में से आये हैं और जब तक अपने मूल में बापस नहीं लौट जाते तब तक संतुष्ट नहीं हो सकते, तब तक हमें कोई सुख शांति और सुरक्षा नहीं मिल सकती| यह सृष्टि बनी ही ऐसे है| इसका नियम भी यही है| कोई चाहे या न चाहे प्रत्येक जीव को बापस अपने मूल में लौटना ही पड़ता है| जो इसे समझते हैं वे बिना कष्ट पाए चले जाते है और जो नहीं समझते उन्हें कष्ट पाकर लौटना ही पड़ता है| प्रत्येक जीव को शिव बनना ही पड़ता है यही सृष्टि का नियम है| जिस परम चेतना से हमारा प्रादुर्भाव हुआ है उस चेतना में अपने अहंभाव को नष्ट कर हमें विलीन होना ही पड़ेगा| ईश्वर "सच्चिदानन्द" है जिसे उपलब्ध होने के लिए ही हमारा अस्तित्व हुआ है यही ईश्वर की सबसे बड़ी आवश्यकता है| प्रत्येक जीव का शिव बनना उसकी नियति है|
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ईश्वर पर और उसकी आवश्यकता पर जितना चिंतन भारत में हुआ है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है| खूब गहन चिंतन मनन करने, और साधना द्वारा साक्षात्कार करने के उपरांत ईश्वर के अस्तित्व और उसकी आवश्यकता को सनातन परम्परा में स्वीकार किया गया है|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ये, तु, अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, पर्युपासते | सर्वत्रागम्, अचिन्त्यम्, च, कूटस्थम्, अचलम्, ध्रुवम्" ||१२:३||
"सन्नियम्य, इन्द्रियग्रामम्, सर्वत्रा, समबुद्धयः | ते, प्राप्नुवन्ति, माम्, एव, सर्वभूतहिते, रताः" ||१२:४||
अर्थात् जो अक्षर की, अनिर्देश्य की, अव्यक्त की, सर्वव्यापक की, अचिंत्य की, कूटस्थ की, अचल ध्रुव की खोज करते हैं , सभी जगह समबुद्धि रखनेवाले, सभी भूतों के हित में लगे वे लोग मेरे पास ही आते हैं|
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हमारे जीवन में एक पीड़ादायक अभाव हर समय सदा ही रहता है| वह अभाव सिर्फ ईश्वर की भक्ति से ही दूर होता है| जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था उस समय १९६७, १९६८ में मैं दो वर्ष रूस में रहा| रूसी भाषा का अच्छा ज्ञान था| मेरी आयु १९-२० वर्ष की थी पर हर समय कुछ नया जानने और सीखने की प्रबल जिज्ञासा रहती थी| वहाँ ईश्वर का नाम लेने, धार्मिक कर्मकांड, किसी भी तरह के धार्मिक साहित्य और गतिविधि पर पूर्ण प्रतिबन्ध था| नास्तिकता ही राजधर्म थी| वहाँ की व्यवस्था की सोच यह थी कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता (जैसे रोटी, कपड़ा और मकान) पूरी हो जाए और व्यक्ति समर्पित होकर पूर्ण रूप से राज्य व्यवस्था के लिए कार्य करे| सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था वहाँ एकदम समाप्त हो गयी थी| उस घोर नास्तिक व्यवस्था में लोगो की वेदना और तड़प को मैंने प्रत्यक्ष देखा और अनुभूत किया है| लोग अपने आतंरिक अभाव की पूर्ती शराब और सेक्स से ही करने का प्रयास करते थे| किसी भी उत्सव पर या सप्ताहांत में जिधर देखो उधर चारों ओर नशे में चूर युवक युवतियों की भीड़ बिना किसी वर्जना के दिखाई देती थी| उन्ही दिनों तीन महीने लातविया की राजधानी रीगा में भी रहने का अवसर मिला| वहाँ के लोगों की तड़प तो रूसियों से भी अधिक थी| अब तो यह सोचकर काँप उठता हूँ कि बिना ईश्वर के कैसा अर्थहीन जीवन होता है| १९८० में २० दिन के लिए उत्तरी कोरिया जाने का अवसर मिला था| वहाँ के सभी अधिकारियों को रूसी भाषा आती थी अतः संवाद में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई| वहां की घोर नास्तिक व्यवस्था में मनुष्य सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाली मशीन के अलावा और कुछ भी नहीं था| ऐसी नास्तिक व्यवस्था की कल्पना करते हुए भी डर लगता है| १९७६ में रोमानिया गया था कुछ दिनों के लिए| वहां भी सभी नास्तिक साम्यवादी देशों जैसा ही बुरा हाल था| क्या स्त्री क्या पुरुष सब की एक ही सोच थी कि खूब सिगरेट, शराब और सेक्स का सेवन करो और राज्य की व्यवस्था के अनुकूल रहो| १९८८ के अंत में जब साम्यवाद का पतन हुआ तब मैं संयोगवश युक्रेन के ओडेसा नगर में था| उस समय वहाँ के कुछ दृश्य भूल नहीं सकता जब अनेक युवक युवतियां राज्य की नास्तिक व्यवस्था को पूर्ण चुनौती देते हुए सार्वजनिक पार्कों में कीर्तन करते थे| पुलिस उन्हें जेल में डालती तो वहां भी वे कीर्तन करने लगते| वहाँ की नास्तिक सरकार उन लोगों से डरने लगी थी| वहाँ मैनें यह प्रत्यक्ष देखा कि जीवन में ईश्वर की क्यों आवश्यकता है| जीवन में बहुत नास्तिक लोगों को देखा है उनका जीवन सदा असंतुष्ट और दुःखी ही रहता है| इससे अधिक और लिखना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| सभी को धन्यवाद!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०१३