Friday, 20 August 2021

आप सब में अपने प्रभु को नमन !! मैं दो-तीन बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ --

 

आप सब में अपने प्रभु को नमन !! मैं दो-तीन बातें स्पष्ट करना चाहता हूँ --
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(१) मैं फेसबुक पर जो कुछ भी लिखता हूँ, वह कोई घोषणा नहीं, बल्कि मेरे प्रेम और भावनाओं की अभिव्यक्ति है। यह मेरा सत्संग है।
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(२) मेरा उद्देश्य किसी को सुधारना या स्वयं सुधरना नहीं है। किसी के विचार मुझे अच्छे नहीं लगते तो मैं उन्हें नहीं पढ़ता या नहीं सुनता। किसी के अच्छे लगते हैं तो पढ़ता व सुनता हूँ।
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(३) मुझे भगवान की कृपा से फेसबुक पर ही अनेक बहुत ही अच्छे और शानदार लोग मिले हैं, जो अन्यत्र नहीं मिल सकते थे। कई प्रख्यात विद्वानों और महात्माओं से परिचय हुआ। ऐसे भक्त महात्मा और ज्ञानी भी मिले हैं जिनके पास बैठने मात्र से ही भक्ति जागृत हो जाती है। ऐसे महात्मा भी मिले हैं जिनके पास बैठने मात्र से ही निज चैतन्य में वेदान्त जागृत हो जाता है।
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यह सब मैं भगवान की कृपा मानता हूँ। मेरा प्रेम ही है जो मुझे इस मंच पर रखे हुये है, अन्यथा मैं निःस्पृह हूँ। अच्छे-बुरे जो भी अनुभव मुझे हो रहे हैं, वे मेरे कर्मों के फल हैं, जिनसे मेरे कर्म ही कट रहे हैं। आप सब से हो रहा संवाद भी मेरे संस्कारों के कारण है, और कुछ नहीं।
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आप सब में अपने प्रभु को नमन !! ॐ तत्सत् !!
२० अगस्त २०२१

भगवान से परमप्रेम (भक्ति) जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है ---

भगवान से परमप्रेम (भक्ति) जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जब भी भगवान की याद आये वह क्षण सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है। जिस समय दोनों नासिकाओं से साँस चल रही हो, वह ध्यान करने का सर्वश्रेष्ठ समय है। भगवान से अधिक सुलभ कोई अन्य नहीं है। हम अपने स्वार्थ के लिए उन्हें याद करते हैं तो वे नहीं आते, अन्यथा तो वे निरंतर समक्ष हैं। जब चारों ओर घोर अन्धकार हो, जीवन की विपरीततम परिस्थितियाँ हों, कहीं कोई आशा की कोई किरण दिखाई न दे, तब सदगुरु रूप में भगवान ही हैं जो हमारा साथ नहीं छोड़ते। हम ही उन्हें भुला सकते हैं पर वे हमें नहीं भुलाते। उनसे मित्रता बनाकर रखें। वे इस जन्म से पूर्व भी हमारे साथ थे, और इस जन्म के पश्चात भी सभी जन्मों में हमारे साथ शाश्वत रूप से रहेंगे। अपनी सारी पीड़ाएँ, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो। वे ही हैं जो हमारे माध्यम से दुखी हैं। वे ही कष्ट बन कर आये हैं, और वे ही समाधान बन कर आयेंगे। उन्हें मत भूलो, वे भी हमें नहीं भूलेंगे। निरंतर उनका स्मरण करो। जब भूल जाओ, तब याद आते ही फिर उन्हें स्मरण करना आरम्भ कर दो। हमारे सुख दुःख सभी में वे हमारे ही साथ रहेंगे.
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अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो। यह उन्हीं का प्रेम था, जो हमें माँ बाप, भाई-बहिनों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों व परिचितों-अपरिचितों के माध्यम से मिला। उन्हीं के प्रेम से हमें वह शक्ति मिली है, जिससे हम वर्तमान में चैतन्य हैं। वे ही हमारे हृदय में धड़क रहे हैं, फेफड़ों से सांस ले रहे हैं, आँखों से देख रहे हैं, पैरों से चल रहें हैं, और अन्तःकरण की समस्त क्रियाओं को सम्पन्न कर रहे हैं। उन्होंने स्वयं को छिपा रखा है पर हर समय हमारे साथ हैं। मैं उनके प्रति पूर्णतः समर्पित हूँ। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अगस्त २०२१


यह संसार एक युद्धभूमि है, हमारा जीवन किसी युद्ध से कम नहीं है ---

 

यह संसार एक युद्धभूमि है, हमारा जीवन किसी युद्ध से कम नहीं है ---
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यह संसार एक युद्धभूमि है, और हमारा जीवन किसी भी युद्ध से कम नहीं है। हम तो निमित्तमात्र है। भगवान स्वयं ही कर्ता और भोक्ता है। जहाँ हम स्वयं को कर्ता व भोक्ता मान लेते हैं, वहीं इसके परिणाम हमारे कर्मफलों में जुड़ जाते हैं। इस युद्ध में निःस्पृह समभाव और सत्यनिष्ठा से परमात्मा की चेतना में रत रहते हुए युद्ध करना हमारा स्वधर्म है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, और जय-पराजय में कोई राग-द्वेष न हो तो कोई पाप नहीं लगेगा। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२:३८॥"
अर्थात् - "सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा॥"
शरीर को अपना रूप समझना एक बहुत बड़ा पाप है। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही हो जाता है। यह सृष्टि हमारे ही विचारों का घनीभूत रूप है। जिन के विचार एक समान हों उन्हें "सुहृत्" कहते हैं। परमार्थ और मुमुक्षा के लिए साधना करने वालों के लिए सबसे बड़ी बाधा इस भौतिक देह की चेतना है।
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आज्ञाचक्र से ऊपर इस विराट अनंत आकाश में भगवान वासुदेव या परमशिव की एक छवि बनाकर रखो, जिसमें सारी सृष्टि समाहित है, और जो सारी सृष्टि में व्याप्त है। उससे परे व उससे अन्य कुछ भी नहीं है। उसी का ध्यान करते हुए, अपने पृथक अस्तित्व के बोध को उसी में समर्पित कर दो। उसी की चेतना में प्राणायाम, हंसः योग, नाद श्रवण, क्रियायोग, जपयोग, प्रत्यभिज्ञा ध्यान, आदि जिसकी भी प्रेरणा भगवान से मिले, वह साधना करो, लेकिन कर्ता भगवान को ही बनाओ। भगवान एक प्रवाह हैं, जिन्हें स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें। वे एक रस हैं, जिनका स्वाद चखें।
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एक बात याद रखें कि यह शरीर एक धोखेबाज मित्र है, उसकी देखभाल के लिए उसे उतना ही दें जितना उसके लिए आवश्यक है। इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ, वह एक वाहन मात्र है, जिसकी maintenance भी आवश्यक है।
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जो हम करना चाहते हैं, वह कर नहीं पाते। जो हम जानना चाहते हैं, वह जान नहीं पाते। यही हमारी पीड़ा है। कुछ करने, जानने व पाने की अतृप्त इच्छाओं को परमात्मा को सौंप दें। कुछ भी इच्छा या कामना को न रखें। परमात्मा में समर्पण ही वास्तविक स्वतन्त्रता है। परमात्मा में भक्ति द्वारा समर्पण से ही वैराग्य और ज्ञान की प्राप्ति होती है, और उसी से हमें मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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परमात्मा से पृथकता ही अज्ञान है, और यह अज्ञान ही सबसे बड़ा बंधन है। अब अतिम प्रश्न है कि आरंभ कहाँ से करे। यह भी भगवान पर छोड़ दें कि वे आरंभ कहाँ से करायें। मन-पसंद का भाव हमारा बहुत बड़ा शत्रु है।
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इस संसार में करने योग्य दो ही काम हैं --
(१) पूर्ण हृदय व पूर्ण प्रेम से परमात्मा का निरंतर ध्यान, जो हमारा स्वधर्म है।
(२) उसके पश्चात अपने स्वभावानुसार राष्ट्रधर्म और सामाजिक दायित्वों का पूर्ण निष्ठा से निर्वहन।
बाकि अन्य सब समय का दुरुपयोग है। शेष कुशल।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अगस्त २०२१
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पुनश्च: ---
(१) "सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये, जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में, तू अकेला नाहिं प्यारे, राम तेरे साथ में। विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये, जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये॥"
(२) "सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥"

परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही सबसे बड़ी साधना है ---

 

दान-पुण्य से उत्तम गति तो प्राप्त होती है, पर जन्म-मरण से छुटकारा नहीं मिलता। परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही सबसे बड़ी साधना है। गीता में भगवान कहते हैं --
"तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिः।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥६:४६॥"
अर्थात् - "क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो॥"
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पीछे मुड़कर न देखें, दृष्टि सदा सामने ही रहे, व चलते रहें। रुको मत। मन लगे या न लगे, अपना साधन न छोड़ें। दिन में तीन-चार घंटे तो भजन (नामजप, ध्यान प्राणायाम आदि) करना ही है। कोई बहाने न बनाएँ। मन नहीं लगे तो भी बैठे रहो, पर साधन छूटना नहीं चाहिए। बाधाएँ तो बहुत आयेंगी। असुर और देवता भी नहीं चाहते कि किसी साधक की साधना सफल हो। वे भी मार्ग में बाधाएँ उत्पन्न करते रहते हैं। इस मार्ग में सिर्फ सद्गुरु की कृपा ही काम आती है। गुरु चूंकि परमात्मा के साथ एक है, और उनसे बड़ा हितकारी अन्य कोई नहीं है, अतः उन्हीं की कृपा साधक की रक्षा करती है।
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सूक्ष्म प्राणायाम द्वारा पाप नष्ट होते हैं, जिनकी विधि सिद्ध गुरु ही बता सकता है। गुरु सेवा का अर्थ होता है -- "गुरु-प्रदत्त साधना का अनवरत नियमित अभ्यास।" परमात्मा के किस रूप का ध्यान करना है, वह भी गुरु ही बताता है।
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सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अगस्त २०२१

समस्याओं के सब बहाने झूठे हैं, हमारी कोई समस्या नहीं है ---

 

समस्याओं के सब बहाने झूठे हैं, हमारी कोई समस्या नहीं है ---
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सारी समस्याएँ परमात्मा की हैं। हमारी एकमात्र समस्या आत्म-साक्षात्कार यानि परमात्मा की प्राप्ति है। इसलिए आज्ञाचक्र पर या उससे ऊपर ध्यान रखते हुए परमात्मा का निरंतर स्मरण करें। गीता में भगवान कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - "इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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कूटस्थ-चैतन्य में निरंतर स्थिति सब समस्याओं का समाधान है. ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१८ अगस्त २०२१

प्रत्यभिज्ञा --- (संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख)

 

प्रत्यभिज्ञा --- (संशोधित व पुनर्प्रेषित लेख)
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अपने समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग ईश्वर-प्रदत्त विवेक के प्रकाश में करें। आग लगने पर कुआँ नहीं खोदा जा सकता, कुएँ को तो पहिले से ही खोद कर रखना पड़ता है। जिस भौतिक विश्व में हम रहते हैं, उससे भी बहुत अधिक बड़ा एक सूक्ष्म जगत हमारे चारों ओर है, जिसमें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह की सत्ताएँ हैं।
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जितना हम अपनी दिव्यता की ओर बढ़ते हैं, ये नकारात्मक शक्तियां उतनी ही प्रबलता से हम पर अधिकार करने का प्रयास करती हैं। हम जीवन में कई बार न चाहते हुए भी अनेक क्षुद्रताओं से बंधे हुए एक पशु की तरह आचरण करने लगते हैं, और चाह कर भी बच नहीं पाते व गहरे से गहरे गड्ढों में गिरते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए?
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वर्षों पहले युवावस्था में एक पुस्तक पढ़ी थी जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध के एक युद्धक वायुयान चालक (Pilot) के अनुभव थे। वह वायुयान अपने लक्ष्य की ओर जा रहा था कि पायलट ने देखा कि एक चूहा एक बिजली के तार को काट रहा था| यदि चूहा उस तार को काटने में सफल हो जाता तो यान की विद्युत प्रणाली बंद हो जाती और विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता। पायलट उस चूहे को किसी भी तरह से भगाने में असमर्थ था। समय बहुत कम और कीमती था। चालक ने भगवान को स्मरण किया, और विमान को उस अधिकतम ऊंचाई तक ले गया जहाँ तक जाना संभव था। वहाँ वायु का दबाव कम हो गया जिसे चूहा सहन नहीं कर पाया और बेहोश हो कर गिर गया। पायलट अपना कार्य पूरा कर सुरक्षित बापस आ गया। उस की रक्षा ऊँचाई के कारण हुई।
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बाज पक्षी कई बार ऐसे पशु का मांस खा जाते हैं जिसे कौवे खाना चाहते हैं। बाज के आगे कौवे असहाय होते हैं पर वे हिम्मत नहीं हारते। कौवा बाज़ की पीठ पर बैठ जाता है, और उसकी गर्दन पर अपनी चोंच से घातक प्रहार करता है, और काटता है। बाज भी ऐसी स्थिति में कौवे के आगे असहाय हो जाते हैं। बाज अपना समय नष्ट नहीं करते, और अपने पंख खोलकर आकाश में बहुत अधिक ऊँचाई पर चले जाते हैं। ऊँचाई पर वायु का दबाव कम होने से कौवा बेहोश होकर नीचे गिर जाता है। यहाँ भी बाज की रक्षा ऊँचाई से होती है।
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लोभ, कामुकता, अहंकार, क्रोध, प्रमाद व दीर्घसूत्रता जैसी वासनायें हमें नीचे गड्ढों में गिराती हैं, जिन से बचने के किए हमें अपनी चेतना को अधिक से अधिक ऊँचाई पर रखनी चाहिए, यानि अपने विचारों व चिंतन का स्तर ऊँचे से ऊँचा रखना चाहिए। अपनी चेतना को उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में रखने का अभ्यास करना चाहिए। वासनायें ... चूहों व कौवों की तरह हैं, जिन पर अपना समय नष्ट न करें। स्वयं भाव-जगत की ऊँचाइयों पर परमशिव की चेतना में रहें, ये क्षुद्रतायें अपने आप ही नष्ट हो जायेंगी।
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शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !! ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० अगस्त २०२१
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("प्रत्यभिज्ञा" शब्द कश्मीर शैव दर्शन का है। इसका अर्थ है -- जाने हुए विषय को पुनः विशेष रूप से जानना। "प्रत्यभिज्ञा-दर्शन" भी कश्मीर शैव मत की एक शाखा है)

हरेक घर का वातावरण भयमुक्त और प्रेममय हो ---

 

हरेक घर का वातावरण भयमुक्त और प्रेममय हो| घर के बच्चों में इतना साहस विकसित करें कि वे अपनी कोई भी समस्या या कोई भी उलझन बिना किसी भय और झिझक के अपने माता/पिता व अन्य सम्बन्धियों को बता सकें| बच्चों की समस्याओं को ध्यान से सुनें, उन्हें डांटें नहीं, उनके प्रश्नों का उसी समय तुरंत उत्तर दें| इससे बच्चे भी माँ-बाप व बड़े-बूढों का सम्मान करेंगे| हम अपने बालकों की उपेक्षा करते हैं, उन्हें डराते-धमकाते हैं, इसीलिए बच्चे बड़े होकर माँ-बाप का सम्मान नहीं करते|
परिवार के सभी सदस्य दिन में कम से कम एक बार साथ साथ बैठकर पूजा-पाठ/ ध्यान आदि करें, और कम से कम दिन में एक बार साथ साथ बैठकर प्रेम से भोजन करें| इस से परिवार में एकता बनी रहेगी| बच्चों में परमात्मा के प्रति प्रेम विकसित करें, उन्हें प्रचूर मात्रा में सद बाल साहित्य उपलब्ध करवाएँ और उनकी संगती पर निगाह रखें| माँ-बाप स्वयं अपना सर्वश्रेष्ठ सदाचारी आचरण का आदर्श अपने बच्चों के समक्ष रखें| इस से बच्चे बड़े होकर हमारे से दूर नहीं भागेंगे| लड़कियाँ भी घर-परिवार से भागकर लव ज़िहाद का शिकार नहीं होंगी|
ॐ तत्सत्।
कृपा शंकर
२० अगस्त २०२०