यह संसार एक युद्धभूमि है, हमारा जीवन किसी युद्ध से कम नहीं है ---
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यह संसार एक युद्धभूमि है, और हमारा जीवन किसी भी युद्ध से कम नहीं है। हम तो निमित्तमात्र है। भगवान स्वयं ही कर्ता और भोक्ता है। जहाँ हम स्वयं को कर्ता व भोक्ता मान लेते हैं, वहीं इसके परिणाम हमारे कर्मफलों में जुड़ जाते हैं। इस युद्ध में निःस्पृह समभाव और सत्यनिष्ठा से परमात्मा की चेतना में रत रहते हुए युद्ध करना हमारा स्वधर्म है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, और जय-पराजय में कोई राग-द्वेष न हो तो कोई पाप नहीं लगेगा। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ---
"सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥२:३८॥"
अर्थात् - "सुख-दु:ख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ; इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा॥"
शरीर को अपना रूप समझना एक बहुत बड़ा पाप है। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही हो जाता है। यह सृष्टि हमारे ही विचारों का घनीभूत रूप है। जिन के विचार एक समान हों उन्हें "सुहृत्" कहते हैं। परमार्थ और मुमुक्षा के लिए साधना करने वालों के लिए सबसे बड़ी बाधा इस भौतिक देह की चेतना है।
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आज्ञाचक्र से ऊपर इस विराट अनंत आकाश में भगवान वासुदेव या परमशिव की एक छवि बनाकर रखो, जिसमें सारी सृष्टि समाहित है, और जो सारी सृष्टि में व्याप्त है। उससे परे व उससे अन्य कुछ भी नहीं है। उसी का ध्यान करते हुए, अपने पृथक अस्तित्व के बोध को उसी में समर्पित कर दो। उसी की चेतना में प्राणायाम, हंसः योग, नाद श्रवण, क्रियायोग, जपयोग, प्रत्यभिज्ञा ध्यान, आदि जिसकी भी प्रेरणा भगवान से मिले, वह साधना करो, लेकिन कर्ता भगवान को ही बनाओ। भगवान एक प्रवाह हैं, जिन्हें स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें। वे एक रस हैं, जिनका स्वाद चखें।
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एक बात याद रखें कि यह शरीर एक धोखेबाज मित्र है, उसकी देखभाल के लिए उसे उतना ही दें जितना उसके लिए आवश्यक है। इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ, वह एक वाहन मात्र है, जिसकी maintenance भी आवश्यक है।
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जो हम करना चाहते हैं, वह कर नहीं पाते। जो हम जानना चाहते हैं, वह जान नहीं पाते। यही हमारी पीड़ा है। कुछ करने, जानने व पाने की अतृप्त इच्छाओं को परमात्मा को सौंप दें। कुछ भी इच्छा या कामना को न रखें। परमात्मा में समर्पण ही वास्तविक स्वतन्त्रता है। परमात्मा में भक्ति द्वारा समर्पण से ही वैराग्य और ज्ञान की प्राप्ति होती है, और उसी से हमें मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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परमात्मा से पृथकता ही अज्ञान है, और यह अज्ञान ही सबसे बड़ा बंधन है। अब अतिम प्रश्न है कि आरंभ कहाँ से करे। यह भी भगवान पर छोड़ दें कि वे आरंभ कहाँ से करायें। मन-पसंद का भाव हमारा बहुत बड़ा शत्रु है।
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इस संसार में करने योग्य दो ही काम हैं --
(१) पूर्ण हृदय व पूर्ण प्रेम से परमात्मा का निरंतर ध्यान, जो हमारा स्वधर्म है।
(२) उसके पश्चात अपने स्वभावानुसार राष्ट्रधर्म और सामाजिक दायित्वों का पूर्ण निष्ठा से निर्वहन।
बाकि अन्य सब समय का दुरुपयोग है। शेष कुशल।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ अगस्त २०२१
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पुनश्च: ---
(१) "सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये, जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। मुख में हो राम नाम, राम सेवा हाथ में, तू अकेला नाहिं प्यारे, राम तेरे साथ में। विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिये, जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये॥"
(२) "सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥"