Tuesday, 30 April 2019

बिना जनसंख्या-नियंत्रण के रोजगार सृजन कैसे होंगे ?

बिना जनसंख्या-नियंत्रण के रोजगार सृजन कैसे होंगे ?
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आजकल के नवयुवकों में और सामान्य लोगों में विरोधी दल यह भ्रम फैला रहे हैं कि वर्त्तमान सरकार नवयुवकों / नवयुवतियों को रोजगार देने में विफल रही है, और जब उनकी सरकार बनेगी तब वे सभी को रोजगार देंगे| यह एक दुष्प्रचार मात्र ही है| क्या वे यह स्पष्ट करेंगे कि इतने रोजगारों का सृजन कैसे होगा? 
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बेरोजगारी का कारण है बढ़ी हुई जनसंख्या है जिस पर भारत की वर्त्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में नियंत्रण असम्भव है| जनसंख्या पर नियंत्रण सिर्फ चीन ही कर पाया है और वह भी बन्दूक की नोक पर| वहाँ एक तानाशाही सरकार है अतः वहाँ यह संभव हो पाया| भारत में यह संभव नहीं है|
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चीन में मेरा परिचय कई ऐसे सभ्रांत समृद्ध लोगों से भी हुआ था जिन के दो दो बच्चे थे| पर उन लोगों को किसी भी तरह की कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती थी| वे अधिकतर ऐसे व्यापारी थे जिनका व्यापार विदेशों में भी था| सिर्फ उन्हें ही दो बच्चे पैदा करने की छूट थी, बाकि सब को सिर्फ एक ही बालक पैदा करने की अनुमति थी|

प्रभु उसकी बुद्धि हर लेते हैं .....

"जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकी मति पहले हर लेही|"
"जाको विधि पूरन सुख देहीं, ताकी मति निर्मल कर देहि|"
जब प्रारब्ध में बुरे कर्मों के फल मिलने का समय आता है तो सबसे पहिले विधि उसकी बुद्धि को हर लेती है| इसी तरह जब अच्छे कर्मों का फल मिलने वाला होता है तब बुद्धि निर्मल हो जाती है|
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योगसुत्रों में एक ऋतंभरा प्रज्ञा की बात कही गयी है| जब वह प्राप्त हो जाती है तब कभी विपरीत बुद्धि नहीं होती यानि बुद्धि कभी कुबुद्धि नहीं होती|

क्या स्वयं से पृथक कोई अस्तित्व है?

क्या स्वयं से पृथक कोई अस्तित्व है? क्या स्वयं से पृथक कोई परमात्मा, भगवान या ईश्वर है?
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इस प्रश्न का उत्तर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में दिया है .....
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई | जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ||"
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महाभारत में यक्षप्रश्नों के उत्तर में महाराज युधिष्ठिर एक स्थान पर कहते हैं ...
"श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् |
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः ||"
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इन से अधिक अच्छे आध्यात्मिक उत्तर कोई नहीं हो सकते| बाकी सब की अपनी अपनी निजी अनुभूतियाँ हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर .
२८ अप्रेल २०१९

आत्मानुभूति ......

आत्मानुभूति ......
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यह एक स्वभाविक प्रक्रिया है जिसके लिए मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता| निश्चित रूप से यह कोई पूर्व जन्म की साधना का फल है, क्योंकि इस जन्म में तो मुझे नहीं लगता कि मैंने कोई ऐसा कार्य किया है जिस से भगवान प्रसन्न हों| जीवन में कई बार प्रयास किया विधिवत रूप से सन्यस्त होने का, पर मेरे प्रारब्ध में ऐसा कोई योग नहीं था| 
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जब भी एकांत में हर तरह के कोलाहल से दूर होकर बैठता हूँ तब दृष्टी स्वतः ही भ्रूमध्य में जाकर टिक जाती है, और चेतना स्वाभाविक रूप से आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य उत्तरा सुषुम्ना में स्थिर हो जाती है| धीरे-धीरे एक विस्तार की अनुभूति होती है कि मैं यह देह नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि और उस से परे की अनंतता हूँ| फिर समुद्र की गर्जना की तरह की एक ध्वनि सुननी आरम्भ हो जाती है| उस ध्वनि को सुनने से अधिक आनंद अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता| लगता है कि उस ध्वनि को ही सुनता रहूँ और सारा जीवन उसी को सुनते सुनते ही व्यतीत हो जाए| इस के लिए मुझे कोई प्रयास नहीं करना पड़ता, यह बहुत ही स्वभाविक है| वह अनंतता, वह ध्वनि, उसके साथ दिखाई देने वाला प्रकाश, और आनंद की अनुभूति ही को मैं "परमशिव" कहता हूँ| वे ही मेरे इष्टदेव हैं, जो मुझ से पृथक नहीं हैं|
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और भी कई दिव्य अनुभूतियाँ हैं जिन्हें व्यक्त करने की आतंरिक अनुमति मुझे नहीं है| वे मेरे निजी रहस्य हैं जो रहस्य ही रहेंगे, व मेरे साथ ही चले जायेंगे| सबसे बड़ी आनंद की अनुभूति है.... "प्रेम", उस अनंतता से "प्रेम|"| मैं स्वयं ही प्रेममय हूँ| यह प्रेम ही अब तक की एकमात्र उपलब्धि है मेरे पास, अन्य कुछ भी मेरे पास नहीं है|
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आप सब दिव्यात्माओं को प्रेममय नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अप्रेल २०१९

भारत का भविष्य ज्योतिर्मय है ....

भारत का भविष्य ज्योतिर्मय है ....
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भारत का भविष्य ज्योतिर्मय है क्योंकि भारत की रक्षा अनेक दिव्य दैवीय देही व जीवनमुक्त महान आत्माएँ कर रही हैं| जैसे व्यक्ति के कर्मफ़ल होते हैं, वैसे ही राष्ट्र के भी सामूहिक कर्मफल होते हैं, जिन्हें भोगना ही पड़ता है| भारत भी अपने नकारात्मक कर्मफल ही भोग रहा था| अब भारत का अपना वास्तविक निर्धारित कार्य अभी बाकी है| भारत का वास्तविक भावी कार्य होगा .... "धर्म की पुनर्स्थापना|" 
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भारत कभी विफल नहीं होगा, भारत अपना कार्य करेगा| आसुरी शक्तियाँ पराभूत होंगी, उनका प्रभाव कम होगा, और सत्य की विजय होगी| मुझे इस विषय पर कोई चिंता नहीं है| मैं अपना समय जगन्माता की सेवा में अन्यत्र लगाऊंगा|
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ॐ तत्सत ! जय श्रीहरिः ! महादेव महादेव महादेव |
कृपा शंकर
२७ अप्रेल २०१९
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पुनश्चः :.... जो इस दैवीय कार्य में सहयोग करेंगे वे ही जीवित रहेंगे| अन्यों की आवश्यकता प्रकृति को नहीं रहेगी|

प्राणायाम की प्राचीन विधियाँ .....

प्राणायाम की प्राचीन विधियाँ .....
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आजकल जो हम प्राणायाम के नाम पर हठयोग की क्रियाएँ सीख रहे हैं, उनका भी अपना महत्त्व है| वे अपने स्थान पर हैं पर प्राणायाम की कुछ सूक्ष्म क्रियाएँ भी हैं जो प्राचीन काल में प्रचलित थीं| उनका ज्ञान गुरु शिष्य को, और पिता पुत्र को देता था| प्राणायाम एक आध्यात्मिक साधना है जो हमारी चेतना को परमात्मा से जोड़ता है| यह कोई श्वास-प्रश्वास का व्यायाम नहीं है, यह योग-साधना का भाग है जो हमारी प्राण चेतना को जागृत कर उसे नीचे के चक्रों से ऊपर उठाता है|
मैं यहाँ प्राणायाम की दो अति प्राचीन और विशेष विधियों का उल्लेख कर रहा हूँ| ये निरापद हैं| ध्यान साधना से पूर्व खाली पेट इन्हें करना चाहिए| इनसे ध्यान में गहराई आयेगी|
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(1)
(a) खुली हवा में पवित्र वातावरण में पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह कर के कम्बल पर बैठ जाइए| यदि भूमि पर नहीं बैठ सकते तो भूमि पर कम्बल बिछाकर, उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर कमर सीधी कर के बैठ जाइए| कमर सीधी रहनी चाहिए अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा| कमर सीधी रखने में कठिनाई हो तो नितंबों के नीचे पतली गद्दी रख लीजिये| दृष्टी भ्रूमध्य को निरंतर भेदती रहे, और ठुड्डी भूमि के समानांतर रहे|
(b) बिना किसी तनाब के फेफड़ों की पूरी वायू नाक द्वारा बाहर निकाल दीजिये, गुदा का संकुचन कीजिये, पेट को अन्दर की ओर खींचिए और ठुड्डी को नीचे की ओर कंठमूल तक झुका लीजिये| दृष्टी भ्रूमध्य में ही रहे| (इसमें तीनों बंध ... मूल बंध, उड्डियान बंध और जलंधर बंध आ जाते हैं).
(c) मेरु दंड में नाभी के पीछे के भाग मणिपुर चक्र पर मानसिक रूप से ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जितनी देर तक बिना तनाव के जप कर सकें कीजिये| इस जप के समय हम मणिपुर चक्र पर प्रहार कर रहे हैं|
(d) आवश्यक होते ही सांस लीजिये| सांस लेते समय शरीर को तनावमुक्त कर a वाली स्थिति में आइये और कुछ देर अन्दर सांस रोक कर नाभि पर प्रहार करते हुए ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जप करें|
(e) उपरोक्त क्रिया को दस बारह बार दिन में दो समय कीजिये| इस के बाद ध्यान कीजिये|
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(2)
एक दूसरी विधि है :------ उपरोक्त प्रक्रिया में a और b के बाद धीरे धीरे नाक से सांस लेते हुए निम्न मन्त्रों को सभी चक्रों पर क्रमश: मानसिक रूप से एक एक बार जपते हुए ऊपर जाएँ|
मूलाधारचक्र ........ ॐ भू:,
स्वाधिष्ठानचक्र ..... ॐ भुव:,
मणिपुरचक्र ........ ॐ स्व:,
अनाहतचक्र ........ ॐ मह:,
विशुद्धिचक्र ......... ॐ जन:,
आज्ञाचक्र ........... ॐ तप:,
सहस्त्रार.............. ॐ सत्यम् |
इसके बाद सांस स्वाभाविक रूप से चलने दें लेते हुए अपनी चेतना को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विस्तृत कर दीजिये| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं हैं| आप यह देह नहीं हैं| जैसे ईश्वर सर्वव्यापक है वैसे ही आप भी सर्वव्यापक हैं| पूरे समय तनावमुक्त रहिये|
कई अनुष्ठानों में प्राणायाम करना पड़ता है वहां यह प्राणायाम कीजिये| संध्या और ध्यान से पूर्व भी यह प्राणायाम कर सकते हैं| धन्यवाद|
कृपा शंकर
२७ अप्रेल २०१३

यतो धर्मस्ततो जयः ......

(पुनर्प्रस्तुत). यतो धर्मस्ततो जयः ......
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मेरी दृष्टी में इस आंग्ल वर्ष २०१९ में होने वाला यह लोकसभा का चुनाव एक धर्मयुद्ध और स्वतंत्रता संग्राम है| महाभारत में विभिन्न सन्दर्भों में पचास बार से अधिक "यतो धर्मस्ततो जयः" वाक्य आया है| मैं अपने पूर्ण हृदय से भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ और नित्य करूँगा कि इस चुनाव में विजय धर्म के पक्ष की ही हो, और अधर्म का नाश हो| भगवान हमें इस योग्य बनाए और इतनी क्षमता दे कि हम धर्म की रक्षा कर सकें| भगवान ने भी वचन दिया है .....
"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत| अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्||४:७||"
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्| धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे||४:८||"
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हम अपना मत धर्म के पक्ष में ही दें| विजय वहीं होगी जहाँ धर्म होगा| मुझे पूर्ण विश्वास, श्रद्धा, और आस्था है कि भगवान के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का समय आ गया है| भगवान अपना वचन निभायेंगे| मैं सभी भारतवासियों की ओर से प्रार्थना करता हूँ ..... 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो|''
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जो मनुष्यता की हानि कर रहे हैं, जो गोबध का समर्थन कर रहे हैं, जो अपनी विचारधारा और पंथों की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हिंसा कर रहे हैं, उन सब का नाश हो| जिस संस्कृति की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप, क्षत्रपति शिवाजी, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंदसिंह, बन्दा बैरागी, भाई मतिदास, संभाजी आदि आदि, और स्वतन्त्रता संग्राम के लाखों भारतियों ने अपनी अप्रतिम आहुति दी, उस सनातन संस्कृति की रक्षा हो|
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विजय निश्चित रूप से धर्म की ही होगी| गोस्वामी तुलसीदासकृत रामचरितमानस के लंकाकाण्ड में से उदधृत कर रहा हूँ .....
"रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा।।
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।"
"महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।"
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मैं भगवान श्रीराम से प्रार्थना करता हूँ, जिहोनें आतताइयों के नाश के लिए धनुष धारण कर रखा है, वे भारतवर्ष की और धर्म की रक्षा करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मार्च २०१९

नक्सलवादी आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास ....

संशोधित व पुनर्प्रेषित) नक्सलवादी आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास ....
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नक्सलवादी आन्दोलन का विचार कानू सान्याल के दिमाग की उपज थी| यह एक रहस्य है कि कानू सान्याल इतना खुराफाती कैसे हुआ| वह एक साधू आदमी था जिसका जीवन बड़ा सात्विक था| उसका जन्म एक सात्विक ब्राह्मण परिवार में हुआ था| उसकी दिनचर्या बड़ी सुव्यवस्थित थी और भगवान ने उसे बहुत अच्छा स्वास्थ्य दिया था| सन १९६२ में वह बंगाल के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री वी.सी.रॉय को काला झंडा दिखा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जहाँ उसकी भेट चारु मजुमदार से हुई|
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चारु मजूमदार एक कायस्थ परिवार से था और हृदय रोगी था, जो तेलंगाना के किसान आन्दोलन से जुड़ा हुआ था और जेल में बंदी था| दोनों की भेंट सन १९६२ में जेल में हुई और दोनों मित्र बने| सन १९६७ में दोनों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध एक घोर मार्क्सवादी आन्दोलन आरम्भ किया जो नक्सलवाद कहलाया| इस आन्दोलन में छोटे-मोटे तो अनेक नेता थे पर इनको दो और प्रभावशाली कर्मठ नेता मिल गए ........ एक तो था नागभूषण पटनायक, और दूसरा था टी.रणदिवे| इन्होनें आँध्रप्रदेश में श्रीकाकुलम के जंगलों से इस आन्दोलन का विस्तार किया|
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यह आन्दोलन पथभ्रष्ट हो गया जिससे कानु सान्याल और चारु मजूमदार में मतभेद हो गए और दोनों अलग अलग हो गए| चारु मजुमदार की मृत्यु सन १९७२ में हृदय रोग से हो गयी, और कानु सान्याल को इस आन्दोलन का सूत्रपात करने की इतनी अधिक मानसिक ग्लानी और पश्चाताप हुआ कि २३ मार्च २०१० को उसने आत्महत्या कर ली|
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वर्तमान नक्सलवादियों का मूल नक्सलवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है| मूल नक्सलवाद और नक्सलवादियों का अब कोई अस्तित्व नहीं है| वर्तमान नक्सलवादी और उनके समर्थक "ठग" है, और "ठग" के अलावा कुछ और नहीं हैं| जिस समय नक्सलबाड़ी में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने नक्सलवादी आन्दोलन का आरम्भ किया था, तब से अब तक का सारा घटनाक्रम मुझे याद है| उस समय की घटनाओं का सेकंड हैण्ड नहीं, फर्स्ट हैण्ड ज्ञान मुझे है| उस आन्दोलन से जुड़े अनेक लोग मेरे परिचित और तत्कालीन मित्र थे| जो मूल नक्सलवादी थे उनकी तीन गतियाँ हुईं .......
(१) उनमें से आधे तो पुलिस की गोली का शिकार हो गए| किसी को पता ही नहीं चलने दिया गया था कि उनका क्या हुआ, कहाँ उनकी लाशों को ठिकाने लगाया गया आदि आदि| वे अस्तित्वहीन ही हो गए|
(२) जो जीवित बचे थे उन में से आधों ने तत्कालीन सरकार से समझौता कर लिया और नक्सलवादी विचारधारा छोड़कर राष्ट्र की मुख्य धारा में बापस आ कर सरकारी नौकरियाँ ग्रहण कर लीं|
(३) बाकी बचे हुओं ने इस विचारधारा से तौबा कर ली और इस विचारधारा के घोर विरोधी हो गए|
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अब नक्सलवाद के नाम पर जो यह ठगी और लूट का काम कर रहे हैं, वे बौद्धिक आतंकवादी, ठग, डाकू और तस्कर हैं| उनका एक ही इलाज है, और वह है ...... "बन्दूक की गोली"| इसी की भाषा को वे समझते हैं| वे कोई भटके हुए नौजवान नहीं है, वे कुटिल राष्ट्रद्रोही तस्कर हैं, जिनको बिकी हुई प्रेस, वामपंथियों और राष्ट्र्विरोधियों का समर्थन प्राप्त है|
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अब आप नक्सलवादी आन्दोलन का अति संक्षिप्त इतिहास समझ गए होंगे|
वन्दे मातरं | भारत माता की जय |
कृपा शंकर
२५ अप्रेल २०१७

जातिवाद वेद विरुद्ध है .....

जातिवाद वेद विरुद्ध है .....
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जातिगत एकता की बात ही वेदविरुद्ध है| जो वेदविरुद्ध है वह हमें कभी भी स्वीकार नहीं होना चाहिए| श्रुति भगवती ब्रह्म से एकत्व सिखाती है, वहाँ कोई जाति की बात नहीं है| एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा, अर्थात सब प्राणियों में एक ही आत्मा छिपा हुआ है| प्रत्यगात्मा यानि ब्रह्म में एकत्व है| जातिगत एकता की बात करने वाले अज्ञान और माया के वशीभूत हैं|
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जो लोग जातिगत एकता की बातें करते हैं, मैं आध्यात्मिक रूप से उनका समर्थन नहीं करता हूँ| पर सामाजिक रूप से कभी कभी जातिगत एकता की बातें करना मेरी विवशता यानि मज़बूरी है क्योंकि भारत की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में अनारक्षित जातियों के विरुद्ध राजनीतिक अन्याय बहुत अधिक है|
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"जाति हमारी ब्रह्म है, माता पिता हैं राम|
गृह हमारा शुन्य है, अनहद में विश्राम||"
हमारी जाति "अच्युत" है| अर्थात् जो भगवान की जाति है, वह ही हमारी जाति है| ब्रह्म ही सत्य है और संसार मिथ्या है| अतः ब्रह्म से एकत्व ही सच्चा एकत्व है, इन सांसारिक जातियों से नहीं|
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०१९

श्रीलंका के बौद्ध अब म्यांमार के बौद्धों की तरह ही हिंसक हो गए हैं....

श्रीलंका के बौद्ध अब म्यांमार के बौद्धों की तरह ही हिंसक हो गए हैं....
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पूरे विश्व के बौद्धों में अब अहिंसा लुप्त हो गयी है, अब तो वे आत्मरक्षार्थ हिंसा को ही अपनाते हैं| भूतकाल में जहाँ जहाँ अहिंसा थी, वहाँ के अहिंसक बौद्ध, विदेशी आक्रान्ताओं की तलवार की धार का सामना नहीं कर पाए| वे या तो मार डाले गए या मतांतरित हो गए| एक समय पूरा मध्य-एशिया महायान बौद्ध मतावलंबी था जो तुर्किस्तान तक फैला हुआ था, पर अब तो वहाँ बौद्धमत के अवशेष ही मिलते हैं| समय के साथ बौद्धों ने अब अहिंसा छोड़ दी है और हिंसा का मार्ग अपना लिया है|
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श्रीलंका के बौद्ध, हीनयान शाखा के हैं जो ब्रह्मदेश (बर्मा/म्यांमार), श्याम (थाईलैंड), चंपा (कम्बोडिया), अन्नम (विएतनाम) व सुमात्रा (इंडोनेशिया) में फ़ैली| बौद्धधर्म की दोनों शाखाएँ .... हीनयान और महायान, श्रीलंका के अनुराधापुर से ही प्रचलित हुईं| महायान शाखा ... भारत, त्रिविष्टप (तिब्बत), हरिवर्ष (चीन), कोरिया, मंचूरिया, मंगोलिया व मध्य एशिया तक गयी| 
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शाक्यमुनि गौतम बुद्ध के उपदेश पाँच सौ वर्षों तक लिखे नहीं गए थे| हर एक सौ वर्ष के पश्चात उनके अनुयायियों की एक सभा होती थी जिसमें उनके उपदेशों की चर्चा होती थी| पाँचवीं और अंतिम सभा श्रीलंका के अनुराधापुर नामक स्थान पर हुई, जहाँ हुई चर्चाओं के सार को पाली भाषा में लिपिबद्ध किया गया| जिन्होनें उस समय लिपिबद्ध हुए उन उपदेशों को स्वीकार किया वे हीनयान कहलाये और अन्य महायान हुए|
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तिब्बत में फैला बौद्धमत वज्रयान कहलाया| तिब्बत में भगवती छिन्नमस्ता देवी के उपासक बहुत थे जो तंत्र-मन्त्र में अत्यधिक आस्था रखते थे| छिन्नमस्ता देवी का निवास मणिपुर चक्र में है, और वे सुषुम्ना की उपनाड़ी वज्रा में विचरण करती हैं| उनका बीजमन्त्र 'हुम्' है| वहाँ छिन्नमस्ता की साधना और बौद्धमत मिलजुल कर विकृत हुए और एक नया ही रूप सामने आया जो वज्रयान कहलाया| उन के मन्त्र .... "ॐ मणिपद्मे हुम्" का अर्थ है ... मणिपुर पद्म (कमल) में स्थित हुम् (छिन्नमस्ता) को नमन| ॐ का अर्थ यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं है|
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हरिवर्ष (चीन) में बौद्ध मत सन ००६७ ई.में कश्यप मातंग और धर्मारण्य नाम के दो ब्राह्मणों ने फैलाया| जापान में बौद्धमत 'झेन' (Zen) कहलाता है| संस्कृत का एक शब्द 'ध्यान' है जो अपभ्रंस होकर चीन में 'चान' या 'चेन' हो गया, और जापान तक पहुँचते पहुँचते 'झेन' हो गया| इस झेन बौद्धमत को बोधिधर्म नाम के एक भारतीय धर्मंप्रचारक ने फैलाया| बोधिधर्म को कुछ इतिहासकार ब्राह्मण बताते हैं और कुछ क्षत्रिय बताते हैं| जो भी हो, ईसा की छठी शताब्दी में बोधिधर्म भारत से चीन गए और वहां के हुनान प्रांत के प्रसिद्ध शाओलिन मंदिर में कुछ समय तक रहे| वहाँ से वे जापान गए और ध्यान साधना पर आधारित झेन बौद्धमत को फैलाया जो शताब्दियों तक वहाँ का राजधर्म रहा| कोरिया में बौद्ध मत को 'शाक्यमुनि' ही कहते हैं|
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इस लेख को लिखने का उद्देश्य यह बताना ही है कि हिंसा का प्रतिकार हिंसा से ही हो सकता है, अहिंसा से नहीं| धर्म की रक्षा के लिए हिंसा भी आवश्यक है| पूरा मध्य एशिया बौद्ध था जहाँ लोगों ने या तो अपना सिर कटा लिया, या इस्लाम कबूल कर लिया, वे अपने अहिंसा धर्म के कारण इस्लामी तलवार का प्रतिकार नहीं कर सके| भारत के नालंदा विश्वविद्यालय में भी यही हुआ, जहाँ बख्तियार खिलजी ने तीन-चार सौ घुड़सवारों की सेना के साथ तीन हज़ार आचार्यों और दस हज़ार विद्यार्थियों के सिर काट कर वहां के लाखों ग्रन्थ जला दिए| काश, वे विद्यार्थी व आचार्य कुछ प्रतिकार कर पाते !
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आप सब को सादर नमन !
कृपा शंकर 
२३ अप्रेल २०१९

भगवान अपने भक्तों की रक्षा देवताओं से भी करते हैं .....

भगवान अपने भक्तों की रक्षा देवताओं से भी करते हैं .....
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सबसे बड़ी चीज भगवान की भक्ति है| जहाँ भगवान की भक्ति है वहाँ भगवान स्वयं भक्त की रक्षा करते हैं| जहां सूर्य का प्रकाश है वहाँ कोई अन्धकार नहीं रह सकता| असुर ही नहीं, देवता भी भगवान की भक्ति में बाधा डालते हैं| रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में एक प्रसंग .... जनक-वशिष्ठादि संवाद, इंद्र की चिंता, सरस्वती का इंद्र को समझाने का आता है| देवराज इंद्र और अन्य देवता लोग भरत जी के हृदय में भगवान की भक्ति देखकर निराश हो जाते हैं| उन्होंने एक षडयंत्र रचा और भगवती सरस्वती से भरत की बुद्धि फेरने की प्रार्थना की| देवताओं को मुर्ख जानकर भगवती सरस्वती ने उन्हें डांट दिया और बापस ब्रह्मलोक चली गईं|
"बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी| बोली सुर स्वारथ जड़ जानी||
मो सन कहहु भरत मति फेरू| लोचन सहस न सूझ सुमेरू||"
"बिधि हरि हर माया बड़ि भारी| सोउ न भरत मति सकइ निहारी||
सो मति मोहि कहत करु भोरी| चंदिनि कर कि चंडकर चोरी||"
"भरत हृदयँ सिय राम निवासू| तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू||
अस कहि सारद गइ बिधि लोका| बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका||"
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भगवती सरस्वती जी के कथन का सार है कि .... भरतजी के हृदय में श्रीसीतारामजी का निवास है| जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं अँधेरा रह सकता है?
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भगवान अपने भक्तों की रक्षा देवताओं से भी करते हैं|

लीबिया का संकट ! क्या लीबिया की गति सीरिया जैसी ही होगी ? ..

लीबिया का संकट ! क्या लीबिया की गति सीरिया जैसी ही होगी ? ...
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सीरिया और इराक में तो गृहयुद्ध शिया और सुन्नी मुसलमानों के मध्य द्वेष के कारण हुआ था जिस का भरपूर लाभ रूस और अमेरिका ने सीरिया को बहुत बुरी तरह लूट कर लिया, और अभी भी ले रहे हैं| अमेरिका ने तो इराक को बहुत बुरी तरह लूटा है| अमेरिका ने 'इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया' को जन्म दिया और उस के माध्यम से खूब पैसा बना कर इस्लामिक स्टेट को नष्ट भी करा दिया| अब अगला नंबर लगता है लीबिया का है| पर लीबिया तो एक सुन्नी देश है, जहाँ सुन्नी मुसलमानों का राज्य है, फिर भी गृहयुद्ध क्यों?
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लगभग १,८०,००० वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल वाले इस देश की जनसंख्या सिर्फ ५७ लाख है जिसमें से १७ लाख लोग तो वहाँ की राजधानी त्रिपोली में ही रहते हैं| वहाँ की कुल भूमि का ९० प्रतिशत रेगिस्तान है और विपुल तेल के भंडार हैं| लीबियाई राजधानी त्रिपोली को अपने अधिकार में लेने के लिए विद्रोही सैनिक कमांडर खलीफा हफ्तार द्वारा छेड़े गए संघर्ष में दिन-प्रतिदिन लोगों की मौत का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है| एक ओर वहाँ की सरकारी सेना है तो दूसरी ओर खलीफा हफ्तार का साथ दे रहे विद्रोही सैनिक| त्रिपोली के घनी आबादी वाले इलाकों में गोले दागे जा रहे हैं जिन से मृतकों की संख्या बढ़ती जा रही है|
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लगता है यह गृहयुद्ध एक अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र का परिणाम है जिसका उद्देश्य भी महाशक्तियों द्वारा वहाँ के तेल भंडारों की लूट है|
कृपा शंकर
२१ अप्रेल २०१८

"समत्व" ही योग है....

 "समत्व" ही योग है....
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समत्व ही योग है| समाधि कोई क्रिया नहीं, एक अवस्था का नाम है, जिसमें उपासनारत उपासक समभाव में अधिष्ठित हो जाता है| समभाव में स्थिति ही समाधि है| जब साधक स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय भूमियों पर एक ही दशा में अवस्थान करते हैं, उसे समाधि कहते हैं| जब ध्येय ध्याता और ध्यान, ज्ञेय ज्ञाता और ज्ञान, दृष्टा दृश्य और दर्शन ..... इन सब का लय हो जाता है वह समाधि की अवस्था है| यह समत्व ही योग है| तंत्र की भाषा में महाशक्ति कुण्डलिनी का परमशिव से मिलन ... योग है, पर बिना भक्ति के तंत्र भी एक शब्दजाल मात्र है|
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किसी भी तरह के बौद्धिक जंजाल में न पड़कर, जब भी भगवान के प्रति परमप्रेम की अनुभूतियाँ हों तब उस प्रेम में समर्पित होकर स्वयं ही परम प्रेममय हो जाएँ| यही भगवान की भक्ति है| बौद्धिक ज्ञान सिर्फ प्रेरणा दे सकता है पर अंततः काम तो भगवान की भक्ति ही आयेगी| भगवान से इतना प्रेम करो कि उनसे कोई भेद नहीं रह जाय| फिर सब कुछ जो भी आवश्यक है, वह स्वतः ही समझ में आ जाएगा|
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"भगवान मुझ से प्रसन्न हों" ... यह भाव भी छोड़ देना चाहिए| सब तरह की आशाएँ भी आसक्ति हैं जिनका त्याग कर देना चाहिए| अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और ज्ञानप्राप्ति का न होना असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में समभाव होने की अवर्णनीय अवस्था "योग" है जहाँ भगवान से कोई भेद नहीं रहता|
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गीता में भगवान कहते हैं....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||२:४८||
अर्थात् .... हे धनञ्जय, तूँ आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर, क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है|
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गीता में ही भगवान कहते हैं .....
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति | समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||१८:५४||
अर्थात् वह ब्रह्मभूतअवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है| ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाव वाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है|
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इस अवस्था में कुछ भी जानने को बाकि नहीं रहता है| यही पराभक्ति है, यही परमसिद्धि है, यही योग है, और यही हमारे जीवन का उद्देश्य है|
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निजात्मगण आप सब महान आत्माओं को नमन | ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०१८

भूमा" तत्व का साक्षात्कार .....

भूमा" तत्व का साक्षात्कार .....
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"भूमा" शब्द सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद (७/२३/१) में आता है जिसका अर्थ होता है ..... सर्व, विराट, विशाल, अनंत, विभु, और सनातन| "यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति"| भूमा तत्व में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में सुख नहीं है| जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है| कम में सुख नहीं है| ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके प्रिय शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा ... " सुखं भगवो विजिज्ञास इति|" जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है ..... " यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति|"
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कामायनी महाकाव्य की इन पंक्तियों में कवि जयशंकर प्रसाद ने भी "भूमा" शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ बड़ा दार्शनिक है .....
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल |
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य यही "भूमा" का मधुमय दान |"
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भूमा तत्व की अनुभूति बहुत गहरे ध्यान में सभी साधकों को होती है| बहुत गहरे ध्यान में साधक पाता है कि सब सीमाओं को लांघ कर उसकी चेतना सारे ब्रह्मांड की अनंतता में विस्तृत हो गयी है, और वह समष्टि यानि समस्त सृष्टि के साथ एक है| परमात्मा की उस अनंतता के साथ एक होना "भूमा" है जो साधना की पूर्णता भी है| मनुष्य का शरीर एक सीमा के भीतर है अर्थात् भूमि है| इस सीमित शरीर का जब विराट से सम्बन्ध होता है तो यह 'भूमा' है|
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अजपा-जप में हम भूमा तत्व का ही ध्यान करते हैं| जो योगमार्ग के ध्यान साधक हैं, उन्हें पहली दीक्षा अजपा-जप की दी जाती है| सिद्ध गुरु के मार्गदर्शन में साधक भ्रूमध्य में ज्योतिर्मय ब्रह्म के कूटस्थ सूर्यमंडल का ध्यान करते हैं, जो सर्वव्यापक अनंत है| फिर हर सांस के साथ "हं" और "सः" बीजमंत्रों के साथ उस अनंतता यानि "भूमा" का ही ध्यान करते हैं|
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ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार, भक्ति सूत्रों के आचार्य देवर्षि नारद, और योगेश्वर भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण को नमन ! इन सब आचार्यों की कृपा मुझ अकिंचन पर निरंतर बनी रहे| ॐ श्री गुरवे नमः || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ अप्रेल २०१९

हम मन के गुलाम क्यों हैं? .....

हम मन के गुलाम क्यों हैं? .....
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यह एक बड़ी दुःखद स्थिति है कि हम मन के गुलाम हैं| वास्तव में मन ही हमारा गुलाम होना चाहिए| गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जब तक हमारे में राग-द्वेष हैं, तभी तक हम मन के गुलाम हैं, राग-द्वेष से मुक्त होते ही यानि वीतराग होते ही हम इस गुलामी से मुक्त हो जाते हैं| भगवान कहते हैं....
"इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ| तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ||३:३४||
अर्थात् इन्द्रियइन्द्रिय (प्रत्येक इन्द्रिय) के विषय के प्रति (मन में) रागद्वेष रहते हैं मनुष्य को चाहिये कि वह उन दोनों के वश में न हो क्योंकि वे इसके (मनुष्य के) शत्रु हैं||
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जैन धर्म का तो मूल उद्देश्य ही आत्म साधना द्वारा राग-द्वेष को नष्ट कर वीतरागता को प्राप्त करना है|
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गीता के अनुसार वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ और निःस्पृह है| भगवान कहते हैं ...
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||
अर्थात् दुःख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है||
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दुःखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक; जिन्हें दैहिक, भौतिक और दैविक भी कह सकते हैं) के प्राप्त होने से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उनको अनुद्विग्नमना कहा गया है| सुखों की प्राप्ति में जिन की स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है, उन्हें विगतस्पृह कहां गया है| जो राग-द्वेष, भय, और क्रोध से मुक्त हैं, उन्हें स्थितप्रज्ञ मुनि कहा गया है|
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ऐसे स्थितप्रज्ञ और निःस्पृह व्यक्ति ही मन के गुलाम नहीं होते, मन ही उनका गुलाम होता है|
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अब प्रश्न है कि हम स्थितप्रज्ञ कैसे हों ? इसके लिए किन्हीं तपस्वी, सिद्ध, श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा के मार्गदर्शन में साधना करनी चाहिए| सिर्फ संकल्प करने या मनमर्जी से चलने पर सिद्धि नहीं मिलेगी|
योगसुत्रों में कहा गया है .... 'वीतराग विषयं वा चित्तम्'| किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन करने से भी वीतरागता आ जाती है| बड़े बड़े संत-महात्मा योगी लोग कठोर साधना द्वारा प्राण-तत्व की चंचलता को शांत कर मन को वश में कर लेते हैं| जो प्रखर भक्त हैं वे निरंतर अपने इष्ट का चिंतन करते करते वीतराग हो जाते हैं| कैसे भी हों, पर इस मन की गुलामी से मुक्ति अति आवश्यक है|
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आप सब मनीषियों को सप्रेम नमन | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०१९
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पुनश्चः :--- हमारे अवचेतन मन में सारी आसुरी वृत्तियाँ छिपी हुई हैं, जिन पर विजय पाने के लिए अवचेतन मन को वश में करना पड़ेगा| इसके लिए ध्यान साधना अति आवश्यक है|
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पुनश्चः :--- भगवान कहते हैं .....
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||
अर्थात् हे महाबाहो, निसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है||

जीवन में परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ? ....

(संशोधित व पुनर्प्रेषित). प्रश्न : जीवन में परमात्मा की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर :----
इस विषय का चिंतन सिर्फ भारतवर्ष में ही हुआ है, अन्यत्र कहीं भी नहीं| जहाँ तक मेरा सवाल है मैं तो परमात्मा के साथ एक हूँ, मुझे तो जो मेरे हृदय में, मेरी चेतना में हैं, उनसे पृथक अन्य कोई नहीं चाहिए|
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कुछ शाश्वत जिज्ञासाएँ और प्रश्न हैं उनमें से सबसे बड़ी जिज्ञासा रही है कि क्या परमात्मा है और हमें उसकी आवश्यकता क्यों है? विश्व में ईसाईयत और इस्लाम ने अपनी अपनी ईश्वर की अवधारणाएँ विकसित कीं और बहुत ही निर्मम और हिंसक तरीके से अपनी मान्यताओं को विश्व में स्थापित किया| पर ये दोनों विचारधाराएँ आपस में सदा युद्धरत रहीं| इनका मत था कि सभी इनकी मान्यताओं को या तो मानें अन्यथा मरने के लिए तैयार रहें| इस्लाम, ईसाई और यहूदी .... इन तीनों मतों का जन्म मध्यपूर्व में हुआ और तीनों इब्राहिमी (Abrahamic religion) मत हैं पर तीनों में कोई समानता नहीं है| इतिहास में ये आपस में सदा युद्धरत रहे हैं| इनमें कभी यह चिंतन नहीं किया गया कि परमात्मा की आवश्यकता क्यों है|
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रूस में नास्तिक साम्यवादी विचारधारा विकसित हुई जो बलात् सब पर थोपी गयी, जहाँ ईश्वर को मानने का अर्थ था अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना| यह भी बहुत अधिक हिंसक व्यवस्था थी| अब वह व्यवस्था अपनी स्वाभाविक मौत मर चुकी है, सिर्फ भारत में ही इसके कुछ अनुयायी बचे हैं| विश्व में सिर्फ उत्तरी कोरिया ही एक ऐसा देश है जहाँ ईश्वर को मानने की सजा मौत है| वहाँ का निरंकुश शासक ही स्वघोषित सब कुछ है|
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भारत में जो नास्तिक मत प्रचलित हुए उनके पास एक अति गहन दर्शन था| उन्होंने ईश्वर की आवश्यकता को कभी स्वीकार नहीं किया| इन नास्तिक मतों में प्रमुख हैं ... बौद्ध और जैन मत| इन मतों का विश्व में खूब प्रचार हुआ| ये कभी हिंसक नहीं रहे| बौद्ध मत में 'निर्वाण', और जैन मत में 'वीतरागता' लक्ष्य रही|
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अपना प्रश्न यह है कि हमें ईश्वर की आवश्यकता क्यों है? आवश्यकता है भी या नहीं? मनुष्य संसार में सुख, शांति और समृद्धि ढूँढता है, पर उसे सदा निराशा मिलती है| अंततः हार कर वह विचार करता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, यह सृष्टि क्यों है, सृष्टिकर्ता कौन है आदि आदि| यहीं से ईश्वर को जानने की जिज्ञासा का जन्म होता है| इन जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ही व्यक्ति ईश्वर की आवश्यकता को अनुभूत करता है|
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ईश्वर की आवश्यकता हमें इसलिए है कि हम ईश्वर में से आये हैं और जब तक अपने मूल में बापस नहीं लौट जाते तब तक संतुष्ट नहीं हो सकते, तब तक हमें कोई सुख शांति और सुरक्षा नहीं मिल सकती| यह सृष्टि बनी ही ऐसे है| इसका नियम भी यही है| कोई चाहे या न चाहे प्रत्येक जीव को बापस अपने मूल में लौटना ही पड़ता है| जो इसे समझते हैं वे बिना कष्ट पाए चले जाते है और जो नहीं समझते उन्हें कष्ट पाकर लौटना ही पड़ता है| प्रत्येक जीव को शिव बनना ही पड़ता है यही सृष्टि का नियम है| जिस परम चेतना से हमारा प्रादुर्भाव हुआ है उस चेतना में अपने अहंभाव को नष्ट कर हमें विलीन होना ही पड़ेगा| ईश्वर "सच्चिदानन्द" है जिसे उपलब्ध होने के लिए ही हमारा अस्तित्व हुआ है यही ईश्वर की सबसे बड़ी आवश्यकता है| प्रत्येक जीव का शिव बनना उसकी नियति है|
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ईश्वर पर और उसकी आवश्यकता पर जितना चिंतन भारत में हुआ है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है| खूब गहन चिंतन मनन करने, और साधना द्वारा साक्षात्कार करने के उपरांत ईश्वर के अस्तित्व और उसकी आवश्यकता को सनातन परम्परा में स्वीकार किया गया है|
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ये, तु, अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, पर्युपासते | सर्वत्रागम्, अचिन्त्यम्, च, कूटस्थम्, अचलम्, ध्रुवम्" ||१२:३||
"सन्नियम्य, इन्द्रियग्रामम्, सर्वत्रा, समबुद्धयः | ते, प्राप्नुवन्ति, माम्, एव, सर्वभूतहिते, रताः" ||१२:४||
अर्थात् जो अक्षर की, अनिर्देश्य की, अव्यक्त की, सर्वव्यापक की, अचिंत्य की, कूटस्थ की, अचल ध्रुव की खोज करते हैं , सभी जगह समबुद्धि रखनेवाले, सभी भूतों के हित में लगे वे लोग मेरे पास ही आते हैं|
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हमारे जीवन में एक पीड़ादायक अभाव हर समय सदा ही रहता है| वह अभाव सिर्फ ईश्वर की भक्ति से ही दूर होता है| जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था उस समय १९६७, १९६८ में मैं दो वर्ष रूस में रहा| रूसी भाषा का अच्छा ज्ञान था| मेरी आयु १९-२० वर्ष की थी पर हर समय कुछ नया जानने और सीखने की प्रबल जिज्ञासा रहती थी| वहाँ ईश्वर का नाम लेने, धार्मिक कर्मकांड, किसी भी तरह के धार्मिक साहित्य और गतिविधि पर पूर्ण प्रतिबन्ध था| नास्तिकता ही राजधर्म थी| वहाँ की व्यवस्था की सोच यह थी कि व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता (जैसे रोटी, कपड़ा और मकान) पूरी हो जाए और व्यक्ति समर्पित होकर पूर्ण रूप से राज्य व्यवस्था के लिए कार्य करे| सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था वहाँ एकदम समाप्त हो गयी थी| उस घोर नास्तिक व्यवस्था में लोगो की वेदना और तड़प को मैंने प्रत्यक्ष देखा और अनुभूत किया है| लोग अपने आतंरिक अभाव की पूर्ती शराब और सेक्स से ही करने का प्रयास करते थे| किसी भी उत्सव पर या सप्ताहांत में जिधर देखो उधर चारों ओर नशे में चूर युवक युवतियों की भीड़ बिना किसी वर्जना के दिखाई देती थी| उन्ही दिनों तीन महीने लातविया की राजधानी रीगा में भी रहने का अवसर मिला| वहाँ के लोगों की तड़प तो रूसियों से भी अधिक थी| अब तो यह सोचकर काँप उठता हूँ कि बिना ईश्वर के कैसा अर्थहीन जीवन होता है| १९८० में २० दिन के लिए उत्तरी कोरिया जाने का अवसर मिला था| वहाँ के सभी अधिकारियों को रूसी भाषा आती थी अतः संवाद में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई| वहां की घोर नास्तिक व्यवस्था में मनुष्य सरकार की हाँ में हाँ मिलाने वाली मशीन के अलावा और कुछ भी नहीं था| ऐसी नास्तिक व्यवस्था की कल्पना करते हुए भी डर लगता है| १९७६ में रोमानिया गया था कुछ दिनों के लिए| वहां भी सभी नास्तिक साम्यवादी देशों जैसा ही बुरा हाल था| क्या स्त्री क्या पुरुष सब की एक ही सोच थी कि खूब सिगरेट, शराब और सेक्स का सेवन करो और राज्य की व्यवस्था के अनुकूल रहो| १९८८ के अंत में जब साम्यवाद का पतन हुआ तब मैं संयोगवश युक्रेन के ओडेसा नगर में था| उस समय वहाँ के कुछ दृश्य भूल नहीं सकता जब अनेक युवक युवतियां राज्य की नास्तिक व्यवस्था को पूर्ण चुनौती देते हुए सार्वजनिक पार्कों में कीर्तन करते थे| पुलिस उन्हें जेल में डालती तो वहां भी वे कीर्तन करने लगते| वहाँ की नास्तिक सरकार उन लोगों से डरने लगी थी| वहाँ मैनें यह प्रत्यक्ष देखा कि जीवन में ईश्वर की क्यों आवश्यकता है| जीवन में बहुत नास्तिक लोगों को देखा है उनका जीवन सदा असंतुष्ट और दुःखी ही रहता है| इससे अधिक और लिखना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है| सभी को धन्यवाद और सादर नमन !
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अप्रेल २०१३

आनंद .....

आनंद .....
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ध्यान में प्राप्त आनंद की अनुभूति हमें परमात्मा का गहनतम बोध कराती है| इसी लिए हिमालय की गुफाओं में और वनों के एकांत में योगी संत-महात्मा ध्यानमग्न रहते हैं| उन्हें देह की चेतना नहीं रहती अतः भगवान ही उनके देहरूपी वाहन की रक्षा करते हैं| वे परमात्मा की अनंतता, सर्वव्यापकता और पूर्णता का ध्यान करते करते स्वयं भी अनंत, सर्वव्यापक और पूर्ण हो जाते हैं|
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यह भौतिक जगत अणु-परमाणुओं से निर्मित है| अणु-परमाणु एक ऊर्जा से निर्मित हैं, और वह ऊर्जा एक विचार है| सार रूप में सारी सृष्टि ही परमात्मा के मन का एक विचार है| सारी सृष्टि जिस तत्व से बनी है, उसी तत्व से आपस में जुडी हुई भी है| उस तत्व को जानकर यानि उस से जुड़ कर ही हम सृष्टि के रहस्यों को जान सकते हैं और परमात्मा को भी समझ कर परमात्मा के साथ एक हो सकते हैं| वह तत्व "आनंद" (Bliss) है जो हमें समष्टि से यानी परमात्मा से जोड़ता है| उस आनंदमय स्थिति को हम प्राप्त करें|
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चुम्बकत्व की, गुरुत्वाकर्षण की, और अणुओं की शक्ति तो एक सीमित क्षेत्र में होती है, पर उस से भी सूक्ष्म और सर्वव्यापक, एक और शक्ति भी होती है जो सारे ब्रह्मांड का निर्माण, पालन और विध्वंश करती है| उस शक्ति से जुड़कर ही हम परमात्मा का बोध करते करते परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| वह शक्ति "आनंद" है| वह शक्ति ही हमें अपने स्वयं का बोध कराती है|
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ध्यान में प्राप्त आनंद ही है जो हमें पारब्रह्म यानि परमात्मा से जोड़कर एक रखता है| यह आनंद ही हमें पूर्णता प्रदान करता है|
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते| पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||"
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को प्रणाम !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अप्रेल २०१९

महाप्रलय यानि महाविनाश निकट भविष्य में कैसे संभव है ? ....

महाप्रलय यानि महाविनाश निकट भविष्य में कैसे संभव है ? ....
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महा विनाश मनुष्य की बुद्धि के बिगड़ने से ही हो सकता है| यह एक तरह का प्रज्ञापराध ही है| पुराणों में कथाएँ आती हैं महाविनाश की कि पृथ्वी पर बोझ बहुत बढ़ गया तो पृथ्वी जलमग्न हो गयी, रसातल मे चली गयी आदि आदि| ये सब सत्य है और वैज्ञानिक दृष्टि से संभव भी है| पृथ्वी पर कोई भौतिक भार नहीं बढ़ता, पर हमारे दूषित विचारों से पृथ्वी पर बोझ बढ़ता है| हमारे ये दूषित विचार ही इस पृथ्वी की जनसंख्या के विनाश का कारण होंगे|
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पुराणों की कथाओं को पढ़ें तो एक बात तो स्पष्ट हो जाती है की पृत्वी तभी रसातल में गयी जब उस पर पाप बहुत अधिक बढ़ गया| पाप तभी बढ़ता है जब हमारे विचार प्रदूषित होते हैं| उस वैचारिक प्रदूषण का कारण पृथ्वी की गति पर अवश्य पड़ता है| पृथ्वी की गति में परिवर्तन से उसकी स्थिति में निश्चित परिवर्तन आयेगा जो महाविनाश का कारण बन सकता है|
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पृथ्वी अपनी धुरी का चक्कर १६१० किलोमीटर प्रति घंटे की गति से २३ घंटे ५६ मिनट और ४ सेकंड में पूरा करती है| सूर्य की परिक्रमा करने में पृथ्वी को ३६५ दिन ५ घंटे ४८ मिनट और ४६ सेकंड लगते हैं| पृथ्वी अपने अक्ष पर २३ डिग्री ३० मिनट झुकी हुई है| पृथ्वी की गति के समय (२३ घंटे ५६ मिनट और ४ सेकंड) में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जाए तो इस बात की पूरी संभावना है कि पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव बदल जाएगा जो वर्तमान में २३ डिग्री ३० मिनट है| पृथ्वी के अपने झुकाव पर थोड़े से भी परिवर्तन से ध्रुवों की स्थिति बदल जायेगी| ध्रुवों की स्थिति का थोड़ा सा भी परिवर्तन सारी पृथ्वी की जलवायु को बदल देगा| दोनों ध्रुवों पर जमी बर्फ एक बार तो पिंघल जायेगी, उस से आधी से अधिक पृथ्वी जलमग्न हो जायेगी| इसी को महाप्रलय कहते हैं जो वैज्ञानिक रूप से पूर्णतः संभव है| विष्णु पुराण में इस बात के कुछ संकेत दिए हैं जिनके आधार पर निकट भविष्य में महा विनाश की पूरी संभावना है|
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आप सब को मेरा सादर प्रणाम ! रामनवमी की भी सभी को पुनश्चः राम राम !
कृपा शंकर
१३ अप्रेल २०१९

दरिद्रता सबसे बड़ा पाप है .....

दरिद्रता सबसे बड़ा पाप है .....
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सनातन धर्म की मुख्य शिक्षा है कि जीवन का उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति यानी आत्म-साक्षात्कार है| परमात्मा की निरंतर सर्वत्र उपस्थिति के बोध का अभ्यास ही ध्यान साधना है| सनातन धर्म हमें भगवान से अहैतुकी परम प्रेम (Unconditional integral love) करना सिखाता है| जो भी मत हमें भयभीत होना यानि डरना सिखाता है या स्वयं को पापी होना बताता है, वह गलत है| हम परमात्मा के अमृतपुत्र और उनके अंश हैं| दरिद्रता सबसे बड़ा पाप है जो मानसिक अयोग्यता से उत्पन्न होता है| दरिद्रता दो प्रकार की होती है ..... एक तो भौतिक दरिद्रता और दूसरी आध्यात्मिक दरिद्रता| दोनों ही हमारे बुरे कर्मों का फल है| अपना पूरा प्रयास कर के इन से हम मुक्त हों, पर हमारे प्रयास धर्मसम्मत हों| भौतिक समृद्धि ..... आध्यात्मिक समृद्धि का आधार है| भारत आध्यात्मिक रूप से समृद्ध था क्योंकि वह भौतिक रूप से भी समृद्ध था| गरीबी यानि दरिद्रता कोई आदर्श नहीं है, यह एक पाप है|
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हमें अपने विचारों पर और वाणी पर सजगता पूर्वक नियंत्रण रखना चाहिए| अधोगामी विचार पतन के कारण होते हैं| अनियंत्रित शब्द स्वयं की आलोचना, निंदा व अपमान का कारण बनते हैं| परमात्मा के किसी पवित्र मन्त्र का निरंतर जाप हमारी रक्षा करता है|
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वर्तमान काल की प्रतिकूल परिस्थितियों में हमें विचलित नहीं होना चाहिए| हमें धैर्यपूर्वक अपना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक और आध्यात्मिक बल निरंतर बढाते रहना चाहिए| हमारी आध्यात्मिक शक्ति निश्चित रूप से हम सब की रक्षा करेगी|
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आप सब को प्रणाम ! आप परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०१९

भगवान ने हमें पूरी स्वतन्त्रता दी है .....

भगवान हाथ में डंडा लेकर किसी बड़े सिंहासन पर बैठा हुआ कोई अलोकिक पुरुष नहीं है जो अपनी संतानों को दंड और पुरष्कार दे रहा है| उसने हमें निर्मित करके पूरी स्वतंत्रता दी है स्वयं से दूर जाने की| जैसी हमारी सोच होती है वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हमारे चारों ओर हो जाता है| हमारे विचार और सोच ही हमारे कर्म हैं जो हमारे सुख-दुःख का हेतु बनते हैं| भगवान तो एक अगम अचिन्त्य परम चेतना है जो हम से पृथक नहीं है| वह चेतना ही यह सब लीला खेल रही है|
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कुछ लोग यह सोचते हैं कि भगवान ही सब कुछ करेगा और वही हमारा उद्धार करेगा| पर ऐसा नहीं है| हमारा समर्पण और हमारी उन्नत आध्यात्मिक चेतना ही हमारी रक्षा करेगी| हमारे हृदय में भगवान के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा होना चाहिए|
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आप सब को मेरा सादर प्रणाम ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०१९

कर्ताभाव से कैसे मुक्त होकर साक्षीभाव में रहें, फिर साक्षीभाव से भी कैसे मुक्त हों ? .....

आध्यात्मिक साधना में सबसे बड़ी चुनौती है ..... कर्ताभाव से कैसे मुक्त होकर साक्षीभाव में रहें, फिर साक्षीभाव से भी कैसे मुक्त हों ? .....
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भगवान् श्रीकृष्ण का आदेश है .....
"मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा| निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः||३:३०||
अर्थात् .....मुझ सर्वात्मरूप सर्वज्ञ परमेश्वर वासुदेव में विवेक-बुद्धि से सब कर्म छोड़कर, (यानि मैं सब कर्म ईश्वर के लिये सेवक की तरह कर रहा हूँ, इस बुद्धि से सब कर्म मुझमें अर्पण करके) निराशी आशारहित व निर्मम (जिसका मेरापन सर्वथा नष्ट हो चुका हो उसे निर्मम कहते हैं) व शोकरहित यानि चिन्ता-संताप से रहित होकर युद्ध कर (यह संसार भी एक युद्धभूमि है, यहाँ युद्ध से मतलब है सारे सांसारिक कर्म)||
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जब भगवान स्वयं ही ऐसा आदेश दे रहे हैं तब बिना किसी किन्तु-परन्तु के तुरंत आँखें मीच कर इसका पालन करना होगा| जो भी कर्म हो रहे हैं, वे सब भगवान के हैं, "मैं करता हूँ" .... यह अभिमान है, जिसे आध्यात्मिक साधना द्वारा त्यागना होगा| आरम्भ में इस भाव का अभ्यास करना होगा कि मैं भगवान के लिए ही कार्य कर रहा हूँ| जब यह भाव सिद्ध हो जाए, तब यह भाव साधना होगा कि भगवान ही कर्ता हैं, मैं तो सिर्फ साक्षी हूँ| जब साक्षीभाव भी सध जाए तब यह भाव साधना होगा कि भगवान ही सत्य है, वे ही कर्ता व भोक्ता हैं| हम तो हैं ही नहीं, कहीं कोई पृथकता न हो, इस की साधना करनी होगी|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अप्रेल २०१९