Sunday 26 September 2021

भारत का उत्थान और सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा व वैश्वीकरण ---

(१) हमारे निज जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो।
(२) सनातन-धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो।
(३) भारत में व्याप्त असत्य के अंधकार का पूरी तरह पराभव हो, और भारत एक सत्यनिष्ठ, धर्मसापेक्ष, अखंड हिन्दू-राष्ट्र बने, जहाँ की राजनीति सत्य-सनातन-धर्म हो।
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हिन्दुत्व क्या है? -- हिन्दुत्व एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है जिसका लक्ष्य जीवन में भगवत्-प्राप्ति है। वह प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है जिसके हृदय में भगवान के प्रति परमप्रेम है, जिसका आचरण सत्यनिष्ठ है और जो निज जीवन में भगवान को प्राप्त करना चाहता है; चाहे वह इस पृथ्वी पर कहीं भी रहता हो। आत्मा की शाश्वतता, कर्मफल, पुनर्जन्म, भक्ति, आध्यात्म और ईश्वर की उपासना -- ये ही सनातन सिद्धान्त हैं, जिनसे यह सृष्टि चल रही है।
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इन्हीं उद्देश्यों के लिए हमारी आध्यात्मिक साधना है, जिसके लिए परमात्मा से पूरा मार्गदर्शन प्राप्त है। इसके अतिरिक्त मुझ अभी तो इस समय और कुछ भी नहीं कहना है।
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मेरी रुचि सब ओर से सिमटकर एक ही बिन्दु पर आ गई है, और वह है भारत का उत्थान और सनातन धर्म का वैश्वीकरण। किसी व्यक्ति विशेष में मेरी कोई रुचि नहीं है, और न ही मेरे पास किसी व्यक्ति विशेष के लिए समय है।
भगवान ने इसके लिए मार्गदर्शन भी किया है। साधना का जो मार्ग भगवान ने दिखाया है, उसे मेरे एक-दो घनिष्ठ सत्संगी मित्रों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं समझ सकता। एक-दो मित्र हैं जिनसे मैं कभी कभी संपर्क कर लेता हूँ। वे भी इसी पथ के अनुयायी हैं और भगवान को पूरी तरह समर्पित हैं। अब पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है। इस विषय पर और अधिक कुछ लिखने की अनुमति भगवान से नहीं है। जैसा भी भगवान चाहेंगे, वैसा ही होगा। लेकिन हृदय में जो अभीप्सा की प्रचंड अग्नि जल रही है, उसे केवल भगवान ही तृप्त कर सकते हैं, और करेंगे भी।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२५ सितंबर २०२१

गुरुकृपा उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं ---

 

गुरुकृपा उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं; कोई भी साधना हो वह विधि-विधान से क्रमानुसार हो ---
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अपने प्रारब्ध कर्मों के अनुसार भगवान से जैसी भी और जो भी प्रेरणा मिले, वही साधना करनी चाहिए। महाभारत व रामायण आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय सभी को करना चाहिए। समझने की बौद्धिक क्षमता हो तो उपनिषदों का स्वाध्याय भी सभी करें। यदि वे समझ में नहीं आते हैं तो उन्हें छोड़ दीजिये, और यथासंभव वही साधना खूब करें, जिसकी प्रेरणा भगवान से मिल रही हो। आपको आनंद मिलता है, और प्रेम की अनुभूतियाँ होती है तो आप सही मार्ग पर चल रहे हैं।
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आजकल अनेक साधक अति उत्साहित होकर देवीअथर्वशीर्ष या सौन्दर्य-लहरी के स्वाध्याय के उपरांत अपने आप ही श्रीविद्या के मंत्र का जप करने लगते है। बिना दीक्षा लिए और बिना किसी अधिकृत आचार्य के मार्गदर्शन के श्रीविद्या के "पञ्च-दशाक्षरी" मंत्र का जप और साधना नहीं करनी चाहिए। इसका उल्टा असर भी पड़ सकता है, यानि लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। इसका एक क्रम होता है, उसी क्रम में इसकी साधना होती है, जो किसी अधिकृत आचार्य से सीखें। आचार्य शंकर (आदि शंकराचार्य) श्रीविद्या के उपासक थे। उनका ग्रंथ सौंदर्य-लहरी श्री-विद्या की साधना का अनुपम ग्रंथ है, जो तंत्र-आगमों की अमूल्य निधि है। आचार्य शंकर की परंपरा में श्रीविद्या की दीक्षा अंतिम और उच्चतम दीक्षा होती है। जिसने श्रीविद्या की दीक्षा ले ली है, उसे अन्य किसी दीक्षा की आवश्यकता नहीं है।
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योगमार्ग में "क्रियायोग" की दीक्षा उच्चतम होती है। क्रियायोग की साधना से कुंडलिनी जागरण होता है, इसके साधक को यम-नियमों का पालन अनिवार्य है, अन्यथा लाभ के सथान पर हानि की संभावना अधिक है। (यम = अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) (नियम= शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान)
यदि अच्छा आचरण नहीं कर सकते तो क्रियायोग की साधना न करें। यह उन्हीं के लिए है जिनका आचरण और विचार सही हैं, व परमात्मा को पाने की अभीप्सा है। क्रियायोग के भी क्रम हैं, इसकी साधना भी क्रमानुसार होती है जिन्हें किसी अधिकृत आचार्य से दीक्षा लेकर ही सीखें। क्रियायोग की सिद्धि गुरुकृपा से होती है। गुरुकृपा भी उन्हीं पर होती है जो सत्यनिष्ठ होते हैं।
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जीवन का सार भगवान की भक्ति में है। अपने हर दिन का आरंभ और समापन भगवान की भक्ति से करें, और हर समय उन्हें अपनी स्मृति में रखें।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०२१

अब समय आ गया है, भारत की उन्नति को कोई नहीं रोक सकता ---

 

अब समय आ गया है, भारत की उन्नति को कोई नहीं रोक सकता। सनातन धर्म की चेतना भी पूनर्प्रतिष्ठित और विश्वव्यापी होगी। लेकिन उसके लिए पहले हमें स्वाध्याय, तप, अध्ययन और साधना द्वारा अपनी आध्यात्मिक चेतना, और उच्च स्तर के अपने बौद्धिक ज्ञान को बढ़ाना होगा।
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भड़काऊ नारों, रोने, छाती पीटने, आत्मनिंदा और दूसरों की आलोचना से कोई लाभ नहीं होगा। हमें अब स्वयं तप करना होगा, अध्ययन करना होगा, और उच्च स्तर के ज्ञान को प्राप्त करना होगा; तभी दूसरे लोग हमारे से प्रभावित होंगे। हमारे चिंतन का स्तर उच्च होगा तो शीघ्रता से सब लोग हमारी ओर खिंचे चले आयेंगे। हम आध्यात्मिक रूप से उन्नत होंगे तो तो अगले चार-पाँच दशकों में पूरा ईसाई जगत -- सनातन धर्म को अपना लेगा। यह मैं स्वानुभूति से कह रहा हूँ।
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सनातन धर्म के विचार सम्पूर्ण मानवता के लिए हैं, किसी व्यक्ति या समाज विशेष के लिए नहीं। यूरोप, अमेरिका और सम्पूर्ण विश्व का कल्याण -- सनातन-धर्म के सिद्धांतों से ही हो सकता है। हमारी चेतना और चिंतन का स्तर उच्चतम हो, हीनता के बोध से हम मुक्त हों। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०२१

हम रो कर भुगतें या हँस कर, हमारे सारे कष्ट स्वयं हमारे ही कर्मों के फल हैं ---

 

हमारे सारे कष्ट स्वयं हमारे ही कर्मों के फल हैं, जिन्हें हम रो कर भुगतें या हँस कर। पूर्व जन्मों में हमने मुक्ति के उपाय नहीं किये इस लिये यह कष्टमय जन्म लेना पड़ा। इस दुःख से स्थायी मुक्ति पाने की चेष्टा करें। कोई भी पीड़ा स्थायी नहीं है, सिर्फ हमारे ह्रदय का प्रेम और आनंद ही स्थायी हैं। किसी भी तरह की जटिलता में न पड़ें, अपनी गुरु-परम्परानुसार भक्ति, श्रद्धा और निष्ठा से अपने अनुकूल जो भी हो वह साधना करें।
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अपने विचारों को परमात्मा पर केन्द्रित कर दीजिये। हमारे माध्यम से स्वयं परमात्मा ही इस पीड़ा को भुगत रहे हैं। हमारे दुःख-सुख पाप-पुण्य सब उन्हीं के हैं। उन सच्चिदानंद भगवान परमशिव का कौन क्या बिगाड़ सकता है जिन का कभी जन्म ही नहीं हुआ। मृत्यु उसी की होती है जिसका जन्म होता है। हम उन परमात्मा के साथ अपनी चेतना को जोड़ें जो जन्म और मृत्यु से परे हैं। हम यह देह नहीं, शाश्वत अजर अमर चैतन्य आत्मा हैं।
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !!
ॐ तत्सत्। ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२३ सितम्बर २०२१

अब बेचारे कर्मफल भी क्या करेंगे? भगवान ने मुझसे बापस छीन लिए हैं ---

 

अब बेचारे कर्मफल भी क्या करेंगे? भगवान ने मुझसे बापस छीन लिए हैं ---
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मेरा इस शरीर में जन्म हुआ था सिर्फ अपने पूर्व जन्मों के कर्मफलों को भोगने के लिए, अन्य कोई प्रयोजन नहीं था। लेकिन भगवान ने अपनी महती कृपा कर के मुझे मुक्त होने का उपाय भी बता दिया, और पूरी छूट भी दे दी कि उसे मानो या न मानो। यह मेरे और भगवान के मध्य का निजी मामला है। भगवान से मुझे एक ही शिकायत थी कि उन्होने मुझे बहुत कम बुद्धि दी। जब मैंने उनसे यह शिकायत की तो उन्होने जो कुछ भी थोड़ी-बहुत बुद्धि दी थी, वह भी बापस छीन ली है। चलो पीछा छूटा, अब तो मन, अहंकार और चित्त भी भगवान ने छीन लिए हैं। अपना कहने को मेरे पास अब कुछ भी नहीं है।
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बेचारे कर्मफल भी क्या करेंगे? वे भी भगवान ने मुझसे छीन लिए हैं। सिर पर पाप की एक बहुत भारी गठरी थी, जो अब भगवान के पास है, उनका सामान मुझे बापस नहीं चाहिए। कर्ता और भोक्ता अब तो भगवान स्वयं हो गए हैं। भगवान ने साफ साफ कहा है कि तुम दिन-रात मेरा चिंतन करो, तुम्हें सीधे यहीं बुला लूँगा, और बापस लौटने के सारे मार्ग भी बंद कर दूंगा।
बहुत सस्ता सौदा है। ठीक है, स्वीकार है। उनके लिए सब कुछ संभव है --
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्। यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥"
"मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन॥"
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नारायण नारायण !! इस संसार में पाप की एक बहुत भारी गठरी लेकर आए थे, जिसे भगवान ने बलात् छीन ली है। अब यह उन्हीं का सामान हो गया है, जो मुझे बापस नहीं चाहिए। हे प्रभु, आपको नमन है ---
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"स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा:॥
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्‌ गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्‌॥
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌॥
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌॥"
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जय हो प्रभु आप की जय हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ सितंबर २०२१

योगियों की दृष्टि में पिंडदान और श्राद्ध क्या है? ---

 

योगियों की दृष्टि में पिंडदान और श्राद्ध क्या है? ---
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हमारे सूक्ष्म शरीर के मूलाधार-चक्र में स्थित कुंडलिनी महाशक्ति ही पिंड, और सहस्त्रार-चक्र में अनुभूत कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म - "विष्णुपद" है। श्रद्धा से मैं इसे गुरु महाराज के चरण-कमल कहता हूँ। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है।
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गुरुकृपा से कुंडलिनी महाशक्ति का सहस्त्रार से भी ऊपर उठकर अनंत महाकाश से परे परमशिव में मिलन जीवनमुक्ति और मोक्ष है। सहस्त्रार से नीचे की ओर एक सूक्ष्म ज्योतिर्मयी धारा गिरती है जिसे पिण्डोदक क्रिया कहते है। जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं हूँ, तब मान लीजिये कि पिंडदान हो गया।
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यह एक गुरुमुखी विद्या है जो ब्रहमनिष्ठ सिद्ध गुरु द्वारा अपने शिष्य को प्रत्यक्ष रूप से अपने सामने बैठाकर सिखाई जाती है। इसे सद्गुरु की कृपा से ही समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं। यहाँ इसका वर्णन सिर्फ रुचि जागृत करने के लिए ही किया गया है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
२२ सितंबर २०२१

भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है; भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं ---

 

भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है; भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं ---
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अधर्म से उपार्जित धन का दान, पुण्यदायी नहीं होता। असत्यवादन से दग्ध हुई वाणी से की हुई प्रार्थना, स्तुति और जप निष्फल होते हैं। भगवान उसी को प्राप्त होते हैं जिसे भगवान स्वयं स्वीकार कर लेते हैं। भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ भगवान को ही स्वीकार करता है। महत्व उनको पाने की घनीभूत अभीप्सा और भक्ति का है, अन्य किसी चीज का नहीं।
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असली भक्त को तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं हो सकती, वह प्रभु को ही पाना चाहता है, अतः प्रभु भी उसे ही पाना चाहते हैं। एक ही साधक को एक साथ "मुमुक्षुत्व" और "फलार्थित्व" नहीं हो सकते। जो फलार्थी हैं उन्हें फल मिलता है, और जो मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष मिलता है। इस प्रकार जो जिस तरह से भगवान को भजते हैं उनको भगवान भी उसी तरह से भजते हैं। भगवान में कोई राग-द्वेष नहीं होता, जो उनको जैसा चाहते हैैं, वैसा ही अनुग्रह वे भक्त पर करते हैं। भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं।
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥४:११॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् - "जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं॥"
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भारत की जय हो, विजय हो। भारत अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त करे और एक आध्यात्मिक सत्यनिष्ठ राष्ट्र बने। सब तरह के असत्य और अंधकार का नाश हो, धर्म की पुनर्स्थापना हो व सत्य की विजय हो।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० सितंबर २०२१

पंजाब में आज यदि कोई हिन्दू/सिक्ख जीवित है तो वह मराठा वीरों के पराक्रम, त्याग, बलिदान और परिश्रम का ही परिणाम है ---

 

पंजाब में आज यदि कोई हिन्दू/सिक्ख जीवित है तो वह मराठा वीरों के पराक्रम, त्याग, बलिदान और परिश्रम का ही परिणाम है ---
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सन १७५७ ई. की बात है। परमवीर मराठा सेनापति रघुनाथ राव की सेना झाँसी में थी और वहाँ से बिहार, बंगाल और उड़ीसा को विधर्मियों से मुक्त कराने के लिए कूच करने वाली थी। प्रस्थान से पूर्व पंजाब से एक दूत आया और रघुनाथ राव से तुरंत मिलने की प्रार्थना की। दूत ने एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था कि हम पंजाब के नानक-पंथी हिन्दू आज अत्यंत ही दयनीय स्थिति में हैं। अहमदशाह अब्दाली ने एक फतवा निकाल रखा है कि किसी भी नानकपंथी या अन्य हिन्दू का सिर काट कर लाने वाले को १ रुपया प्रति सिर ईनाम में दिया जाएगा। अफगान सिपाही और स्थानीय मुस्लिम हमें घेरते हैं, हत्याएं करते हैं, और बैलगाड़ियों में सिर भरकर ले जाते हैं। हरमंदिर साहिब का विध्वंश हो चूका है, पवित्र सरोवर को काटी हुई गायों और मिट्टी से भर दिया गया है। हमारी रक्षा करने वाला कोई नहीं है, हमारा वंशनाश होने ही वाला है। यदि कोई हमें बचा सकता है तो वह श्रीमंत पेशवा बाजीराव का सुपुत्र रघुनाथराव ही है, --त्राहिमाम त्राहिमाम हमारी रक्षा करो।
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श्रीमंत सेनापति रघुनाथराव ने मराठा सेना को दो भागों में विभाजित किया। एक भाग को उड़ीसा के मंदिरों को विधर्मी आतताइयों के अधिकार से मुक्त कराने के लिए भेज दिया, और स्वयं अपने साथ अपने तीन सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं - गोविंदजी पंत, मल्हारराव होल्कर और दत्ताजी सिंधिया को लेकर पंजाब के लिए के रवाना हो गया।
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पंजाब पूरी तरह विधर्मी आतताइयों के आधीन था। कभी तुर्क, कभी अफगान, कभी मुगल आते और नरसंहार कर के चले जाते। वीर माधोदास वैरागी नहीं रहे थे। अधिकांश पंजाबी हिंदुओं ने तलवार की नोक पर इस्लाम कबूल कर लिया था। जिन्होने इस्लाम नहीं कबूला वे जज़िया कर देकर जीवित थे। उनका भी अंत समय निकट था। पंजाब में कोई भी हिन्दू पूजा-स्थल नहीं बचा था। गुरु गोविन्द सिंह और उनके पूर्व गुरुओं द्वारा स्थापित एकमात्र धार्मिक स्थान हरमंदिर साहिब का विध्वंश हो चूका था। हरमंदिर साहब में नित्य गो-हत्या होती, और मस्सा रांगड़ नामक विधर्मी हत्यारा, मंदिर के गर्भगृह में वेश्याओं को नचवाता, नित्य नई हिन्दू कन्याओं का अपहरण करवाता और उनका बलात्कार करता। सभी ग्रामीण भागकर जंगलों में छिप गए थे, जहाँ अफगान सेना उनका शिकार करतीं। समर्थवान लोग राजपूताने के बीकानेर में शरणार्थी हो गए थे। ऐसे विकराल समय में सिर्फ मराठा वीर अपने सनातन धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए युद्ध कर रहे थे।
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मराठा श्रीमंत रधुनाथराव की सेना एक के बाद एक अफगान चौकियों को नष्ट करते हुए मात्र कुछ ही दिनों में पंजाब जा पहुंची, और बिना किसी विलंब के लाहोर और अमृतसर पर एक साथ भीषण आक्रमण कर दिया। मराठों का रौद्र रूप देख कर सारे अफगान मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। लाहोर और अमृतसर पर भगवा पताका फहरा दी गई। अहमदशाह अब्दाली का बेटा औरतों के कपड़े पहिन कर काबुल भाग गया। मराठा सेना ने अफगानों के सारे अस्त्र-शस्त्र और खजाना छीन लिया। दूसरे ही दिन मराठा सेना ने हरमंदर साहब को मुक्त करा कर आतताई मस्सा रांगड़ और उसके साथियों के सिर काट दिये, और सरोवर को पवित्र किया। मराठा सेना यहीं तक नहीं रुकी, अफगानिस्तान के अटक तक जाकर भगवा ध्वज फहराया और बापस लौट आई। हरमंदर साहब और पवित्र सरोवर के पुनर्निर्माण के लिए मराठों ने अफगानों से छीना हुआ धन दिया।
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इसके ठीक तीन वर्ष उपरांत बड़ा धोखा और विश्वासघात हुआ। शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली को यह संदेश भेजा कि आप भारत पर हमला करो, भारत के मुसलमान आपका साथ देंगे। फिर पानीपत की तृतीय लड़ाई हुई जो एक धर्मयुद्ध थी। इसमें अधर्म की धर्म पर अस्थायी विजय हुई। जिन की रक्षा मराठों ने की थी, जिन के साथ उनकी संधियाँ हुई थीं, जो उनकी सहायता करने के लिए वचनबद्ध थे, उन्होने विश्वासघात किया और विजयश्री नहीं प्राप्त हुई। फिर भी मराठा योद्धाओं ने पीठ नहीं दिखाई और वीरों की तरह धर्मयुद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त हुए। उस युद्ध में आहूत हुआ मराठा सेनापति भाऊ एक महान वीर था। उस युद्ध में मराठों की वीरता देखकर अहमदशाह अब्दाली इतना डर गया कि फिर उसका साहस नहीं हुआ मराठों से लड़ने का। मराठों की और टुकड़ियाँ आईं और उन्होने पूरे भारत से मुगलों की सत्ता को उखाड़ फेंका। यह तो भारत का समय ही खराब था कि अंग्रेजों के छल-कपट और धोखे से मराठों से सत्ता छिन गई और शासन पर अंग्रेजों का अधिकार हुआ। फिर भी भारत ने कभी पराजय स्वीकार नहीं की और सदा प्रतिरोध किया।
२० सितंबर २०२१

अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मराठों से ली थी ---

 

मैंने भारत के इतिहास को कभी कभी जब भी अवसर मिला, अपनी बौद्धिक क्षमतानुसार विस्तार से पढ़ने का प्रयास किया है। दूसरे देशों -- तिब्बत, रूस, मध्य-एशिया, मंगोलिया और तुर्की के इतिहास में भी रुचि रही है। सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) और खिलाफ़त (खलीफ़ाओं की हुकूमत) के बारे में भी काफी कुछ पढ़ा है। मुझे इस्तांबूल (तुर्की) में ऐतिहासिक आकर्षण के सबसे बड़े केंद्र सोफिया हागिया को भी देखने का अवसर मिला है। तुर्की के कमाल अतातुर्क उर्फ मुस्तफ़ा कमाल पाशा (१८८१-१९३८) के उस साक्षात्कार के बारे में भी पढ़ा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भारत पर ब्रिटिश काबिज नहीं होते तो गज़वा-ए-हिन्द यानी भारत पर इस्लामिक राज्य के रूप में तुर्की के खलीफा के शासन की स्थापना हो जाती।
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मैं कमाल पाशा का सम्मान करता हूँ, लेकिन उनका उपरोक्त वक्तव्य अज्ञान पर आधारित असत्य था। सत्य तो यह है कि अंग्रेजों ने भारत की सत्ता मराठों से ली थी।
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मराठों ने मुगल सत्ता को पूरी तरह परास्त कर के सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। कूटनीतिक कारणों से दिल्ली के लालकिले में नाममात्र के मुगल बादशाह को बैठाकर मराठे उसके संरक्षक बन गए थे। मराठा पेशवा यदि अंग्रेजों के छल-कपट के शिकार नहीं हुये होते तो पूरे भारत पर मराठों का हिंदवी साम्राज्य होता।
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पंजाब में पठानों से सिखों की प्राणरक्षा मराठा सेनाओं ने ही की, और मराठा सेना की सहायता से ही महाराजा रणजीतसिंह पंजाब के शासक बने थे।
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जयपुर के महाराजा ने खामखाँ (बिना किसी कारण के) मराठों का विरोध किया तो दौसा जिले में मनोहरपुरा के पास तुंगा नामक गाँव में जयपुर की सेना और मराठों के मध्य एक अनिर्णायक युद्ध हुआ। बाद में सीकर जिले के पाटन नाम के गाँव के पास जयपुर व जोधपुर की संयुक्त सेनाओं के साथ मराठा सेना का युद्ध हुआ, जिसमें मराठा सेना विजयी रही। पाटन के किले पर मराठों ने अधिकार कर लिया। बाद में जयपुर पर भी मराठों ने अपना अधिकार कर लिया। जयपुर और जोधपुर के शासकों ने चौथ (एक-चौथाई खजाना) भेंट में देकर और माफी मांग कर मराठों को अपने यहाँ से विदा किया। मराठों की शत्रुता सिर्फ मुगलों और पठानों से थी, औरों से नहीं। वे औरों से लड़ना भी नहीं चाहते थे।
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औरंगजेब के मरने के बाद शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली को यह संदेश भेजा कि आप भारत पर हमला करो भारत के मुसलमान आपका साथ देंगे। फिर पानीपत की तृतीय लड़ाई में पेशवा की सेना को भारत के मुगलों की मदद से विदेशी अहमद शाह दुर्रानी उर्फ अहमद शाह अब्दाली ने हरा दिया और दिल्ली के तख्त पर काबिज हो गया।
(इस विषय पर फिर कभी आऊँगा कि किस तरह मराठों ने प्रतिकार और बदला लिया। यहाँ मैं अपने मूल विषय से भटक गया हूँ, अतः बापस अपने मूल विषय पर आता हूँ)
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प्रथम विश्व युद्ध के समय जब अंग्रेजों से गैलिपोली की लड़ाई में तुर्की हार रहा था, तब तुर्की के खलीफा ने पूरी दुनिया के मुसलमानों के नाम एक मार्मिक अपील की थी कि सारी इस्लामिक उम्मत आकर मेरी सहायता करे। लेकिन खलीफा के आधीन रहे सऊदी अरब, सीरिया, जॉर्डन, बहरीन, कुवैत, लेबनान, मिश्र, मोरक्को आदि सभी देशों ने अंग्रेजों का साथ दिया। किसी भी इस्लामी देश ने खलीफा का समर्थन नहीं किया।
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लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारत के मुसलमान तुर्की के खलीफा के लिए आंदोलन करने लगे जिसे खिलाफत आंदोलन कहते हैं। यह आंदोलन भारत की आजादी के लिए नहीं बल्कि तुर्की के खलीफा को बापस अपनी गद्दी पर बैठाने के लिए था। इसी खिलाफत आंदोलन की आड़ में केरल में मोपला मुस्लिमों ने दस-पंद्रह हजार हिंदुओं की हत्या कर दी, क्योंकि अंग्रेजों का तो वे कुछ भी बिगाड़ने में असमर्थ थे। अतः निरीह हिंदुओं को मारकर ही उन्होने खलीफा की हार का बदला लिया।
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उत्तर प्रदेश (उस समय यूनाइटेड प्रोविन्स) से हजारों कट्टर सुन्नी मुसलमानों ने एक फौज बनाई और अफगानिस्तान के रास्ते तुर्की पहुँच कर, खलीफा की सहायता करने का निर्णय लिया। वे अपने हथियारों, धन और परिवारों के साथ अफगानिस्तान पहुंचे। रात के समय अफगान कबीलों के लड़ाकू डकैतों ने आकर उस खलीफा-समर्थक सेना से उनके धन और औरतों को छीन लिया, और सभी आदमियों के गले काट दिये। यह हाल हुआ भारत की इस्लामिक उम्मत का। यहाँ गले काटने वाले भी उम्मत के ही आदमी थे।

अब जानने और पाने को कुछ नहीं बचा है, भगवान में स्वयं का विलय ही एकमात्र विकल्प है ---

 

अब जानने और पाने को कुछ नहीं बचा है, भगवान में स्वयं का विलय ही एकमात्र विकल्प है ---
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करुणा और परमप्रेमवश जब भगवान स्वयं साक्षात् प्रत्यक्ष हम सब के ह्रदय-मंदिर में बिराजे हैं, कोई भी दूरी नहीं है, तब जानने व पाने को बचा ही क्या है? एकमात्र विकल्प उनमें विलय ही है, और कुछ समझ में नहीं आता, अतः बुद्धि को तिलांजलि दे दी है। बौद्धिक ही नहीं, किसी भी तरह की आध्यात्मिक चर्चा अब अच्छी नहीं लगती। शास्त्रों को समझना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव है क्योंकि बुद्धि अत्यल्प और अति सीमित है। एक छोटी सी कटोरी में अथाह महासागर को नहीं भर सकते। बुद्धि में क्षमता ही नहीं है कुछ समझने की, अतः वह कटोरी ही महासागर में फेंक दी है। भगवान स्वयं ही अब एकमात्र अस्तित्व हैं।
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हमारे जीवन का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा हर कार्य ईश्वरार्पित बुद्धि से हो। हर कार्य के आरम्भ, मध्य और अंत में निरंतर परमात्मा का स्मरण कर उन्हें ही कर्ता बनाना चाहिये। साँस हमें लेनी ही पड़ती है, न चाहते हुये भी हम साँस लेते हैं। वास्तव में ये साँसें भगवान ही ले रहे हैं। हर दो साँसों के मध्य में एक संधिकाल होता है। संधिकाल में की हुई साधना "संध्या" कहलाती है। उस संध्याकाल में परमात्मा का स्मरण रहना ही चाहिए। हमें भूख लगती है तब जो कुछ भी खाते हैं, वह भी परमात्मा को ही अर्पित हो। हमें सुख-दुःख की अनुभूतियाँ होती हैं, वे सुख और दुःख भी परमात्मा के ही हैं, हमारे नहीं। साधना मार्ग की जो भी कठिनाइयाँ हैं, वे भी परमात्मा की ही हैं, हमारी नहीं। हमारा अस्तित्व ही परमात्मा है। सच्चिदानंद परमात्मा के ध्यान और चिंतन में ही सर्वाधिक आनंद और संतुष्टि उन की परम कृपा से जब प्राप्त होती हैं, तब और क्या चाहिये ?? कुछ भी नहीं।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२१

सनातन धर्म और भारत के उत्थान को अब कोई नहीं रोक सकता ---

 

सनातन धर्म और भारत के उत्थान को अब कोई नहीं रोक सकता ---
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जैसे-जैसे मनुष्य की समझ में वृद्धि होगी, प्रबुद्ध मनीषियों के हृदय में सनातन धर्म की चेतना जागृत होगी। पिछले काल-खंड में सनातन धर्म के ज्ञान में कमी का कारण, मनुष्य की चेतना का ह्रास था, अन्य कोई कारण नहीं। वह समय ही खराब था। इस समय कालचक्र ऊर्ध्वगामी है, अतः अगले कई हजार वर्षों तक उन्नति ही उन्नति है, कोई अवनति नहीं। मनुष्य जाति की समझ भी क्रमशः बढ़ रही है और ज्ञान भी।
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पूरी सृष्टि विष्णु-नाभि की परिक्रमा करती है। हमारी यह पृथ्वी जिस सूर्य का ग्रह है, वह सूर्य चौबीस हज़ार वर्ष में एक बार विष्णु-नाभि के समीपतम होता है, उस समय मनुष्य की चेतना अपने उच्चतम शिखर पर होती है। इसके ठीक बारह हज़ार वर्ष पश्चात जब वह विष्णु-नाभि से अधिकतम दूरी पर होता है तब मनुष्य की चेतना निम्नतम स्तर पर होती है। यह कालचक्र है।
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परमात्मा की और धर्म की सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में हुई है, अतः भारत और सनातन धर्म की चेतना को अब कोई नहीं रोक सकता। एक दुर्धर्ष आध्यात्मिक शक्ति इसके उत्थान में लगी हुई है। हर व्यक्ति को सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ होना ही पड़ेगा, अन्यथा उसके समक्ष अपनी प्राकृतिक मृत्यु के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है।
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सनातन धर्म पूरी सृष्टि का धर्म है। सनातन धर्म का लक्ष्य है -- भगवत्-प्राप्ति। आत्मा शाश्वत है, जिस पर माया का आवरण और विक्षेप है। उस माया के वशीभूत होकर मनुष्य का पतन होता है और उसे दुःखों की प्राप्ति होती है। उसके कर्मफल उसके बारंबार पुनर्जन्म के हेतु बनते हैं। अपने दुःखों से त्रस्त आकर वह उनसे मुक्त होने के उपाय ढूँढता है और आध्यात्म का आश्रय लेकर भगवान की आराधना/उपासना करता है। भगवत्-प्राप्ति तक यह चक्र चलता ही रहता है। सृष्टि का संचालन भगवान की प्रकृति अपने नियमानुसार करती है। नियमों को न समझना हमारा अज्ञान है। भगवान का आदेश है --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् - " इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥"
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रामायण और महाभारत का स्वाध्याय सभी को किशोरावस्था से ही करना चाहिए। धर्म के तत्व को इनमें पूरी तरह बहुत अच्छे से समझाया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता, विष्णुसहस्त्रनाम, शिवसहस्त्रनाम आदि अनेक स्तुति, प्रार्थनाएँ और ज्ञान महाभारत में हैं। रामायण भी अपने आप में एक सम्पूर्ण ग्रंथ है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२१

जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं ---

 

प्रकृति अपने नियमों के अनुसार चलती है| प्रकृति के कार्य में भगवान कभी हस्तक्षेप नहीं करते| जब तक प्रारब्ध कर्मफल अवशिष्ट हैं, तब तक हम जीवित रहेंगे| प्रारब्ध कर्मों के समाप्त होते ही मृत्यु , और संचित कर्मों को भोगने के लिए पुनर्जन्म सुनिश्चित है|
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भगवान ने स्वयं को भक्तों के आधीन अर्थात पराधीन कर रखा है| जो स्वयं पराधीन हैं वे दूसरों को मुक्त नहीं कर सकते| हमारी मुक्ति हमारे ही हाथ में है, भगवान किसी को मुक्त नहीं करते|
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जीवन और मृत्यु दोनों ही प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| मृत्यु के बिना जीवन का कोई महत्व नहीं है, वैसे ही जैसे अन्धकार के बिना प्रकाश का| सृष्टि द्वंद्वात्मक यानि दो विपरीत गुणों से बनी है| जीवन और मृत्यु भी दो विपरीत गुण हैं| जीवात्मा कभी मरती नहीं, सिर्फ अपना चोला बदलती है|
भगवान श्रीकृष्ण का वचन है ....
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणाति नरोऽपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ||"
जिस प्रकार मनुष्य फटे हुए जीर्ण वस्त्र उतार कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, वैसे ही यह देही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है|
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जीवात्मा सदा शाश्वत है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ...
"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः| न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः||"
जीवात्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, पानी गीला नहीं कर सकता और वायु सुखा नहीं सकती"|
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भगवान श्रीकृष्ण ने ही कहा है ....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे"||
जीवात्मा अनादि व अनन्त है| यह न कभी पैदा होता है और न मरता है| यह कभी होकर नहीं रहता और फिर कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है| यह (अज) अजन्मा अर्थात् अनादि, नित्य और शाश्वत सनातन है|
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वेदान्त की दृष्टि से हम स्वयं से ही विभिन्न रूपों में मिलते रहते हैं| कहीं कोई मृत्यु नहीं है| जीवन ही जीवन है| किसी भी तरह का शोक करना मेरी अज्ञानता थी|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ सितंबर २०२०