Monday 6 December 2021

मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, अन्य सब लोकाचार मात्र है ---

 मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, अन्य सब लोकाचार मात्र है ---

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भगवान की भक्ति ही इस जीवन की एकमात्र उपलब्धि है। सारे पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्धों में, और बड़ी बड़ी ज्ञान की बातों में अब कोई रस नहीं आता। इन तिलों में अब कोई तेल नहीं है। इस लौकिक जीवन में मेरे साथ बहुत ही अधिक छल-कपट, ठगी और विश्वासघात हुआ है। पता नहीं किस जन्म के किए हुए पापों का फल था। मैं तो मानता हूँ कि इस से मेरे कर्म ही कटे हैं, इसलिए कोई पछतावा नहीं है।
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मुझे निमित्त-मात्र बनाकर भगवान वासुदेव हर समय मेरे समक्ष रहते हैं, और एक क्षण के लिए भी ओझल नहीं होते। वे स्वयं ही स्वयं की उपासना करते हैं। ध्यान साधना में पाता हूँ कि मैं तो कहीं हूँ ही नहीं, स्वयं भगवान वासुदेव ही अपने परमशिव रूप का या नारायण रूप का कूटस्थ में ध्यान कर रहे हैं। जब तक वे इस देह में प्राण रूप में हैं, तब तक वे ही इस देह के स्वामी हैं। मेरे लिए इससे बड़ी कोई अन्य उपलब्धि नहीं हो सकती, यह मनुष्य जीवन की बड़ी से बड़ी उपलब्धि है जो मुझे अनायास ही प्राप्त हो गई है।
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भगवान कहते हैं --
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥७:१८॥"
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
अर्थात् - (यद्यपि) ये सब उत्कृष्ट हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें अच्छी प्रकार स्थित है॥ बहुत जन्मोंके अन्तमें अर्थात् मनुष्यजन्ममें 'सब कुछ परमात्मा ही है', ऐसा जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥
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निज अस्तित्व का हरेक कण उन्हें समर्पित है। स्वयं के लिए तो बस उनकी कृपा ही पर्याप्त है। और कुछ भी मेरे पास नहीं है। सब कुछ उनका है। अंत में यह कहना चाहता हूँ कि मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है, अन्य सब लोकाचार मात्र है। किसी पूर्व जन्म का कोई संस्कार रहा होगा, इसी से इस जन्म में ये सब संबंधी, मित्र और परिचित बने। वास्तव में परमात्मा को छोड़कर अन्य किसी से मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह शरीर रहे या न रहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ दिसंबर २०२१

उपासना "तेलधारा" के समान अखंड होनी चाहिए --- (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत).

उपासना "तेलधारा" के समान अखंड होनी चाहिए --- (संशोधित व पुनर्प्रस्तुत).
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तेल को जब एक पात्र से जब दूसरे में डालते हैं तब उसकी धार अखंड रहती है, बीच बीच में टूटती नहीं है, वैसी ही हमारी उपासना होनी चाहिए। योग साधकों के लिए आज्ञाचक्र ही उन का आध्यात्मिक-हृदय होता है। आज्ञाचक्र के एकदम सामने भ्रूमध्य होता है, जहाँ गुरु की आज्ञा से ध्यान करते हैं। वहाँ ध्यान करते करते गुरुकृपा से एक न एक दिन एक दिव्य ज्योति के दर्शन होने लगते हैं, और अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई देने लगती है। वह दिव्य ज्योति ही कूटस्थ है, और उसमें निरंतर स्थिति कूटस्थ-चैतन्य है।
गीता में भगवान कहते हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः॥
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
भावार्थ -- जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं, इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
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आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में 'उपासना' को 'तेलधारा' के समान बताया है। उपासना का शाब्दिक अर्थ है -- समीप बैठना। हमें अपनी चेतना में सदा भगवान के समक्ष ही बैठना चाहिए। शंकर भाष्य के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तेलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं।"
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यहाँ उन्होंने "तैलधारा" शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है। तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा। योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है, तब वह तैलधारा के सदृश अखंड होती है। प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए। जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है, वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी सुनाई देती है। प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है। यह प्रणव ही कूटस्थ अक्षर ब्रह्म है।
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समानवृत्ति का अर्थ जो मुझे समझ में आता है, वह --- श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना है। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है। अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है।
मेरी सीमित अल्प बुद्धि के अनुसार "उपासना" का अर्थ --- हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है। मेरी दृष्टी में यह ओंकार ही गुरु रूप ब्रह्म है।
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उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना है| व्यवहारिक रूप से किस व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है, उस से वैसी ही उपासना होगी। मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है। तमोगुण की प्रधानता अधिक होने पर मनुष्य परस्त्री/परपुरुष व पराये धन की उपासना करता है जो उसके और भी अधिक पतन का कारण बनती है। चिंतन चाहे परमात्मा का हो या परस्त्री/पुरुष या पराये धन का, होता तो उपासना ही है। रजोगुण प्रधान व्यक्ति सांसारिक उपलब्धियों की उपासना करता है। सतोगुण प्रधान व्यक्ति परमात्मा के विभिन्न रूपों की उपासना करता है।
अंततः हमें इन तीनों गुणों से भी ऊपर उठना पड़ता है। भगवान हमें निःस्त्रेगुण्य, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम और आत्मवान होने का आदेश देते हैं --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
अर्थात् -- "वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं; हे अर्जुन! तू तीनों गुणोंसे रहित हो जा, निर्द्वन्द्व हो जा, निरन्तर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा, योगक्षेमकी चाहना भी मत रख और परमात्मपरायण हो जा।"
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नारद भक्तिसूत्रों के अनुसार उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है। मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है। महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य तथा अमोध है (महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च), लेकिन किसी भी परिस्थिति में हमें कुसंग का त्याग करना चाहिए (दुस्सङ्गः सर्वथैव त्याज्यः)। कुसंग -- काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवा सर्वनाश का कारण है (कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशकारणत्वात्)। जो पतनोन्मुख है, और जो गलत लोगों का संग करता है, उसका साथ छोड़ देना चाहिए, चाहे वह स्वयं का गुरु ही क्यों ना हो। कुसंग सर्वदा त्याज्य है। योगसूत्रों में एक सूत्र आता है --- "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें| किसी वीतराग व्यक्ति का निरंतर चिंतन हमारे चित्त को भी वीतराग (राग-द्वेष-अहंकार से परे) बना देता है।
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नर्क की अग्नि से भी भयावह वासना की अग्नि है। इस से बच कर ही रहना चाहिए। इसकी कल्पना भी नर्क की अग्नि में गिरा देती है। अज्ञानग्रंथि का भेदन कर अपने परम शिवत्व को व्यक्त करना ही उपासना का लक्ष्य है। जब हृदय में परमप्रेम उदित होता है तब भगवान किसी गुरु के माध्यम से मार्गदर्शन देते हैं। हमें भगवान को ही इस देहरूपी नौका का कर्णधार बनाना चाहिए। गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं। अतः कूटस्थ अक्षरब्रह्म का ध्यान में तैलधारा के सदृश निरंतर श्रवण, और कूटस्थ ब्रह्मज्योति का निरंतर दर्शन ही उपासना है। यह कूटस्थ ही गुरुरूप ब्रह्म है, और यह कूटस्थ ही हम स्वयं हैं।
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भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, आप सब को नमन !!
ॐ गुरुभ्यो नमः ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२१

वर्तमान परिस्थितियों में वह सर्वश्रेष्ठ क्या है, जो मैं कर सकता हूँ? ---

 वर्तमान परिस्थितियों में वह सर्वश्रेष्ठ क्या है, जो मैं कर सकता हूँ? ---

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स्वयं की, परिवार की, समाज की, राष्ट्र की, व विश्व की, वर्तमान परिस्थितियों में निज क्षमता और योग्यतानुसार ईश्वर-प्रदत्त निज विवेक के प्रकाश में जो भी सर्वश्रेष्ठ किया जा सकता है, वह एक निमित्त मात्र होकर मैं निश्चित रूप से करूँगा। वास्तव में कर्ता तो भगवान स्वयं हैं, जिन का मैं एक उपकरण मात्र हूँ।
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मेरा गन्तव्य और एकमात्र लक्ष्य "परमशिव" हैं, जो इतने ज्योतिर्मय हैं कि उन के मार्ग में किसी भी तरह का कोई संशय और असत्य का अंधकार नहीं है। वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। उन्हीं के प्रकाश से सारी सृष्टि प्रकाशित है।
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मैं नित्य जीवन-मुक्त और उनकी पूर्णता हूँ। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२१

भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं ---

भगवान स्वयं ही स्वयं का ध्यान करते हैं। मैं तो कहीं भी नहीं हूँ। भगवान अपने एक रूप विशेष में, अपने ही एक दूसरे रूप विशेष का ध्यान कर रहे हैं। उनकी छवि अनुपम है। उनकी दिव्य ज्योति, और उस में से निःसृत हो रहे मधुर नाद, व उनकी सर्वव्यापकता को मैं "कूटस्थ" कहता हूँ। इस कूटस्थ का केंद्र सर्वत्र है, लेकिन परिधि कहीं भी नही।

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यह कूटस्थ ही मेरा हृदय, मेरा अस्तित्व, मेरा आश्रम, मेरा घर और मेरा निवास है। इसी में सारे तीर्थ हैं, यही मेरा उपास्य, यही मेरा इष्ट और यही मेरा एकमात्र मित्र व संबंधी है। यही वासुदेव है, यही नारायण है, और यही परमशिव है।
मेरे विचार ही मेरे उद्दंड श्रोता हैं, जिन्हें बार-बार बताना पड़ता है कि कभी नकारात्मक मत सोचो, सरल जीवन जीओ और सदा भगवान का चिंतन करो।
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ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
३ दिसंबर २०२१

धर्म की हानि और उत्थान क्या है? पाप और पुण्य क्या है? ---

(१) धर्म की हानि और उत्थान क्या है? ---

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अपनी चेतना को मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्रों में रखना निश्चित रूप से धर्म की हानि है।

अपनी चेतना को आज्ञाचक्र व उस से ऊपर रखना धर्म का उत्थान है।

ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
२ दिसंबर २०२१
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(२) पाप और पुण्य क्या है? ---
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चेतना का मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों में रहना ही पाप है। सारे पाप वहीं से होते हैं।
चेतना का आज्ञाचक्र और सहस्त्रार में रहना ही पुण्य है। सारे पुण्य वहीं से होते हैं।
मूलाधार से सहस्त्रार तक की यात्रा पुण्योदय है।
सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरु-चरणों में मिला आश्रय है। श्रीगुरु-चरणों में आश्रय लेकर वहीं रहें। ज्योतिर्मय-ब्रह्म का ध्यान, और नाद-ब्रह्म का श्रवण भी वहीं करे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
३ दिसंबर २०२१