Friday, 1 February 2019

हमारा सारा जीवन "राम" और "काम" के मध्य की परम द्वन्द्वमय अंतर्यात्रा है .....

हमारा सारा जीवन "राम" और "काम" के मध्य की परम द्वन्द्वमय अंतर्यात्रा है| "राम" और "काम" दोनों के प्रबल आकर्षण हैं| एक शक्ति हमें राम की ओर यानि परमात्मा की ओर खींच रही है, वहीँ दूसरी शक्ति हमें काम की ओर यानि सान्सारिक भोग-विलास की ओर खींच रही है| हम दोंनो को एक साथ नहीं पा सकते| हम को दोनों में से एक का ही चयन करना होगा|

अन्धकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते| सूर्य और रात्री भी एक साथ नहीं रह सकते| भूमध्य रेखा से हम उत्तरी ध्रुव की ओर जाएँ तो दक्षिणी ध्रुव उतनी ही दूर हो जाएगा, और दक्षिणी ध्रुव की ओर जाएँ तो उत्तरी ध्रुव उतनी ही दूर हो जाएगा| दोनों स्थानों पर साथ साथ नहीं जा सकते|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१ फरवरी २०१९

हम जिस चौराहे पर खड़े हैं, वहाँ से किधर जाएँ? .....

हम जिस चौराहे पर खड़े हैं, वहाँ से किधर जाएँ? इस चौराहे पर खड़े होना भी एक पीड़ा है जहाँ शुन्य क्षितिज से अपनी ही प्रतिध्वनि लौट आती है और एक भयंकर शीतल ज्वाला भीतर ही भीतर जलती रहती है जिसे हर सांस और भी अधिक प्रज्ज्वलित कर देती है| इस चौराहे से चार मार्ग चारों ओर की चार अलग अलग दिशाओं में जा रहे हैं .....
(१) एक मार्ग तो सांसारिक भोग-विलास और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति का है जिस पर हम कई जन्मों तक चले| पर अंततः हर जन्म में कष्ट ही कष्ट पाए| अनेक जन्मों तक कष्ट पा कर बापस इसी चौराहे पर आ गए हैं|
(२) दूसरा मार्ग सांसारिक उपलब्धियों का है| इस मार्ग पर भी अनेक जन्मों तक चले पर कहीं भी कोई तृप्ति, संतोष और आनंद नहीं मिला| लौट कर बापस उसी चौराहे पर आ गए हैं|
(३) तीसरा मार्ग ज्ञान-विज्ञान का है जिस पर भी कई जन्मों तक चले तो अवश्य पर तृप्ति नहीं मिली| आगे अवरोध ही अवरोध थे जिन्हें कभी पार नहीं कर पाए और बापस ही लौट आये|
(४) अब चौथा मार्ग भगवान की भक्ति और साधना का है जिस पर चलने के सिवाय अब अन्य कुछ भी विकल्प नहीं है| इस मार्ग को जहाँ तक पार किया है उस से पूर्व के सभी पुलों को स्वयं ने ही नष्ट कर दिया है| अब पीछे तो लौट ही नहीं सकते, पीछे के सारे मार्ग स्वयं ने ही बंद कर दिए हैं| अब आगे ही आगे चलना होगा| पीछे सिर्फ मृत्यु है जिस की ओर देखने की भी मनाही है| सारे अवरोधों पर भगवान स्वयं खड़े मिलते हैं जो सारे अवरोधों को हटा देते हैं| यही आनंद का मार्ग है जिस पर तृप्ति और संतोष मिल रहा है| अन्य कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है| यही हमारा सही मार्ग है|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०१९

अभी भी आशा की एक किरण बाकी है .....

अभी भी आशा की एक किरण बाकी है .....
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जब जागो तभी सबेरा ! गीता का नौवां अध्याय पढ़कर लगता है कि अभी भी उम्मीद बाकी है, कुछ खोया नहीं है| यह बात हमारे जैसे उन सभी लोगों के लिए है जिन्होनें अब तक कोई भजन-बंदगी नहीं की है और सारा जीवन प्रमाद में बिता दिया है| उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है| भगवान उन्हें भी एक मौक़ा और दे रहे हैं| भगवान कहते हैं .....
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ||९:३०||
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ||९:३१||
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ||९:३२||
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा |
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ||९:३३||
भावार्थ :--
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है| अर्थात्‌ उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है||३०||
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है| हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ||३१||
हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं||३२||
फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण था राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं| इसलिए तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर ||३३||
मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर| इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा ||३४||
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कुछ नहीं किया तो कोई बात नहीं, अब तो भगवान से प्रेम कर ही लेना चाहिए| ऐसा मौक़ा फिर कहाँ मिलेगा?
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१९

भगवान परमशिव .....

भगवान परमशिव .....
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परमशिव शब्द का प्रयोग मुख्यतः कश्मीरी शैव दर्शन की एक शाखा "प्रत्यभिज्ञा दर्शन" में हुआ है| प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है पहले से देखे हुए को पहिचानना, या पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना| दर्शनशास्र तो अति गहन हैं| उनका ज्ञान तो परमशिव की परमकृपा से स्वतः ही हो जाएगा पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति| हमें दर्शनशास्त्रों के बृहद अरण्य में विचरण के स्थान पर परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए| दर्शनशास्त्र हमें दिशा दे सकते हैं पर अनुभूति तो परमशिव की परमकृपा से ही हो सकती है|
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परमशिव का शाब्दिक अर्थ तो होता है ..... परम कल्याणकारी, पर वास्तव में यह एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी कहते हैं) सहस्त्रार चक्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में विचरण करने लगती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है जैसा कि मुझे अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से अपनी प्रत्यक्ष अनुभूतियों द्वारा समझ में आया है| वह अनन्तता ही परमशिव है जो परम कल्याणकारी है|
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ऐसे ही एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है|
ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है| दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है| 
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हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह भी ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है|
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विस्तार से किसी को जानना है तो शिवपुराण, लिंगपुराण और स्कन्दपुराण जैसे विशाल ग्रन्थ हैं, कश्मीरी शैवदर्शन और वीरशैवदर्शन जैसी परम्पराओं के भी अनेक ग्रन्थ है जिन का स्वाध्याय करते रहें| कश्मीरी शैव दर्शन के एक ग्रन्थ "विज्ञान भैरव" को तो ओशो (आचार्य रजनीश) ने पूरे विश्व में बहुत प्रसिद्ध कर दिया था| ओशो ने विज्ञानभैरव पर कई व्याख्यान दिए थे| ओशो का विज्ञानभैरव पर एक प्रवचन सुनकर ही मेरी रूचि कश्मीरी शैव दर्शन को समझने में हुई| कर्नाटक में मेरे एक मित्र है जो वीरशैव मत के ख्यातिप्राप्त बड़े विद्वान हैं| गत वर्ष वे जोधपुर में स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी से मिलने उन के आश्रम में आये थे जहाँ उनसे प्रत्यक्ष भेंट हुई और उन्होंने वीरशैव मत को अच्छी तरह समझाया था| स्वयं स्वामी जी भी प्रत्यक्ष शिवस्वरूप तपस्वी संत हैं जिन के पास बैठने मात्र से ही मुझे शिव तत्व की अनुभूतियाँ होने लगती हैं|
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उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है| गुरुकृपा से ध्यान में मुझे अपनी देह में ही दो शिवलिंग अनुभूत होते हैं, एक तो मूलाधार चक्र से आज्ञा चक्र तक है, दूसरा आज्ञाचक्र से ब्रह्मरंध्र को भी भेदता हुआ परमात्मा की अनंतता में विलीन हो जाता है, जो मेरी उपासना का विषय है| वही मेरा आराध्य देव परमशिव है, जिसका ध्यान मुझ से वे स्वयं परमात्मा परमशिव ही करवाते हैं| आप सब भी उन्हीं का ध्यान करें और उन्हीं में लीन हो जाएँ| वे परम कल्याणकारी हैं, आप सब पर गुरु की परमकृपा होगी|
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आप सब में अन्तस्थ परमशिव को मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करता हूँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२९ जनवरी २०१९

भगवान्, भक्ति और भक्त .....

भगवान्, भक्ति और भक्त .....
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(१) विष्णु पूराण के अनुसार "भगवान" शब्द का अर्थ -----
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः| ज्ञानवैराग्योश्चैव षण्णाम् भग इतीरणा||" 
–विष्णुपुराण ६|५|७४||
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, तथा वैराग्य यह छः सम्यक् पूर्ण होने पर `भग` कहे जाते हैं और इन छः की जिसमें पूर्णता है, वह भगवान है|
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(२) भक्ति और भक्त का अर्थ ---
नारद भक्ति सूत्रों के अनुसार भगवान के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है| अर्थात जिसमें भगवान के प्रति परम प्रेम है वह ही भक्त है|
आचार्य वल्लभ की भागवत पर सुबोधिनी टीका तथा नारायण भट्ट की भक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है :--
"सवै पुंसां परो धर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे। अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा संप्रसीदति||"
भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है| यही पुरुषों का परम धर्म है| इसी से आत्मा प्रसन्न होती है||
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भगवान की भक्ति एक उपलब्धी है, कोई क्रिया नहीं| भगवान की भक्ति अनेकानेक जन्मों के अत्यधिक शुभ कर्मों की परिणिति है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है| स्वाध्याय, सत्संग, साधना, सेवा और प्रभु चरणों में समर्पण का फल है --- भक्ति| यह एक अवस्था है जो प्रभु कृपा से ही प्राप्त होती है|
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सभी प्रभु प्रेमियों को मेरा प्रणाम और चरण वन्दन|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जनवरी २०१६