भगवान परमशिव .....
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परमशिव शब्द का प्रयोग मुख्यतः कश्मीरी शैव दर्शन की एक शाखा "प्रत्यभिज्ञा दर्शन" में हुआ है| प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है पहले से देखे हुए को पहिचानना, या पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना| दर्शनशास्र तो अति गहन हैं| उनका ज्ञान तो परमशिव की परमकृपा से स्वतः ही हो जाएगा पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति| हमें दर्शनशास्त्रों के बृहद अरण्य में विचरण के स्थान पर परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए| दर्शनशास्त्र हमें दिशा दे सकते हैं पर अनुभूति तो परमशिव की परमकृपा से ही हो सकती है|
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परमशिव का शाब्दिक अर्थ तो होता है ..... परम कल्याणकारी, पर वास्तव में यह एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी कहते हैं) सहस्त्रार चक्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में विचरण करने लगती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है जैसा कि मुझे अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से अपनी प्रत्यक्ष अनुभूतियों द्वारा समझ में आया है| वह अनन्तता ही परमशिव है जो परम कल्याणकारी है|
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ऐसे ही एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है|
ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है| दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है|
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हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह भी ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है|
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विस्तार से किसी को जानना है तो शिवपुराण, लिंगपुराण और स्कन्दपुराण जैसे विशाल ग्रन्थ हैं, कश्मीरी शैवदर्शन और वीरशैवदर्शन जैसी परम्पराओं के भी अनेक ग्रन्थ है जिन का स्वाध्याय करते रहें| कश्मीरी शैव दर्शन के एक ग्रन्थ "विज्ञान भैरव" को तो ओशो (आचार्य रजनीश) ने पूरे विश्व में बहुत प्रसिद्ध कर दिया था| ओशो ने विज्ञानभैरव पर कई व्याख्यान दिए थे| ओशो का विज्ञानभैरव पर एक प्रवचन सुनकर ही मेरी रूचि कश्मीरी शैव दर्शन को समझने में हुई| कर्नाटक में मेरे एक मित्र है जो वीरशैव मत के ख्यातिप्राप्त बड़े विद्वान हैं| गत वर्ष वे जोधपुर में स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी से मिलने उन के आश्रम में आये थे जहाँ उनसे प्रत्यक्ष भेंट हुई और उन्होंने वीरशैव मत को अच्छी तरह समझाया था| स्वयं स्वामी जी भी प्रत्यक्ष शिवस्वरूप तपस्वी संत हैं जिन के पास बैठने मात्र से ही मुझे शिव तत्व की अनुभूतियाँ होने लगती हैं|
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उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है| गुरुकृपा से ध्यान में मुझे अपनी देह में ही दो शिवलिंग अनुभूत होते हैं, एक तो मूलाधार चक्र से आज्ञा चक्र तक है, दूसरा आज्ञाचक्र से ब्रह्मरंध्र को भी भेदता हुआ परमात्मा की अनंतता में विलीन हो जाता है, जो मेरी उपासना का विषय है| वही मेरा आराध्य देव परमशिव है, जिसका ध्यान मुझ से वे स्वयं परमात्मा परमशिव ही करवाते हैं| आप सब भी उन्हीं का ध्यान करें और उन्हीं में लीन हो जाएँ| वे परम कल्याणकारी हैं, आप सब पर गुरु की परमकृपा होगी|
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आप सब में अन्तस्थ परमशिव को मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करता हूँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०१९