आध्यात्म में क्या सारे संकल्प वृथा है?
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हम जब एक संकल्प करते हैं तब बीस नए विकल्प जन्म ले लेते हैं| मैं इतने नाम-जप करूँगा, इतने घंटे ध्यान करूँगा, इतने पुण्य करूँगा, आदि आदि ..... क्या ये सब संकल्प फलीभूत होते हैं? मेरे विचार से तो नहीं|
जहाँ अहंकार आ जाता है वहाँ सफलता कठिनतम और संदिग्ध हो जाती है|
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इसकी अपेक्षा भगवान से ही प्रार्थना करना और विवेक-बुद्धि से सब कुछ उन्हीं पर छोड़ना ही अधिक सार्थक होगा| सारे कर्म और उनके फल भगवान को ही समर्पित कर देने चाहिएँ, तभी सफलता मिलेगी| कर्ताभाव और कर्मफल की कामना दोनों ही त्याज्य हैं| अहङ्कार वृत्ति हमारा स्वरूप नहीं है, शुद्ध ईश्वर ही हमारा स्वरूप है| मैंने यह किया, मैंने वह किया, इस तरह की सोच हमारा अहंकार मात्र है|
सही सोच तो यह है कि भगवान ने मेरे माध्यम से यह किया, मैं तो निमित्त मात्र था|
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जिसने इस सृष्टि को रचा, जो इसकी रक्षा कर रहा है और इसे जो इसे धारण किये हुए है, वह ही एकमात्र सहारा है| वह ही कर्ता और भोक्ता है| ॐ ॐ ॐ ||
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हम जब एक संकल्प करते हैं तब बीस नए विकल्प जन्म ले लेते हैं| मैं इतने नाम-जप करूँगा, इतने घंटे ध्यान करूँगा, इतने पुण्य करूँगा, आदि आदि ..... क्या ये सब संकल्प फलीभूत होते हैं? मेरे विचार से तो नहीं|
जहाँ अहंकार आ जाता है वहाँ सफलता कठिनतम और संदिग्ध हो जाती है|
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इसकी अपेक्षा भगवान से ही प्रार्थना करना और विवेक-बुद्धि से सब कुछ उन्हीं पर छोड़ना ही अधिक सार्थक होगा| सारे कर्म और उनके फल भगवान को ही समर्पित कर देने चाहिएँ, तभी सफलता मिलेगी| कर्ताभाव और कर्मफल की कामना दोनों ही त्याज्य हैं| अहङ्कार वृत्ति हमारा स्वरूप नहीं है, शुद्ध ईश्वर ही हमारा स्वरूप है| मैंने यह किया, मैंने वह किया, इस तरह की सोच हमारा अहंकार मात्र है|
सही सोच तो यह है कि भगवान ने मेरे माध्यम से यह किया, मैं तो निमित्त मात्र था|
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जिसने इस सृष्टि को रचा, जो इसकी रक्षा कर रहा है और इसे जो इसे धारण किये हुए है, वह ही एकमात्र सहारा है| वह ही कर्ता और भोक्ता है| ॐ ॐ ॐ ||