Monday 27 June 2016

आध्यात्म में क्या सारे संकल्प वृथा है?

आध्यात्म में क्या सारे संकल्प वृथा है?
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हम जब एक संकल्प करते हैं तब बीस नए विकल्प जन्म ले लेते हैं| मैं इतने नाम-जप करूँगा, इतने घंटे ध्यान करूँगा, इतने पुण्य करूँगा, आदि आदि ..... क्या ये सब संकल्प फलीभूत होते हैं? मेरे विचार से तो नहीं|
जहाँ अहंकार आ जाता है वहाँ सफलता कठिनतम और संदिग्ध हो जाती है|
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इसकी अपेक्षा भगवान से ही प्रार्थना करना और विवेक-बुद्धि से सब कुछ उन्हीं पर छोड़ना ही अधिक सार्थक होगा| सारे कर्म और उनके फल भगवान को ही समर्पित कर देने चाहिएँ, तभी सफलता मिलेगी| कर्ताभाव और कर्मफल की कामना दोनों ही त्याज्य हैं| अहङ्कार वृत्ति हमारा स्वरूप नहीं है, शुद्ध ईश्वर ही हमारा स्वरूप है| मैंने यह किया, मैंने वह किया, इस तरह की सोच हमारा अहंकार मात्र है|
सही सोच तो यह है कि भगवान ने मेरे माध्यम से यह किया, मैं तो निमित्त मात्र था|
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जिसने इस सृष्टि को रचा, जो इसकी रक्षा कर रहा है और इसे जो इसे धारण किये हुए है, वह ही एकमात्र सहारा है| वह ही कर्ता और भोक्ता है| ॐ ॐ ॐ ||

भारत की राष्ट्रभाषा 'संस्कृत' हो .....

भारत की राष्ट्रभाषा 'संस्कृत' हो .....
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यूरोप में 24 आधिकारिक भाषाएँ हैं जो सभी पूर्ण रूप से विकसित हैं| वहाँ बालकों को अपनी मातृभाषा में ही पढाया जाता है|, जिससे उनमें मौलिकता, स्वाभिमान और राष्ट्रीय गौरव की भावना बनी रहती है| ऊँची से ऊँची पढाई भी वहाँ उनकी मातृभाषा में ही है|
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हमारे लिए यह डूब मरने की और शर्म की बात है कि हमें अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाकर उनकी मौलिकता समाप्त करनी पड़ रही है|
हमसे अच्छा तो इजराइल है जिसकी कुल आबादी दिल्ली के बराबर है पर वहाँ की सारी पढाई हिब्रू भाषा में है जिसे मृत भाषा घोषित कर दिया गया था| इससे उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान इतना जागृत हो गया है कि चारों ओर से शत्रु राष्ट्रों से घिरे होकर भी वे शान से जी रहे है|
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हमारा अधिकाँश प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा में है| यदि भारत की राष्ट्रभाषा स्वतन्त्रता के समय से ही संस्कृत कर दी जाती तो आज भारत विश्व का सबसे अग्रणी राष्ट्र होता|

क्या मैं यह देह हूँ ? क्या पूर्ण समष्टि ही मेरी देह नहीं है ? ....

क्या मैं यह देह हूँ ? क्या पूर्ण समष्टि ही मेरी देह नहीं है ? .....
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जब मैं इस तथाकथित मेरी देह को देखता हूँ तब स्पष्ट रूप से यह बोध होता है कि यह मूल रूप से एक ऊर्जा-खंड है, जो पहले अणुओं का एक समूह बनी, फिर पदार्थ बनी| फिर इसके साथ अन्य सूक्ष्मतर तत्वों से निर्मित मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार आदि जुड़े| इस ऊर्जा-खंड के अणु निरंतर परिवर्तनशील हैं|
इस ऊर्जा-खंड ने कैसे जन्म लिया और धीरे धीरे यह कैसे विकसित हुआ इसके पीछे परमात्मा का एक संकल्प और विचार है| ये सब अणु और सब तत्व भी एक दिन विखंडित हो जायेंगे| पर मेरा अस्तित्व फिर भी बना रहेगा|
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अब यह प्रश्न उठता है कि मैं कौन हूँ ? क्या मैं यह शरीर हूँ ?
>>>>> निश्चित रूप से मैं यह शरीर रूपी-ऊर्जा खंड नहीं हूँ <<<<<
फिर मैं कौन हूँ ?
यह सत्य है कि मैं परमात्मा के मन का एक विचार हूँ जिसे परमात्मा ने पूर्ण स्वतंत्रता दी है|
>>>> मैं परमात्मा का अमृत पुत्र हूँ| मैं और मेरे पिता एक हैं| मैं यह देह नहीं हूँ, बल्कि परमात्मा का एक संकल्प हूँ| परमात्मा की अनंतता मेरी ही अनंतता है, उनका प्रेम ही मेरा भी प्रेम है, और उनकी पूर्णता मेरी भी पूर्णता है| <<<<<
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"मैं" अपरिछिन्न और अपरोक्ष केवल एक हूँ, मेरे सिवाय अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है| जो ब्रह्म है वह ही इस सम्पूर्णता के साथ व्यक्त हुआ है| मैं उसके साथ एक हूँ अतः निश्चित रूप से मैं यह देह नहीं अपितु प्रत्यगात्मा विकार-रहित ब्रह्म हूँ| मैं धर्म और अधर्म से परे जीवन-मुक्त और विदेह-मुक्त हूँ|
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यह मेरा अंतर्भाव है| यदि मैं स्वयं को देह मानता हूँ तो यह मेरा अहंकार होगा| मैं सर्वव्यापि आत्म-तत्व हूँ जो सत्य है| जो कुछ भी सृष्ट हुआ है, और जो कुछ भी सृष्ट होगा, वह मैं ही हूँ| पूरी समष्टि भी मैं हूँ, और जो समष्टि से परे है, वह भी मैं ही हूँ| मैं पूर्ण हूँ और परमात्मा के साथ एक हूँ|
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शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||