Sunday, 14 July 2019

अपरिग्रह .....

अपरिग्रह .....
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अधिकार-मुक्ति, या लोभ-मुक्ति की अवधारणा को हम अपरिग्रह कह सकते हैं| जितना कम से कम आवश्यक है, बस उतने का ही संग्रह, अन्य किसी का भी संग्रह नहीं, अर्थात् कोई भी वस्तु संचित ना करना .... अपरिग्रह कहलाता है| यह योग-दर्शन के पांच यमों में आता है और श्रमण परम्परा में महावीर स्वामी के अनुसार अहिंसा और अपरिग्रह जीवन के आधार हैं| अहिंसा के पश्चात् अपरिग्रह जैन धर्म में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण गुण है| सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये पांच यम हैं| ये ही पांच महाव्रत हैं, जितना अधिक हम इनका पालन करते हैं, उतना ही अधिक इनका प्रभाव होने लगता है| अपरिग्रह एक महान व्रत है, जिसका आज के युग में जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्व है| क्योंकि वर्तमान युग में परिग्रह लालसा बहुत बढ़ रही है| परिग्रह पर महावीर स्वामी कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता| ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं|
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अध्यात्म के साधकों के लिए 'अपरिग्रह' महाव्रत के रूप में रखा गया है। महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में उसे अष्टांग-योग-साधना के अंतर्गत यम के पांच स्तम्भों में से एक माना है| अपरिग्रह का अर्थ होता है परिग्रह का अभाव और परिग्रह का तात्पर्य है-लेना, स्वीकार करना| इस प्रकार अपरिग्रह वह गुण है, जो किसी से भेंट स्वीकार करने का निषेध करता है|

वासनात्मक कामना विष है .....

वासनात्मक कामना विष है, इसकी काट परमात्मा का निरंतर नियमित चिंतन ही है, अन्य कुछ भी नहीं| थोड़ा-बहुत जितना भी हो सकता है उतना तो विचलित हुए बिना करना ही चाहिए| हिम्मत न हारें, अभ्यास करते ही रहें, भगवान सदा हमारे साथ हैं|

मन में वासनात्मक विचारों का आना यानि विषयों का आकर्षण आध्यात्म मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है| विष तो एक बार ही मारता है पर विषय बार-बार मारते हैं| गीता में जो रजोगुणी लक्षण व कामनाएँ बताई गयी हैं, उनका पूर्णतः परित्याग किये बिना सतोगुण नहीं आयेंगे| तमोगुणी व रजोगुणी विषयों का त्याग निरंतर अभ्यास व वैराग्य द्वारा करना ही होगा, और सतोगुणी विषयों का निरंतर चिंतन करना होगा| अंततः जाना तो तीनों गुणों से परे ही होगा|

अन्तःकरण में उन वृत्तियों को ही लाना होगा जो हमें परमात्मा में स्थित करती हैं| इसके लिए अपने विचारों और आचरण में पवित्रता लानी होगी| मन के साथ साथ बाहरी आचरण को भी शुद्ध करना होगा| आहार शुद्धि, कुसंग-त्याग, सत्संग आदि अति आवश्यक हैं| सबसे बड़ा है ... निज-विवेक| हर कार्य अपने निज-विवेक के प्रकाश में ही करें|

मंगलमय शुभ कामनाएँ ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१३ जुलाई २०१९
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पुनश्चः :---- 

यह शरीर एक धोखेबाज मित्र है. इसके साथ जुड़ा अंतःकरण
(मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार)
भी धोखेबाज है.
इन्हें इतना ही दें जो इनके लिए आवश्यक है, अधिक नहीं.
इन पर नियंत्रण रखें. इन का कोई भरोसा नहीं है.

ब्रह्मचर्य ....

ब्रह्मचर्य
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ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म यानि परमात्मा का सा आचरण, ब्र्ह्मचैतन्य में स्थिति, और हर उस कर्म से विमुखता जो ब्रह्म यानि परमात्मा से दूर करता है| यह योगदर्शन के पांच यमों में आता है और महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित पञ्च महाव्रतों में आता है जिन्हें पंचशील भी कहते हैं|
ब्रह्मचर्य का व्रत देवों को भी दुर्लभ है| ब्रह्मचर्य की महिमा को यदि मैं श्रुति, स्मृति, पुराणों व महाभारत से उद्धृत करूँ, या जैन साहित्य से उद्धृत करना आरम्भ करूँ तो इस लेख को कभी भी समाप्त नहीं कर पाऊँगा|
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प्राचीन काल में जब गुरुकुल शिक्षा पद्धति में ब्रह्मचर्य अनिवार्य हुआ करता था, तब वीर, योद्धा, ज्ञानी व तपस्वी लोग होते थे, आज की तरह की घटिया मनुष्यता नहीं| जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का ओज सुषुम्रा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान-दीप्ति में परिणित हो जाता है|
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इस विषय पर अधिक नहीं लिखना चाहता क्योंकि इस विषय पर बहुत अधिक साहित्य और मार्गदर्शन उपलब्ध है| अपने खान-पान में, संगति में, अध्ययन में और वातावरण के प्रति सजग रहें| ऐसे कोई विचार न आने दें जिनसे ब्रह्मचर्य भंग हो| जो आध्यात्मिक साधक हैं, उन्हें इस विषय पर पर्याप्त मार्गदर्शन उपलब्ध है| उन्हें ऐसे लेखों की आवश्यकता नहीं है|
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सभी को शुभ कामनाएँ !
१३ जुलाई २०१९

कूटस्थ चैतन्य .....

कूटस्थ चैतन्य .....
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"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| "कूटस्थ" को अविनाशी 'परम अव्यक्त' भी कह सकते हैं| वह जो सर्वत्र है, जिसने सर्वस्व का निर्माण किया है, पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है, वह "कूटस्थ" है| उसकी चेतना "कूटस्थ चैतन्य" है| एक लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर "कूटस्थ" का नहीं| योग साधक, ध्यान में दिखाई देने वाले सर्वव्यापक विराट अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्म और अनाहत नाद को "कूटस्थ" कहते हैं| जब ज्योतिर्मय चेतना सर्वव्यापक हो जाती है वह "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| "कूटस्थ चैतन्य" में हम सदा परमात्मा के साथ हैं|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) अजपा-जप करते हुए साथ साथ प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| एक लघुत्तम जीवाणु से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही "कूटस्थ" है, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से है|
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आज्ञाचक्र योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होते हैं, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|
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यदि प्रभु के प्रति परमप्रेम, श्रद्धा-विश्वास और निष्ठा होगी तब निश्चित रूप से मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा, सहायता भी मिलेगी और रक्षा भी होगी| आवश्यकता है एक गहनतम अभीप्सा और परमप्रेम की|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१९

अस्तेय .....

अस्तेय .....
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महावीर स्वामी कहते हैं कि दूसरों की चीज़ों को चुराना और दूसरों की चीज़ों की इच्छा करना महापाप है| जो मिला है उसमें संतुष्ट रहें| अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है ..... चोरी न करना| योग-सुत्रों में यह पांच यमों में आता है, और जैन मत के पंचशीलों यानि पंच महाव्रतों में से एक हैं| अस्तेय का व्यापक अर्थ है .... मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे की सम्पत्ति को चुराने की इच्छा भी न करना| हम दूसरों के साधनों को हडपने की चेष्टा, इच्छा या प्रयत्न कभी ना करें और अपने निजि सुखों को निजि साधनों पर ही आधारित रख कर संतुष्ट रहें| अपनी चादर के अनुसार ही पाँव फैलायें किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने साधनों को ही गँवा बैठें या परिश्रम से उन में वृद्धि न करें|
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आज के युग में घूस खाना सबसे बड़ी चोरी है| घूसखोर को अगले जन्मों में ब्याज समेत वह सारी राशि उस व्यक्ति को बापस करनी ही पड़ती है जिस से उसने घूस ली है| चोरी करने वाले का यह जन्म तो बेकार गया, उसे और कई जन्म लेकर उसका दंड भुगतना ही होगा| घूसखोर और उसके घरवाले कितने भी प्रसन्न हो लें पर उन्हें अगले कई जन्मों तक इसका दंड भुगतना पड़ता है| किसी को ठग कर या डरा-धमका कर या अधर्म से उस को विवश कर के उस से कुछ बसूलते हैं तो इस जन्म की तो सारी आध्यात्मिक प्रगति अवरुद्ध हो ही जाती है, अगले जन्म भी कठिनाइयों से भरे हुए आते हैं| जिस कार्य को करने के लिए हमें पारिश्रमिक या वेतन मिलता है, उस कार्य को ईमानदारी से न करना भी श्रम की चोरी है, जिसका भी दंड मिलता है| ऐसे ही परस्त्री/पुरुष गमन भी चोरी की श्रेणी में ही आते हैं|
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अस्तेय विषय पर इतना ही लिखना पर्याप्त है| हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जुलाई २०१९

दीदार की हविश है तो नज़रें जमा के रख, चिलमन हो या नकाब सरकता जरूर है ....

दीदार की हविश है तो नज़रें जमा के रख, चिलमन हो या नकाब सरकता जरूर है ....
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हृदय की गहनतम अनुभूतियाँ शब्दों से परे हैं| उन्हें कोई व्यक्त नहीं कर सकता| हमारी हसरतें, तड़प और अरमान वर्णनातीत अनुभूतियाँ हैं| बस, "उस" ओर लगातार ताकते रहो| रहस्य अपने आप खुल जायेंगे, और कुछ भी नहीं करना है| ऊपर से कुछ मत थोपो, सारे गुण अपने आप प्रकट हो जायेगे| एक ही गुण "प्रेम" होगा तो बाकी सारे गुण अपने आप आ जायेंगे| पूर्णता तो हम स्वयं हैं, आवरण अधिक समय तक नहीं रह सकता| यहाँ हम बात परमात्मा की कर रहे हैं| समझने वाले सब समझते हैं|
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घर में जब कोई मेहमान आते हैं तो उनको बैठाने के स्थान को बहुत अच्छी तरह से साफ़ करते हैं कि कहीं कोई गन्दगी न रह जाए| पर हम यो यहाँ साक्षात परमात्मा को निमंत्रित कर रहे हैं| देह में या मन में कहीं भी कोई गन्दगी होगी तो वे नहीं आयेंगे| अपने हृदय मंदिर को तो विशेष रूप से साफ़ करना होगा| ह्रदय मंदिर को स्वच्छ कर जब उसमें परमात्मा को बिराजमान करेंगे तो सारे दीपक अपने आप ही जल जायेंगे, कहीं कोई अन्धकार नहीं रहेगा, आगे के सारे द्वार खुल जायेंगे और मार्ग प्रशस्त हो जायेगा| वहाँ उनके सिवा अन्य कोई नहीं होगा| एक बहुत पुरानी और बहुत प्रसिद्ध ग़ज़ल है ....
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"दिल का हुजरा साफ़ कर ज़ाना के आने के लिए,
ध्यान गैरों का उठा उसके ठिकाने के लिए |
चश्मे दिल से देख यहाँ जो जो तमाशे हो रहे,
दिलसिताँ क्या क्या हैं तेरे दिल सताने के लिए ||
एक दिल लाखों तमन्ना उसपे और ज्यादा हविश,
फिर ठिकाना है कहाँ उसको टिकाने के लिए |
नकली मंदिर मस्जिदों में जाये सद अफ़सोस है,
कुदरती मस्जिद का साकिन दुःख उठाने के लिए ||
कुदरती क़ाबे की तू मेहराब में सुन गौर से,
आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए |
क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में,
रास्ता शाह रग में हैं दिलबर पे जाने के लिए ||
मुर्शिदे कामिल से मिल सिदक और सबुरी से तकी,
जो तुझे देगा फहम शाह रग पाने के लिए |
गौशे बातिन हों कुशादा जो करें कुछ दिन अमल,
ला इल्लाह अल्लाहहू अकबर पे जाने के लिए ||
ये सदा तुलसी की है आमिल अमल कर ध्यान दे,
कुन कुरां में है लिखा अल्ल्हाहू अकबर के लिए ||"
(लेखक: तुलसी साहिब)
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आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन ! हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जुलाई २०१९

सत्य ही नारायण है, सत्य ही परमात्मा है .....

सत्य ही नारायण है, सत्य ही परमात्मा है .....
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हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती, इसका मुख्य कारण है.... "असत्यवादन"| झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है और किसी भी स्तर पर दग्धवाणी से किये गए मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता| इस कारण कोई साधना सफल नहीं हो पाती| यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में हो तो उसके द्वारा उच्चारित मन्त्र भी जल जायेंगे| तब जप, स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट सत्परिणाम उपलब्ध न हो सकेगा| परिष्कृत जिह्वा में ही वह शक्ति है जो हमारे जप को सिद्ध कर सकती है|
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सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है| प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानि हो वह सत्य भी असत्य है| जिस की हम निंदा करते हैं उसके भी अवगुण हमारे में आ जाते हैं|
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जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना या पूजा-पाठ करें, उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिल सकती| सत्य ही परमात्मा है| सत्य से दूर जाकर परमात्मा का बोध नहीं हो सकता|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुंझुनू (राजस्थान)

११ जुलाई २०१९
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पुनश्चः :--
“नहि सत्यात्परो धर्मो न पापामनृतात परम, तस्मात् सर्वात्मना मर्त्यःसत्मेकं समाश्रेयत|
सत्यहीना वृथा पूजा सत्यहीनो वृथा जपः, सत्यहीनं तपो व्यर्थमूषरे वपनं यथा”||
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सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है, न ही झूठ से बडा कोई पाप| इसलिये मनुष्य को सदा एकमात्र सत्य का आश्रय लेना चाहिये| सत्यहीन की पूजा व्यर्थ है| सत्यहीन का जप व्यर्थ है| सत्यहीन तपस्या वैसे ही व्यर्थ है जैसे ऊसर भूमि में बीज बोना|

हम जातिवाद से मुक्त हों, जातिवाद हमारे पर एक अभिशाप है .....

हम जातिवाद से मुक्त हों, जातिवाद हमारे पर एक अभिशाप है .....
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"जाति हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम| गृह हमारा शून्य में, अनहद में विश्राम||"
परमार्थ के मार्ग पर चलने वाले पथिक तो भगवान को समर्पित होते ही जाति-विहीन व वर्ण-विहीन हो जाते हैं, घर से भी बेघर हो जाते हैं, देह की चेतना भी छुट जाती है और मोक्ष की कामना भी नष्ट हो जाती है| उनकी जाति अच्युत है|
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विवाह के बाद कन्या अपनी जाति, गौत्र और वर्ण सब अपने पति की जाति, गौत्र और वर्ण में मिला देती है| पति की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| वैसे ही परमात्मा को समर्पित होने पर अपना कहने को कुछ भी नहीं बचता, सब कुछ उन्हीं का हो जाता है| 'मैं' और 'मेरापन' भी समाप्त हो जाता है| सब कुछ वे ही हो जाते हैं| भगवान् की जाति क्या है ? भगवान् का वर्ण क्या है ? भगवान् का घर कहाँ है ? जो उन का है वह ही हमारा है|
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प्रार्थना :---- तुम महासागर हो तो मैं जल की एक बूँद हूँ जो तुम्हारे में मिलकर महासागर ही बन जाती है| तुम एक प्रवाह हो तो मैं एक कण हूँ जो तुम्हारे में मिलकर विराट प्रवाह बन जाता है| तुम अनंतता हो तो मैं भी अनंत हूँ| तुम सर्वव्यापी हो तो मैं भी सदा तुम्हारे साथ हूँ| जो तुम हो वह ही मैं हूँ| मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| जब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता तो तुम भी मेरे बिना नहीं रह सकते| जितना प्रेम मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रति है, उससे अनंत गुणा प्रेम तो तुम मुझे करते हो| तुमने मुझे प्रेममय बना दिया है| जहाँ तुम हो वहीँ मैं हूँ, जहाँ मैं हूँ वहीँ तुम हो| मैं तुम्हारा अमृतपुत्र हूँ, तुम और मैं एक हैं|
शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१९

"अहिंसा" पर मेरे विचार .....

"अहिंसा" पर मेरे विचार .....
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उपनिषदों व गीता में 'अहिंसा' को सर्वोच्च नैतिक गुणों में माना गया है| महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित पाँच यम ..... अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं| जैन धर्म का तो आधारभूत बिंदु ही 'अहिंसा' है| महाभारत में अनेक बार अहिंसा को परमधर्म कहा गया है| अहिंसा पर मेरे विचार औरों से हटकर कुछ भिन्न हैं| अधिकांश लोग जीवों को न मारने और पीड़ा न देने को ही अहिंसा मानते हैं| पर जैसा मुझे समझ में आया है उसके अनुसार .....
"मनुष्य का अहंकार और मोह" सबसे बड़ी हिंसा है| उसके पश्चात "किसी निरीह असहाय की जिसे सहायता की नितांत आवश्यकता है, सहायता न करना", और "किसी निरपराध को पीड़ित करना" ही हिंसा है|
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हिंसा के साथ साथ सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का भी उतना ही महत्व है| पर मात्र अहिंसा पर ही अत्यधिक जोर देने, यहाँ तक कि आतताइयों, तस्करों और दुष्ट आक्रान्ताओं से भी अहिंसा का व्यवहार करने से दुर्भाग्यवश भारत में एक ऐसी सद्गुण-विकृति आ गयी जिसके कारण विदेशी आतताइयों द्वारा आकमण के द्वार खुल गए, व भारत एक निर्वीर्य असंगठित और कमजोर राष्ट्र बन गया|
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ऐतिहासिक दृष्टी से जिस दिन सम्राट अशोक ने अपनी तलवार नीचे रख दी थी, उसी दिन से भारत का पतन आरम्भ हो गया| भारत में आततायी के लिए जो हमारी स्त्री, संतान, धन, और प्राणों का अपहरण करने, राष्ट्र पर आक्रमण करने, हमें अपने आधीन करने और राष्ट्र को दरिद्र बनाने आता है, के विरुद्ध हिंसा को धर्म माना गया था| आततायी के लिए कहीं भी क्षमा का प्रावधान नहीं था| पृथ्वीराज चौहान जैसे प्रतापी राजाओं द्वारा दी गयी क्षमा का दंड भारत आज तक भुगत रहा है| इस तरह की क्षमा अहंकार-जनित थी और उसका दुष्परिणाम ही हुआ| इसी तरह की अहंकार-जनित अहिंसा के उपासकों के विश्वासघात के कारण सिंध के महाराजा दाहरसेन की पराजय हुई और आतताइयों द्वारा भारत के पराभव का क्रम आरम्भ हुआ| इस तरह के विश्वासघात अनेक बार हुए| सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु पूरे मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में भी| तथाकथित अहिंसा के उपासकों ने आतताइयों का वीरता से निरंतर प्रतिरोध नहीं किया, जिसका परिणाम उन्हें मृत्यु या बलात् हिंसक मतांतरण के रूप में मिला|
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दुर्भाग्य से भारत में ही अहिंसा को परम धर्म मानने वाले लोग सबसे बड़े परिग्रही और भोगी बन गए हैं| अनैतिकता व भ्रष्ट आचारण के साथ-साथ अहिंसा संभव नहीं है| जीवों को न मारना तो अहिंसा है, किसी चींटी के मारने पर तो पछतावा हमें हो सकता है, किन्तु दूसरों को ठगने या उनका शोषण करने में कोई पछतावा हमें क्यों नहीं होता?
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भारत में सभी हिन्दू देवी-देवताओं के हाथ में शस्त्रास्त्र हैं| जब तक भारत में शक्ति की साधना की जाती थी, भारत की और आँख उठाकर देखने का दु:साहस किसी आतताई का नहीं हुआ| गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार हमारा अहंकार ही सबसे बड़ी हिंसा है| वे कहते हैं .....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||"
भगवान ने अहिंसा को बहुत बड़ा गुण भी बताया है .....
"अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्| दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्||१६:२||"
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आततायियों को दंड देने के लिए जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं, वे प्रभु श्रीराम हमारे आराध्य हैं| वे यज्ञ की रक्षा करने के लिए ताड़का को मारना उचित समझते हैं, भक्तों की रक्षा के लिए मेघनाद के यज्ञ के विध्वंस का भी आदेश देते हैं, और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए लाखों राक्षसों के संहार को भी उचित मानते हैं| यह है अहिंसा का यथार्थ स्वरूप|
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आज की परिस्थिति में जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, तब धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए की गयी हिंसा भी अहिंसा है| इस समय राष्ट्र को एक ब्रह्मतेज और क्षात्रबल की नितांत आवश्यकता है| यही है -- 'अहिंसा परमो धर्म:'|
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महाभारत में अनेक स्थानों पर अहिंसा को परमधर्म बताया गया है, कुछ का यहाँ संकलन है .....
"अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः| सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः||
"अहिंसा परमः धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः सत्ये तु प्रतिष्ठाम् कृत्वा प्रवृत्तयः प्रवर्तन्ते|"
"अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः| दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते||"
"अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः| अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते||
"अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः| अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः||"
"अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम्| अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम्||"
"सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम्| सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ||"
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान दिव्यात्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१९

अपनी चेतना में मैं सभी के साथ एक हूँ ....

अपनी चेतना में मैं सभी के साथ एक हूँ| परमात्मा में हम सब एक हैं| जो आनंद भगवान की भक्ति और समर्पण में है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है| गीता में बताई गयी भगवान की अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति के समक्ष अन्य कुछ भी नहीं है|
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मेरे लिए तो साकार रूप में वे मेरे समक्ष नित्य शाम्भवी मुद्रा में पद्मासन में मेरे सहस्त्रार में समाधिस्थ हैं| वे ही मेरे ध्येय हैं और मेरा समर्पण उन्हीं के प्रति है| मेरे लिए वे ही परमशिव है, विष्णु हैं, नारायण हैं और जगन्माता हैं|
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शाम्भवी मुद्रा में पद्मासनस्थ समाधिस्थ एक छवि पुराण-पुरुष की अनेक साधकों के समक्ष चेतना में उभरती है| समर्पण उन्हीं के प्रति हो|
ॐ ॐ ॐ
९ जुलाई २०१९

श्रमण परम्परा और ब्राह्मण (वैदिक) परम्परा .....

श्रमण परम्परा और ब्राह्मण (वैदिक) परम्परा .....
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भगवान महावीर श्रमण परम्परा के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे| श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा दोनों ही अति प्राचीन काल से चली आ रही हैं| इनमें अंतर यह है कि श्रमण परम्परा नास्तिक है और ब्राह्मण परम्परा आस्तिक| जो श्रुति (वेदों) में आस्था रखता है व श्रुति (वेदों) को अंतिम प्रमाण मानता है, वह आस्तिक है, और जो श्रुतियों में आस्था नहीं रखता वह नास्तिक है| श्रमण परम्परा श्रुति (वेदों) को अपौरुषेय नहीं मानती अतः नास्तिक परम्परा है|
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पर इनमें एक समानता भी है| ये दोनों परम्पराएँ आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों के सिद्धांत को मानती हैं|
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ब्राह्मण परम्परा में ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता है और वेदवाक्य को ही ब्रह्म-वाक्य मानता है|
श्रमण परम्परा में श्रमण वह है जो निज श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता है और जिसके लिए जीवन में ईश्वर की नहीं बल्कि श्रम की आवश्यकता है| श्रमण परम्परा ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानती|
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श्रमण परम्परा का आधार .... श्रमण, समन, शमन .... इन तीन शब्दों पर है| 'श्रमण' शब्द 'श्रमः' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'परिश्रम करना'| श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में 'श्रमणोऽश्रमणस' के रूप में हुआ है| यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है| सुख–दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है| 'समन' का अर्थ है, समताभाव, अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना, सभी के प्रति समभाव रखना| जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरे के लिए भी बुरी है| ‘शमन' का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, उनका निरोध करना|
जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है वह महाश्रमण है| इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ गुरुभ्यो नमः !
कृपा शंकर
९ जुलाई २०१९

(इस विषय पर आगे और लेखन पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर निर्भर है| आगे के विषय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहआदि हो सकते हैं| स्यादवाद और वेदांत पर भी विचार हो सकता है| साधनाओं पर भी लिखा जा सकता है, पर यह सब परिस्थितियों पर निर्भर है क्योंकि मेरा तो आजकल सर्वप्रिय विषय ही भक्ति है, भक्ति के अलावा अन्य किसी विषय पर लिखने की इच्छा ही नहीं होती|)

हर सांस एक पुनर्जन्म है .....

साधना के मार्ग पर शत-प्रतिशत रहें| अपने हृदय में जो प्रचंड अग्नि जल रही है उसे दृढ़ निश्चय और सतत् प्रयास से निरंतर प्रज्ज्वलित रखिए| आधे-अधूरे मन से किया गया कोई प्रयास सफल नहीं होगा| साधना निश्चित रूप से सफल होगी, चाहे यह देह रहे या न रहे ...... इस दृढ़ निश्चय के साथ साधना करें, आधे अधूरे मन से नहीं|
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परमात्मा का स्मरण करते करते यदि मरना भी पड़े तो वह इस नारकीय सांसारिक जीवन जीने से तो अच्छा है|
परमात्मा मन का विषय नहीं है| "वह" जिसके द्वारा मन स्वयं मनन का विषय बन जाता है, "वह" ही ब्रह्म यानि परमात्मा है| वह मन और बुद्धि की समझ से परे है| उसके गुणों की हम गहरे ध्यान में अनुभूति तो कर सकते हैं, पर अपना रहस्य तो वे स्वयं ही कृपा कर के ही किसी को अनावृत कर सकते हैं|
"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई|"
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हर सांस एक पुनर्जन्म है|दो साँसों के मध्य का संधिक्षण वास्तविक संध्याकाल है, जिसमें की गयी साधना सर्वोत्तम होती है|हर सांस पर परमात्मा का स्मरण रहे क्योंकि हर सांस तो वे ही ले रहे हैं, न कि हम|
"हं" (प्रकृति) और "सः" (पुरुष) दोनों में कोई भेद नहीं है| प्रणवाक्षर परमात्मा का वाचक है| कोई अन्य नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व हमारी ही अभिव्यक्ति है.
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श्रीगुरुभ्यो नमः ! हरिः ॐ !
८ जुलाई २०१९

महावीर का 'जीयोऔर जीने दो' का सिद्धांत .....

महावीर का 'जीयोऔर जीने दो' का सिद्धांत .....
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भगवान महावीर श्रमण परम्परा के चौंबीसवें तीर्थंकर थे| तीर्थंकर का अर्थ है जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते है और संसार-सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है| तीर्थंकर वह व्यक्ति है जिसने पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की है| महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था| तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज-वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये| १२ वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ| यह श्रमण परम्परा ही कालान्तर में जैन धर्म कहलाई| जैन का अर्थ होता है जितेन्द्रिय, यानि जिस ने मन आदि इन्द्रियों को जीत लिया है|
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श्रमण परम्परा के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे जिनके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष है| ऋषभदेव का उल्लेख श्रुति में भी है और भागवत में भी| तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को उच्चतम नैतिक गुण बताया| उनके पंचशील के सिद्धांत ..... अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य हैं| योग-दर्शन में ये ही 'यम' कहलाते हैं| उन्होंने अनेकांतवाद व स्यादवाद जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए|
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हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो| यही महावीर का 'जीयो और जीने दो' का सिद्धांत है|
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(इस विषय पर अगले लेख में श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा के बारे में लिखूंगा| दोनों में भेद है|) (कृपया कोई भी अशोभनीय टिप्पणी न करें)
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१९

सारी साधनाएँ एक बहाना है, असली चीज तो प्रभु की कृपा है .....