Wednesday 1 December 2021

ध्यान के लिए आवश्यक है कि दोनों नासिका छिद्रों से साँसें चल रही हो ---

 जिस समय दोनों नासिका छिद्रों से साँसें चल रही हों, उसी समय साँसें सहज और लयबद्ध होती हैं, तभी मन स्थिर हो सकता है, और तभी ध्यान साधना हो सकती है| बंद नाक होने से ध्यान नहीं हो सकता| यदि साँसें एक ही नासिका छिद्र से चल रही हो, तब भी ध्यान नहीं हो सकता| ध्यान के लिए यह आवश्यक है कि दोनों नासिकाओं से साँस चल रही हो| इसी के लिए ध्यान से पूर्व अनुलोम-विलोम प्राणायाम करते हैं| हठयोग में अनेक क्रियाएँ हैं जिनकी सहायता से नासिका के दोनों छिद्रों को खुला रखा जा सकता है| यदि कोई मेडिकल समस्या हो ... जैसे DNS की या Allergy की, तो उसका किसी अच्छे ENT सर्जन से शल्य चिकित्सा द्वारा उपचार करवाएँ|

ॐ तत्सत् !!

२ दिसंबर २०२१

भगवान के किस रूप का ध्यान करें? ---

 

भगवान के किस रूप का ध्यान करें?
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गीता के अध्याय ११ "विश्वरूप दर्शन योग" में दिये भगवान के "पुराण-पुरुष" "ज्योतिर्मय रूप" का ध्यान अनन्य भक्तिभाव से करें| भगवान कहते हैं ---
"दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता| यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः||११/१२"
यदि आकाश में एक हजार सूर्य एक साथ उदय हो तो उनसे उत्पन्न होने वाला वह प्रकाश भी उस सर्वव्यापी परमेश्वर के प्रकाश की शायद ही समानता कर सके|
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मेरा मानना है कि परमात्मा का वह विराट प्रकाशरूप ही ज्योतिर्मय ब्रह्म है, वही परमशिव है, वही परमेश्वर है| उसी का हम अनन्य भक्ति-भाव से ध्यान करें| भगवान कहते हैं ---
"भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन| ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप||११:५४||"
"मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः| निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव||११:५५||"
भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है|
हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है||
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गीता में एक अन्य स्थान पर भी भगवान अनन्य भक्ति का आदेश देते हैं ---
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
अर्थात् अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि||
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गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन द्वारा भगवान से की गई प्रार्थना :---
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स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा: ॥ (३६)
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्‌ गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्‌ ॥ (३७)
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ (३८)
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ (३९)
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ (४०)
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥ (४१)
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌ ॥ (४२)
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌ ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ (४३
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌ ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌ ॥ (४४)
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गीता के कई श्लोकों के कूट अर्थ हैं, जिन्हें भगवान की कृपा से ही समझा जा सकता है| वे बुद्धि की समझने की शक्ति से परे हैं, अतः उन को समझाने का प्रयास निरर्थक है| भगवान की परम कृपा सभी सत्यनिष्ठ प्रेमियों पर बनी रहे|
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मुझे बहुत अच्छी तरह से पता है कि मेरे इस शरीर रूपी दीपक में अब अधिक ईंधन नहीं बचा है| अतः अब सब तरह की अन्य गतिविधियों को छोड़कर अपना यथासंभव अधिकाधिक समय भगवान के ध्यान और भक्ति में ही बीते, इसकी प्रार्थना पुराण-पुरुष भगवान वासुदेव से करता हूँ| मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे याद करे| याद ही करना है तो निरंतर सदा भगवान को ही करें|
मेरा अगला जन्म किसी ज्योतिर्मय हिरण्य लोक में होगा| इसका आभास कभी कभी होता है|
भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण को पुनश्च: कोटि-कोटि नमन !!
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ दिसंबर २०२०