Monday 9 January 2017

गुरु चरणों में आश्रय हमारी रक्षा करता है .....

गुरु चरणों में आश्रय हमारी रक्षा करता है .....
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यह मेरा पूर्ण व्यावहारिक अनुभव है कि जब तक गुरु चरणों का ध्यान रहता है, तब तक हर बुराई, जैसे राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध, लोभ और ईर्ष्या आदि सब, दूर ही रहती है| गुरु चरणों का आश्रय छोड़ते ही ये फिर पकड़ लेती हैं| अतः गुरु की शरण में रहना ही सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमानी का काम है|
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मेरे लिए तो सहस्त्रार में सहस्त्र दल कमल ही गुरु महाराज की चरण पादुका है, वहीं साक्षात गुरु महाराज सर्वदा बिराजमान हैं| ध्यान में गुरु महाराज तो सर्वत्र अनंतता में व्याप्त परम प्रेम बन जाते हैं जिसने इस सम्पूर्ण सृष्टि को धारण कर रखा है, उनको समर्पण ही मेरी साधना है| वे स्वयं को कूटस्थ अक्षर ब्रह्म और कूटस्थ ज्योति के रूप में व्यक्त करते हैं| वही मेरा उपास्य है| सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र ही मेरा ह्रदय है|
इससे अधिक मुझे कुछ नहीं मालूम|
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आप सब दिव्य निजात्माओं को सप्रेम सादर नमन| आप सब के ह्रदय में भगवान की पराभक्ति जागृत हो| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

पौष बड़ा महोत्सव ......

पौष बड़ा महोत्सव ......
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पौष के महीने में किसी दिन श्रद्धालू किसी मंदिर में एकत्र होकर खूब भजन-कीर्तन करते हैं और मूंग की दाल से बनाए हुए बड़े भगवान को अर्पित कर उनका प्रसाद बाँटते हैं, इसे पौष बड़ा महोत्सव कहते हैं| आजकल बड़ों के साथ साथ और भी कोई परम्परागत मिठाई कहीं कहीं बाँटने लगे हैं|
यह संस्कृति पहिले जयपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में ही खूब थी, पर अब तो जयपुर के उत्तर में पूरे शेखावाटी क्षेत्र में भी बहुत सामान्य हो गयी है| राजस्थान के अन्य भागों में भी इसका आयोजन होने लगा है|
कल दो स्थानों पर पौष बड़ा महोत्सवों में जाने का अवसर मिला| एक तो एक समाज विशेष की ओर से था, और दूसरा नगर नरेश बालाजी मंदिर झुंझुनू में था| नगर नरेश बालाजी मंदिर में एकत्र अनेक माताओं, बहिनों व भाइयों ने खूब भजन-कीर्तन किये और प्रसाद बाँटा| बड़े आनंद के क्षण थे|
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किसी समय हमारे यहाँ खूब गोठ (संस्कृत के गोष्ठी शब्द का अपभ्रंस) हुआ करती थी, जिसमें एकत्र श्रद्धालू मूंग की दाल, बाटी और चूरमा का प्रसाद पाते थे| अब यह परम्परा बहुत कम रह गयी है|
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सर्दी के मौसम में भगवान की भक्ति का आनंद कुछ अधिक ही है| इस सर्दी के मौसम का खूब लाभ उठाएँ और भगवान की खूब भक्ति करें|
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ ॐ ॐ ||

नकारात्मक विचार क्यों आते हैं ? .....

नकारात्मक विचार क्यों आते हैं ? .....
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कई बार बड़े नकारात्मक विचार आते हैं, अतः इसका कारण समझने के लिए मैनें काफी चिंतन किया| आज प्रातः कुछ देर के लिए बड़ी नकारात्मकता थी| मैंने इसका कारण जानना चाहा और पूरे मानसिक घटनाक्रम का विश्लेषण किया तो इसका उत्तर भी मुझे मिल गया जिसे मैं आप सब के साथ साझा करना चाहता हूँ|
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मैंने पाया कि जिस दिन भी मैंने प्रातःकाल में उठते ही प्रातःस्मरणीय महापुरुषों का स्मरण किया और परमात्मा का ध्यान किया उस के बाद लगभग पूरे दिन ही कोई नकारात्मक विचार नहीं आया|
जब किसी नकारात्मक व्यक्ति से मिलना होता है या उसकी स्मृति आती है, तब थोड़ी देर में ही एक गहरी नकारात्मकता भी आ जाती है|
इसीलिए शास्त्रों में कहा है कि कुसंग का सर्वदा त्याग करना चाहिए| किसी नकारात्मक व्यक्ति का स्मरण भी कुसंग होता है|
आज जब नकारात्मकता आई इसका कारण यही था कि प्रातः एक नकारात्मक व्यक्ति कि याद बहुत देर तक आ रही थी| मुझे उसी समय उस से विपरीत गुण वाले व्यक्ति, या गुरुदेव या भगवान के किसी नाम का नाम-जप करना चाहिए था, जो मैंने नहीं किया| अतः एक गहरी नकारात्मकता छा गयी|
परमात्मा के निरंतर चिंतन का अभाव ही नकारात्मकता को जन्म देता है| अतः हमें अपने दिन का प्रारम्भ भी परमात्मा के चिंतन से करना चाहिए, और समापन भी परमात्मा के चिंतन से करना चाहिए| हर समय परमात्मा की स्मृति भी रहनी चाहिए|

ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ !!

गुरु और संतों से सम्बन्धित एक रहस्य .....

गुरु और संतों से सम्बन्धित एक रहस्य .....
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एक उदाहरण के लिए मान लीजिये कि एक वन में एक तालाब है, जिसमें वन के अनेक प्राणी आकर अपनी प्यास बुझाते हैं| या मान लीजिये कि आप कहीं सुनसान राहों पर जा रहे हो और आप को बड़े जोर से प्यास लगी हो| अचानक आप के सामने एक तालाब आ जाता है जहाँ आप जलपान कर सकते हैं|
अब आप जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं तो आप स्वयं पर उपकार कर रहे हैं, जल पर नहीं| तालाब में अनेक प्राणी आकर अपनी प्यास बुझाते हैं, वे स्वयं का भला कर रहे हैं,तालाब का नहीं|
तालाब भी किसी पर अहसान नहीं दिखाता, उसे तो प्रसन्नता है कि प्यासे उसके पास आकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं| तालाब भी उसी की प्यास मिटा सकता है जिसको प्यास लगी हो| जिसमें प्यास ही नहीं हो उसका तालाब क्या भला कर सकता है?
तालाब कभी परवाह नहीं करता कि कौन उससे अपनी प्यास बुझा रहा है और कौन नहीं| कोई अपनी प्यास बुझाए तो ठीक और न बुझाए तो भी ठीक| तालाब अपने आप में मस्त है|
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वैसे ही सद्गुरु और संत-महात्मा एक सरोवर यानि तालाब की तरह हैं जिनके पास आकर अनेक मुमुक्षु और जिज्ञासु अपनी आध्यात्मिक प्यास बुझाते हैं| संत और गुरु कभी परवाह नहीं करते कि कौन आता है और कौन नहीं| जो आये उसका भी भला और जो न आये उसका भी भला| गुरु व संत तो सबके हितैषी हैं| गुरु व संत के पास जाकर हम स्वयं पर अहसान कर रहे हैं, उन पर नहीं|
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गुरु और संत उस विशाल वृक्ष की तरह हैं जिनकी छाया में जाकर हम कड़ी धूप से अपनी रक्षा करते हैं| उनकी छाया में जाकर हम स्वयं पर अहसान कर रहे हैं, उन पर नहीं|
वे किसी का भला नहीं कर रहे, हम स्वयं ही अपना भला कर रहे हैं| पर उनके पास वही जाएगा जो गर्मी और कड़ी धुप से त्रस्त है| जो त्रस्त नहीं है वह नहीं जाएगा और वृक्ष की छाया से वंचित रह जाएगा|
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रहीम जी का एक दोहा सन १९५७- ५८ में हमारी छठी कक्षा की पाठ्य पुस्तक में था ----
'तरुवर सरवर संतजन चौथो बरसन मेह, परमारथ रे कारणा चारों धारी देह||'
अर्थात तरुवर (वृक्ष) सरोवर (तालाब) संतजन और मेह (बरसात) इन चारों ने परमार्थ के कारण ही देह धारण की है|
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बोलिए सभी संतन की जय, भक्त और भगवान की जय|
नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव| ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
पौष कृ.१३ वि.सं.२०७२| 8 जनवरी.2016

गुरु महाराज तो अपना जैसा ही बना देते हैं .....

प्राचीन काल में कहते हैं कि एक ऐसा पत्थर पाया जाता था जिसके स्पर्श से लोहा सोना हो जाता था| पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है| पर मुझे सचमुच एक पारस पत्थर अड़तीस वर्ष पूर्व मिला था जो मिटटी से सोना बना देता है| मैं वास्तव में बहुत अधिक भाग्यशाली हूँ| उस पारस पत्थर ने मुझे निहाल कर दिया है|
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मेरे सद् गुरु महाराज ही वह पारस पत्थर हैं जिन्होनें मुझे मिटटी से सोना बना दिया है| उन्होंने मेरी अनेक बुराइयों को प्रभु-प्रेम में रूपांतरित कर दिया है| उनकी शक्ति इससे भी अधिक है जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता| उन्होंने अपनी कृपादृष्टि से अनेक शिष्यों को पारस पत्थर बनाया है|
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सूक्ष्म जगत से वे निरंतर मुझ पर अपनी दृष्टी रखे हुए हैं| मैं उनकी दृष्टी में हूँ अतः मुझे और क्या चाहिए? कुछ भी नहीं| उनकी एक नज़र ही काफी है, वह जिस पर पड़ जाती है वह निहाल हो जाता है|
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मैं उनके प्रेम का एक अनंत सागर हूँ जो स्वयं में तैरते हुए इस अहंकार को देख रहा है| कितनी मधुरता है उनके इस प्रेम में !!!

शीत ऋतु परमात्मा के ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ है .....

आजकल शीत ऋतु परमात्मा के ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ है| प्रकृति भी शांत है, न तो पंखा चलाना पड़ता है ओर न कूलर, अतः उनकी आवाज़ नहीं होती| कोई व्यवधान नहीं है| प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही प्रकृति में जो भी सन्नाटे की आवाज सुनती है उसी को आधार बनाकर गुरु प्रदत्त बीज मन्त्र या प्रणव की ध्वनि को सुनते रहो|
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किसी भी मन्त्र के जाप की सर्वश्रेष्ठ विधि यह है कि जगन्माता की गोद में बैठकर उसे अपने आतंरिक चैतन्य में निरंतर सुनते रहो| कितना आसान काम कर दिया है करुणामयी माँ ने! आपको तो कुछ भी नहीं करना है, जब जगन्माता स्वयं आपके लिए साधना कर रही है| जो जगन्माता सारी प्रकृति का संचालन कर रही है, उसने जब स्वयं आपका भार उठा लिया है तब फिर आपको और क्या चाहिए? आपसे अधिक भाग्यशाली अन्य कोई नहीं है| किसी भी तरह का कर्ताभाव आना पतन का सबसे बड़ा कारण है|
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गुरु के अनुशरण या गुरु की सेवा का अर्थ है उस ब्राह्मी चेतना यानि कूटस्थ चैतन्य में निरंतर रहने का प्रयास जिसमें गुरू है| गुरु तो परमात्मा के साथ एक है, वे तो परमात्मा की चेतना में स्थित हैं, उनकी देह तो उनका एक वाहन मात्र है जो उन्होंने लोकयात्रा के लिए धारण कर कर रखा है| गुरु देह नहीं है, गुरु तो एक तत्व हैं, एक चैतन्य हैं| देह तो उनका एक साधन मात्र या कहिये कि प्रतीक मात्र है|
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सांसारिक रूप से हमें अपने धर्म और संस्कृति पर गौरव होना चाहिए| 'हिंदू' शब्द गौरव का प्रतीक है| जो स्वयं को हिंदू कहता है वह राष्ट्रवादी है, साम्प्रदायिक नहीं| हमें स्वयं को हिंदू कहलाने पर गौरवान्वित होना चाहिए तभी हम अपने धर्म की रक्षा कर पायेंगे| [पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है ..... निरंतर परमात्मा का स्मरण और उनके चैतन्य में स्थिति| यही हमारे धर्म की शिक्षा है और यही हमारा धर्म है|
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आप सब दिव्य निजात्माओं को नमन | आप सब परमात्मा को समर्पित हों, परमात्मा आपके जीवन का केंद्रबिंदु हो, उसका परमप्रेम आपमें जागृत हो|

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

यह सृष्टि नटराज का नृत्य है ......

यह सृष्टि नटराज का नृत्य है ......
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यह सृष्टि हमारे मन के विचारों और भावों का ही घनीभूत रूप है|
सन 1980 ई.में 'The Tao of Physics' नामक एक पुस्तक पढ़ी थी जिसके लेखक अमेरिका के एक प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री डा.फ्रित्जोफ़ केपरा थे| वह पुस्तक सन उन्नीससौ सत्तर और अस्सी के दशक में बहुत लोकप्रिय हुई थी| उस के अमेरिकन संस्करण पर नटराज का चित्र था| उन दिनों मैं कनाडा के वेंकूवर नगर (ब्रिटिश कोलंबिया) में गया हुआ था| वहाँ एक पुस्तकों की दूकान में भारतीय संस्कृति से सम्बंधित पुस्तकें देख रहा तो वह पुस्तक मुझे बड़ी आकर्षक लगी और मैनें खरीद ली| उस पुस्तक में लेखक ने भौतिक शास्त्र और गणित के माध्यम से भारतीय दर्शन को सिद्ध करने का प्रयास किया था| उस पुस्तक का सार यही था कि विपरीत गुणों से निर्मित यह सृष्टि नटराज का नृत्य है जिसमें कभी एक गुण हावी होता है तो कभी दूसरा| बाद में इसका भारतीय संस्करण भी छपा था|
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गहराई से चिंतन किया जाए तो वास्तव में यह सृष्टि नटराज का एक नृत्य मात्र ही है जिसमें निरंतर ऊर्जा खण्डों और अणुओं का विखंडन और सृजन हो रहा है| जो बिंदु है वह प्रवाह बन जाता है और प्रवाह बिंदु बन जाता है| ऊर्जा कणों की बौछार और निरंतर प्रवाह समस्त भौतिक सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं| इन सब के पीछे एक परम चैतन्य है और उसके भी पीछे एक विचार है| समस्त सृष्टि परमात्मा के मन का एक स्वप्न या विचार मात्र है| वह परम चेतना ही भगवान परम शिव हैं और नित्य नवीन सृष्टि का विखंडन और सृजन ही भगवान नटराज का नृत्य है|
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ये हमारे विचार और हमारी चेतना ही है जो घनीभूत होकर सृष्ट हो रही है, क्योंकि हम परमात्मा के ही अंश हैं| अतः हमारे सब के विचार ही इस सृष्टि का निर्माण कर रहे हैं| जैसे हमारे विचार होंगे वैसी ही यह सृष्टि होगी| यह सृष्टि जितनी विराट है उतनी ही सूक्ष्म है| हर अणु अपने आप में एक ब्रह्मांड है| हम कुछ भी संकल्प या विचार करते हैं, उसका प्रभाव सृष्टि पर पड़े बिना नहीं रह सकता| इसलिए हमारा हर संकल्प शिव संकल्प हो, और हर विचार शुभ विचार हो|
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अपने परमशिव चैतन्य में हम रहें तो सब ठीक है अन्यथा सब गलत| ॐ ॐ ॐ ||

हमें अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व होना चाहिए .....

हमें अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व होना चाहिए .....
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हमें अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व होना चाहिए| हम आत्मनिंदा और आत्महीनता के बोध से बचे| वर्तमान में हिन्दुओं द्वारा अपने धर्म, संस्कृति, धर्मगुरुओं और परम्पराओं का उपहास उड़ाना और उपहास को सहन करना निश्चित रूप से आत्म-ह्त्या का प्रयास है|
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धर्म को समझने का प्रयास करें, उसका अध्ययन करें और फिर कोई टिप्पणी करें| सिर्फ हिन्दू माँ-बाप के घर जन्म लेने मात्र का यह अर्थ नहीं है कि स्वतः ही किसी को सनातन हिन्दू धर्म का ज्ञान हो जाए| उसके लिए अध्ययन और साधना आवश्यक है|
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विदेशों में जिन्हें भी हिन्दू धर्म का ज्ञान है और जो सत्य के उपासक हैं उन्हें धर्म की अधिक चिंता है| धर्म की रक्षा, धर्म का पालन कर के ही कर सकते हैं| हिन्दू धर्म की जो आलोचना और निंदा हो रही है उसके पीछे विदेशी परम दानव समाज का हाथ है जो भारत की अस्मिता को समाप्त कर देना चाहता हैं| हम धर्म की रक्षा करेंगे तभी धर्म हमारी भी रक्षा करेगा|
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परमात्मा से अहैतुकी प्रेम व समर्पण, और सर्वस्व के कल्याण की कामना सिर्फ सनातन हिन्दू धर्म ही सिखाता है| हमारे परम आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं|
जय भारत, जय सनातन संस्कृति|
ॐ ॐ ॐ ||