आदि शंकराचार्य जयंती पर भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य को नमन एवं सभी सनातन धर्मावलम्बियों को शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन ....
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एक महानतम परम विलक्षण प्रतिभा जिसने कभी इस पृथ्वी पर विचरण कर सनातन
धर्म का पुनरोद्धार किया था, के बारे में लिखने का मेरा यह प्रयास सूर्य को
दीपक दिखाने के समान है| आज वैशाख शुक्ल पञ्चमी को उनका जन्म मेरे जैसे
उनकी परंपरा के सभी अनुयायियों के ह्रदय में हुआ है, अतः शिव स्वरुप भगवान
भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य को नमन, जिनकी परम ज्योति हमारे कूटस्थ में
निरंतर प्रज्ज्वलित है|
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एक मात्र सात वर्ष का संन्यासी बालक,
गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा| उस
ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का एक दाना तक नहीं था|
ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी
विपन्नता का वर्णन किया| उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-मूर्ति बालक का
हृदय द्रवित हो उठा| वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर
उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा|
उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण
के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी| जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न
कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला वह बालक था .....
‘'शंकर'’, जो आगे चलकर जगत्गुरू शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुआ|
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आचार्य शंकर का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को मालाबार प्रान्त (केरल) के
कालड़ी गाँव में तैत्तिरीय शाखा के एक यजुर्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ
था| वे माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे| बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त
हो गया था| उस समय सारे भारत में नास्तिकता का बोलबाला था| उस नास्तिकता के
प्रभाव को दूरकर उन्होंने वेदान्त और भक्ति की ज्योति से सारे देश को
आलोकित कर दिया| सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं
में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने
चारों शिष्यों को आसीन किया|
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एक बार जब आचार्य शंकर प्रातःकाल
वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने गये तब देखा कि एक युवा महिला
अपने मृत पति के अंतिम संस्कार के खर्च के लिए भिक्षा मांग रही थी| उसने
अपने पति की मृत देह को घाट पर इस प्रकार लेटा रखा था कि कोई भी स्नान के
लिए नीचे नहीं उतर पा रहा था|
विवश शंकराचार्य ने उस महिला से अनुरोध
किया कि हे माते, यदि आप कृपा करके इस शव को थोडा सा परे हटा दें तो मैं
नीचे उतर कर स्नान कर सकूं| उस शोकाकुल महिला ने कोई उत्तर नहीं दिया| बार
बार अनुनय विनय करने पर वह चिल्ला कर बोली कि इस मृतक को ही क्यों नहीं कह
देते कि परे हट जाए|
आचार्य शंकर ने कहा कि हे माते, यह मृतक देह स्वतः
कैसे हट सकती है? इसमें प्राण थोड़े ही हैं| इस पर वह युवा स्त्री बोली कि
हे संत महाराज, ये आप ही तो हैं जो सर्वत्र यह कहते फिरते हैं कि इस
शक्तिहीन जग में केवल मात्र ब्रह्म का ही एकाधिकार चलता है| एक निष्काम,
निर्गुण और त्रिगुणातीत ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है, सब
माया है| एक सामान्य महिला से इतने गहन तत्व की बात सुनकर आचार्य जड़वत हो
गए| क्षण भर पश्चात् देखा कि वह महिला और उसके पति का शव दोनों ही लुप्त हो
गए हैं|
स्तब्ध आचार्य शंकर इस लीला का भेद जानने के लिए ध्यानस्थ हो
गए| ध्यान में वे तुरंत समझ गए कि इस अलौकिक लीला की नायिका अन्य कोई नहीं
स्वयं महामाया अन्नपूर्ण थीं| यह भी उन्हें समझ में आ गया कि इस विश्व का
आधार यही आदिशक्ति महामाया अपने चेतन स्वरुप में है|
इस अनुभूति से आचार्य भावविभोर हो गए| उन्होंने वहीं महामाया अन्नपूर्णा स्तोत्र की रचना की| उसके एक पद का अनुवाद निम्न है ---
"हे माँ यदि समस्त देवी देवताओं के स्वरूपों का अवलोकन किया जाए तो कुछ न
कुछ कमी अवश्य दृष्टिगोचर होगी| यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मा भी प्रलयकाल की
भयंकरता से विव्हल हो जाते हैं| किन्तु हे माँ चिन्मयी एक मात्र आप ही
नित्य चैतन्य और नित्य पूर्ण हैं|"
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आदि शंकराचार्य के बारे में
सामान्य जन में यही धारणा है कि उन्होंने सिर्फ अद्वैतवाद या अद्वैत वेदांत
को प्रतिपादित किया| पर यह सही नहीं है| अद्वैतवादी से अधिक वे एक भक्त थे
और उन्होंने भक्ति को अधिक महत्व दिया|
अद्वैतवाद के प्रतिपादक तो
उनके परम गुरु ऋषि गौड़पाद थे जिन्होनें 'माण्डुक्यकारिका' ग्रन्थ की रचना
की| आचार्य गौड़पाद ने माण्डुक्योपनिषद पर आधारित अपने ग्रन्थ
मांडूक्यकारिका में जिन तत्वों का निरूपण किया उन्हीं का शंकराचार्य ने
विस्तृत रूप दिया| अपने परम गुरु को श्रद्धा निवेदन करने हेतु शंकराचार्य
ने सबसे पहिले माण्डुक्यकारिका पर भाष्य लिखा| आचार्य गौड़पाद श्रीविद्या के
भी उपासक थे|
शंकराचार्य के गुरु योगीन्द्र गोविन्दपाद थे
जिन्होंने पिचासी श्लोकों के ग्रन्थ 'अद्वैतानुभूति' की रचना की| उनकी और
भगवान पातंजलि की गुफाएँ पास पास ओंकारेश्वर के निकट नर्मदा तट पर घने वन
में हैं| वहां आसपास और भी गुफाएँ हैं जहाँ अनेक सिद्ध संत तपस्यारत हैं|
पूरा क्षेत्र तपोभूमि है|
राजाधिराज मान्धाता ने यहीं पर शिवजी के लिए
इतनी घनघोर तपस्या की थी कि शिवजी को ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होना
पड़ा जो ओंकारेश्वर कहलाता है|
अपने 'विवेक चूडामणि' ग्रन्थ में शंकराचार्य कहते हैं ----
भक्ति प्रसिद्धा भव मोक्षनाय नात्र ततो साधनमस्ति किंचित् |
-- "साधना का आरम्भ भी भक्ति से होता है और उसका चरम उत्कर्ष भी भक्ति में ही होता है|"
भक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं|
उन्होंने संस्कृत भाषा में इतने सुन्दर भक्ति पदों की रचनाएँ की है जो अति
दिव्य और अनुपम हैं| उनमे भक्ति की पराकाष्ठा है| इतना ही नहीं परम ज्ञानी
के रूप में उन्होंने ब्रह्म सूत्रों, उपनिषदों और गीता पर भाष्य लिखे हैं
जो अनुपम हैं|
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यदि भगवान भाष्यकार आदि शंकराचार्य तत्कालीन विकृत
हो चुके नास्तिक बौद्ध मत का खंडन करके सनातन धर्म की पुनर्स्थापना नहीं
करते तो आज भारत भारत नहीं होता, बल्कि एक पूर्णरूपेण इस्लामिक देश होता|
इस्लाम का प्रतिरोध भारत इसी लिए कर पाया क्योंकि यहाँ सनातन धर्म
पुनर्स्थापित हो चुका था|
बौद्धों ने अपना सिर कटा लिया या
धर्मान्तरित हो गए पर इस्लाम की धार का प्रतिरोध नहीं कर पाए| पूरा मध्य
एशिया (जहां उज्बेकिस्तान से मुग़ल आक्रान्ता आये थे और भारत पर राज्य
किया), तुर्किस्तान सहित बौद्ध मतानुयायी हो गया था| वहाँ के मुसलमान पहिले
हिन्दू थे फिर बौद्ध बने| बौद्ध मत में अनेक विकृतियाँ आ गयी थीं और उसके
अनुयायी अत्यधिक अहिंसक और बलहीन हो गए थे|
जब इस्लाम का जन्म हुआ
तब इस्लाम की आक्रामक धार इतनी तीक्ष्ण थी कि 100 वर्ष के भीतर भीतर पूरा
अरब (जो हिन्दू था), बेबीलोन (वर्तमान इराक, कुवैत), पश्चिम एशिया .... यमन
से लेबनान तक, उत्तरी अफ्रीका (सोमालिया, इथियोपिया, जिबूती, सूडान,
मिश्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मोरक्को), मध्य एशिया के सारे देश
(ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, अज़र्बेजान, तुर्कमेनिस्तान,
किर्गिस्तान आदि), रूस के तातारिस्तान, देगिस्तान व् चेचेनिया आदि प्रदेश
और पूरा फारस (वर्त्तमान ईरान) इस्लाम की पताका के अंतर्गत आ गए थे|
पर इस्लाम की आंधी एक सहस्त्र वर्ष राज्य कर के भी भारत को नष्ट नहीं कर
पाई क्योंकि यहाँ सनातन धर्म के अनुयायियों द्वारा भक्ति मार्ग के आन्दोलन
द्वारा हर प्रकार के विदेशी आक्रमण का प्रतिरोध हुआ|
(मौलाना हाली ने दुःख प्रकट करते हुए लिखा था .....
"वो दीने हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए आलम में पहुंचा,
मज़ाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठटका, न कुलज़म में झिझका,
किए पै सिपर जिसने सातों समंदर,
वो डुबा दहाने में गंगा के आकर।।"
यानी इस्लाम का जहाज़ी बेड़ा जो सातों समुद्र बेरोक-टोक पार करता गया और
अजेय रहा, वह जब हिंदुस्थान पहुंचा और उसका सामना यहां की संस्कृति से हुआ
तो वह गंगा की धारा में सदा के लिए डूब गया)
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मेरी दृष्टी में
भगवान भाष्यकार शङ्करभगवद्पादाचार्य महानतम और दिव्यतम प्रतिभा थे जिसने आज
से तेरह सौ वर्ष पूर्व इस धरा पर विचरण किया| सनातन धर्म की रक्षा ऐसे ही
महापुरुषों से हुई है| धन्य है यह भारतभूमि जिसने ऐसी महान आत्माओं को जन्म
दिया|
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मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥१॥
मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और
आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद
हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥१॥ I am not mind, intellect, ego or repository of
memories. I am not ear, tongue, nose or the eyes. I am not space,
earth, fire or air. I am of the form of aliveness, eternal bliss,
auspiciousness. I am Shiva. ॥1॥
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोशाः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥
न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान,
व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त,
पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय,
विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं
जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ
॥२॥ I am not principal life force (prana) or any of the five pranas
(Prana, udana, apana, vyan, saman). I am not any of the seven
constituents (skin, flesh, fat, blood, muscle, bone, marrow) of the body
or any of the five sheaths (annamaya, manomaya, pranamaya, vigyanmaya,
anandmaya). I am not speech, hands, feet, genitals or anus. I am of the
form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥2॥
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥३॥
न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही
ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य
रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥३॥ I am devoid of aversion,
attachment, greed, delusion, pride or jealousy. I am beyond four major
goals of life, righteousness, wealth, pleasure or liberation. I am of
the form of aliveness, eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥3॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥४॥
न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न
यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं
चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥४॥ I am beyond virtues,
sins, joy or sorrow. I am beyond mantras, pilgrimage, Vedas or yagyas. I
am not food, eatable, or its eater. I am of the form of aliveness,
eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva. ॥4॥
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः पिता नैव मेनैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥
न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही
है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई
मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ,
शिव हूँ, शिव हूँ ॥५॥ I have no fear of death or distinction of caste. I
have no father or mother. I am unborn. I have no brothers, friends,
master or disciples. I am of the form of aliveness, eternal bliss,
auspiciousness. I am Shiva. ॥5॥
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥
मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी
इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न
मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव
हूँ ॥६॥ I am beyond all doubts, formless, all-pervading, everywhere and
surround all sense organs. I am always established in equanimity. There
is no liberation or bondage in me. I am of the form of aliveness,
eternal bliss, auspiciousness. I am Shiva.
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०१६