"साधना" का और "साधक" होने का भाव एक मिथ्या भ्रम ही है .....
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सारी साधना तो महाकाली (जगन्माता) ही कर के श्रीकृष्ण (परमात्मा) को अर्पित करती हैं| मेरा साधना करने का और साधक होने का सारा भाव एक मिथ्या (झूठा) भ्रम था, और अभी भी है| कूटस्थ चैतन्य में केवल भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण ही पद्मासन में समाधिष्ठ दृष्टिगत होते हैं, अन्य सब उन्हीं का विस्तार है| उन के सिवाय अन्य कोई है ही नहीं| वे ही आकाश-तत्व से परे ... परमशिव हैं| सारी साधना तो भगवती महाकाली स्वयं प्राण-तत्व कुंडलिनी महाशक्ति के रूप में कर रही हैं| साधक होने का मुझे एक झूठा भ्रम है| मैं कोई साधक नहीं हूँ, एक अकिंचन निमित्त साक्षी मात्र हूँ|
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भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार .....
"योगी" कौन है, और "सन्यासी" कौन है ? अपना उद्धार और पतन कौन करेगा ? अपना मित्र और शत्रु कौन है ? .....
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भगवान कहते हैं .....
"अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः | स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ||६:१||"
श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है||
आचार्य शंकर के अनुसार अनाश्रित वह है जो कर्मफलों की तृष्णा से रहित है| वह संन्यासी भी है और योगी भी है| संन्यास नाम त्याग का है, और चित्त के समाधान का नाम योग है|
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भगवान कहते हैं .....
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||६:५||"
अर्थात् मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध: पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है ||
आचार्य शंकर के अनुसार जब मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है तब वह अनर्थों के समूह इस संसार समुद्र से स्वयं अपना उद्धार कर लेता है| इसलिये संसार सागर में डूबे पड़े हुए अपने आप को उस संसार समुद्र से आत्मबल के द्वारा ऊँचा उठा लेना चाहिये, अर्थात् योगारूढ़ अवस्थाको प्राप्त कर लेना चाहिये| अपना अधःपतन नहीं करना चाहिये, अर्थात् अपने आत्मा को नीचे नहीं गिरने देना चाहिये| क्योंकि यह आप ही अपना बन्धु है| दूसरा कोई ( ऐसा ) बन्धु नहीं है जो संसार से मुक्त करने वाला हो| प्रेमादि भाव बन्धन के स्थान होनेके कारण सांसारिक बन्धु भी (वास्तव में ) मोक्षमार्ग का तो विरोधी ही होता है| इसलिये निश्चयपूर्वक यह कहना ठीक ही है कि आप ही अपना बन्धु है, तथा आप ही अपना शत्रु है| जो कोई दूसरा अनिष्ट करनेवाला बाह्य शत्रु है वह भी अपना ही बनाया हुआ होता है, इसलिये आप ही अपना शत्रु है इस प्रकार केवल अपने को ही शत्रु बतलाना भी ठीक ही है|
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कार्य की पूर्ति और अपूर्ति में, फल की प्राप्ति और अप्राप्ति में, अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में, निन्दा और स्तुति में, आदर और निरादर में, ----- राग-द्वेष, हर्ष-शोक व सुख-दुःख का न होना ----- ही ज्ञान है, और यही ज्ञानी के लक्षण है| यह समत्व ही गीता का सार है, जैसा मुझे अपनी अल्प और अति सीमित बुद्धि से समझ में आया है|
ॐ तत्सत् !! ॐ श्रीपरमात्मने नमः !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ नवंबर २०२०