Friday 22 February 2019

भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा ......

भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा ......
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विश्व का नेतृत्व अब धीरे धीरे यूरोप व अमेरिका के हाथों से निकलकर एशिया की ओर आ रहा है, इसमें भारत की एक बहुत बड़ी भूमिका होगी| यदि नरेन्द्र मोदी पूर्ण बहुमत से एक बार और भारत के प्रधानमंत्री बन जाएँ तब भारत विश्व की एक बहुत बड़ी शक्ति बनने और विश्व के नेतृत्व में बहुत अधिक सफल हो सकता है| विश्व का भावी नेतृत्व भारत और चीन ही करेंगे| इसमें भारत की भूमिका अधिक होगी| 
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भारत सरकार की सऊदी अरब के साथ वर्तमान विदेश-नीति लगभग पूरी तरह सफल रही है| ये पंक्तियाँ मैं इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे वस्तुस्थिति का बहुत कुछ पता है| सऊदी अरब की वहाबी विचारधारा भारत के लिए बहुत अधिक धातक रही है| सऊदी अरब के शासकों को इस बात का अहसास कराना और भारत के प्रति उनकी सोच और अवधारणा को बदलवाना बहुत आवश्यक था, जिसमें भारत काफी सफल रहा है| 
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ईरान, सऊदी अरब और इजराइल के साथ संतुलन बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसमें भारत सफल रहा है| ये तीनों देश एक दूसरे के परम शत्रु हैं, पर भारत के सम्बन्ध तीनों के साथ अच्छे हैं|
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भारत में सऊदी अरब से राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिये बहुत अधिक धन आता था जिसे बंद कराने में भारत को बहुत अधिक सफलता मिली है| वहाँ की जेलों में ८५० से अधिक भारतीय सड़ रहे थे जिनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी| उन सब को मुक्त कराने में भारत सफल रहा है| पहले पाकिस्तान को सऊदी अरब आँख मींच कर धन देता था, पर अब पाकिस्तान को वहाँ से सिर्फ भिखारी का हिस्सा ही मिलता है| पकिस्तान का प्रधानमंत्री वहाँ भीख मांगने नंगे पैर बिना जूते पहिने गया था, उस के कारण ही वहाँ से पाकिस्तान को धन मिला है| पर भारत के प्रधानमंत्री को उन्होंने अपना उच्चतम नागरिक सम्मान दिया है| अब आतंकवाद के विरुद्ध भी सऊदी अरब, भारत के साथ सहयोग करने के लिए सहमत हो गया है| यह एक बहुत बड़ी सफलता है| यमन और सऊदी अरब के मध्य एक युद्ध चल रहा था जिस से यमन में काम कर रहे हज़ारों भारतीयों की जान को खतरा था| सऊदी अरब, यमन पर लगातार हवाई हमले कर रहा था जिसके कारण भारतीयों को वहाँ से सुरक्षित निकालना असम्भव था| भारत के अनुरोध पर सऊदी अरब ने तब तक के लिए युद्ध स्थगित कर दिया था जब तक कि अंतिम भारतीय को वहाँ से सुरक्षित नहीं निकाल लिया गया| यह भारत की एक बहुत बड़ी सफलता थी| 
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ऐसे ही पकिस्तान के विरुद्ध ईरान और अफगानिस्तान को खड़ा करना भारत की एक कूटनीतिक सफलता है| भारत के पकिस्तान के साथ हुए युद्धों में ईरान ने सदा पाकिस्तान का साथ दिया था पर अब ईरान और पकिस्तान में शत्रुता उत्पन्न हो गयी है| अफगानिस्तान भी अब पाकिस्तान के विरुद्ध खुल कर भारत के साथ है|
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दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश चीन से स्वयं को असुरक्षित अनुभूत करते हैं| वहाँ अमेरिका और चीन के मध्य एक वर्चस्व का संघर्ष चल रहा है| भारत ने अमेरिका और चीन के मध्य भी एक संतुलन बनाए रखने में सफलता प्राप्त की है जो एक बहुत ही कठिन कार्य है| दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भी भारत से अब मित्रता बनाए रखना चाहते हैं| 
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भारत का शक्तिशाली होना बहुत आवश्यक है जिसके लिए भारत में एक राष्ट्रवादी सरकार और कुशल नेतृत्व का होना अपरिहार्य है| आशा करता हूँ कि भारत के लोग अब जातिवादी सोच और कुछ अनैतिक लाभों की कामना से ऊपर उठ कर एक विराट दृष्टिकोण से सोचना आरम्भ करेंगे| 
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विजय तो भारत की ही होगी क्योंकि भगवान की अब पूरी कृपा भारत पर है| भारत विजयी होगा और विश्व का नेतृत्व करेगा| 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२१ फरवरी २०१९

सौ बात की एक निर्विवाद बात :---

सौ बात की एक निर्विवाद बात :---
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भगवान "है", यहाँ यह "है" शब्द ही निर्विवाद शाश्वत सत्य है, अन्य सब मिथ्या है| भारत के सभी हिन्दू सम्प्रदायों में इस पर कोई मतभेद नहीं है|
सिर्फ "कौम-नष्ट" लोग ही भगवान को नहीं मानते| जिन जिन देशों में मार्क्सवादी यानी साम्यवादी कौम-नष्टों का शासन था वहाँ "भगवान है" यह बोलने मात्र पर ही व्यक्ति को बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया जाता था| उसकी कहीं पर भी कोई सुनवाई नहीं होती थी| बेचारा या तो पूरी उम्र जेल में ही सड़ता या उसे पागलखाने में भेज कर सचमुच ही पागल बना दिया जाता| रूस में जब जोसफ स्टालिन का शासन था तब उसने पूरे पूर्व सोवियत संघ से ढूंढ ढूंढ कर ऐसे हज़ारों लोगों की ह्त्या करवा दी थी जो भगवान में आस्था रखते थे| रूस में जब ब्रेझनेव का शासन था उस समय तक वहाँ के सभी नागरिकों को यह वाक्य रटा दिया गया था कि हमारे अंतरिक्ष यात्री चन्द्रमा तक घूम कर आ गए हैं, कहीं पर भी कोई भगवान नहीं मिला, अतः भगवान नहीं है| इसके अलावा अन्य कुछ बोलने पर उन्हें पता था कि गिरफ्तार हो जायेंगे अतः कुछ भी नहीं बोलते थे| रूस में ऐसा जब घोर नास्तिक काल था ऐसे समय में मैं वहाँ रहा हूँ| ईश्वर-विहीन होने की उनकी पीड़ा को प्रत्यक्ष देखा है| कई बार कुछ मध्य एशिया के मुसलमान मिलते जो मेरे को भी मुसलमान समझते और एकांत में डरते डरते मुझ से धीरे से अभिवादन कर के कहते ... "सलाम-अलैकुम"| मैं भी उनको धीरे से बोल देता ... "मालेकुम-सलाम", तो वे बेचारे ऐसे खुश होते कि कुछ भी कह नहीं सकते थे| 
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एक बहुत लम्बे अंतराल के पश्चात मुझे फिर कुछ "कौम-नष्ट" देशों में जाने का अवसर मिला| युक्रेन में एक बार एक बड़ी विदुषी वृद्धा तातार मुस्लिम महिला ने मुझे अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रित किया| उस दिन उसने बाजार से नए बर्तन खरीद कर मेरे लिए शाकाहारी खाना बनाया| पता नहीं कहाँ से और कैसे उस तातार मुस्लिम महिला को हिन्दू धर्म का जबरदस्त अध्ययन और ज्ञान था| उसने मुझे एकांत में ले जाकर स्पष्ट चेतावनी दे दी कि उस की बेटी के समक्ष मैं कोई धर्म की बात नहीं करूँ| उसने कहा कि उसकी बेटी "कौम-नष्ट" विचारधारा की हैं| धर्म की बात करने पर पता नहीं कहाँ व कब मुसीबत में डाल दे| उस तातार मुस्लिम महिला ने बताया कि वह चीन की जेलों में दस वर्ष तक राजनीतिक बंदी रही थी| वहाँ कई चीनी विद्वान् भी राजनीतिक बंदी थे| चीन की जेल में ही एक हिन्दू धर्म का चीनी विद्वान् भी था जिससे उसने हिन्दू धर्म के बारे में बहुत कुछ सीखा|
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युक्रेन में ही एक बार ऐसे ही एक तातार मुस्लिम इंजिनियर ने मुझ से मित्रता की और अपने घर खाने पर निमंत्रित किया| उस को और उसकी पत्नी को शाकाहारी खाना बनाना नहीं आता था अतः उन्होंने मेरे लिए खीर बनाई और ब्रेड सेंकी| वही शाकाहारी खाना वे मुझे खिला सके| उस व्यक्ति का भारत के इतिहास पर बहुत अच्छा अध्ययन था| अचानक वहाँ उसकी माँ आ गयी जो एक कट्टर मुसलमान थी| उसने हिन्दू और बौद्ध धर्म के प्रति बड़े अशोभनीय शब्दों का प्रयोग शुरू कर दिया| उस व्यक्ति ने अपनी माँ को यह कह कर चुप कर दिया कि घर में एक हिन्दू अतिथि है अतः वह अपनी मर्यादा में रहे, और उसे दूसरे कमरे में छोड़ कर आ गया| उसने मुझसे अपनी माँ के गलत व्यवहार के कारण क्षमा भी माँगी| 
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"कौम-नष्ट" उत्तरी कोरिया में एक बार एक अधिकारी मुझ से बहस करने लगा| उसका कहना था कि हम "कौम-नष्ट" लोग भगवान को नहीं मानते, भारत के लोग मुर्ख है जो भगवान को मानते हैं| मैंने उस से पूछा कि मरने के बाद तुम्हारी क्या गति होती है? उसने कहा कि जैसे एक कुत्ता मरता है वैसे ही हम भी मर जायेंगे| आगे मैनें कोई बात नहीं की क्योंकि "कौम-नष्टों" से बात करने का कोई लाभ नहीं है|
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चीन में जब "कौम-नष्ट" शासन था तब भी, और उसके बाद भी जाने का अवसर मिला है| चीन की दीवार भी देखी है, चीन की दीवार पर घूमा भी हूँ और किसी की साइकिल माँग कर चीन की दीवार के साथ साथ साइकिल पर भी खूब घूमा हूँ| "कौम-नष्ट" चीन में तो किसी का साहस ही नहीं होता था भगवान के बारे में कुछ बात करने का|
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"कौम-नष्ट" लाटविया के लोगों में भी मैनें ईश्वर-विहीन जीवन की पीड़ा देखी है| अब तो पता नहीं वहाँ कैसी स्थिति है| "कौम-नष्ट" रोमानिया का ईश्वर-विहीन नारकीय जीवन भी देखा है| उसकी तो मैं बात ही नहीं करना चाहता|
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भारत में भी मेरे अनेक "कौम-नष्ट" मित्र रहे हैं पर वे अब सब सुधर कर घोर आस्तिक हो चुके हैं| मुझे स्वयं को भी जीवन में एक अति अल्प समय तक एक कट्टर "कौम-नष्ट" रहने का अनुभव है| वह जीवन का एक भटकाव था| हम भारत के लोग बड़े भाग्यशाली हैं जो ईश्वर की आराधना करने को स्वतंत्र हैं|
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सौ बात की एक ही बात है कि भगवान "है", और वह "है" ही सब कुछ है| यह "है" ही परम सत्य है| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२० फरवरी २०१९

ॐ तत् सत् ....

ॐ तत् सत् .... 
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भगवान से प्रार्थना करते हुए मैं आशा करता हूँ कि जिस विषय पर लिखने की मुझे अन्तःप्रेरणा मिली है, उसे व्यक्त कर पाऊँगा| यह मेरी एक अनुभूति है कि आत्म-तत्व, परमात्म-तत्व और गुरु-तत्व ... सब एक ही हैं, एक विशिष्ट स्तर पर इनमें कोई भेद नहीं है| आरम्भ में ये सब पृथक पृथक लगते हैं, पर जैसे जैसे ध्यान साधना की गहराई बढ़ती जाती है, इनमें कोई भेद नहीं रहता| सामान्य चेतना में मेरे गुरु मुझसे पृथक हैं. पर ध्यान की गहराई में वे मेरे साथ एक हैं| ऐसे ही सामान्य चेतना में भगवान मुझसे अलग हैं, पर ध्यान की गहराई में वे मेरे साथ एक हैं| कहीं पर भी कोई भेद नहीं रहता|
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अपनी बात को आधार देने के लिए मैं गीता का सहारा लेना चाहता हूँ| गीता में परमात्मा को "ॐ तत् सत्" इन तीन नामों से निर्देशित किया गया है|
"तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः| ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा||१७:२३||
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः| प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌||१७:२४||"
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः| दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः||१७:२५||
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते| प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते||१७:२६||
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते| कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते||१७:२७||
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌| असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह||१७:२८||
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"ॐ" "तत्" और "सत्" एक ही हैं पर इनकी अभिव्यक्ति पृथक पृथक है| हिन्दुओं के "ॐ तत् सत्" की नकल कर के ही ईसाईयत में "Father" "Son" and the "Holy Ghost" शब्दों का प्रयोग किया गया है| ये तीनों एक हैं पर इनकी भी अभिव्यक्ति अलग अलग हैं|
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संभवतः मैं अपने भावों को व्यक्त करने में कुछ कुछ अल्प मात्रा में सफल रहा हूँ| परमात्मा स्वयं ही विभिन्न आत्माओं के रूप में लीला करते हैं| स्वयं ही अपनी लीला में अज्ञान में गिरते हैं, और स्वयं ही गुरु रूप में स्वयं को ही मुक्त करने आते है, और स्वयं ही मुक्त होते हैं| गुरु भी वे ही हैं और शिष्य भी वे ही हैं| उनके अतिरिक्त अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है|
और भी स्पष्ट शब्दों में "आत्मा नित्यमुक्त है, सारे बंधन एक भ्रम हैं|"
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०१९

परमात्मा के मार्ग में सहायक और बाधक तत्व :----

परमात्मा के मार्ग में सहायक और बाधक तत्व :----
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प्रायः सभी मनीषियों ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं| हिंदी में तो अब तक सबसे अधिक लोकप्रिय यदि कोई ग्रन्थ हुआ है तो वह है संत तुलसीदास कृत "रामचरितमानस"| पिछलें छः सौ वर्षों में इस से अधिक लोकप्रियता किसी भी अन्य ग्रन्थ ने नहीं पायी है| इस में अनेक बार भगवान के प्रति प्रेम को ही सर्वोत्कृष्ट बताया गया है| मैं तो एक ही उद्धरण ले रहा हूँ.....
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम |
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||"
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ऐसे ही सबसे बड़ा बाधक जिसे इस ग्रन्थ में बताया गया है, वह है.....
"सुख सम्पति परिवार बड़ाई | सब परिहरि करिहऊँ सेवकाई ||
ये सब रामभक्ति के बाधक | कहहिं संत तव पद अवराधक ||"
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रामचरितमानस की खूबी यह है कि एक सामान्य से सामान्य मनुष्य जो सिर्फ लिखना-पढ़ना ही जानता हो, वह भी इस ग्रन्थ को समझ सकता है| गहन से गहन आध्यात्मिक तत्वों को सरलतम भाषा में समझाया गया है| मैंने कई अनपढ़ लोगों को भी देखा है जो दूसरों के मुख से सुनकर भी इसके भावों को बहुत ही अच्छी तरह से समझ जाते हैं| यह ग्रन्थ पिछले छःसौ वर्षों के घोरतम विकट काल में हिन्दू धर्म का प्राण रहा है|
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परमात्मा के मार्ग में इन्द्रीय सुखों के प्रति आकर्षण ही सबसे अधिक बाधक है| भगवान ने हमें विवेक दिया है जिसका उपयोग हम इस बाधा को दूर करने में लगाएँ| हर व्यक्ति की समस्या अलग अलग होती है, समाधान भी अलग अलग है| एक ही समाधान सबके लिए नहीं हो सकता| अपनी समस्या का समाधान स्वयं करें| यदि समस्या हल नहीं होती है तो भगवान से प्रार्थना करें| सच्चे हृदय से की गयी प्रार्थना निश्चित रूप से सफल होती है|
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वेदांती साधुओं के मुख से मैनें "वेदान्त वासना" शब्द सुना जो मुझे बहुत प्रिय लगा है| वासना हो तो भगवान के प्रति ही हो| जो आत्म-तत्व के साधक हैं उन की वासना वेदान्त यानि आत्म-तत्व के प्रति ही हो| मेरे में जन्मजात संस्कार भक्ति और वेदान्त के प्रति है| मेरी सारी जिज्ञासाओं का समाधान गीता में हो जाता है| भगवान के प्रति प्रेम तो मेरा स्वभाव है| मेरा आनंद मेरे अपने इस स्वभाव में ही है, इस से बाहर नहीं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०१९

श्री आद्यशंकराचार्य जी की वाणी (विवेक चूड़ामणि से संकलित ) ....

श्री आद्यशंकराचार्य जी की वाणी (विवेक चूड़ामणि से संकलित )
वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।
(विवेक चूड़ामणि--६)
‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।‘
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रय:।।
(विवेक चूड़ामणि---३)
‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।‘
लब्ध्वा कथञ्चित्ररजन्म दुलभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी: सह्यात्महास्वं विनिहंत्यसद्ग्रहात्।।
(विवेक चूड़ामणि—४)
‘किसी प्रक्रार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, श्रुति के सिद्धांत का यथार्थ ज्ञान होता है, ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चित ही आत्मघाती है। वह असत्य में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।,
इतः कोन्वस्तिमुढ़ात्मा यस्तुस्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभ मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पारुषम्।।
(विवेक चुड़ामणि---५)
दुर्लभ मनुष्य देह और उसमें पुरुषत्व को पाकर जो (मोक्ष रूप) स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है इससे अधिक मूढ़ और कौन होगा?
वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये।।
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।‘
अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
‘परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए।
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना।
किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै।।
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?
न गच्छति बिना पानं व्याधिरौषधशब्दतः।
बिना परोक्षानुभवं ब्रम्हशब्दैर्न मुच्यते।।
(विवेक चूड़ामणि----६४)
औषध को बिना पीये केवल औषधि शब्द के उच्चारण से रोग नहीं जाता। उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल ‘मैं’ ब्रम्ह हूँ ऐसा कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता।
अकृत्वा दृश्यविलमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः।
बाह्य शब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।।
(विवेक चूड़ामणि—६५)
विना दृश्य प्रपंच का विलय किये और बिना ‘आत्मतत्त्वम्’ को जाने, केवल बाह्य शब्दों से जिनका फल केवल उच्चारण मात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है?
न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्या।
ब्रम्हात्मैकत्वबोधे न मोक्ष: सिध्यति नान्यथा।।
(विवेक चूड़ामणि----५८)
मोक्ष न योग से प्राप्त (सिद्ध) होता है और न सांख्य से; न कर्म से और न विद्या से। केवल बह्यत्मैक्य बोध (ब्रम्ह और आत्मा की एकता के बोध) से ही होता है और किसी प्रकार नहीं।
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति।
ग्राहं दारूधिया धृत्वा नदी तर्तुं स इच्छति।।
(विवेक चूड़ामणि---८६)
जो शरीर पोषण में लगा रहकर ‘आत्मतत्त्वम्’ को देखना चाहता है, वह मानो काष्ठ-बुद्धि से ग्राह को पकड़कर नदी पार करना चाहता है।
मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु।
मोहो विनिर्जितो येन स मुक्तिपदमर्हति।।
(विवेक चूड़ामणि—८७)
शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्ष की बड़ी भारी मौत है; जिसने मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है।
मोहं जहि महामृत्यु देहदारसुतादिषु।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णो: परमं पदम्।।
(विवेक चूड़ामणि—८८)
देह, स्त्री और पुत्रादि में मोहरूप महामृत्यु को छोड़; जिसको जीतकर मुनिजन भगवान् के उस परमपद को प्राप्त होते हैं।
अन्तः करणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि
अहमित्यभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा।।
(विवेक चूड़ामणि—१०५)
शरीर के अन्दर इन चक्षु आदि इन्द्रियों में चिदाभास के तेज से व्याप्त हुआ अन्तःकरण ‘मैंपन’ (अहं) का अभिमान करता हुआ स्थिर रहता है।
अहंकार: स विज्ञेय कर्त्ता भोक्ताभिमान्ययम्।
सत्त्वादि गुणयोगेन चापस्थात्रयमश्नुते।।
(विवेक चूड़ामणि१०६)
इसी को अहंकार जानना चाहिए। यही कर्ता, भोक्ता तथा ‘मैंपन’ का अभिमान करने वाला है और यही सत्त्व आदि गुणों के योग से तीनों अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
विषयाणामानुकूल्ये सुखी दु:खी विपर्यये।
सुखं दु:खं च तद्धर्म: सदानन्दस्य नात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—१०७)
विषयों की अनुकूलता से यह सुखी और प्रतिकूलता से दु:खी होता है। सुख और दु:ख इस अहंकार के ही धर्म हैं, सबके आत्मस्वरूप ‘सदानन्द’ के नहीं।
विशोकआन्दघनो विपश्चित्स्वयं कुतश्चिन्नविभेति कश्चित्।
नान्योsस्ति पंथाभवबन्धमुक्तेर्विना स्वतत्त्वावगमं मुमुक्षो:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२४)
वह अति बुद्धिमान पुरुष शोक रहित और आनन्दघन रूप हो जाने से कभी किसी से भयभीत नहीं होता। मुमुक्ष पुरुष के लिए ‘आत्मतत्त्वम्’ के ज्ञान को छोड़कर संसार-बंधन से छूटने का और कोई मार्ग नहीं है।
ब्रम्हाभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम्।
येनाद्वितीयमानन्दं ब्रम्ह सम्पद्यते बुधै:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२५)
ब्रम्ह और आत्मा के अभेद का ज्ञान ही भवबन्धन से मुक्त होने का कारण है, जिसके द्वारा बुद्धिमान पुरुष अद्वितीय आनन्दरूप ब्रम्हपद को प्राप्त कर लेता है।
मातापित्रोर्मलोद्भूतं मलमांसमयं वपु:।
त्यक्त्वा चाण्डालवद्दूरं ब्रह्मीभूय कृतीभव ॥
(विवेक चूडामणि--२८८)
माता-पिता के मल से उत्पन्न तथा मल-मांस से भरे हुए इस शरीर को चाण्डाल के समान दूर से ही त्याग कर ब्रम्ह भाव में स्थिर होकर कृतकृत्य हो जाओ।
चिदात्मनि सदानंदे देहारूढामहंधियम्।
निवेश्य लिंगमुत्सृज्य केवलो भव सर्वदा।।
(विवेक चूड़ामणि—२९१)
देह में व्याप्त हुई अहंबुद्धि को सच्चिदानन्द रूप ‘सदानन्द’ में स्थित करके लिंग शरीर के अभिमान को छोड़ कर सदा अद्वितीय रूप से स्थित रहो।
अतो: विचार: कर्त्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः।
समासाद्य दयासिंधु गुरुं ब्रम्हविदुत्त्मम्।।
(विवेक चूड़ामणि---१५)
अतः ब्रम्हवेत्ताओं में श्रेष्ठ दयासागर गुरुदेव की शरण में जाकर जिज्ञासु को ‘आत्मतत्त्वम्’ की जानकारी करनी चाहिए।

वर्तमान में कश्मीर की समस्या का एकमात्र मूल कारण है धारा ३७० और धारा ३५-A .....

वर्तमान में कश्मीर की समस्या का एकमात्र मूल कारण है धारा ३७० और धारा ३५-A .....
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राष्ट्रपति के अध्यादेश द्वारा इन दोनों धाराओं को निरस्त किये बिना कश्मीर की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता| भारत में सभी नागरिकों को समान अधिकार होने चाहियें| एक देश में एक ही क़ानून सभी के लिए समान रूप से होना चाहिए| कश्मीरी लोग तो भारत में कहीं भी जाकर संपत्ति खरीद सकते हैं, पर भारत के अन्य भागों के लोग कश्मीर में नहीं| यह बहुत बड़ा अन्याय है| कश्मीर में कश्मीरी हिन्दुओं को बापस बसाया जाना चाहिए, साथ साथ जो भी भारतीय वहाँ जाकर बसना चाहे हे उसे वहाँ बसने की पूरी छूट होनी चाहिए| एक बार तो पूर्व सैनिकों को बहुत बड़ी संख्या में वहाँ बसाने की योजना बनानी चाहिए|
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अब तक किये जाने वाले सारे प्रयास स्वयं को ही धोखा देने वाले थे| हमें स्वयं को ही धोखा देने और आत्म-मुग्ध होने में बड़ा आनंद आता है| हम स्वयं पहल कर के आततायी का सामना नहीं करना चाहते, बल्कि उसके द्वारा आक्रमण किये जाने की प्रतीक्षा करते रहते हैं| हमारी इस नीति में बदलाव आना चाहिए| शत्रु भाव रखने वाले की तैयारी पूर्ण हो, इस से पहले ही हमें उसे पहल कर के नष्ट कर देना चाहिए|
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अपनी कायरता को हम बड़े बड़े शब्दों जैसे सद्भाव, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता, आदि आदि से ढँक कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभूत करते हैं, पर वास्तव में यह हमारा दब्बूपन और भयभीत होना ही है| होना तो यह चाहिए कि हम अपने बालकों को गीता की यह शिक्षा बचपन से ही दें .....
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते| क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप||२:३||
ॐ तत्सत !
१७ फरवरी २०१९
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पुनश्चः :--- उपरोक्त विचार का कुछ बुद्धि-पिशाच विरोध करेंगे| उन बुद्धि पिशाचों की उपेक्षा कर दी जानी चाहिए| हमें वही सोचना चाहिए जो राष्ट्रहित में हो| जिस भी राक्षस के दिमाग में धारा ३७० और ३५-A का प्रारूप आया होगा वह निश्चित रूप से कोई बहुत बड़ा नर-पिशाच था|

मेरे हृदय की घनीभूत पीड़ा और आनंद .....

मेरे हृदय की घनीभूत पीड़ा और आनंद .....
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मेरे हृदय की घनीभूत पीड़ा, और हृदय का घनीभूत आनंद दोनों का स्त्रोत एक ही है| दोनों में कोई अंतर नहीं है| परमात्मा से दूरी पीड़ा को जन्म देती है, और समीपता आनंद को| दोनों का स्त्रोत एक परमात्मा ही है| ऐसे ही दुःख-सुख, और शांति-अशांति है| इन सब का जन्म हमारे मन में ही होता है| पीड़ा आनंद को जन्म देती है, दुःख सुख को जन्म देता है और अशांति शांति को जन्म देती है| इन सब का एकमात्र स्त्रोत भी परमात्मा ही है| मैं अपने दुःख-सुख, अशांति-शांति और पीड़ा-आनंद आदि आदि सब कुछ बापस परमात्मा को ही समर्पित करता हूँ, क्योंकि ये सब एक आवरण हैं जो मुझे स्वयं से ही दूर करते हैं| मुझे ये सब नहीं चाहियें| मेरे लिए "मैं" स्वयं ही स्वयं हूँ, यह देह, मन और बुद्धि नहीं|
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हम कुछ भी लिखते हैं, उसके पीछे एक पीड़ा है जो व्यक्त हो रही है| यदि पीड़ा नहीं होगी तो कुछ भी नहीं लिखा जाएगा| आनंद की स्थिति में तो कोई शब्द-रचना ही नहीं होती| अपनी घनीभूत पीड़ा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत के रामभक्त और कृष्णभक्त कवियों ने की है| हिंदी भाषा के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने भी अपनी कविता "आंसू" में अपने हृदय की पीड़ा की बहुत ही श्रेष्ठ साहित्यिक अभिव्यक्ति की है|
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क्या मैं स्वयं से दूर हूँ ? इसका एक निश्चित उत्तर है "हाँ"| फिर मैं कौन हूँ?
इस पर विचार करता हूँ तो मुझे एक विराट अनंत श्वेत ज्योतिर्पुंज का आभास होता है जो इस भौतिक देह से बहुत ऊपर है| वे ही मेरे इष्ट देव "परमशिव" हैं| उन्हीं के साथ मैं एक हूँ| उन्हीं के ध्यान में हृदय को तृप्ति और संतुष्टि मिलती है| कई बार चेतना ब्रह्मरंध्र से बाहर निकल कर बापस इस देह में लौट आती है क्योंकि इस देह के साथ अभी और भी कई संस्कार जुड़े हुए हैं| जिस दिन वे संस्कार पूर्ण हो जायेंगे उस दिन यह देह शांत हो जायेगी, और चेतना परमशिव के साथ एक हो जायेगी|
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मेरा आनंद क्या है? मेरा आनंद परमशिव के ध्यान से उत्पन्न अनुभूतियाँ ही हैं| अन्यत्र कहीं भी कोई आनंद नहीं है, सिर्फ पीड़ा ही पीड़ाएँ हैं| मेरे पास स्वयं के शब्द नहीं हैं अपनी पीड़ा के ज्वालामयी शब्दों को व्यक्त करने के लिए| दूसरों के शब्द मैं उधार नहीं लेना चाहता|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ और मेरी ही निजात्मा हैं| आप सब को नमन! ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ फरवरी २०१९

जहाँ विजय सुनिश्चित है वहाँ कायरता क्यों ? .....

जहाँ विजय सुनिश्चित है वहाँ कायरता क्यों ? .....
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भगवान श्रीकृष्ण सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा गुरु न तो कोई हुआ है और न कोई होगा| वेदव्यास जी ने उनकी वन्दना "कृष्णं वन्दे जगतगुरुम्" कह कर की है| भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सबसे पहिला उपदेश तो कायरता छोड़ने के लिए दिया है| जब तक मनुष्य के मन में कायरता है तब तक कोई भी दूसरा उपदेश काम नहीं करेगा| भगवान ने कहा .....
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते| क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप||२:३||
यह सबसे पहिला उपदेश ही नहीं, भगवान की प्रथम आज्ञा है| इस उपदेश को समझे बिना गीता को समझने का प्रयास ही व्यर्थ है|
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गीता के अंत में भी वे संजय के मुख से स्पष्ट कहलवा देते हैं .....
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम||१८:७८||
इस से बड़ी बात दूसरी कोई हो ही नहीं सकती| यहाँ भगवान ने बड़ी से बड़ी बात कहलवा दी है|
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साथ साथ बड़े से बड़ा ज्ञान दे दिया है ....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||
भगवान यहाँ कहते हैं कि हे धनंजय, ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़कर कर, योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर| फलतृष्णारहित पुरुष द्वारा कर्म किये जाने पर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत ज्ञानप्राप्तिका न होना असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर| यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं| यह बड़े से बड़ा ज्ञान है| इस से बड़ा कोई ज्ञान नहीं है|
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मुक्ति का उपाय भी बता दिया है| अन्य भी सारे ज्ञान दे दिए हैं जो मनुष्य जीवन में आवश्यक हैं| भगवान के अधिकाँश उपदेशों का सार यही है कि साधक को परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये अपने में कायरता नहीं लानी चाहिये| कभी हताश न हों, मन में नित्य नया उत्साह रखो| सर्वत्र हमारे इष्ट ही हैं .....
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
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अब और कुछ भी लिखना संभव नहीं है| मन तृप्त है, पूरी संतुष्टि है|
हे सच्चिदानंद, तुम्हारी जय हो| हर हर महादेव् !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
.१६ फरवरी २०१९

अतृप्त और अशांत मन ही सब बुराइयों की जड़ है .....

अतृप्त और अशांत मन ही सब बुराइयों की जड़ है .....
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इस सृष्टि में दैवीय और आसुरी दोनों तरह की शक्तियाँ हैं, हमारा जैसा चिंतन होता है वैसी ही शक्ति हमारे ऊपर हावी हो जाती है| यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है| जब हमारा मन अतृप्त और अशांत रहता है तब आसुरी शक्तियाँ हावी हो जाती हैं, और हमें अपना शिकार बना लेती हैं| जब हम परमात्मा का चिंतन करते हैं तब दैवीय शक्तियाँ हर संभव सहायता करती हैं| सार की बात यह है कि हमारा अतृप्त अशांत मन ही हमारी सब बुराइयों और सब पापों का कारण है| मन पर विजय कैसे पायें इसके लिए साधना करनी पड़ती है, गीता में और उपनिषदों में इसका स्पष्ट मार्गदर्शन है, जिनका हमें स्वाध्याय करना चाहिए| हमें संत-महात्माओं और विद्यावान मनीषियों का सत्संग भी करना चाहिए, और एकांत में भगवान का ध्यान भी करना चाहिए|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण हमें निःस्पृह, वीतराग और स्थितप्रज्ञ होने का उपदेश देते हैं.....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||
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दुःखों के प्राप्त होने से जिस का मन उद्विग्न अर्थात क्षुभित नहीं होता उसे अनुद्विग्नमना कहते हैं| सुखोंकी प्राप्ति हेतु जिस की स्पृहा/तृष्णा नष्ट हो गयी है, वह विगतस्पृह कहलाता है| आसक्ति भय और क्रोध जिसके नष्ट हो गये हैं वह वीतराग कहलाता है| ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह स्थितप्रज्ञ और मुनि कहलाता है|
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एक बार तो हमें भगवान से प्रार्थना कर किन्हीं अच्छे सिद्ध संत-महात्मा को खोजकर उनसे मार्गदर्शन लेना ही होगा| यदि हम निष्ठावान होंगे तो वैसे ही मार्गदर्शक मिल जायेंगे, अन्यथा यदि हमारे मन में छल-कपट होगा तो फिर ठग-गुरु ही मिलेंगे जो हमारा सब कुछ हर लेंगे| सद्गुरु या ठगगुरु का मिलना हमारे मन की सोच पर ही निर्भर है|
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हमारे मन की जो बुरी वासनाएँ हैं उन्हें ही इब्राहिमी मतों (यहूदी, इस्लाम व ईसाईयत) में शैतान का नाम दिया है| हिन्दू परम्परा में शैतान नाम की किसी शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि हिन्दू मान्यता कहती है कि मनुष्य अज्ञान वश पाप करता है जो दुःखों की सृष्टि करते हैं| सार की बात यह है कि अपना भटका हुआ, अतृप्त अशांत मन ही शैतान है|
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वर्तमान में अधिकांश उच्च कोटि के साधक इसआसुरी तत्व से देश को बचाने में लगे है ! वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में असुरत्व प्रबल हो चूका है जिसके दुष्परिणाम धीरे धीरे विश्व जगत भुगत रहा है| अपना मन भगवान को दें, बस अपनी रक्षा का यही एकमात्र उपाय है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ फरवरी २०१९

ज्ञान का अधिकारी कौन है ? ....

सारे हिन्दू धर्मग्रंथों के आदेशों का भाव सार रूप में यदि एक पंक्ति में व्यक्त किया जाए तो वह यह होगा ..... "जीवन में सर्वप्रथम भगवान को प्राप्त करो फिर उनकी चेतना में अन्य सारे कर्म करो|" गीता में भगवान श्रीकृष्ण संक्षेप में स्पष्ट बताते हैं कि भगवान की प्राप्ति का अधिकारी कौन है.....
"इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः| मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते||१३:१९||
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यहाँ सब वेदोंका और गीता का अर्थ एकत्र कर के कहा गया है कि इस ज्ञान का अधिकारी कौन है| भगवान के ज्ञान का अधिकारी सिर्फ भगवान का भक्त है जिसने भगवान में अपने सारे भावों का अर्पण कर दिया है| वह जिस किसी भी वस्तु को देखता, सुनता और स्पर्श करता है, उन सब में उसे भगवान वासुदेव ही अनुभूत होते हैं| उसी ने भगवान को प्राप्त कर लिया है| वह व्यक्ति ही इस पृथ्वी पर चलता-फिरता देवता है| यह पृथ्वी भी ऐसे व्यक्ति को पाकर धन्य हो जाती है| जहाँ भी उसके चरण पड़ते हैं वह स्थान पवित्र हो जाता है| वह स्थान धन्य है जहाँ ऐसी पवित्र आत्मा रहती हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ फरवरी २०१९

हमारे सारे बहाने झूठे, और स्वयं को धोखा देने के साधन हैं.....

हमारे सारे बहाने झूठे, और स्वयं को धोखा देने के साधन हैं.....
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गुरु महाराज को कोई भी बहाना स्वीकार्य नहीं था| वे स्पष्ट कहते थे कि तुम्हारी प्रथम, अंतिम और एकमात्र समस्या परमात्मा को प्राप्त करना है, दूसरी कोई समस्या तुम्हारी नहीं है| अन्य सारी समस्याएँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की हैं| अपनी चेतना को सदा भ्रूमध्य में रखो और निरंतर परमात्मा का स्मरण करो| अपने हृदय का पूर्ण प्रेम परमात्मा को दो| यदि सफलता नहीं मिलती है तो दोष तुम्हारी निष्ठा के अभाव का है, अन्य कोई कारण नहीं है| तुन्हारी निष्ठा के अभाव के कारण ही समर्पण में पूर्णता नहीं आ रही है| स्वयं को पूर्ण रूप से पूरी निष्ठा से परमात्मा को समर्पित कर दो, कुछ भी अपने लिए बचाकर मत रखो| लक्ष्य सदा समक्ष रहे, इधर, उधर कहीं भी मत देखो, दृष्टी सिर्फ लक्ष्य परमात्मा पर ही रहे|
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भगवान श्रीकृष्ण भी यही कहते हैं ....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||"
लगभग यही बात जीसस क्राइस्ट ने कही है .... "Jesus said unto him, Thou shalt love the Lord thy God with all thy heart, and with all thy soul, and with all thy mind. This is the first and great commandment. And the second is like unto it, Thou shalt love thy neighbour as thyself. On these two commandments hang all the law and the prophets."
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भगवान भी "अनन्य भक्ति" और "अव्यभिचारिणी भक्ति" की बात कहते हैं जो बिना पूर्ण निष्ठा के फलीभूत नहीं होती ....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि||१३:१०||
लगभग यही बात जीसस क्राइस्ट कहते हैं .... "But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you." (Matthew 6:33 KJV)
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सारे वैदिक ऋषि सर्वप्रथम परमात्मा को प्राप्त करने का उपदेश देते हैं| हमने जन्म ही परमात्मा को प्राप्त करने के लिए लिया है, अन्य कोई उद्देश्य नहीं है|
यदि हम परमात्मा को प्रात नहीं कर पाते हैं तो ....."एकमात्र दोष हमारी निष्ठा के अभाव का है|" हमारे सारे बहाने झूठे हैं|
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चिंता की कोई बात नहीं है | भगवान का स्पष्ट आश्वासन है ....
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"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"नेहाभिक्रम-नाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पम् अप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||"
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्धय्-असिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
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गुरु महाराज तो यहाँ तक कह गए हैं कि ....."परमात्मा को प्राप्त करने की साधना का तुम्हें सिर्फ २५% ही करना है, तुम्हारे लिए २५% मैं स्वयं करूँगा, और बाकी का ५०% करुणा और प्रेमवश जगन्माता करेगी|
गुरु महाराज के इतने बड़े आश्वासन और आदेश के पश्चात भी यदि हम भगवान को प्राप्त नहीं कर पाये तो धिक्कार है हमारे पर| फिर तो हमारा जन्म लेना ही व्यर्थ है|
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हे गुरु महाराज, हे परमशिव, मेरा पूर्ण समर्पण स्वीकार करो| मैं जैसा भी हूँ, आपका ही हूँ, मेरे सारे गुण व दोष आपके ही हैं| मैं सदा आपका ही रहूँगा|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ फरवरी २०१९

हे प्रभु, मेरा कल्याण करो .....

(प्रार्थना) हे प्रभु, मेरा कल्याण करो .....
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अब जायें तो जायें कहाँ ? कोई और ठिकाना नहीं है | जहाज के पक्षी की सी हालत है| घूम-फिर कर बापस वहीं आ जाते हैं| आप ही सत्य हो, आप ही ज्ञान हो और आप ही अनंत ब्रह्म हो| सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीय उप०, २.१)|| मुझे अपने ध्यान से विमुख मत करो| मेरा ध्यान एक माइक्रोसेकंड के लिए भी आपसे परे न जाए, निरंतर आपमें ही लगा रहे| 
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"सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म" ..... तैत्तिरीयोपनिषद का यह मन्त्र ध्यान साधना के सर्वश्रेष्ठ मन्त्रों में से एक है| परमात्मा ही एकमात्र सत्य हैं, अतः वे सत्यनारायण हैं| उनकी अनंतता का प्रकाश ही सत्य और ज्ञान है| वे भगवान सत्यनारायण निरंतर मेरे चैतन्य में रहें| आपकी जय हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ फरवरी २०१९

१४ फरवरी को आने वाले "वेलेंटाइन डे" की अभी से शुभ कामनाएँ :----

१४ फरवरी को आने वाले "वेलेंटाइन डे" की अभी से शुभ कामनाएँ :----
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ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद की बात है यूरोप के लोग कुत्तों आदि जानवरों की तरह यौन सम्बन्ध रखते थे, कहीं कोई नैतिकता नहीं थी| ऐसे समय में रोम में वेलेंटाइन नाम के एक पादरी ने कहना आरम्भ किया कि यह अच्छी बात नहीं है| पादरी वेलेंटाइन ने लोगों को सिखाना शुरू किया कि एक प्रेमी या प्रेमिका चुन कर सिर्फ उसी से प्यार करो और उसी से शारीरिक संबंध बनाओ, विवाह करो आदि आदि| वे रोम में घूम घूम कर लोगों को प्रेमी/प्रेमिका चुनने और विवाह करने का उपदेश देते थे| उन्होंने प्रेमी प्रेमिकाओं का विवाह कराना शुरू कर दिया जिससे वहाँ के लोग नाराज़ हो गए, क्योंकि वहाँ के समाज में बिना विवाह के रखैलें रखना शान समझी जाती थीं और स्त्री का स्थान मात्र एक भोग की वस्तु था|
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रोम के राजा क्लोडियस ने उन सब जोड़ों को एकत्र किया जिनका विवाह वेलेंटाइन ने कराया था और १४ फरवरी ४९८ ई. को उसे सबके सामने खुले मैदान में फाँसी दे दी| उसका अपराध था कि वे स्त्री-पुरुषों का विवाह करवाते थे| उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वहाँ के प्रेमी प्रेमिकाओं ने वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया जो उस दिन से यूरोप में मनाया जाता है|
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भारत में लड़के-लड़िकयाँ बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं| कार्ड में लिखा होता है " Would You Be My Valentine" जिसका मतलब होता है "क्या आप मुझसे शादी करेंगे"|
मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वे समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड दे देना चाहिए| इसी कार्ड को वे अपने माँ-बाप और दादा-दादी को भी दे देते हैं| एक दो नहीं दस-बीस लोगों को भी यह कार्ड वे दे देते हैं|
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इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लग गयी हैं जिनको कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको चाकलेट बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया है| अरे प्यारे बच्चो कुछ नकल में भी अकल रखो| इससे अच्छा तो है कि इस दिन को मातृ-पितृ पूजा दिवस के रूप में ही मनाओ| प्रेम ही करना ही तो भगवान से करो| भारत में बड़े बड़े प्रभुप्रेमी हुए हैं, उन्हें याद करो|
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वेलेंटाइन सप्ताह ७ फरवरी से शुरू होता है| प्रेम-विवाह करने वाले आरम्भ के चार दिन दोस्ती करते हैं| पाँचवे दिन यानी ११ फरवरी को "प्रोमिज़ डे" मनाया जाता है| इस दिन जीवन भर साथ निभाने का वादा करते हैं| १२ फरवरी को "हग डे" यानि आलिंगन दिवस, और १३ फरवरी को "किस डे" यानि चुम्बन दिवस मनाते हैं| १४ फरवरी को वेलेंटाइन डे यानि वेलेंटाइन दिवस कहलाता है जिस दिन प्रेम विवाह करते हैं|
पुनश्चः: भगवान सभी वेलेंटाइनों सद्बुद्धि दे| शुभ वेलेंटाइन दिवस !!!!!
कृपा शंकर
१२ फरवरी २०१९

अपानवायु में प्राणवायु का, और प्राणवायु में अपानवायु का हवन क्या होता है?

अपानवायु में प्राणवायु का, और प्राणवायु में अपानवायु का हवन क्या होता है? .
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ....
"अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे |
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ||४:२९||
भावार्थ : बहुत से मनुष्य अपान-वायु में प्राण-वायु का, उसी प्रकार प्राण-वायु में अपान-वायु का हवन करते हैं तथा अन्य मनुष्य प्राण-वायु और अपान-वायु की गति को रोक कर समाधि मे प्रवृत होते है|
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यह प्राण तत्व से सम्बंधित एक गोपनीय विषय है जिसकी विधि का गुरुपरम्परा से बाहर चर्चा करने का निषेध है| निषेधात्मक कारणों से मैं इस पर कोई सार्वजनिक चर्चा नहीं कर सकता| इसका मुझे अधिकार नहीं है, पर जिज्ञासुओं से अनुरोध है कि इसे किसी अधिकृत ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से अवसर मिलने पर अवश्य सीखें| मैं अधिकृत नहीं हूँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
११ फरवरी २०१९
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पुनश्चः :---
रेचक क्रिया के माध्यम से, साधक सुषुम्ना में ऊपर रहने वाले प्राणवायु को लेकर इसे मेरुदण्ड के नीचे रहने वाले अपानवायु में अर्पित करते हैं, और पुन: पूरक करके वे अपानवायु को नीचे से ऊपर उठाते हैं और इसे ऊपर प्राणवायु में विलय कर देते हैं । इसका उल्लेख योगशास्त्रों में "केवली प्राणायाम" के रूप में किया गया है। इसके द्वारा, प्राण और अपान की गति स्वाभाविक रूप से और अपने आप रुक जाती है, इस से मन और सभी प्राण स्थिर होते हैं, फल स्वरूप अनंत सुख को प्रकट करते हुए ज्ञान के दीपक को प्रकाशित करते हैं। जब मन और प्राण इस तरह से स्थिर होते हैं, स्थुल वायु का प्रश्वास और निःश्वास , वाणी, शरीर, दृष्टि - यह सब भी स्थिर हो जाते हैं ।
~ स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि जी महाराज द्वारा श्रीमद्भगवत गीता के भाष्य के अंश से, अध्याय ४ श्लोक २९
*By rechak Kriya, sadhakas take the pranavayu residing above in the sushumna and offer it as oblation into the apanavayu residing at the bottom of the spine, and again by purak Kriya they lift the apanavayu from below and merge it into the pranavayu above.* This has been mentioned in the yogashastras as "kevali pranayam." By this, the movement of prana and apana stops naturally and on its own, stilling the mind and all prana, manifesting eternal happiness and illuminating the lamp of Knowledge. When the mind and prana are still in this way, the inhalation and exhalation of the physical airs, speech, body, sight - all of these things - also become still.
~Excerpts from Commentary of Shrimadbhagavat Gita by Swami SriYukteshvar Giri ji Maharaj , Ch. 4 Verse 29

भारत का अभ्युत्थान सुनिश्चित है .....

भारत का अभ्युत्थान सुनिश्चित है .....
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भारत में एक गुप्त अति प्रबल आध्यात्मिक चेतना के जागरण का कार्य आरम्भ हो चुका है जो भारत के पुनर्जागरण का कार्य करेगी| इसका केंद्र भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में ही कहीं से होगा| भारत का पुनर्जागरण सुनिश्चित है|
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इसमें हमारा भी सहयोग होना चाहिए| हम नित्य व्यायाम, प्राणायाम, उचित आहार, विचार आदि द्वारा स्वयं शक्तिशाली बनें, समाज व राष्ट्र को भी शक्तिशाली बनाएँ| गीता का नित्य नियमित पाठ और उसका अनुशरण करें| क्रमशः गीता के दो से पाँच श्लोकों का नित्य नियमित स्वाध्याय करें| अपने बालकों में भी भगवान की और राष्ट्रभक्ति के संस्कार दें| उन्हें भी शक्तिशाली बनाएँ|
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हमारे परम आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं| भक्ति में हमारे आदर्श श्रीहनुमान जी व श्रीराधा जी हैं| हमारे पास ज्ञान का अपार भण्डार है, भगवान की शक्ति और सहारा है| फिर और क्या चाहिए? जब लहरें निमंत्रण दे रही हैं तो अब और तटस्थ नहीं रह सकते|
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आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
११ फरवरी २०१९

Tuesday 12 February 2019

सुषुम्ना के सात चक्रों की अग्नियों के साथ विश्वरूपमहाग्नि में हवन .....

सुषुम्ना के सात चक्रों की अग्नियों के साथ विश्वरूपमहाग्नि में हवन .....
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मूलाधार चक्र ........ ॐ दक्षिणाग्नये स्वाहा | इदं ते न मम ||
स्वाधिष्ठान चक्र ...... ॐ गृहपतिअग्नये स्वाहा | इदं ते न मम ||
मणिपुर चक्र ..........ॐ वैश्वानरअग्नये स्वाहा | इदं ते न मम ||
अनाहत चक्र ......... ॐ आहवनीयअग्नये स्वाहा | इदं ते न मम ||
विशुद्धि चक्र .......... ॐ समिद्भवनअग्नये स्वाहा | इदं ते न मम ||
आज्ञा चक्र ............. ॐ ब्रह्माग्नये स्वाहा | इदं ते न मम ||
सहस्रार चक्र ...........ॐ विश्वरूपमहाग्नये स्वाहा | इदं ते न मम ||
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सभी चक्रों में जो अग्नि प्रज्वलित हैं , वह सबसे ऊपर स्थित विश्वरूप महाग्नि के कारण ही है, उसी में सब की आहुति देनी है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
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पुनश्चः :---
ॐ।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ 1 ॥
ॐ।
राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे।
स मे कामान्कामकामाय मह्यम् कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु।
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः ॥ 2 ॥
ॐ स्वस्ति।
साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं
माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात्सार्वभौमः सार्वायुष
आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंताया एकराळिति ॥ 3 ॥
तदप्येषः श्लोकोऽभिगीतो।
मरुतः परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन् गृहे।
आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वे देवाः सभासद इति ॥ 4 ॥

वसंतपंचमी के दिन एक प्रार्थना और सुझाव .....

वसंतपंचमी के दिन एक प्रार्थना और सुझाव .....

मेरा सभी हिन्दू श्रद्धालुओं से सप्रेम अनुरोध है कि आज के दिन से अर्थ सहित गीता का स्वाध्याय आरम्भ कर दें| आज से नित्य क्रमशः गीता के दो श्लोक अर्थ सहित ठीक से समझ कर पढ़ें| अधिक से अधिक पांच पढ़ सकते हैं| गीताप्रेस गोरखपुर वाली पुस्तक में से दो से पांच श्लोक अर्थ सहित समझ कर पढ़ें और फिर अपनी अपनी गुरु परम्परानुसार उसका भाष्य पढ़ें| ज्ञान का स्त्रोत परमात्मा हैं अतः भगवान का ध्यान भी खूब करें|

शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० फरवरी २०१९

बसंतपंचमी की शुभ कामनाएँ .....

बसंतपंचमी की शुभ कामनाएँ ! यह मूलतः सरस्वती पूजन का दिवस है| एक भूला-बिसरा ऐतिहासिक सत्य यह भी है कि एक समय राजपूताने (वर्तमान राजस्थान) में बसंत पंचमी के दिन भौमिया वीरों की स्मृति में भी आराधना होती थी| अब भी कई स्थानों पर भौमिया वीरों की आराधना होती है| यह बात मैंने अपने पूर्वजों के मुख से सुनी है| भौमिया वीर वे वीर होते थे जो सिर कटने के पश्चात भी रणभूमि में युद्ध करते रहते थे| राजपूताने के इतिहास में ऐसे अनगिनत सैंकड़ों वीर हुए हैं जिनके सिर कटने के बाद भी उनके धड़ बहुत समय तक युद्ध करते रहे| ऐसे वीर भौमिया वीर कहलाते थे और उनकी आराधना देवताओं के रूप में होती है| पारंपरिक रूप से अब भी बसंत पंचमी के दिन राजस्थान के कई घरों में भौमिया जी का दीपक जलाया जाता है और उस दीपक की पूजा होती है|
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बसंतपंचमी के दिन ही भगवान श्रीराम शबरी भीलनी के घर पधारे थे|
पृथ्वीराज चौहान ने बसंतपंचमी के दिन ही मोहम्मद गौरी का वध किया था|
बसंतपंचमी के ही दिन ही वीर बालक हकीकत राय का बलिदान हुआ था| उसकी स्मृति में लाहौर में बसंतपंचमी के दिन ही मेला भरता था और पतंगें उडाई जाती थीं| अब भी वहाँ इस दिन पतंगें उडाई जाती हैं| इस तेरह वर्ष के बालक के एक हाथ में गीता थी| हर तरह के भय और प्रलोभन उसे दिए गए| सरहिंद के नवाब ने तो उस से अपनी शाहजादी की शादी करने और अपना सारा राज्य देने का भी प्रस्ताव दिया था पर उसने इस्लाम कबूल नहीं किया और अपनी गर्दन कटवा की|
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गुरु रामसिह कूका का जन्म बसंतपंचमी के दिन हुआ था| उनके ५० शिष्यों को अंग्रेजों ने १७ जनवरी १८७२ के दिन मलेरकोटला में तोपों के सामने बांधकर उड़ा दिया था| बाकी बचे १८ को अगले दिन फांसी दे दी गयी| गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया| १४ वर्ष तक वहाँ कठोर अत्याचार सहकर सन १८८५ ई.में उन्होंने शरीर त्याग दिया|
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राजा भोज का जन्मदिवस वसंत पंचमी को ही आता हैं। राजा भोज इस दिन एक बड़ा उत्सव करवाते थे जिसमें पूरी प्रजा के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज रखा जाता था जो चालीस दिन तक चलता था|.
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म भी वसंतपंचमी के दिन हुआ था|
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पुनश्चः वसंतपंचमी की मंगलमय शुभ कामनाएँ ! सभी का कल्याण हो !
ॐ तत्सत् !
१० फरवरी २०१९

पुरुष और प्रकृति नाचे साथ साथ .....

पुरुष और प्रकृति नाचे साथ साथ .....

वर्तमान का यह क्षण मेरा है जो मेरे इस जीवन का सर्वश्रेष्ठ क्षण है| कोई भूत नहीं, कोई भविष्य नहीं, वर्त्तमान ही मेरा है जिसमें मैं परमात्मा के साथ एक हूँ| ओंकार की ध्वनि में लिपटा हुआ सर्वव्यापी ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म ही मेरा वास्तविक स्वरुप है| उसकी चेतना ही मेरी चेतना है|

सारी सृष्टि और सृष्टिकर्ता साथ साथ नृत्य कर रहे हैं| पुरुष और प्रकृति दोनों का नृत्य चल रहा है| दोनों साथ साथ नाच रहे हैं|
राधे गोविन्द जय
राधे गोविंद जय
राधे गोविन्द जय
राधे गोविन्द जय
पुरुष और प्रकृति नाचे साथ साथ 


इस पुरुष और प्रकृति के साथ साथ हो रहे नृत्य से अधिक सुन्दर और क्या हो सकता है? उनका वह नृत्य ही सारा अस्तित्व है| देखने योग्य यदि कुछ है तो उनका वह नृत्य ही है| वह नृत्य ही नटराज है|

ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ फरवरी २०१९

गुरु की सत्ता सूक्ष्मातिसूक्ष्म जगत में है .....

गुरु की सत्ता सूक्ष्मातिसूक्ष्म जगत में है जहाँ से वे इस हृदय साम्राज्य पर राज्य कर रहे हैं ......
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गुरु महाराज सब तरह के नाम-रूपों से परे परमात्मा के साथ एक हैं| सूक्ष्म जगत में वे सर्वत्र व्याप्त हैं, वहीं से वे इस हृदय साम्राज्य पर राज्य कर रहे हैं| उनकी अनंतता ही मेरा वास्तविक स्वरुप है| इस भौतिक हृदय की भी हर धड़कन, इन फेफड़ों द्वारा ली जा रही हर सांस, इस मन की हर सोच ..... सब कुछ उन्हीं का है, मेरा कुछ भी नहीं है| इस देह रूपी वाहन की सत्ता तो उतनी ही दूरी में है जितना स्थान इसने घेर रखा है, पर मैं यह देह नहीं शाश्वत सर्वव्यापी आत्मा और अपने गुरु और परमात्मा के साथ एक हूँ| उन से कहीं पर कैसी भी कोई पृथकता नहीं है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ फरवरी २०१९

अब कोई संशय नहीं है .....

गुरुकृपा से आध्यात्मिक क्षेत्र में अब न तो कोई संशय बचा है, और न कोई अनसुलझा रहस्य| सारी जिज्ञासाओं का भी समाधान हो चुका है| कैसी भी कोई स्पृहा अब नहीं है| सिर्फ एक अति प्रचंड अभीप्सा बची है जिसको शांत सिर्फ माँ भगवती यानी जगन्माता ही कर सकती है| अब बाकी का सारा काम उन्हीं का है, मेरा कुछ नहीं| जो कुछ भी कर्म बाकी हैं वे सब जगन्माता ही करेंगी| आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ फरवरी २०१९
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भजन :--
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मैं नहीं मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया
जो भी मेरे पास है, वो धन किसी का है दिया
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देने वाले ने दिया, वो भी दिया किस शान से
मेरा है यह लेने वाला, कह उठा अभिमान से
मैं मेरा यह कहने वाला, मन किसी का है दिया
जो भी मेरे पास है, वो धन किसी का है दिया
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जो मिला है वह हमेशा, साथ रह सकता नही
कब बिछुड़ जाये ये, कोई राज़ कह सकता नही
जिन्दगानी का खिला, मधुवन किसी का है दिया
जो भी मेरे पास है, वो धन किसी का है दिया
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जग की सेवा खोज अपनी, प्रीति उनसे कीजिये
जिन्दगी का राज़ है, यह जानकर जी लीजिये
साधना की राह पर, साधन किसी का है दिया
जो भी मेरे पास है, वो धन किसी का है दिया
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मैं नहीं मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया
जो भी मेरे पास है, वो धन किसी का है दिया
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!

Wednesday 6 February 2019

मैं ऐसे किसी मत या धर्म को नहीं मानता जो स्वयं की खोज के लिए प्रेरित नहीं करता, और उसके उपाय नहीं बताता .....

मैं ऐसे किसी मत या धर्म को नहीं मानता जो स्वयं की खोज के लिए प्रेरित नहीं करता, और उसके उपाय नहीं बताता .....
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भगवान हमारी स्वयं की अंतर्चेतना और अस्तित्व है| भगवान कहीं बाहर नहीं, हमारे चैतन्य में ही है| बाहर की दुनियाँ में भय ही भय प्रचारित किया गया है, पर वास्तविकता तो यह है कि जहाँ भगवान है वहाँ कोई भय हो ही नहीं सकता| भगवान तो स्वयं एक अनिर्वचनीय परमप्रेम और सच्चिदानंद हैं, वे अन्य कुछ भी नहीं हो सकते|
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जो भी मत अपनी स्वयं की खोज के लिए प्रेरित नहीं करता, और उसके उपाय नहीं बताता, वह धर्म नहीं, अधर्म है| वहाँ कोई अभ्युदय और निःश्रेयस नहीं है, वह किसी का कल्याण नहीं कर सकता| जो भी धर्मगुरु आँख मीचकर अंधविश्वास करने को कहता है या भगवान के नाम पर डराता है, वह अधर्मगुरु है, व त्याज्य है| हम अपने अतीत से मुक्त हों व स्वयं के चैतन्य में ही परमात्मा को ढूंढें|
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साथ साथ हमारा एक राष्ट्रधर्म भी है| जहाँ हमारे ऊपर हमारे पितृऋण, ऋषिऋण और देवऋण है वहीं साथ साथ एक राष्ट्रऋण भी है जिस से भी हमें उऋण होना ही पड़ेगा| राष्ट्र के कल्याण के लिए भी हम अपना सर्वश्रेष्ठ करें| वर्त्तमान जनतांत्रिक व्यवस्था विफल हो चुकी है, उसके स्थान पर गुणतंत्र कैसे आये इस पर विचार कर हमें उस दिशा में बढ़ना चाहिए|
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आप सब महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०१९

"परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है" .....

"परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है" .....
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ये शब्द मैं बहुत ही सोच-समझ कर अपने अनुभव से लिख रहा हूँ, कोई बुरा माने या भला| यह लिखने की प्रेरणा मुझे भगवान श्रीकृष्ण से मिल रही है| गीता के तेरहवें अध्याय में अव्यभिचारिणी भक्ति के बारे में बताते हुए वे यही बात कहते हैं .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१३:११||
भगवान कहते हैं कि मुझ ईश्वर में अनन्य योगसे की गयी भक्ति अव्यभिचारिणी भक्ति है| इसका अर्थ मुझे तो यही समझ में आया है कि सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, और अन्यत्र मन का रमण ही व्यभिचार है| यदि मैं गलत हूँ तो विद्वान मनीषी मुझे सही अर्थ बता सकते हैं|
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वे भगवान वासुदेव ही हमारी परम गति हैं| उनके सिवाय अन्य कोई नहीं है, यानि मेरा भी कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, ऐसी अविचल भक्ति ही अनन्ययोग है| और इस अनन्ययोग से की गयी भक्ति ही अव्यभिचारिणी है| किसी अन्य प्रयोजन के लिए की गयी भक्ति व्यभिचारिणी है| विविक्तदेशसेवित्व का अर्थ है एकांत पवित्र स्थान में रहकर भक्ति करना| हमें एकांत पवित्र स्थान पर रहकर भक्ति करनी चाहिए, यह भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है|
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विनयभावरहित संस्कारशून्य व्यक्तियों के समुदाय से हमें दूर ही रहना चाहिए| वे हमारी भक्ति को नष्ट कर देते हैं| किसी के साथ ही रहना ही है तो भगवान के भक्तों के साथ ही रहना चाहिए, अन्यथा अकेले ही रहें| विषयी लोगों की संगती बहुत बुरी होती है| मेरे तो परम आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं, गुरुकृपा से सारी प्रेरणा उन्हीं से मिलती है|
भगवान हमारे विचारों और आचरण में निरंतर सदा रहें, इसी शुभ कामना के साथ आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०६ फरवरी २०१९

(१) हमें भूमि पर बैठ कर भोजन करने में शर्म क्यों आती है ? (२) नमन ...

हमें भूमि पर बैठ कर भोजन करने में शर्म क्यों आती है ? ....
मुझे कई बार जापान जाने का अवसर मिला है| जापान के कई नगरों में खूब घूमा भी हूँ| १९७० और १९८० के दशक में जापान इतना मंहगा नहीं था| अब तो इतना मंहगा है कि कोई मुझे निःशुल्क भी वहाँ भेजे तो भी मैं नहीं जाऊं|
वहाँ की एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी कि अपने अपने घरों में सब लोग भूमि पर बैठकर ही भोजन करते हैं| भूमि पर बैठकर सामने एक चौकी रख लेते हैं, जिस पर रखकर ही खाना खाते हैं| कितना भी समृद्ध व्यक्ति हो, अपने घर पर खाना खायेगा तो भूमि पर बैठ कर ही खायेगा|
आज से कुछ वर्ष पहले तक हम लोग भी भूमि पर बैठकर ही भोजन करते थे| अब दूसरों की नकल कर के टेबल-कुर्सी पर खाने लगे हैं| वास्तव में मेरी इच्छा सदा यही रहती है कि आलथी-पालथी मारकर भूमि पर बैठकर ही भोजन करूँ|
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नमन ....
मुझे जब भी कोई संत-महात्मा मिलते हैं तो उन को हाथ जोड़कर, भूमि पर घुटने टेक कर, और माथे को भूमि पर लगा कर प्रणाम करने में बड़ा आनंद आता है| आजकल तो ठीक से नहीं कर पाता क्योंकि अब इतनी भौतिक शक्ति नहीं रही है| फिर भी प्रयास सदा यही रहता है|
जब उनका आशीर्वाद मिलता है तब यही लगता है कि बहुत बड़ी मात्रा में उन्होंने मेरा दुःख-कष्ट, और आने वाली हर पीड़ा को हर लिया है| पता नहीं यह मनोवैज्ञानिक है या सत्य है|
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५ फरवरी २०१९ 

हमारे सारे दुःखों, कष्टों व पीड़ाओं का कारण स्वयं को यह शरीर मानना है .....

हम स्वयं को यह शरीर मानते हैं और इसी के सुख के लिए सारा जीवन लगा देते हैं| इसी के सुख के लिए हम जीवन भर झूठ, कपट, और अधर्म का कार्य करते हैं| यही हमारे सारे दुःखों, कष्टों व पीड़ाओं का कारण है| भगवान कहते हैं कि हम यह देह नहीं शाश्वत आत्मा हैं| आत्मा की तृप्ति कैसे हो इस पर भी विचार करें| गीता के स्वाध्याय से सारे प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे| भगवान कहते हैं .....
"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः | 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||२:२०||"
अर्थात् यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है| यह आत्मा अजन्मा नित्य शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता||
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आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
५ फरवरी २०१९

Monday 4 February 2019

हम अकेले भी हैं और नहीं भी हैं .....


हम अकेले भी हैं और नहीं भी हैं .....
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द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार .... ये सब अनुभूतियाँ हैं जो हमें हमारी तत्कालीन मनःस्थितियों के अनुसार होती हैं| इन सब से ऊपर उठ कर इन सब का आनंद लें, इन की चर्चा और विवेचना से कोई लाभ नहीं है|
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दीर्घ और गहन ध्यान साधना में हमें परमात्मा की अनुभूति प्राण और आकाश तत्व के रूप में होती है,जिन्हें शब्दों में व्यक्त करना प्रायः असंभव है| इन की अनुभूतियों का आनंद लें| सामने मिठाई रखी हो तो मजा उसको खाने में है, न कि उसकी विवेचना करने में| परमात्मा एक रस है जिसको चखो, खाओ, पीओ, अपने भीतर प्रवाहित होने दो और उसमें डूब जाओ|
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परमात्मा की परम कृपा है कि मैं अकेला भी हूँ और नहीं भी हूँ| मैं सिर्फ परमात्मा के प्रेम की ही बातें करता हूँ इसलिए कोई मिलने-जुलने या सामाजिकता वाले लोग मेरे पास नहीं आते| किसी से वेदान्त की चर्चा करता हूँ तो वह लौट कर फिर कभी बापस नहीं आता| इसलिए परमात्मा के ध्यान का खूब समय मिल जाता है| यह परमात्मा की कृपा है| दो-चार परमात्मा के प्रेमियों से ही संपर्क रहता है, अन्य किसी से नहीं है| अकेला इसलिए नहीं हूँ कि परमात्मा सदा मेरे साथ हैं| वास्तव में मेरे होने का एक भ्रम ही है| मैं तो हूँ ही नहीं, जो कुछ भी है वे स्वयं परमात्मा ही हैं|
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अब आज की अंतिम बात .... परमात्मा माता है या पिता?
यह भी साधक की मनःस्थिति पर निर्भर है| जब हृदय प्रेम से भर जाता है तब परमात्मा का मातृरूप सामने आता है, और जब विवेक की प्रधानता होती है तब पितृरूप|
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आप सभी को शुभ कामनाएँ और मेरे ह्रदय का पूर्ण प्रेम आप सब को समर्पित है| ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ फरवरी २०१९

माँ की मुस्कान .....

माँ भगवती के चहरे की जो मनमोहक मधुर मुस्कान है, उस से अधिक सुन्दर इस सृष्टि में अन्य कुछ भी नहीं है| यदि माँ सारे वरदान भी देना चाहे तब भी हम माँ की उस मोहक मुस्कान के समक्ष उन से कुछ भी नहीं माँग पाएँगे| माँ की वह मधुर मुस्कान ही इस सृष्टि का सब से बड़ा वरदान है| एक बार उस मधुर मुस्कान को देख लोगे तो जीवन तृप्त और निहाल हो जाएगा, सारी कामनाएँ नष्ट हो जायेंगी| माँ का यह सौम्यतम रूप सदा हमारे समक्ष रहे, अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
३ फरवरी २०१९ 

क्या भगवान पर मेरा एकाधिकार है ?

क्या भगवान पर मेरा एकाधिकार है ?
जी हाँ ! निश्चित रूप से, भगवान पर मेरा एकाधिकार ही नहीं पूर्णाधिकार है| भगवान मेरे हृदय में ही हैं, अन्यत्र कहीं भी नहीं है| यह शत-प्रतिशत सत्य है| मैंने उन्हें सात-सात तालों के भीतर बंदी बना रखा है| उनको बाहर निकलने का कोई अन्य मार्ग नहीं है| बाहर वे अब आ ही नहीं सकते|
सारी सृष्टि ही मेरा हृदय है, सभी के हृदय मेरे ही हृदय हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है वह मेरा भी है| यह मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है|
ॐ तत्सत्ॐ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ फरवरी २०१९

Saturday 2 February 2019

हम स्वयं को कैसे सुधारें ?

हम स्वयं को कैसे सुधारें ?
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हम अपने से बाहर इतनी बुराइयाँ देखते हैं, जिनके कारण बड़ी ग्लानि होती है| हमारे शास्त्र तो कहते हैं कि बाहर की बुराइयों का कारण हमारे भीतर की बुराई है| यदि हम अपने भीतर की बुराई को सुधार लें तो बाहर की बुराई भी समाप्त हो जायेगी| इसका एकमात्र उपाय जो मुझे दिखाई देता है वह तो यह है कि हम अच्छे साहित्य को पढ़ें, अच्छे लोगों के साथ रहें, और भगवान का ध्यान करें| गीता में भगवान कहते हैं .....
"इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च| जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्"||१३:९||
अर्थात् इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था, व्याधि और दुख में दोष दर्शन करें|
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मेरी सोच तो यह है कि स्वयं को सुधारने के लिये हम प्रेमपूर्वक नित्य शान्ति पाठ करें, भगवान का ध्यान करें, उनके नाम का अधिकाधिक जप करें, और जीवन का हर कार्य भगवान की प्रसन्नता के लिए ही करें| स्वयं को सुधारने के लिए हमें अपने जीवन का केंद्रबिंदु भगवान को बनाना पडेगा| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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जीवन में मैं अनेक अच्छे से अच्छे और बुरे से बुरे अनुभवों से निकला हूँ, उन्हीं के आधार पर यह सब लिख रहा हूँ| विश्व के अनेक देशों की यात्राएँ की हैं| जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था ऐसे समय में मैं घोर नास्तिक देश रूस में लगभग दो वर्ष रहा हूँ| घोरतम नास्तिक देश उत्तरी कोरिया में बीस दिन रहा हूँ, नास्तिक देश चीन की चार बार यात्रा की है, और नास्तिक देशों ... युक्रेन, रोमानिया और लाटविया का भी तत्कालीन जीवन देखा है| बोल्शेविक क्रांति की पचास वीं और इक्यावन वीं वर्षगाँठ मनाते हुए साम्यवादी रूस को भी देखा है और कोरयाई युद्ध की तीसवीं वर्षगाँठ मनाते उत्तरी कोरिया को भी| ईश्वर के बिना मनुष्य के मन की कैसी वेदना होती है, इसको देखा भी है और प्रत्यक्ष अनुभव भी किया है| उन्हीं अनुभवों के आधार पर कह रहा हूँ कि जीवन में ईश्वर को लाये बिना कोई सुधार नहीं हो सकता| हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य है जीवन में ईश्वर की प्राप्ति| ईश्वर को तो एक न एक दिन प्राप्त करना ही होगा, तब तक यह जीवन-मृत्यु का यह चक्र चलता रहेगा| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन!
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ फरवरी २०१९

"वैचारिक प्रदूषण" आज की सबसे बड़ी समस्या है .....

"वैचारिक प्रदूषण" आज की सबसे बड़ी समस्या है .....
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"वैचारिक प्रदूषण" आज की सबसे बड़ी समस्या है| यह पर्यावरणीय प्रदूषण से भी अधिक खतरनाक है| व्यक्ति के आचरण से भी अधिक महत्व उसके विचारों का है| यदि किसी के विचार समाज के लिए घातक हैं तो उसके अच्छे आचरण का कोई महत्व नहीं है| सन १९६० और १९७० के दशक में कुछ समय तक नक्सलवादी आन्दोलन अपने चरम पर था| यह विचारधारा अति घातक थी पर इसका नेतृत्व उस समय जिन लोगों के हाथों में था वे बहुत ही उच्च शिक्षा प्राप्त त्यागी-तपस्वी विचारशील युवा व्यक्ति थे| उनकी गतिविधियाँ अति घातक थीं पर विचार बड़े आकर्षक थे| समाज पर उस समय उनका अच्छा प्रभाव था| उनकी हिंसक गतिविधियों से त्रस्त होकर सरकार को भी हिंसा का सहारा लेना पडा था| तत्कालीन अनेक नक्सली युवा तो पुलिस की गोली से मारे गए, अधिकाँश ने सरकार से समझौता कर लिया और समाज की मुख्य धारा में लौट आये| ऐसे युवकों में से अनेक तो बड़े बड़े प्रशासनिक अधिकारी भी बने| यह आन्दोलन पूरी तरह समाप्त हो गया था| अब वर्तमान में तो तथाकथित नक्सली हैं, वे चोर-डाकू से अधिक कुछ भी नहीं हैं|
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एक उदाहरण मैं कानू सान्याल का दूँगा जो इस नक्सली आन्दोलन का जनक था| वह दार्जीलिंग के कलिम्पोंग में एक सरकारी राजस्व विभाग में क्लर्क था| समाज में व्याप्त अन्याय के विरोध में कानू सान्याल ने बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री को काले झंडे दिखाए थे| एक सरकारी कर्मचारी द्वारा ऐसा करने पर पुलिस ने उसे जेल में डाल दिया जहाँ उसकी भेंट अपने ही विचारों के दूसरे युवा चारु मजूमदार से हुई| जेल से बाहर आकर वे दोनों भारतीय कमुनिष्ट पार्टी के सदस्य बने और सन १९६७ में दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी गाँव से एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत और अगुवाई की| कानू सान्याल का जीवन एक त्यागी-तपस्वी का था| एक झौंपडी में रहता था जहाँ उसकी निजी संपत्ति में मात्र दो प्लास्टिक की कुर्सियाँ, एक चटाई, कुछ खाना बनाने के बर्तन, दो-चार पहिनने के कपड़े और कुछ पुस्तकें थीं| कोई अतिथि आता उसको कुर्सी पर बैठा कर स्वयं भूमि पर चटाई बिछाकर बैठ जाता| अपने जीवन के १४ वर्ष जेल में बिताने के बाद भाकपा (माले) का महासचिव बन कर वह नक्सलबाड़ी के पास के एक गाँव हाथीघिसा में रहने लगा| जीवन के अंतिम पड़ाव में उसे लगा कि उसकी विचारधारा समाज के लिए अति घातक थी, इसी कुंठा में २३ मार्च २०१० को फांसी पर लटक कर उसने आत्महत्या कर ली| निजी जीवन में वह एक बहुत ही ईमानदार और आदर्शवादी था| पर उसकी ईमानदारी, त्याग-तपस्या और आदर्शवाद का क्या लाभ हुआ, जब उसके विचार ही समाज के लिए घातक थे?
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हमें किसी भी व्यक्ति के विचारों को जानकर ही उसके बारे में अपनी धारणा बनानी चाहिए, न कि उसका बाहरी आचरण मात्र देखकर| बाहरी आचरण एक दिखावा भी हो सकता है, पर उसके विचार नहीं| मैं तो अब तक इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि वैचारिक प्रदूषण ही वर्त्तमान की अधिकाँश समस्याओं का कारण है|
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दुर्भाग्य से आजकल के लोगों में वैचारिक प्रदूषण तो है ही पर साथ साथ उनका आचरण भी बहुत खराब हो गया है| वैचारिक प्रदूषण को दूर कैसे किया जाए इसका चिंतन और उपाय भी समाज के कर्णधारों को करना चाहिए|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ फरवरी २०१९

Friday 1 February 2019

हमारा सारा जीवन "राम" और "काम" के मध्य की परम द्वन्द्वमय अंतर्यात्रा है .....

हमारा सारा जीवन "राम" और "काम" के मध्य की परम द्वन्द्वमय अंतर्यात्रा है| "राम" और "काम" दोनों के प्रबल आकर्षण हैं| एक शक्ति हमें राम की ओर यानि परमात्मा की ओर खींच रही है, वहीँ दूसरी शक्ति हमें काम की ओर यानि सान्सारिक भोग-विलास की ओर खींच रही है| हम दोंनो को एक साथ नहीं पा सकते| हम को दोनों में से एक का ही चयन करना होगा|

अन्धकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते| सूर्य और रात्री भी एक साथ नहीं रह सकते| भूमध्य रेखा से हम उत्तरी ध्रुव की ओर जाएँ तो दक्षिणी ध्रुव उतनी ही दूर हो जाएगा, और दक्षिणी ध्रुव की ओर जाएँ तो उत्तरी ध्रुव उतनी ही दूर हो जाएगा| दोनों स्थानों पर साथ साथ नहीं जा सकते|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१ फरवरी २०१९

हम जिस चौराहे पर खड़े हैं, वहाँ से किधर जाएँ? .....

हम जिस चौराहे पर खड़े हैं, वहाँ से किधर जाएँ? इस चौराहे पर खड़े होना भी एक पीड़ा है जहाँ शुन्य क्षितिज से अपनी ही प्रतिध्वनि लौट आती है और एक भयंकर शीतल ज्वाला भीतर ही भीतर जलती रहती है जिसे हर सांस और भी अधिक प्रज्ज्वलित कर देती है| इस चौराहे से चार मार्ग चारों ओर की चार अलग अलग दिशाओं में जा रहे हैं .....
(१) एक मार्ग तो सांसारिक भोग-विलास और इन्द्रीय वासनाओं की तृप्ति का है जिस पर हम कई जन्मों तक चले| पर अंततः हर जन्म में कष्ट ही कष्ट पाए| अनेक जन्मों तक कष्ट पा कर बापस इसी चौराहे पर आ गए हैं|
(२) दूसरा मार्ग सांसारिक उपलब्धियों का है| इस मार्ग पर भी अनेक जन्मों तक चले पर कहीं भी कोई तृप्ति, संतोष और आनंद नहीं मिला| लौट कर बापस उसी चौराहे पर आ गए हैं|
(३) तीसरा मार्ग ज्ञान-विज्ञान का है जिस पर भी कई जन्मों तक चले तो अवश्य पर तृप्ति नहीं मिली| आगे अवरोध ही अवरोध थे जिन्हें कभी पार नहीं कर पाए और बापस ही लौट आये|
(४) अब चौथा मार्ग भगवान की भक्ति और साधना का है जिस पर चलने के सिवाय अब अन्य कुछ भी विकल्प नहीं है| इस मार्ग को जहाँ तक पार किया है उस से पूर्व के सभी पुलों को स्वयं ने ही नष्ट कर दिया है| अब पीछे तो लौट ही नहीं सकते, पीछे के सारे मार्ग स्वयं ने ही बंद कर दिए हैं| अब आगे ही आगे चलना होगा| पीछे सिर्फ मृत्यु है जिस की ओर देखने की भी मनाही है| सारे अवरोधों पर भगवान स्वयं खड़े मिलते हैं जो सारे अवरोधों को हटा देते हैं| यही आनंद का मार्ग है जिस पर तृप्ति और संतोष मिल रहा है| अन्य कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है| यही हमारा सही मार्ग है|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०१९

अभी भी आशा की एक किरण बाकी है .....

अभी भी आशा की एक किरण बाकी है .....
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जब जागो तभी सबेरा ! गीता का नौवां अध्याय पढ़कर लगता है कि अभी भी उम्मीद बाकी है, कुछ खोया नहीं है| यह बात हमारे जैसे उन सभी लोगों के लिए है जिन्होनें अब तक कोई भजन-बंदगी नहीं की है और सारा जीवन प्रमाद में बिता दिया है| उन्हें निराश होने की आवश्यकता नहीं है| भगवान उन्हें भी एक मौक़ा और दे रहे हैं| भगवान कहते हैं .....
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ||९:३०||
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ||९:३१||
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ||९:३२||
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा |
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ||९:३३||
भावार्थ :--
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है| अर्थात्‌ उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है||३०||
वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है| हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता ||३१||
हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं||३२||
फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण था राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं| इसलिए तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर ||३३||
मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर| इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा ||३४||
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कुछ नहीं किया तो कोई बात नहीं, अब तो भगवान से प्रेम कर ही लेना चाहिए| ऐसा मौक़ा फिर कहाँ मिलेगा?
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!!
कृपा शंकर
३० जनवरी २०१९

भगवान परमशिव .....

भगवान परमशिव .....
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परमशिव शब्द का प्रयोग मुख्यतः कश्मीरी शैव दर्शन की एक शाखा "प्रत्यभिज्ञा दर्शन" में हुआ है| प्रत्यभिज्ञा का अर्थ है पहले से देखे हुए को पहिचानना, या पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना| दर्शनशास्र तो अति गहन हैं| उनका ज्ञान तो परमशिव की परमकृपा से स्वतः ही हो जाएगा पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण है परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति| हमें दर्शनशास्त्रों के बृहद अरण्य में विचरण के स्थान पर परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए| दर्शनशास्त्र हमें दिशा दे सकते हैं पर अनुभूति तो परमशिव की परमकृपा से ही हो सकती है|
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परमशिव का शाब्दिक अर्थ तो होता है ..... परम कल्याणकारी, पर वास्तव में यह एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी कहते हैं) सहस्त्रार चक्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में विचरण करने लगती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है जैसा कि मुझे अपनी सीमित व अल्प बुद्धि से अपनी प्रत्यक्ष अनुभूतियों द्वारा समझ में आया है| वह अनन्तता ही परमशिव है जो परम कल्याणकारी है|
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ऐसे ही एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है|
ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है| दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है| 
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हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह भी ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है|
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विस्तार से किसी को जानना है तो शिवपुराण, लिंगपुराण और स्कन्दपुराण जैसे विशाल ग्रन्थ हैं, कश्मीरी शैवदर्शन और वीरशैवदर्शन जैसी परम्पराओं के भी अनेक ग्रन्थ है जिन का स्वाध्याय करते रहें| कश्मीरी शैव दर्शन के एक ग्रन्थ "विज्ञान भैरव" को तो ओशो (आचार्य रजनीश) ने पूरे विश्व में बहुत प्रसिद्ध कर दिया था| ओशो ने विज्ञानभैरव पर कई व्याख्यान दिए थे| ओशो का विज्ञानभैरव पर एक प्रवचन सुनकर ही मेरी रूचि कश्मीरी शैव दर्शन को समझने में हुई| कर्नाटक में मेरे एक मित्र है जो वीरशैव मत के ख्यातिप्राप्त बड़े विद्वान हैं| गत वर्ष वे जोधपुर में स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी से मिलने उन के आश्रम में आये थे जहाँ उनसे प्रत्यक्ष भेंट हुई और उन्होंने वीरशैव मत को अच्छी तरह समझाया था| स्वयं स्वामी जी भी प्रत्यक्ष शिवस्वरूप तपस्वी संत हैं जिन के पास बैठने मात्र से ही मुझे शिव तत्व की अनुभूतियाँ होने लगती हैं|
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उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है| गुरुकृपा से ध्यान में मुझे अपनी देह में ही दो शिवलिंग अनुभूत होते हैं, एक तो मूलाधार चक्र से आज्ञा चक्र तक है, दूसरा आज्ञाचक्र से ब्रह्मरंध्र को भी भेदता हुआ परमात्मा की अनंतता में विलीन हो जाता है, जो मेरी उपासना का विषय है| वही मेरा आराध्य देव परमशिव है, जिसका ध्यान मुझ से वे स्वयं परमात्मा परमशिव ही करवाते हैं| आप सब भी उन्हीं का ध्यान करें और उन्हीं में लीन हो जाएँ| वे परम कल्याणकारी हैं, आप सब पर गुरु की परमकृपा होगी|
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आप सब में अन्तस्थ परमशिव को मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करता हूँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर 
२९ जनवरी २०१९