"परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है" .....
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ये शब्द मैं बहुत ही सोच-समझ कर अपने अनुभव से लिख रहा हूँ, कोई बुरा माने या भला| यह लिखने की प्रेरणा मुझे भगवान श्रीकृष्ण से मिल रही है| गीता के तेरहवें अध्याय में अव्यभिचारिणी भक्ति के बारे में बताते हुए वे यही बात कहते हैं .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१३:११||
भगवान कहते हैं कि मुझ ईश्वर में अनन्य योगसे की गयी भक्ति अव्यभिचारिणी भक्ति है| इसका अर्थ मुझे तो यही समझ में आया है कि सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, और अन्यत्र मन का रमण ही व्यभिचार है| यदि मैं गलत हूँ तो विद्वान मनीषी मुझे सही अर्थ बता सकते हैं|
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वे भगवान वासुदेव ही हमारी परम गति हैं| उनके सिवाय अन्य कोई नहीं है, यानि मेरा भी कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, ऐसी अविचल भक्ति ही अनन्ययोग है| और इस अनन्ययोग से की गयी भक्ति ही अव्यभिचारिणी है| किसी अन्य प्रयोजन के लिए की गयी भक्ति व्यभिचारिणी है| विविक्तदेशसेवित्व का अर्थ है एकांत पवित्र स्थान में रहकर भक्ति करना| हमें एकांत पवित्र स्थान पर रहकर भक्ति करनी चाहिए, यह भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है|
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विनयभावरहित संस्कारशून्य व्यक्तियों के समुदाय से हमें दूर ही रहना चाहिए| वे हमारी भक्ति को नष्ट कर देते हैं| किसी के साथ ही रहना ही है तो भगवान के भक्तों के साथ ही रहना चाहिए, अन्यथा अकेले ही रहें| विषयी लोगों की संगती बहुत बुरी होती है| मेरे तो परम आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं, गुरुकृपा से सारी प्रेरणा उन्हीं से मिलती है|
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ये शब्द मैं बहुत ही सोच-समझ कर अपने अनुभव से लिख रहा हूँ, कोई बुरा माने या भला| यह लिखने की प्रेरणा मुझे भगवान श्रीकृष्ण से मिल रही है| गीता के तेरहवें अध्याय में अव्यभिचारिणी भक्ति के बारे में बताते हुए वे यही बात कहते हैं .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्ितरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ||१३:११||
भगवान कहते हैं कि मुझ ईश्वर में अनन्य योगसे की गयी भक्ति अव्यभिचारिणी भक्ति है| इसका अर्थ मुझे तो यही समझ में आया है कि सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, और अन्यत्र मन का रमण ही व्यभिचार है| यदि मैं गलत हूँ तो विद्वान मनीषी मुझे सही अर्थ बता सकते हैं|
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वे भगवान वासुदेव ही हमारी परम गति हैं| उनके सिवाय अन्य कोई नहीं है, यानि मेरा भी कोई पृथक अस्तित्व नहीं है, ऐसी अविचल भक्ति ही अनन्ययोग है| और इस अनन्ययोग से की गयी भक्ति ही अव्यभिचारिणी है| किसी अन्य प्रयोजन के लिए की गयी भक्ति व्यभिचारिणी है| विविक्तदेशसेवित्व का अर्थ है एकांत पवित्र स्थान में रहकर भक्ति करना| हमें एकांत पवित्र स्थान पर रहकर भक्ति करनी चाहिए, यह भगवान श्रीकृष्ण का आदेश है|
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विनयभावरहित संस्कारशून्य व्यक्तियों के समुदाय से हमें दूर ही रहना चाहिए| वे हमारी भक्ति को नष्ट कर देते हैं| किसी के साथ ही रहना ही है तो भगवान के भक्तों के साथ ही रहना चाहिए, अन्यथा अकेले ही रहें| विषयी लोगों की संगती बहुत बुरी होती है| मेरे तो परम आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं, गुरुकृपा से सारी प्रेरणा उन्हीं से मिलती है|
भगवान हमारे विचारों और आचरण में निरंतर सदा रहें, इसी शुभ कामना के साथ आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०६ फरवरी २०१९
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०६ फरवरी २०१९
जीवन में हमारे अनुकरणीय परम आदर्श भगवान श्रीराम हैं| भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों का पालन हमारा परम धर्म है| भक्ति में हमारे आदर्श श्रीहनुमान जी व श्रीराधा जी हैं| श्रीहनुमान जी व श्रीराधा जी के हृदय में जो भक्ति थी उसका एक अति अप्ल्प भाग भी हमें निहाल और तृप्त कर देगा|
ReplyDeleteबिना भक्ति के इस जीवन में कोई संतुष्टि या तृप्ति नहीं मिल सकती| भगवान के प्रति परमप्रेम को ही भक्ति कहते हैं| निश्चित रूप से आप के हृदय में भक्ति की लहरें हिलोरे मार रही हैं| अब और तटस्थ मत रहो, भक्तिभाव के प्रवाह में कूद पड़ो| हिंदी भाषा में भक्ति का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ "रामचरितमानस" है और संस्कृत में "भागवत"|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!