Wednesday, 30 November 2016

विफलता और सफलता ....

विफलता और सफलता ....
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मेरे अनेक आत्मीय सम्बन्धियों/मित्रों की एक व्यथा से मैं कभी कभी पीड़ित हो जाता हूँ| मेरा तो यह विश्वास और आस्था है कि मनुष्य का जन्म अपने स्वयं के प्रारब्ध कर्मों के फल भोगने के लिए ही होता है, और हर व्यक्ति अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार अपना अपना भाग्य लेकर आता है|
प्रारब्ध का फल तो भोगना ही पड़ता है| संचित कर्मों से हम मुक्त हो सकते हैं पर प्रारब्ध से नहीं| प्रकृति अपने नियमों के अनुसार कार्य कर रही है और करती रहेगी|
अतः हमें कभी भी आत्म-ग्लानि, क्षोभ व अफ़सोस नहीं करने चाहियें| जो कुछ भी हो रहा है वह परमात्मा के बनाए नियमों के अनुसार प्रकृति द्वारा हो रहा हैं| अतः सदा संतुष्ट और प्रसन्न रहना चाहिए|
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पर मेरे अनेक आत्मीय ऐसा नहीं सोचते| संसार की दृष्टि में वे चाहें अति सफल हों पर उनके मन में सदा आत्म-ग्लानि बनी रहती है कि हम जीवन में यह नहीं कर पाए, वह नहीं कर पाए आदि आदि| इस आत्मा ग्लानि से वे सदा दुखी रहते हैं और दूसरों को भी दुखी करते रहते हैं| अपनी विफलताओं का दोष वे दूसरों पर या विपरीत परिस्थितियों पर डालते रहते हैं|
उनकी महत्वाकांक्षाएँ इतनी अधिक होती हैं जो यथार्थ में संभव हो ही नहीं सकतीं| ऐसे व्यक्ति वास्तव में बड़े दुखी रहते हैं जब कि दुःख का कोई कारण ही नहीं होता| जब कोई स्वयं से ही दुखी होता है तब उसके लिए कोई क्या कर सकता है?
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हमारी सफलता का एक ही मापदंड होना चाहिए वह यह कि हम परमात्मा के कितना समीप हैं| जितने हम ईमानदारी से स्वयं की दृष्टी में परमात्मा के समीप हैं उतने ही सफल हैं| जितने हम परमात्मा से दूर है उतने ही विफल हैं| भौतिक धन-संपत्ति की प्रचूरता, समाज में अच्छा मान-सम्मान और सब कुछ पाकर भी हम यही सोचते सोचते इस ससार से विदा हो जाते हैं कि हम तो कुछ भी नहीं कर पाए|
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आशा है मैं अपनी बात आपको समझा सका हूँ| हो सकता है कि किसी पूर्व जन्म में एक राजा भी था और किसी अन्य जन्म में भिखारी भी| इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं क्या था और क्या नहीं? और क्या बनूँगा इस का भी महत्व नहीं है|
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यदि मनुष्य जन्म लेकर भी मैं इस जन्म में परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो पाया तो निश्चित रूप से मेरा जन्म लेना ही विफल था, मैं इस पृथ्वी पर भार ही था| जीवन की सार्थकता उसी दिन होगी जिस दिन परमात्मा से कोई भेद नहीं रहेगा|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

टैक्स आतंकवाद से मुक्ति मिले .....

टैक्स आतंकवाद से मुक्ति मिले .....
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ज्यादातर व्यवसायी चाहते हैं कि देश में नकद-विहीन (Cash less) अर्थव्यस्था न पनपे और इनका व्यवसाय दो नम्बर में चलता रहे| इसका कारण आयकर की बहुत ऊंची दरें और कर अधिकारियों द्वारा आतंकित करना है| मैं कोई व्यवसायी नहीं हूँ पर मेरे अनेक मित्र बहुत अच्छे व्यवसायी हैं और सब यही विचार रखते हैं|
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कर व्यवस्था इतनी सरल हो जिसे समझने के लिए किसी चार्टेड अकाउंटेंट से सहायता की आवश्यकता न पड़े| करों की दर भी कम हो| आयकर छूट की सीमा भी बढे|
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मेरे विचार से छः लाख वार्षिक तक की आय पर कोई आय कर न हो और अधिक से अधिक किसी भी परिस्थिति में 15% से अधिक आयकर न हो| 65 वर्ष से अधिक आयु वालों पर आय कर की दर आधी हो व 70 वर्ष से ऊपर के आयु वालों पर कोई आय कर नहीं हो|
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पूरी तरह की cash less अर्थ व्यवस्था तो हो ही नहीं सकती| जहां आवश्यक हो वहाँ नकद में भुगतान हो|

धन्यवाद !

क्या हम प्रकृति के रहस्यों को समझ पाने मे समर्थ हैं ..... ?

क्या हम प्रकृति के रहस्यों को समझ पाने मे समर्थ हैं ..... ?
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सृष्टि का हर घटनाक्रम सुनियोजित और विवेकपूर्ण है| हर घटना के पीछे कोई न कोई कारण है| हर कार्य पूर्णता से हो रहा है| कहीं भी कोई कमी या अपूर्णता नहीं है| बिना किसी अपेक्षा के प्रकृति अपना कार्य पूर्णता से कर रही है|
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अपूर्णता है तो सिर्फ हमारे स्वयं में, स्वयं के अस्तित्व में|
क्या हम जान सकते हैं कि ऐसा क्यों है? क्या जन्म और मृत्यु, व सुख और दुःख से परे भी कोई अस्तित्व या जीवन है? उसका बोध हमें क्यों नहीं होता? यदि हम शाश्वत हैं तो हमें उसका बोध क्यों नहीं है?
हम हैं कौन? क्या हम इसे जान सकते हैं?
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यह बात हर कोई नहीं समझ सकता| पर जो बात मुझे समझ में आ रही है, जिसका मुझे आभास हो रहा है, उसे व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ ......
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(१) पूर्णता का ध्यान कर, पूर्णता को समर्पित होकर ही हम पूर्ण हो सकते हैं|
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(२) जिस परमब्रह्म परमशिव का कभी जन्म ही नहीं हुआ उसी को समर्पित होकर हम अमर हो सकते हैं|
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(३) जिसे हम परमब्रह्म, या परमशिव कहते हैं, वह ही पूर्णता है जिसको उपलब्ध होने के लिए ही हमने जन्म लिया है| जब तक हम उसमें समर्पित नहीं हो जायेंगे तब तक यह अपूर्णता रहेगी|
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४) उसका एकमात्र मार्ग है --- परम प्रेम, पवित्रता और उसे पाने की एक गहन अभीप्सा| अन्य कोई मार्ग नहीं है| जब इस मार्ग पर चलते हैं तो परमप्रेमवश प्रभु निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
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(५) कुछ बनना और कुछ होना ------ ये दोनों अलग अलग अवस्थाएं है, जो कभी एक नहीं हो सकतीं|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन और आप सब को अहैतुकी प्रेम | ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते |पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ||
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हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है ---

हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है ---
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जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता|
प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है|
प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं|

"कामना" अपने आप में भगवान का दिया हुआ एक अनुग्रह है|
मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है|

"संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से ही होती है|
हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे|
अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो|
हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|

अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं|

इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा|

"प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है| भगवन के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे गुरु रूप ब्रह्म, आप ही इस नौका के कर्णधार है ...

हे गुरु रूप ब्रह्म, आप ही इस नौका के कर्णधार है .....
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जीवन के अंधेरे मार्गों पर आप ही मेरे मार्गदर्शक हैं ......
इस अज्ञानांधकार की निशा में आप ही मेरे चन्द्रमा हैं .....
आप ही मेरे ज्ञानरूपी दिवस के सूर्य हैं .....
मेरे बिखरे हुए भटकते विचारों के ध्रुव भी आप ही हैं .....
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प्रबल चक्रवाती झंझावातों और भयावह अति उत्ताल तरंगों से त्रस्त इस दारुण दुःखदायी भवसागर की इस घोर तिमिराच्छन्न निशा में इस असंख्य छिद्रों वाली देहरूपी नौका के कर्णधार जब आप स्वयं ही बने हैं, तब अंतर्चैतन्य में कोई अन्धकार रहा ही नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व ज्योतिर्मय है व चारों ओर आनंद ही आनंद और अनुकूलता है|
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अब इसी दिव्य चेतना में अवस्थित रखो, भवसागर का तो कोई आभास ही नहीं है| लगता है पार हो ही गया है|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

एक विशेष घटनाक्रम .....

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आज का एक विशेष घटनाक्रम :--- आज जैसी यथार्थ स्थिति बनी है उसमें नाटो या अमेरिका के उकसावे पर तुर्की ने 'बास्फोरस' और 'दर्रा दानियल' से नौकानयन बंद कर दिया तो श्यामसागर (Black Sea) से भूमध्यसागर का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा|
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फिर विश्वयुद्ध को कोई नहीं रोक पायेगा क्योंकि 'बास्फोरस' जलडमरूमध्य के मार्ग से श्यामसागर स्थित देशों --- बुल्गारिया, रोमानिया, माल्दोवा, युक्रेन, जॉर्जिया और रूस के क्रीमिया सहित क्षेत्र का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता है| इस से निकट के अन्य देशों जैसे अज़रबेजान व आर्मेनिया का व्यापार भी प्रभावित होता है| रूस की श्यामसागर स्थित नौसेना भी आणविक शस्त्रों से युक्त बहुत शक्तिशाली है| संकट की स्थिति में ये देश अपना पुराना द्वेष भुलाकर रूस के साथ हो जाएँगे क्योंकी तुर्की से इनकी पारंपरिक शत्रुता रही है| भूमध्यसागर में सीरिया तट पर रूस की श्यामसागर नौसेना के ही जहाज हैं|
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इस मौसम में श्याम सागर में कोहरा भी कम होने लगता है जिससे visibility भी ठीक रहती है और आवागमन सुचारू रूप से होता है| गर्मियों में तो वहाँ बहुत घना कोहरा होता है| जब कोहरा कम होता है उस समय की स्थिति युद्ध के अधिक अनुकूल होती है|
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बास्फोरस जलडमरूमध्य एशिया और योरोप को जोड़ता है| इस जलडमरूमध्य के दोनों ओर वर्तमान इस्ताम्बूल नगर है जो पहले कुस्तुन्तुनिया के नाम से जाना जाता था| योरोप का भारत से सारा व्यापार कुस्तुन्तुनिया के मार्ग से ही होता था| जब तुर्कों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया उसके पश्चात् ही बाध्य होकर योरोप को जलमार्ग से भारत की खोज करनी पड़ी थी|
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भगवान सबको विवेक दे| ॐ ॐ ॐ ||

असहमति में उठा हाथ ......

असहमति में उठा हाथ ......
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इस जीवन की एक अति अल्प अवधी के लिए मैं भटक कर घोर नास्तिक और कौमनष्ट (कम्युनिष्ट) हो गया था| इसका कारण था कि किशोरावस्था में ही मैंने समाज में काफी अन्याय, शोषण और नैतिक पतन देखा| किशोर मन में इसका कोई समाधान समझ में नहीं आया| फिर दो वर्ष रूस में मुझे उस समय रहने का अवसर मिला जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था| अपरिपक्व मन में सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना जागृत होना स्वभाविक थी, जिसको व्यक्त करने का एकमात्र विकल्प मार्क्सवाद था| अन्य कोई समझ उस समय थी ही नहीं|
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फिर पूर्व जन्मों के कुछ अच्छे संस्कार जागृत हुए व और अधिक गहराई में गया तो साम्यवाद का खोखलापन सामने आया और उसके महानायकों .... मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, किम-इल-सुंग, माओ, फिदेल कास्त्रो आदि की वास्तविकता और भारतीय मापदंडों के अनुसार चरित्रहीनता सामने आई जिनमें कुछ भी प्रेरणास्पद और प्रशंसनीय आदर्श नहीं था| मार्क्सवाद एक लुभावना पर खोखला घोर भौतिकवादी सिद्धांत सिद्ध हुआ| जितने भी मार्क्सवादी विचारक जीवन में मिले उन सब का जीवन खोखला और कुंठाग्रस्त था|
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फिर आध्यात्म में रूचि जागृत हुई तो योगदर्शन और अद्वैत वेदान्त से परिचय हुआ जिनसे उत्तम अन्य कोई सिद्धांत और विचार मिला ही नहीं| भक्ति के संस्कार जागृत हुए, राष्ट्रवाद तो कूट कूट कर भरा हुआ था ही| आध्यात्म से जीवन में पूर्ण संतुष्टि और एक ठोस आधार मिला| जीवन में १८० डिग्री का परिवर्तन आया और घोर नास्तिक से मैं घोर आस्तिक और आध्यात्मिक बन गया|
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सारे मार्क्सवादी महानायक निरंकुश, तानाशाह, शराबी, घोर कामुक और भयानक परस्त्रीगामी थे| ये सब दानव थे जिनके जीवन में व्यवस्था के प्रति विद्रोह और संघर्ष की भावना के अतिरिक्त कुछ भी अन्य आदर्श नहीं था|
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अभी कुछ दिनों पूर्व क्यूबा के फिदेल कास्त्रो का निधन हुआ था| किसी समय मैं भी उनका बड़ा प्रशंसक था| उनकी खूबी थी कि विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के पड़ोस में रहते हुए भी उन्होंने अमेरिका के आगे कभी सिर नहीं झुकाया और पूर्व सोवियत यूनियन को अपने यहाँ आने को अवसर दिया| अमेरिका की CIA ने ३५० से अधिक बार उनकी ह्त्या के कुटिल से कुटिल प्रयास किये पर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाई| इस अवधी में अमेरिका के नौ राष्ट्रपति बदल गये|
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अब प्रश्न यह है कि फिदेल कास्त्रो ने अपनी प्रजा के लिए क्या किया? उत्तर है .... कुछ भी नहीं| सिर्फ तानाशाह की तरह क्यूबा पर राज्य किया, और अपने अहंकार और वासनाओं की पूर्ति की| इनके समय वहाँ कुछ भी विकास नहीं हुआ और क्यूबा विश्व के सर्वाधिक दरिद्रतम देशों में ही रहा| अपने नागारिकों को आतंकित करके के इन्होने शासन किया| पूरी क्यूबा को एक जेल बना दिया और अनगिनत लड़कियों को वेश्यावृति करने को बाध्य कर दिया|
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मार्क्सवादी साम्यवाद हो या पूँजीवाद, दोनों व्यवस्थाएं घोर भौतिकवादी हैं जिनसे
मानवता का कोई कल्याण नहीं हो सकता|
जीवन का सार आध्यात्म में ही है|
ॐ तत्सत | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||

ध्यान साधना में आने वाले आवरण और विक्षेप रूपी बाधाओं का समाधान .....

ध्यान साधना में आने वाले आवरण और विक्षेप रूपी बाधाओं का समाधान .....
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साधना में आ रही समस्त बाधाओं, विक्षेप आदि का तुरंत और एकमात्र समाधान है ..... सत्संग, सत्संग और निरंतर सत्संग|
अन्य कोई समाधान नहीं है| बाधादायक किसी भी परिस्थिति को तुरंत नकार दो| एक सात्विक जीवन जीओ और आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोगों के साथ रहो| अपने ह्रदय में पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम को जागृत करो और अपने अस्तित्व को गुरु व परमात्मा के प्रति समर्पित करने का निरंतर अभ्यास करते रहो|
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जीभ को सदा ऊपर की ओर मोड़ कर रखने का प्रयास करते रहो| खेचरी मुद्रा का खूब अभ्यास करो| खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर ध्यान खेचरी मुद्रा में ही करो| खेचरी मुद्रा के इतने लाभ हैं कि यहाँ उन्हें बताने के लिए स्थान कम पड़ जाएगा|
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ऊनी कम्बल के आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठो| समय हो तो ध्यान से पूर्व कुछ देर हल्के व्यायाम जैसे सूर्य नमस्कार और कुछ आसन कर लो|
ध्यान से पूर्व महामुद्रा का अभ्यास नियमित रूप से नित्य करने से कमर सीधी रहती है और कभी नहीं झुकती| नींद की झपकियाँ आने लगे तब पुनश्चः तीन चार बार महामुद्रा का अभ्यास कर लो| कमर सीधी कर के बैठो इससे नींद नहीं आएगी|
ध्यान करने से पहले अपने गुरु और परमात्मा से उनके अनुग्रह के लिए प्रार्थना अवश्य करें|
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ध्यान में अनाहत और आज्ञा चक्र पर एक साथ अपनी चेतना को केन्द्रित रखें| वास्तव में मस्तकग्रंथि जिसे मेरुशीर्ष और Medulla Oblangata भी कहते हैं, ही आज्ञा चक्र है| वही कूटस्थ केंद्र है| वहीं ज्योति का प्राकट्य होता है और वहीं नाद श्रवण होता है| वहीं से ब्रह्मांडीय ऊर्जा देह में प्रवेश करती है| यह देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की नाड़ियाँ मस्तिष्क से मिलती है| जीव के प्राण यहीं रहते हैं| इस भाग की कोई शल्य क्रिया भी नहीं हो सकती| भ्रूमध्य में तो उस ज्योति का प्रतिबिंब ही दिखाई देता है इसलिए गुरु की आज्ञा से वहाँ ध्यान करते हैं| पर स्वतः ही चेतना मस्तक ग्रंथि पर स्वाभाविक रूप से चली जाती है|
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ध्यान में अजपा जाप और नाद के श्रवण का अभ्यास निरंतर करते रहो|
बाद में अपनी चेतना को नाद में और भ्रूमध्य में दिखने वाली श्वेत ज्योति में समाहित कर दो| यही ध्यान है|
इधर उधर चेतना और विचार जाएँ तो ॐकार के मानसिक जाप के साथ साथ प्रेमपूर्वक उन्हें बापस भ्रूमध्य में ले आओ|
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ध्यान से पूर्व नाडी शुद्धि के लिए अनुलोम-विलोम प्राणायाम करो| इसमें पूरक यानि साँस लेते समय मूलाधार से आज्ञाचक्र तक क्रमशः हर चक्र पर ॐ का मानसिक जाप करो| रेचक यानि साँस छोड़ते समय बापस आज्ञाचक्र से मूलाधार तक ॐ का जाप मानसिक रूप से हर चक्र पर करें|
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सहस्त्रार गुरु का स्थान है जहाँ से गुरु महाराज ही सब कुछ कर रहे हैं, यही भाव रखें| उन्हीं को कर्ता बनाओ| स्वयं कभी कर्ता मत बनो| आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं| वास्तव में सारी साधना वे ही आपके माध्यम से कर रहे हैं| अपने सारे अच्छे-बुरे सब कर्म और उनके फल उन्हें समर्पित कर दो| इससे गुरु महाराज बड़े प्रसन्न होते हैं और आपकी साधना में होने वाली किसी भी कमी का शोधन कर देते हैं| कभी कर्ता मत बनो| किसी भी प्रकार के प्रलोभन में मत आओ|
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अपने अहं यानि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण गुरु तत्व में करना ही साधना है और उनके श्रीचरणों में आश्रय मिलना ही सबसे बड़ी सिद्धि है|
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मूलाधार से आज्ञा चक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| इसे परासुषुम्ना भी कहते हैं| जब तक चेतना यहाँ है अज्ञान का नाश नहीं होता| आज्ञा चक्र से सहस्त्रार तक का क्षेत्र ज्ञानक्षेत्र है| सारा ज्ञान यहीं प्राप्त होता है| इसे उत्तरा सुषुम्ना भी कहते हैं| इसमें प्रवेश गुरु कृपा से ही होता है, स्वयं के प्रयास से नहीं|
गुरु कृपा ही केवलं| यहीं सारी अध्यात्मिक सिद्धियाँ हैं| सहस्त्रार से आगे का क्षेत्र तो पराक्षेत्र है और उससे भी आगे सुमेरु है जहां आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रहता|
असली श्रीचक्र भी सहस्त्रार में है| श्री बिंदु भी वहीं है| ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियाँ भी वहीँ हैं जहाँ से तीनों गुण नि:सृत होते हैं|
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जब ह्रदय में एक परम प्रेम जागृत होता है और प्रभु को पाने की अभीप्सा और तड़फ़ पैदा होती है तब भगवान किसी ना किसी सद्गुरु के रूप में निश्चित रूप से आकर मार्गदर्शन करते हैं|
तब तक भगवान श्रीकृष्णरूप में या शिवरूप में गुरु हैं|
"कृष्णं वन्दे ज्गत्गुरुम्"| भगवन श्री कृष्ण इस काल के सबसे बड़े गुरु हैं| वे गुरुओं के भी गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गायत्री मन्त्र के सविता देव भी वे ही हैं, भागवत मन्त्र के वासुदेव भी वे ही है, और समाधि में कूटस्थ में योगियों को दिखने वाले पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र यानि पंचमुखी महादेव भी वे ही हैं| उस पंचमुखी नक्षत्र का भेदन और उससे परे की स्थिति योगमार्ग की उच्चतम साधना है जिसके पश्चात ही जीव स्वयं शिवभाव को प्राप्त होने लगता है और तभी उसे -- शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि --- का बोध होता है|
सहस्त्रार ही श्री गुरू चरणों का स्थान है| वहां पर स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय पाना है| गुरु चरणों में आश्रय पाना ही सबसे बड़ी सिद्धि है जिसके आगे अन्य सब सिद्धियाँ गौण हैं|
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हमारी बातो का दूसरों पर प्रभाव नहीं पड़ता, कोई हमारी बात सुनता नहीं है, इसका एकमात्र कारण हमारी साधना में कमी होना है| हमारी व्यक्तिगत साधना अच्छी होगी तभी हमारे विचारों का प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा, अन्यथा नहीं| हिमालय की कंदराओं में तपस्यारत संतों के सद्विचार और शुभ कामनाएँ मानवता का बहुत कल्याण करती हैं| इसीलिए हमारे यहाँ माना गया है कि आत्मसाक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है जो आप औरों के लिए कर सकते हो|
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इस विषय पर पूर्व में अनेक प्रस्तुतियाँ दे चुका हूँ| इसका उद्देष्य आपके ह्रदय में एक अभीप्सा और प्रेम जागृत करना ही है|
कुछ और भी बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें गुरु परंपरा के अनुशासन के कारण सार्वजनिक रूप से बताने का निषेध है| साधक की पात्रता के अनुसार ही वे व्यक्तिगत रूप से बताई जाती हैं|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान वासुदेव को प्रणाम| बहुत बहुत शुभ कामनाएँ|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

और क्या चाहिए ?

लक्ष्य स्पष्ट हो, दृढ़ आत्मविश्वास और उत्साह हो, संतुलित वाणी हो, आजीविका का पवित्र साधन हो, स्वस्थ देह और मन हो, परमात्मा से प्रेम हो, फिर और क्या चाहिए ??
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चेतना में जब गुरु रूप ब्रह्म निरंतर कर्ता और भोक्ता के रूप में बिराजमान हों, उनके श्रीचरणों में आश्रय मिल गया हो, ओंकार की ध्वनी अंतर में निरंतर सुन रही हो, ज्योतिर्मय ब्रह्म निरंतर कूटस्थ में हों, परमात्मा की सर्वव्यापकता का निरंतर आभास हो, सम्पूर्ण चेतना परम प्रेममय हो गयी हो, तब और कौन सी उपासना या साधना बाकी बची है ?
हे गुरु रूप ब्रह्म आपकी जय हो|
ॐ ॐ ॐ ||