हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है ---
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जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम
करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई
विकल्प नहीं होता|
प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है|
प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं|
"कामना" अपने आप में भगवान का दिया हुआ एक अनुग्रह है|
मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है|
"संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से ही होती है|
हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे|
अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो|
हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|
अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं|
इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा|
"प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है| भगवन के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है|
प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं|
"कामना" अपने आप में भगवान का दिया हुआ एक अनुग्रह है|
मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है|
"संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से ही होती है|
हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे|
अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो|
हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|
अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं|
इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा|
"प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है| भगवन के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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