Tuesday, 3 December 2024

हमारी उपासना (जिसमें ध्यान और जप दोनों आते हैं) का स्वरूप तेलधारा के प्रवाह की तरह अखंड क्यों होना चाहिये?

 (Amended & Re-Posted) हमारी उपासना (जिसमें ध्यान और जप दोनों आते हैं) का स्वरूप तेलधारा के प्रवाह की तरह अखंड क्यों होना चाहिये?

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वर्षों पूर्व इस विषय पर मैं लगभग चार लेख लिख चुका हूँ। लेकिन तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है, और मेरे विचारों में भी बहुत अधिक परिपक्क्वता आयी है, जिसके कारण अब एक नये संशोधित लेख की आवश्यकता है। हमारे विचार का विषय है -- (१) 'उपासना' क्या है? (२) यह 'तैलधारा' के समान अखंड क्यों होनी चाहिए?
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जब हम एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालते हैं, तब तेल की धार टूटती नहीं है, अखंड रहती है। वैसी ही अखंड हमारी उपासना होनी चाहिए। यह बीच बीच में टूटे नहीं। इसी की साधना हमें करनी पड़ती है।
उपासना का शाब्दिक अर्थ है -- समीप बैठना। हमें किसके समीप बैठना चाहिए? मेरी चेतना में एक ही उत्तर है -- परमब्रह्म परमात्मा के। उपासना के समय हमें अभ्यास करना चाहिए कि परमब्रह्म परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई विचार हमारी चेतना में आये ही नहीं। यहाँ यह भी विचार करेंगे कि परमात्मा के किस स्वरूप का हमें ध्यान करना चाहिए, क्योंकि सारे स्वरूप परमात्मा के ही हें।
आचार्य शंकर के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को 'उपासना' कहते हैं"। (गीता १२.३ शांकर भाष्य)। यहाँ उन्होंने 'तैलधारा' शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है। तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा।
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योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है तब वह तैलधारा के सदृश होती है। प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए। जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है, वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी ध्यान में हमें सुनायी देती है। प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है। |
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समानवृत्ति क्या हो सकती है? जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका अर्थ है श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है। अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है। यहाँ "उपासना" का अर्थ -- हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है। मेरी सोच के अनुसार यह सर्वव्यापी ओंकार की ध्वनि और इसके साथ दिखाई देती निरंतर विस्तृत ज्योति ही 'कूटस्थ ब्रह्म' है।
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ईश्वर की कृपा से कूटस्थ ज्योति जो हमें अति चमकीले श्वेत पंचमुखी नक्षत्र के रूप में दिखायी देती है, उसका भी भेदन करना पड़ता है। ईशावास्योपनिषद का यह मंत्र संभवतः इसी बारे में प्रार्थना करता है --
"हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥"
कूटस्थ ज्योति का भी भेदन कर उससे भी परे जाना पड़ता है, तभी सत्य का बोध होता है। ओंकार तो परमशिव का वाचक यानि प्रतीक मात्र है जिस पर हम ध्यान करते हैं। हमारी साधना का उद्देश्य तो परमशिव की प्राप्ति है। उपासना तो साधन है, पर उपास्य परमशिव हैं। उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना है। "उपासना" और "उपनिषद्" दोनों का अर्थ भी एक ही है। प्रचलित रूप में परमात्मा की प्राप्ति के किसी भी साधन विशेष को "उपासना" कहते हैं।
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व्यवहारिक रूप से किसी व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है उससे वैसी ही उपासना होगी। उपासना एक मानसिक क्रिया है। उपासना निरंतर होती रहती है। |मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है।
उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है| मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है| योगसूत्रों में एक सूत्र आता है -- "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें|
अपने परम शिवत्व की अभिव्यक्ति करना ही उपासना का लक्ष्य है। गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं। अतः ओंकार का ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ उपासना है।
इस की एक विधि है जिसकी मैं पूर्व में कई बार चर्चा कर चुका हूँ। आवश्यकता होगी तो फिर लिखूंगा।
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०२४

जिनमें भक्ति विकसित नहीं हुई है इसमें उनका दोष नहीं है, उन्हें कुछ जन्मों तक और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ----

जिनमें भक्ति विकसित नहीं हुई है इसमें उनका दोष नहीं है, उन्हें कुछ जन्मों तक और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तब तक वे अच्छे कर्म करें। जब अनेक जन्मों के अच्छे कर्म फलीभूत होंगे तब भक्ति पल्लवित होगी। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, वह सदा गतिशील है।

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समाज के जो लोग बिना किसी अपराध के मुझे निंदा और गालियों से विभूषित करते हैं, जो मेरे साथ छल करते हैं, उनका भी कल्याण हो। मेरा किसी से कोई द्वेष नहीं है। मेरा जीवन भगवान को पूर्णतः समर्पित है। मेरा कर्मयोग भगवान का प्रकाश निरंतर फैलाना है। मुझे अपना उपकरण बनाकर भगवान स्वयं यह कार्य कर रहे हैं। गीता में वे कहते हैं --
"ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२:६॥"
"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२:७॥"
"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥१२:८॥"
"अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥१२:९॥"
"अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि॥१२:१०॥"
अर्थात् -- परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं॥
हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ॥
तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है॥
हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो॥
यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे॥
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मनन और निदिध्यासन के साथ साथ भगवान से उनके अनुग्रह के लिए प्रार्थना भी करें। आइये कुछ देर भगवान का ध्यान करते हैं --
"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्। पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्। कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥"
"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनं, देवकी परमानन्दं कृष्णम वन्दे जगतगुरुम्॥"
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हमारे मोहल्ले की अनेक भक्तिमती माताएँ प्रातः ५.१५ बजे से हरिःकीर्तन करती हुई एक घंटे तक प्रभात-फेरी निकालती है। उनकी प्रभात-फेरी अभी अभी समाप्त हो रही है। उन सब माताओं को मैं प्रणाम करता हूँ।
अंत में परमशिव को नमन करता हूँ, जिन्होंने इस आयु (७५ वर्ष) में भी मुझे अपनी भक्ति से वंचित नहीं किया है, और मेरा मन अपने में लगा रखा है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२२

अपने आराध्य इष्ट देव की छवि को आत्म-भाव से कूटस्थ में सदा अपने समक्ष रखें ---

अपने आराध्य इष्ट देव की छवि को आत्म-भाव से कूटस्थ में सदा अपने समक्ष रखें। जब भूल जायें तब याद आते ही पुनश्च उनका स्मरण और आंतरिक दर्शन प्रारम्भ कर दें।

पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव की छवि मेरे समक्ष कूटस्थ सूर्य-मण्डल में निरंतर बनी रहती है। उनका जपमंत्र भी निरंतर स्वतः ही चलता रहता है। वे ही परमशिव हैं, वे ही जगन्माता हैं, व वे ही श्रीराम और श्रीकृष्ण हैं।
मैं तो एक निमित्त साक्षी मात्र हूँ। भगवान आपनी साधना स्वयं कर रहे हैं। गीता में बताये हुये भक्तियोग को समझने और उसका पालन करने से -- कर्मयोग और ज्ञानयोग बहुत आसानी से समझ में आ जाता है। गीता का भक्तियोग बहुत व्यापक, स्पष्ट, विलक्षण और समझने में थोड़ा कठिन है। यह इतना सरल नहीं है। इसको सीखने के लिए परमप्रेम, एकाग्रता, उत्साह, लगन और खूब साधना चाहिए। ४ दिसंबर २०२२

अनन्य भाव से भक्ति ---

 अनन्य भाव से भक्ति ---

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भगवान को अपने हृदय का पूर्ण प्रेम दो और उनसे सिर्फ उनका प्रेम माँगो। उनका प्रेम मिल गया तो सब कुछ मिल गया। अन्य कुछ मांगना -- एक व्यापार है। प्रेम करोगे तो प्रेम मिलेगा ही। उनका प्रेम मिल जाएगा तो सब कुछ मिल जाएगा।
गीता की विलक्षणता -- अनन्य भाव से भक्ति है, जिसे हम उनकी कृपा से ही समझ सकते हैं। परमात्मा के अतिरिक्त किसी दूसरे का भाव (अपने अहं का भी नहीं) मन में न लाना ही अनन्य भाव कहलाता है। गीता के अनुसार अनन्य भक्ति से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। भगवान कहते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् -- अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥"
(इस श्लोक की अनेक स्वनामधन्य महान भाष्यकारों ने बहुत विस्तृत टीकाएँ लिखी हैं)
भगवान कहते हैं --
"चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥७:१६॥"
"तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥७:१७॥"
अर्थात् - हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन:) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं॥
उनमें भी मुझ से नित्ययुक्त, अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है॥
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भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा॥१३:१२॥"
अर्थात् - मेरे में अनन्ययोग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहनेका स्वभाव होना और जन-समुदायमें प्रीतिका न होना।
अध्यात्मज्ञान में नित्यत्व अर्थात् स्थिरता तथा तत्त्वज्ञान के अर्थ रूप परमात्मा का दर्शन, यह सब तो ज्ञान कहा गया है, और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है॥
(ये दो श्लोक समझने में कठिन हैं। इनके भाष्यों का स्वाध्याय कीजिये, या किन्हीं गीता मनीषी महात्मा के चरणों में बैठकर इनका विस्तृत अर्थ समझिए।)
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सार की बात यह है कि भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी हृदय में नहीं होना चाहिए।
(इसे मैं वेदान्त के दृष्टिकोण से नहीं समझाऊंगा, क्योंकि उसकी सार्वजनिक चर्चा का निषेध है। वेदान्त का विषय सिर्फ संत, महात्माओं, त्यागी, तपस्वी और विरक्तों के लिए ही है; संसारी व्यक्तियों के लिए नहीं। बहुत कम लोग ही अपवाद होते हैं।)
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
४ दिसंबर २०२२