(Amended & Re-Posted) हमारी उपासना (जिसमें ध्यान और जप दोनों आते हैं) का स्वरूप तेलधारा के प्रवाह की तरह अखंड क्यों होना चाहिये?
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वर्षों पूर्व इस विषय पर मैं लगभग चार लेख लिख चुका हूँ। लेकिन तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है, और मेरे विचारों में भी बहुत अधिक परिपक्क्वता आयी है, जिसके कारण अब एक नये संशोधित लेख की आवश्यकता है। हमारे विचार का विषय है -- (१) 'उपासना' क्या है? (२) यह 'तैलधारा' के समान अखंड क्यों होनी चाहिए?
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जब हम एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालते हैं, तब तेल की धार टूटती नहीं है, अखंड रहती है। वैसी ही अखंड हमारी उपासना होनी चाहिए। यह बीच बीच में टूटे नहीं। इसी की साधना हमें करनी पड़ती है।
उपासना का शाब्दिक अर्थ है -- समीप बैठना। हमें किसके समीप बैठना चाहिए? मेरी चेतना में एक ही उत्तर है -- परमब्रह्म परमात्मा के। उपासना के समय हमें अभ्यास करना चाहिए कि परमब्रह्म परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई विचार हमारी चेतना में आये ही नहीं। यहाँ यह भी विचार करेंगे कि परमात्मा के किस स्वरूप का हमें ध्यान करना चाहिए, क्योंकि सारे स्वरूप परमात्मा के ही हें।
आचार्य शंकर के अनुसार -- "उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समान वृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को 'उपासना' कहते हैं"। (गीता १२.३ शांकर भाष्य)। यहाँ उन्होंने 'तैलधारा' शब्द का प्रयोग किया है जो अति महत्वपूर्ण है। तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों का प्रवाह क्या हो सकता है? पहले इस पर विचार करना होगा।
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योगियों के अनुसार ध्यान साधना में जब प्रणव यानि अनाहत नाद की ध्वनी सुनाई देती है तब वह तैलधारा के सदृश होती है। प्रयोग के लिए एक बर्तन में तेल लेकर उसे दुसरे बर्तन में डालिए। जिस तरह बिना खंडित हुए उसकी धार गिरती है, वैसे ही अनाहत नाद यानि प्रणव की ध्वनी ध्यान में हमें सुनायी देती है। प्रणव को परमात्मा का वाचक यानि प्रतीक कहा गया है। |
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समानवृत्ति क्या हो सकती है? जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका अर्थ है श्वास-प्रश्वास और वासनाओं की चेतना से ऊपर उठना। चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है। अतः समानवृत्ति शब्द का यही अर्थ हो सकता है। यहाँ "उपासना" का अर्थ -- हर प्रकार की चेतना से ऊपर उठकर ओंकार यानि अनाहत नाद की ध्वनी को सुनते हुए उसी में लय हो जाना है। मेरी सोच के अनुसार यह सर्वव्यापी ओंकार की ध्वनि और इसके साथ दिखाई देती निरंतर विस्तृत ज्योति ही 'कूटस्थ ब्रह्म' है।
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ईश्वर की कृपा से कूटस्थ ज्योति जो हमें अति चमकीले श्वेत पंचमुखी नक्षत्र के रूप में दिखायी देती है, उसका भी भेदन करना पड़ता है। ईशावास्योपनिषद का यह मंत्र संभवतः इसी बारे में प्रार्थना करता है --
"हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥"
कूटस्थ ज्योति का भी भेदन कर उससे भी परे जाना पड़ता है, तभी सत्य का बोध होता है। ओंकार तो परमशिव का वाचक यानि प्रतीक मात्र है जिस पर हम ध्यान करते हैं। हमारी साधना का उद्देश्य तो परमशिव की प्राप्ति है। उपासना तो साधन है, पर उपास्य परमशिव हैं। उपासना का उद्देश्य उपास्य के साथ एकाकार होना है। "उपासना" और "उपनिषद्" दोनों का अर्थ भी एक ही है। प्रचलित रूप में परमात्मा की प्राप्ति के किसी भी साधन विशेष को "उपासना" कहते हैं।
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व्यवहारिक रूप से किसी व्यक्ति में कौन सा गुण प्रधान है उससे वैसी ही उपासना होगी। उपासना एक मानसिक क्रिया है। उपासना निरंतर होती रहती है। |मनुष्य जैसा चिंतन करता है वैसी ही उपासना करता है।
उपासक को सर्वदा सत्संग करना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में कुसंग का त्याग करना चाहिए क्योंकि संगति का असर पड़े बिना रहता नहीं है| मनुष्य जैसे व्यक्ति का चिंतन करता है वैसा ही बन जाता है| योगसूत्रों में एक सूत्र आता है -- "वीतराग विषयं वा चित्तः", इस पर गंभीरता से विचार करें|
अपने परम शिवत्व की अभिव्यक्ति करना ही उपासना का लक्ष्य है। गीता और सारे उपनिषद ओंकार की महिमा से भरे पड़े हैं। अतः ओंकार का ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ उपासना है।
इस की एक विधि है जिसकी मैं पूर्व में कई बार चर्चा कर चुका हूँ। आवश्यकता होगी तो फिर लिखूंगा।
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हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ दिसंबर २०२४