Thursday 2 February 2017

ध्यान साधना (भाग - 1) ---

ध्यान साधना (भाग - 1) ---
(यह लेख सिर्फ उन उन्नत ध्यान साधकों के लिए है जिनके ह्रदय में प्रभु को समर्पित होने यानि उपलब्ध होने की गहन अभीप्सा और भक्ति है)
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संधिक्षणों में की गयी साधना "संध्या" कहलाती है|
जब साँस दोनों नासिकाओं से चल रही हो वह ध्यान का सर्वश्रेष्ठ समय है|
उन्नत साधक को नासिका से चल रही साँस के प्रति सजग ना होकर मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी में चल रही प्राण ऊर्जा के प्रति सजग होना चाहिए| साँस जब अन्दर जाती है उस समय एक शीत लहर मूलाधार चक्र से उठकर आज्ञा चक्र तक जाती है| साँस बाहर आती है तब एक उष्ण लहर आज्ञा चक्र से मूलाधार तक पुनरागमन करती है| वही असली साँस हैं| नाक से ली जा रही साँस तो उसकी प्रतिक्रया मात्र है|
ध्यान से पूर्व सूर्य नमस्कार जैसे कुछ व्यायाम, तीन चार बार महामुद्रा और पंद्रह बीस बार अनुलोम-विलोम प्राणायाम आदि कर लेने चाहियें इससे पञ्च प्राणों में सामंजस्य भी रहेगा और साँस दोनों नासिकाओं से भी चलती रहेगी|

ध्यान की विधी .........
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कम्बल के ऊनी आसन पर एक रेशमी वस्त्र बिछा कर स्थिर होकर सुख से बैठिये| मुख पूर्व या उत्तर दिशा में हो, कमर सीधी हो| दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर रहे| आवश्यकता हो तो नितम्बों के नीचे एक पतली गद्दी रख लें ताकि कमर सीधी रहे|
अपनी आँखें बंद करें और अपने ह्रदय में उस परम प्रेम को जागृत करे जो अधिक से अधिक आप किसी के लिए भी कर सकते हो| उस प्रेम को आप अपनी देह के कण कण में अनुभूत करें| अब उस प्रेम की अनुभूति का विस्तार करते हुए उसमें अपने परिवार, मित्रगण, और सभी को सम्मिलित कर लें| धीरे धीरे अपने नगर, सम्पूर्ण भारतवर्ष, पूरी पृथ्वी, समस्त सृष्टि और सम्पूर्ण ब्रह्मांड को उस प्रेम के वृत्त में सम्मिलित कर लें| सारी आकाश गंगाएँ और जो कुछ भी सृष्ट और असृष्ट है, सम्पूर्ण अस्तित्व को उस प्रेम में सम्मिलित कर लें जिसके बाहर कुछ भी नहीं है|
सम्पूर्ण अस्तित्व उस प्रेम के घेरे में तैर रहा है| उससे बाहर कुछ भी नहीं है|
यह सर्वव्यापी प्रभु का प्रेम है जिसका ध्यान करें| अपने आप को, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को उस प्रेम में अर्पित कर दें| आप यह देह नहीं, बल्कि वह प्रेम हैं| बीच बीच में कभी कभी आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और यह भाव करें कि आप यह देह नहीं बल्कि वह सर्व व्यापी प्रेम हैं| मन इधर उधर भागे तो बलात उसे बापस ले आएँ| अपने आप को उस प्रभुप्रेम में समर्पित कर दें|
जो भी प्रकाश दिखे उसे दिखने दो, जो भी ध्वनी सुने उसे सुनने दो| दृष्टी भूमध्य में स्थिर रहे और चेतना सर्वव्यापी प्रभु प्रेम में स्थिर रहे| जब साँस स्वाभाविक रूप से अन्दर जाए तो मानसिक रूप से जप करो ... "सो.....", बाहर आये तो .... "हं......" | इसका अर्थ है --- "मैं वह हूँ"|
"हं..." "सः..." या "हौं.." "सः..."भी जप सकते हैं, अर्थ और भाव एक ही हैं|
साँस स्वतः जितनी भी देर रुक जाये रुक जाने दो, चलनी प्रारंभ हो जाए तो हो चलने दो|
यह देह तो एक उपकरण मात्र है, आप तो हैं ही नहीं, साँस लेना और छोड़ना तो स्वयं भगवान ही कर रहे हैं, आप नहीं| इसी को अजपा-जप कहते हैं|
भगवान श्रीकृष्ण कि बंसी की ध्वनी प्रणव यानि ओंकार के रूप में अनाहत नाद की ध्वनी सुननी आरम्भ हो जाए तो साथ साथ उसे भी सुनते रहो| चैतन्य में ॐ ... का जाप भी करते रहो|
आप मुझसे पूछ सकते हैं कि इतने काम एक साथ कैसे करें?
वैसे ही करें जैसे साइकिल चलाते समय पैडल भी चलाते है, हैंडल भी पकड़ते हैं, ब्रेक पर अंगुलियाँ भी रखते हैं, सामने भी देखते हैं और याद भी रखते हैं कि कहाँ जाना है, आदि आदि|
यह सर्वव्यापक प्रेम ही कृष्ण चैतन्य है| उनकी बंसी की ध्वनि ही समस्त सृष्टि का निर्माण, पालन-पोषण और संहार कर रही है| उनके प्रेम की जिस शक्ति ने पूरी सृष्टि को धारण कर रखा है वे श्रीराधा जी हैं| सारी सृष्टि उनका एक संकल्प मात्र है| समस्त अस्तित्व उनका ही है, वे ही वे हैं, हम और आप नहीं|
ह्रदय के प्रेम से आरम्भ करते है और सर्वव्यापी अनंत प्रेम रूपी कृष्ण चैतन्य में स्थित रहते है| वही हमारा अस्तित्व है| उसका ध्यान जब भी जितनी भी देर तक नियमित रूप से कर सकें करें| उसका इतना चिंतन करें कि आपका चिंतन उनको हो जाए|
वे ही विष्णु हैं, वे ही नारायण हैं और वे ही परम शिव हैं|
ध्यान के पश्चात तुरंत उठें नहीं, खूब देर तक उनके आनंद की अनुभूति करें| हर समय उनकी स्मृति रखें| उनका त्रिभंग मुरारी विग्रह सदा भ्रूमध्य में (यानि कूटस्थ में) रहे|
सब का कल्याण हो|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय|
ॐ ॐ ॐ ||
=सावशेष =
(अगला भाग कुछ दिनों के पश्चात प्रस्तुत करूंगा)
कृपाशंकर

परमात्मा यदि है तो मेरे ह्रदय में ही है, अन्यथा कहीं भी नहीं है.,,,,,

परमात्मा यदि है तो मेरे ह्रदय में ही है, अन्यथा कहीं भी नहीं है.,,,,,
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यह शत-प्रतिशत सत्य है कि भगवान् यदि कहीं हैं तो वे मेरे ह्रदय में ही हैं, उससे बाहर कहीं भी नहीं हैं| आप पूछेंगे कि क्या भगवान पर तुम्हारा एकाधिकार है, तो मेरा उत्तर है .... निःसंदेह, एकाधिकार ही नहीं पूर्णाधिकार है| वे मेरे ह्रदय में बंद हैं और सात-सात तालों के भीतर बंदी हैं| बाहर निकलने का कोई अन्य मार्ग ही नहीं है| बाहर वे अब आ ही नहीं सकते| अपनी इच्छा से ही वे मुझ में हृदयस्थ होकर बाँके हो गए हैं| सातों ताले भी उन्होंने ही लगवा दिये हैं और बाहर आने की उनकी इच्छा भी नहीं है| वहीं से वे मजे से अपनी बांसुरी बजा रहे हैं जिसकी धुन पर यह सम्पूर्ण सृष्टि चैतन्य यानि जीवंत होकर नृत्य कर रही है| मैं भी उस मधुर धुन में विभोर होकर मस्त हूँ| अब और क्या चाहिए? सब कुछ तो मिल गया|
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यह सम्पूर्ण समष्टि ही मेरा ह्रदय है और कूटस्थ चैतन्य ही मेरा अस्तित्व जिसमें यह सम्पूर्ण समष्टि भी समाहित है| हे सच्चिदानंद, तुम्हारी जय हो| तुम्हीं शिव हो, तुम्हीं विष्णु हो, तुम्हीं जगन्माता हो, और तुम्हीं सर्वस्व हो| ॐ ॐ ॐ ||
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आप सब मेरी ही निजात्मा हो, आपका ह्रदय भी मेरा ही ह्रदय है| आप में और मुझ में कोई भेद नहीं है| सप्रेम सादर नमन| ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव शिव शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.१० वि.स.२०७२, 03फरवरी2016

मनुष्य के भाव और उसके सोच-विचार ही उसके पतन के कारण हैं .....

मनुष्य के भाव और उसके सोच-विचार ही उसके पतन के कारण है, कोई अन्य कारण नहीं हैं| बचपन से अब तक यही सुनते आये हैं कि कामिनी-कांचन ही मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति में बाधक हैं| पर यह आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं| जैसे एक पुरुष एक स्त्री के प्रति आकर्षित होता है वैसे ही एक स्त्री भी पुरुष के प्रति होती है, तो क्या स्त्री की प्रगति में पुरुष बाधक हो गया?
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कांचन के बिना यह लोकयात्रा नहीं चलती| मनुष्य को भूख भी लगती है, सर्दी-गर्मी भी लगती है, बीमारी में दवा भी आवश्यक है, और रहने को निवास की भी आवश्यकता होती है| हर क़दम पर पैसा चाहिए| जैसे आध्यात्मिक दरिद्रता एक अभिशाप है वैसे ही भौतिक दरिद्रता भी एक महा अभिशाप है| वनों में साधू-संत भी हिंसक प्राणियों के शिकार हो जाते हैं, उन्हें भी भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और बीमारियाँ लगती है, उनकी भी कई भौतिक आवश्यकताएँ होती हैं, जिनके लिए वे संसार पर निर्भर होते हैं| पर जो वास्तव में भगवान से जुड़ा है, उसकी तो हर आवश्यकता की पूर्ति स्वयं भगवान करते हैं|
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कामिनी बंधनकारक नही है| विद्यारण्य स्वामी के अनुसार एक स्त्री को कामी पुरुष काम-संकल्प से देखता है, कुत्ता कुछ खाने को मिल जाएगा इस लोभ से देखता है, ब्रह्मविद अनासक्ति के भाव से देखता है, और एक भक्त उसे माता के रूप में देखता है|
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मनुष्य की कल्पना मनुष्य की ही सृष्टि है जो बाधक है, ईश्वर की सृष्टि नहीं| यदि ईश्वर की सृष्टि बाधक होती तो सभी को बंधनकारक होती| अतः अपने विचारों पर और अपने भावों पर ही नियंत्रण रखें, ईश्वर की सृष्टि को दोष न दें|
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एक आदमी एक महात्मा के पास गया और बोला कि मुझे संन्यास चाहिए, मैं यह संसार छोड़ना छाह्ता हूँ| महात्मा ने इसका कारण पूछा तो उस आदमी ने कहा कि मेरा धन मेरे सम्बन्धियों ने छीन लिया, स्त्री-पुत्रों ने लात मारकर मुझे घर से बाहर निकाल दिया, और सब मित्रों ने भी मेरा त्याग कर दिया, अब मैं उन सब का त्याग करना चाहता हूँ| महात्मा ने कहा कि तुम उनका क्या त्याग करोगे, उन्होंने ही तुम्हे त्याग दिया है|
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भौतिक समृद्धि ...... आध्यात्मिक समृद्धि का आधार है| एक व्यक्ति जो दिन-रात रोटी के बारे में ही सोचता है , वह परमात्मा का चिंतन नहीं कर सकता| पहले भारत में बहुत समृद्धि थी| एक छोटा-मोटा गाँव भी हज़ारों साधुओं को भोजन करा सकता था और उन्हें आश्रय भी दे सकता था| पर अब वह परिस्थिति नहीं है|
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सबसे महत्वपूर्ण तो व्यक्ति के विचार और भाव हैं, उन्हें शुद्ध रखना भी एक साधना है| मनुष्य के भाव और उसके सोच-विचार ही उसके पतन का कारण है, कोई अन्य कारण नहीं| धन्यवाद, मेरी इस प्रस्तुति को पढने के लिए| आप में हृदयस्थ श्रीहरि को नमन!
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव शिव शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

प्रभु से प्रेम करो ....

प्रभु से प्रेम करो, प्रभु से प्रेम करो, प्रभु से प्रेम करो, और सिर्फ प्रभु से प्रेम करो .....
वो जो हमारी आँखों से देख रहा है, वो जो हमारी देह को चला रहा है, वो जो हमारे दिल में धड़क रहा है, जब धड़कना बंद कर देगा तो बाकी के सब प्रेम समाप्त हो जायेंगे| हमारा घर-परिवार, धन-संपत्ति, यार-दोस्त, सगे-संबंधी यहाँ तक कि यह पृथ्वी भी किसी काम नहीं आएगी| वह कौन है जो जन्म से पूर्व हमारे साथ था, और मृत्यु के पश्चात भी साथ रहेगा, जो कभी साथ नहीं छोड़ेगा| उस प्रेमियों के प्रेमी से परिचय, मित्रता और प्रेम करना ही सार्थक है|
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जैसे एक पक्षी किसी वृक्ष की टहनी के सिरे पर बैठा चीं चीं करता है...... भयानक आँधी में भी और टहनी टूटने पर भी घबराता नहीं है| उसकी चीं चीं चलती रहती है क्योंकि उसे भरोसा टहनी का नहीं है जिसके ऊपर वह बैठा है, उसे भरोसा है अपने पंखों पर जो उसकी देह के ही भाग हैं| वैसे ही हम सभी को संसार के मध्य रहते हुए भी सच्चा भरोसा परमात्मा पर ही रखना चाहिए, जो सदा-सर्वथा हमारे साथ हैं|
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परमात्मा से सम्बन्ध बना रहे, इसके लिये नियमित साधना की आवश्यकता होती है| मन लगे या न लगे, नियमित साधना का उत्साह बना रहना चाहिए|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव शिव शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
माघ कृ.९ वि.स.२०७२, 02फरवरी2016

क्या अन्धकार और प्रकाश एक साथ रह सकते हैं ? ....

क्या अन्धकार और प्रकाश एक साथ रह सकते हैं ? .....
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अन्धकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते| सूर्य और रात्री भी एक साथ नहीं रह सकते| यह जीवन दो शक्तिशाली चुम्बकीय ध्रुवों .... राम और काम ..... के मध्य की द्वन्द्वमय अंतर्यात्रा है| दोनों के प्रबल आकर्षण हैं| एक शक्ति हमें राम की ओर यानि परमात्मा की ओर खींच रही है, वहीँ दूसरी शक्ति हमें काम की ओर यानि सान्सारिक भोग-विलास की ओर खींच रही है| हम दोंनो को एक साथ नहीं पा सकते| हम को दोनों में से एक का ही चयन करना होगा| भूमध्य रेखा से हम उत्तरी ध्रुव की ओर जाएँ तो दक्षिणी ध्रुव उतनी ही दूर हो जाएगा, और दक्षिणी ध्रुव की ओर जाएँ तो उत्तरी ध्रुव उतनी ही दूर हो जाएगा| दोनों स्थानों पर साथ साथ नहीं जा सकते|
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भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरसते हैं ....
वह है हमारे ह्रदय का पूर्ण प्रेम| प्रभु भी प्रतीक्षा कर रहे है कि संभवतः कभी तो हम अपना प्रेम उन्हें दे ही देंगे | हम उन्हें अपने प्रेम के अतिरिक्त अन्य दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उन्हीं का है| विषयों के प्रति प्रेम ही हमें परमात्मा से दूर कर रहा है| प्रेम के उच्चतम आदर्श हैं .....श्रीराधा जी और श्रीहनुमान जी| श्रीराधा जी में जो प्रेम भगवान श्रीकृष्ण के लिए था, और श्रीहनुमान जी में जो प्रेम भगवान श्रीराम के प्रति था, उस प्रेम से बड़ा अन्य कुछ भी नहीं है| वैसे प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ कामना हमारी होनी भी नहीं चाहिए|
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प्रार्थना आत्मा की तड़प है प्रभु को पाने की| प्रभु ने हमें भिखारी नहीं बनाया है| हम तो उसके अमृत पुत्र हैं| जो कुछ भी भगवान का है वह स्वतः ही हमारा भी है, उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| हमारे घर कोई भिखारी आये तो हम उसे भिखारी का ही भाग देंगे, पर पुत्र द्वारा माँगने पर अपना सब कुछ दे देते हैं| अतः भगवान का पुत्र ही बन कर रहना श्रेष्ठ है, न कि भीख माँगना|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव शिव शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर