Wednesday 23 June 2021

श्रद्धा और विश्वास हो तो तभी हमारे पर भगवान की कृपा होती है ---

 

एक सत्य जो प्रत्यक्ष और व्यवहारिक रूप से मुझे बहुत देरी से समझ में आया, अब तो वह स्पष्ट हो गया है कि .....
हमें जो कुछ भी जीवन में मिलता है, (चाहे वह परमात्मा की कृपा ही क्यों न हो) ..... स्वयं की "श्रद्धा और विश्वास" से ही मिलता है, न कि किसी अन्य माध्यम से| श्रद्धा और विश्वास हो तो तभी हमारे पर भगवान की कृपा होती है| बाकी अन्य सब जैसे पीर-फकीर, कब्र-मकबरे, व महात्माओं के आशीर्वाद ... बहाने मात्र हैं| उनसे कुछ नहीं मिलता| श्रद्धा, विश्वास और समर्पण ... हमारी पात्रता के मापदंड हैं|
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रामचरितमानस के मंगलाचरण में ही लिखा है ...
"भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ| याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्||"
जिस श्रद्धा एवं विश्वास के बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर के दर्शन नही कर पाते उन श्रद्धा रूपी पार्वती जी तथा विश्वास रूपी शंकर जी को प्रणाम करता हूँ|
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गीता में भगवान कहते हैं ....
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः| ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति||४:३९||"
अर्थात श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है| ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है||
ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२४ जून २०२०

भगवान को पाने का एकमात्र मार्ग "भक्ति" है ---

 

भगवान को पाने का एकमात्र मार्ग "भक्ति" है ---
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गीता में भगवान कहते हैं ...
"भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः| ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्||१८:५५||"
अर्थात् (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ| (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है||
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आचार्य शंकर व स्वनामधन्य अन्य अनेक आचार्यों ने उपरोक्त श्लोक पर बड़ी बड़ी टीकायें की हैं| गीता में कर्म, भक्ति व ज्ञान ... इन तीनों विषयों को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है| मैं उन सभी आचार्यों की वंदना करता हूँ जिन्होनें गीता का संदेश जनमानस को समझाया|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
२४ जून २०२०

अहंकार व ब्रह्मभाव में क्या अंतर है?

 अहंकार व ब्रह्मभाव में क्या अंतर है?

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स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना अहंकार है| शरीर के धर्म हैं ..... भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि| मन का धर्म है राग-द्वेष, मद यानि घमंड आदि| चित्त का धर्म है वासनाएँ| प्राणों का धर्म है शक्ति और बल| इन सब को अपना समझना अहंकार है|
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ब्रह्मभाव एक अनुभूति का विषय है जिसे सिर्फ सात्विक बुद्धि से ही समझा जा सकता है| परमात्मा सर्वव्यापक हैं| उनकी सर्वव्यापकता के साथ एक होने का बोध ..... ब्रह्मभाव है| यह अनुभूति गहन ध्यान में सभी साधकों को होती है|
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आत्मा का धर्म है ... परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम (भक्ति)| यही हमारा सही धर्म है| जब परमात्मा के प्रति भक्ति जागृत होती है, तब अभीप्सा का जन्म होता है| यहीं से आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ होता है| भगवान तब गुरु रूप में मार्गदर्शन भी करते हैं, और अनुभूतियों के द्वारा हमें प्रोत्साहित भी करते हैं| उन अनुभूतियों के पश्चात ही हम ..... शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ..... कह सकते हैं| यह कोई अहंकार की यात्रा (Ego trip) नहीं बल्कि हमारा वास्तविक अंतर्भाव होता है| अहं ब्रह्मास्मि यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२३ जून २०२०