Thursday, 15 March 2018

हमें भी इन भव बंधनों से मुक्त करो .....

पतंग उड़ता है, उड़ते ही रहना चाहता है, पर उसके पीछे एक डोर बंधी रहती है जो उसे खींच कर बापस ले आती है| वैसे ही हर आध्यात्मिक साधक साधनाकाल की अनुभूतियों में ही रहते हुए और भी आगे की अनंतता में जाना चाहता है, पर उसके प्रारब्ध कर्मफलों की डोर उसे खींच कर बापस ले आती है| वह असहाय हो जाता है| इन प्रारब्ध कर्मफलों से मुक्त तो भगवान की परम कृपा ही कर सकती है| भगवान का अनुग्रह ही हमें मुक्त कर सकता है, अन्य कुछ नहीं| वे भक्तवत्सल भगवान करुणावश हमें भी इन बंधनों से मुक्त करें|

उन्हें प्रेम डोरी से हम बाँध लेंगे, तो फिर वो कंहाँ भाग जाया करेंगे |
उन्होंने छुड़ाए थे गज के वो बंधन, वही मेरे संकट मिटाया करेंगे ||
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१५ मार्च २०१८

वैराग्य का मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है, हर कोई उस पर नहीं चल सकता .....

वैराग्य का मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है, हर कोई उस पर नहीं चल सकता .....
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गत जीवन का सिंहावलोकन करने पर पाता हूँ कि मेरी मुमुक्षा "मध्यम मुमुक्षा" ही थी| जीवन का परम ध्येय स्थिर हो जाने पर भी विरक्त होने का कभी साहस नहीं जुटा पाया, यह एक बहुत बड़ी कमी थी| परमात्मा को कभी पूर्णतः समर्पित हो ही नहीं पाया| वास्तव में वैराग्य का मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है, जिस पर हर कोई नहीं चल सकता| यह वैराग्य का मार्ग ही सब बंधनों से मुक्त कर सकता है| बंधनों से मुक्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है| अपनी कमी को ढकने के लिए हम तरह तरह के बहाने बनाते हैं, जो गलत हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१६ मार्च २०१८

अहंभाव से मुक्त ब्रह्मज्ञ की महिमा ......

अहंभाव से मुक्त ब्रह्मज्ञ की महिमा ......
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को कहते हैं ....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते" ||१८:१७||
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न (पाप से) बँधता है|
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ऐसा ही उपदेश ऋषि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को दिया था, जिसकी दक्षिणा स्वरुप राजा जनक ने अपना सारा राज्य और यहाँ तक कि स्वयं को भी अपने गुरु ऋषि याज्ञवल्क्य के श्रीचरणों में अर्पित कर दिया था|
श्रुति भगवती कहती हैं .....


(बृहदारण्यक उपनिषद, अध्याय ४, ब्राह्मण ४, श्लोक संख्या २३) .... "तदेतदृचाभ्युक्तम् | एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न वर्धते कर्मणा नो कनीयान् | तस्यैव स्यात्पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेनेति | तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति नैनं पाप्मा तरति सर्वं पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तपति सर्वं पाप्मानं तपति विपापो विरजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवत्येष ब्रह्मलोकः सम्राडेनं प्रापितोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि मां चापि सह दास्यायेति || २३ ||

भावार्थ :-- ब्रह्मज्ञ उस ब्रह्म को जानने के पश्चात किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता है| वह शान्त, तपस्वी, विरक्त, सहिष्णु और एकाग्र चित्त होकर आत्मा में ही परमात्मा को देखता है| सब को आत्मवत् देखता है| उस को कोई पाप नहीं छू सकता| वह सब पापों से परे तर जाता है| वह पाप रहित निर्मल संशय रहित ब्राह्मण बन जाता है|
यह ब्रह्मलोक है, सम्राट् ! इस तक आप पहुंच गये हैं|
इस उपदेश को याज्ञवल्क्य से ग्रहण कर राजा जनक ने कहा कि मैं भगवान् के लिए आपको यह समस्त विदेह राज्य देता हूँ, और अपने को भी साथ में देता हूँ|
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यहाँ श्रुति भगवती के वाक्य का सार यह है कि .....
जो ब्रह्म को जान कर प्राप्त कर लेता है कर्म का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता| न उस पर अच्छे कर्म अपना प्रभाव डाल सकते हैं और न बुरे| उस की अवस्था निर्दोष बालक की जैसी हो जाती है| ब्रह्मज्ञ विद्वान् शान्तिमय अन्तर्मुख हो जाता है और अपने आत्मरूप में प्रविष्ट होकर परमात्मा के दर्शन करता है| ऐसा व्यक्ति संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् ही देखा करता है| इस अवस्था में पहुँचकर आत्मा ब्रह्मलोक को प्राप्त करके जीवन मुक्त और शरीर छोड़ने पर मुक्त हो जाता है|
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इतना उदधृत करने के पश्चात और कुछ भी लिखने योग्य इस समय नहीं है| मनुष्य का प्रथम, अंतिम और एकमात्र ध्येय, सर्वप्रथम उस परब्रह्म परमात्मा को ही प्राप्त करना है| अन्य कुछ नहीं| अन्य सब बाद में स्वतः ही जुड़ जाता है| इसी सत्य को जीसस क्राइस्ट ने भी कहा है ... "But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you." {Matthew 6:33 (KJV)}
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हे गुरुरूप ब्रह्म, मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, पूर्णरूपेण आप को समर्पित हूँ| यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूपी अंतःकरण और सारे पाप-पुण्य, बुरे-अच्छे सारे कर्मफल, और सम्पूर्ण अस्तित्व आपको समर्पित हैं| ॐ ॐ ॐ !!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०१८
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पुनश्चः :-- तदाकार वृत्ति और नाद श्रवण का उपासना में बड़ा महत्त्व है. इनके बिना कोई भी आध्यात्मिक साधना सफल नहीं होती. ॐ ॐ ॐ !!

"हिंसा" और "अहिंसा" के मध्य की विभाजन रेखा क्या है? .....

"हिंसा" और "अहिंसा" के मध्य की विभाजन रेखा क्या है? .....
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इसे समझने के लिए एक स्वतंत्र चेतना का होना अनिवार्य है| शब्दों की सीमा में रहते हुए इसे समझा नहीं जा सकता| सामने खड़ा जो किसी को देना चाहे वह उसको यानि देने वाले को स्वतः ही प्राप्त हो जाए, यही हिंसा और अहिंसा के मध्य की विभाजन रेखा है|
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अतिथि देवो भवः | अतिथि जिस कामना से आया है उस कामना को वह स्वयं प्राप्त हो, यही हिंसा और अहिंसा के मध्य का अंतर है| हिंसा और अहिंसा का भाव अतिथि का है, हमारा नहीं| उसकी माँग के अनुसार उसकी आपूर्ति करना हमारा धर्म है| वह हिंसा या अहिंसा जो भी चाहता है उसकी आपूर्ति करने में कोई अधर्म नहीं है|
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यदि कोई मुझे मृत्यु देने आ रहा है, यानि उसने मेरी मृत्यु चाही है, तो उसे मृत्यु देना अहिंसा ही है, क्योंकि उसने मेरी मृत्यु चाही है| जो उसने चाहा है वह ही उसको मिल रहा है| यह कोई हिंसा नहीं, अहिंसा ही है| सीमित परम्पराओं को ढोते हुए हम कब तक उन के दास बने रहेंगे? गुलामी का जीवन हमें स्वीकार्य नहीं होना चाहिए|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०१८

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पुनश्चः :---- यहाँ बात हो रही है हिंसा और अहिंसा के मध्य की विभाजन रेखा की | मेरी एक बहुत पुरानी पोस्ट में मैनें लिखा था कि .... "आत्मका अज्ञान ही सबसे बड़ी हिंसा है" | "कर्ताभाव का अभाव अहिंसा है और कर्ताभाव हिंसा है" |

हमारा वर्तमान जीवन ..... अनंत कालखंड में एक छोटा सा पड़ाव मात्र है .....

हमारा वर्तमान जीवन ..... अनंत कालखंड में एक छोटा सा पड़ाव मात्र है .....
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हे प्रभु, इतनी सामर्थ्य दो कि मैं इस अल्पकाल की तुच्छ चेतना से ऊपर उठकर तुम्हारी अनंतता, प्रेम और सर्वव्यापकता बनूँ| देश काल का कोई बंधन न रहे| मेरी हर कमी आपकी प्रत्यक्ष उपस्थिति से ही दूर होगी| आप का ध्यान ही वास्तविक और एकमात्र सत्संग है| बुरे और नकारात्मक विचार मेंरे सबसे बड़े शत्रु हैं| आप की परम चेतना ही मेरा घर है| मैं सदा आपकी चेतना में ही रहूँ| एक क्षण के लिए भी न भटकूँ|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०१६

अपनी मनोभूमि में कचरा न डालें .....

अपनी मनोभूमि में कचरा न डालें .....
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जब हम कोई सुन्दर फूलों और मनोहारी पौधों का बगीचा लगाते हैं तो उसमें कंकर पत्थर नहीं डालते| बगीचे में जो कंकर पत्थर हैं उनको भी बाहर ही फेंकते हैं| जब कोई अति अति विशिष्ठ अतिथि आता है तब तो उस बगीचे को विशेष रूप से स्वच्छ रखते हैं| हमारी मनोभूमि भी एक बगीचा है जिसमें हम सुन्दर दिव्य विचारों और भावों के पुष्प लगाते हैं| अति अति विशिष्ठ अतिथि परमात्मा को वहाँ निमंत्रित करते हैं तो स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है|
हम क्या पढ़ते हैं, क्या देखते हैं और कैसे लोगों से मिलते हैं इसका प्रभाव हमारे मानस पर पड़े बिना नहीं रहता| आजकल टीवी पर आने वाले अधिकाँश कार्यक्रम और समाचार चैनलों से जो दिखाया और सुनाया जाता है वह एक बौद्धिक कचरे से अधिक नहीं है| कुछ अपवादों को छोड़कर टीवी के समाचार चैनलों पर दिखाए जा रहे उस कचरे से अपने आप को दूर रखो|
आपका बगीचा बहुत सुन्दर है उसमें कचरा डाल कर उसे प्रदूषित ना करें|
धन्यवाद!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१६ मार्च २०१६

स्वयं कि आहुति .....

स्वयं कि आहुति .....
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हो सकता है हमारे सारे पाप और सारे बुरे कर्म हिमालय से भी बड़े हों और प्रशांत महासागर से भी अधिक गहरे हों| पर प्रभु, हम तुम्हारे हैं और निरंतर तुम्हारे ही रहेंगे| अज्ञानतावश कुछ जन्मों से हम मनुष्य योनी में बार बार भटक रहे हैं| पर वास्तव में हम तुम्हारे साथ एक हैं| अब और भटकाव नहीं चाहिए| हमें न तो इन कर्मों से कोई प्रयोजन है और न ही उनके फलों से| इनका होना एक अज्ञानता थी जिसे अब तुम हर रहे हो| वे सब अब तुम्हारे हैं| तुम्हारे साथ एकात्मता से कम कुछ भी नहीं चाहिए| हम नहीं, अब सिर्फ तुम और तुम ही हो| तुम और हम सदा एक हैं और पूरी शाश्वतता में एक ही रहेंगे| स्वयं की आहुति तुम्हारी उपस्थिति की प्रचंड विवेकाग्नि में दे रहे हैं जिसे स्वीकार करो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१६ मार्च २०१६